ज्ञानरंजन की रचनात्मकता का बहुमूल्य दस्तावेज / स्मृति शुक्ला
ज्ञानरंजन हिन्दी के अप्रतिम कथाकार और 'पहल' जैसी विश्व प्रसिद्ध पत्रिका के संपादक हैं। 'पहल' के माध्यम से कवियों, कहानीकारों, आलोचकों और अनुवादकों की पीढ़ियाँ निर्मित करने वाले ज्ञानरंजन के वक्तव्यों, व्याख्याानों, वार्ताओं, संस्मरणों और साक्षात्कारों की पुस्तक 'उपस्थिति का अर्थ' प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल के संपादन में सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। 'उपस्थिति के अर्थ' के पूर्व ज्ञानरंजन का गद्य साहित्य 'कबाड़खाना' शीर्षक से प्रकाशित होकर काफ़ी चर्चित हो चुका है। ज्ञानरंजन एक समर्पित और प्रतिबद्ध रचनाकार हैं। साहित्य जगत में उनकी उपस्थिति के क्या मायने हैं? कहानीकार ज्ञानरंजन, संपादक ज्ञानरंजन या एक महान साहित्यकार के पुत्र ज्ञानरंजन, हजारों बुद्धिजीवी और युवा रचनाकारों के हीरो या ऐसे रहस्य लोक के पितृ-पुरुष जिनको जानने समझने के लिये लाखों पर्युत्सुक निगाहें लगातार उनका पीछा करती हैं इन सभी प्रश्नों का माकूल जबाब है यह पुस्तक। ज्ञानरंजन किन जीवन मूल्यों को लेकर चल रहे हैं, वह कौन-सा परिवेश था जिसमें उनके रचनाकार व्यक्तित्व के स्फुरण और अंकुरण में अनुकूल भूमिका निभाई। धार्मिक साहित्यिक और राजनीतिक सत्ताओं की आम आदमी के खिलाफ जा रही नीतियों के प्रतिरोध का साहस और सच बोलने का माद्दा प्रदान किया, उन्हें प्रश्नाकूल, संवादधर्मी, घनघोर पढ़ाकू, रूढ़ि विरोधी और मानवीय गरिमा और स्वतंत्रता का पक्षधर और जनतांत्रिक बनाया।' उपस्थिति के अर्थ को पढ़कर पाठकों को, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को ज्ञानरंजन के व्यक्तित्व उनके सृजनकर्म और 'पहल' के विषय में मन में उठे सभी सवालों के जबाव मिल जाते हैं। इस पुस्तक में 'कहानी मंच जबलपुर' के वार्षिकोत्सव पर 'नानी की कहानी से आज तक' विषय पर 21 अगसत 1998 को दिया गया वक्तव्य है। जिसमें उन्होंने कहा कि "नानी की कहानियाँ आज भी हैं लेकिन नानियाँ आज मॉडर्न हैं, अंग्रेज़ी बोलती हैं रिश्ते तो ख़त्म हुए नहीं लेकिन जब हम दादी-नानी कहते हैं तो एक ख़ास तरह का चेहरा पुरानी बूढ़ी-रेखाओं से भरी हुई एक पोपले मुँह वाली महिला का चित्र आता है जो हमारे मन में स्थिर हो गया है, उसे तोड़ दीजिए। सभ्यता ने अपनी ही बनाई चीजों को तोड़ा हैं।" यहाँ ज्ञानरंजन ने नानियों के आधुनिक होने की बात कही गई है जो नानी की पुरानी छबि से भिन्न है लेकिन नानी के पास कहानी आज भी है भले ही कहानी का स्वरूप बदल गया हो। आगे इसी वक्तव्य में ज्ञानरंजन ने कहा कि हमारी लोककथाएँ सदियों से वाचिक परंपरा में हमारे साथ रही हैं क्योंकि तब लिपि का विकास नहीं हुआ था। हम स्मृति के सहारे जीवित थे तो कहानियाँ दिलचस्प बनायी जाती थीं धार्मिक नैतिकताओं में पगी हुई बनाई जाती थीं ताकि वह हमारी स्मृति में जीवित रहें। इस पूरे वक्तव्य में ज्ञानरंजन ने कहानी के बहाने से पूरे विश्व इतिहास की और विश्व-साहित्य में पहली दुनिया और तीसरी दुनिया के देशों में कहानी की स्थिति की सघन पड़ताल की है। इंटरनेट पर साहित्य की भी चर्चा की है, लेकिन पुस्तकों की यानी लिखित परंपरा की कहानी की महत्ता को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा कि हमें अपनी विधा पर मास्टरी करना चाहिये। भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता में 'आकाश हम छू रहे हैं, ज़मीन खो रहे हैं' 'ाीर्षक से दिया गया वक्तव्य अनेक अर्थों में अत्यंत मानीखेज है, एक अरसा बीत जाने के बाद भी यह पुराना नहीं हुआ इसका कारण है कि इस वक्तव्य में ज्ञानरंजन ने गाँधी और गाँधीवाद को लेकर जो बातें कहीं हैं वे काफ़ी अर्थपूर्ण और महत्त्वपूर्ण हैं। ये बातें कभी अप्रसांगिक हो ही नहीं सकती। इसी वक्तव्य में ज्ञानरंजन ने अपने समय का ज़िक्र करते हुए कहा है -" उस समय कपड़ों में, वस्तुओं में, दिनचर्याओं में, बाज़ार में, किताबों में, लोगों और लेखकों में अथाह सादगी थी। हम अपना सारा काम ख़ुद करते थे,' ााम होते ही लालटेन का ' ाीशा साफ़ करते थे। खादी भंडार में महीने में दो बार सूत बेचने जाते थे बदले में खादी लाते थे। मेरे माता-पिता देश की आजादी के लिये जेल गये। मेरे बड़े भाई जब पैदा हुए तो मेरी माँ जेल में थी। मेरे माता-पिता ने स्वतंत्रता संग्राम की पेंशन नहीं ली। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि ज्ञानरंजन के माता-पिता ने देश की आजदी के लिये कारावास भोगा लेकिन आजादी के बाद स्वतंत्र भारत में अपनी इस देशभक्ति के लिये कोई पेंशन नहीं ली। यह हमारे समाज के सामने देशभक्ति का एक दुर्लभ उदाहरण है।
जैसा कि हमें ज्ञात है कि ज्ञानरंजन के पिता रामनाथ सुमन जी हिन्दी के महान लेखक थे। उन्होंने गाँधी पर लगभग 15 से अधिक पुस्तकें लिखीं। गाँधी वांग्मय का काम किया। वे छायावाद के प्रबल समर्थक आलोचक थे, विश्व स्तर के अनुवादक थे। जयशंकर प्रसाद पर पहली आलोचनात्मक पुस्तक रामनाथ सुमन जी ने लिखी थी। रामनाथ सुमन की 'ब्लीडिंग उड' और 'जब अंग्रेज गए' जैसी दो महत्त्वपूर्ण किताबें अंग्रेजों द्वारा सेंसर की गई और जब्त की गई। "आत्म प्रचार से दूर रहने वाले महान गाँधीवादी लेखक को हिन्दी साहित्य जगत ने इस क़दर भुला दिया कि गाँधी पर निकाले गये वल्र्ड कैटलॉग में उनकी एक भी पुस्तक नहीं है। ज्ञानरंजन ने इसे साहित्य जगत का अँधेरा माना है। ज्ञानरंजन के घर का वातावरण बिल्कुल आश्रम जैसा था। इसी घर में सच्चाईयों और अच्छाइयों के बीच ज्ञानरंजन का विकास हुआ लेकिन उन्होंने कहा कि" करवट मेरी युवावस्था से 'ाुरू हुई। बेचैनी और भगदड़ बढ़ रही थी। भीतरी विखंडन' ाुरू हुआ। नये साहित्य की ' ाुरूआत हो रही थी। दुनिया भर की खिड़कियाँ खुलने लगी मन मचल रहा था। मन आश्रम से बाहर भागने को होता था। दो धाराएँ फूटी हुई थी। दोनों एक साथ जीवित रहती थी, यह एक मुश्किल अवस्था थी। नये दोस्त और नई किताबें आ रही थीं। यही से अंकुरित हो रहा था जीवन का नया बगीचा।
इन सारी स्थितियों के बीच ज्ञानरंजन की रचना प्रक्रिया उनके विचार और उनका सौन्दर्यबोध बना है। उनके उपर गाँधी युग के आचरण का गहरा असर है और वे आज भी इसको पालते हैं, गाँधी के कुछ विचारों से असहमति के बावजूद। ज्ञानरंजन को अपना 'ाहर इलाहाबाद बहुत प्रिय है। इस इलाहाबाद पर उन्होंने' तारामंडल के नीचे आवारागर्द और 'अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा' 'ाीर्षक से दो संस्मरण भी लिखे हैं और ये संस्मरण साहित्यजगत में काफ़ी लोकप्रिय हुए है। ज्ञानरंजन को अपना' ाहर इलाहाबाद अत्यंत प्रिय है। यह वही शहर है जिस पर कभी ग़ालिब ने लिखा था। ज्ञानरंजन के बचपन और युवावस्था के समय भी यह' ाहर ग़ालिब के संस्मरण में स्मृत किये गये इलाहाबाद की तरह ही सुन्दर था। नीम, बबूल, पाकड़, इमली, पीपल के पेड़ तीन-चौथाई इलाहाबाद में छाये हुए थे। इन्हीं के नीचे खेलते-कूदते और युवा होने पर साहित्यिक चर्चा करते हुए ज्ञानरंजन के कहानीकार रूप का जन्म हुआ। ज्ञानरंजन का कहना है कि "इलाहाबाद साहित्य की राजधानी थी, सत्ता की ऐसी विविधता और लोकतंत्र कहीं नहीं था। तब इलाहाबाद-पेरिस, लंदन और न्यूयार्क की श्रेणी में था।"
उन्नीस साल की उम्र तक ज्ञानरंजन बॉल्टेयर, रैम्बो, नेरूदा, डिलन टॉमस के बाद के अन्य महत्त्वपूर्ण आधुनिक साहित्यकारों को पढ़ चुके थे। इलाहाबाद में उनके घर के पास उपेन्द्रनाथ अश्क, बलवंत सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, शेखर जोशी, अमरकांत, रवीन्द्र कालिया, कमलेश्वर, नरेश मेहता और दूधनाथ सिंह रहते थे। थोड़ी और दूरी पर निराला, महादेवी पंत, अमृत राय,शैलेष मटियानी के रघुवीर सहाय, फिराक गोरखपुरी, धर्मवीर भारती, दुष्यंत कुमार, मार्कंडेय और मलयज के घर थे।
अज्ञेय, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन, शंभुमित्र और इब्राहिम अलकाजी जब-तब इलाहाबाद आते रहते थे। यहीं युवा ज्ञानरंजन ने मुक्तिबोध को अपनी कविता' औरांगउटाँग'का पाठ करते सुना था। इलाहाबाद के इस साहित्यिक वातावरण में ज्ञानरंजन ने अपनी कहानियाँ लिखी। ज्ञानरंजन अपनी विशिष्ट लेखन शैली मारक और सशक्त भाषा में शहरी युवाओं की मानसिकता और मध्यमवर्गीय कुंठाओं को अभिव्यक्त करने वाली कहानियों के कारण अपनी युवावस्था में ही लोकप्रियता के शिखर को स्पर्श कर चुके थे। उनकी पहली कहानी' मनहूस बंगला'ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई थी। मार्कंडेय ने' कथा'पत्रिका में' घंटा', कमलेश्वर ने' फेंस के इधर-उधर 'तथा' पिता'कहानी प्रकाशित की, चन्द्रभूषण तिवारी ने' वाम 'में' अनुभव'प्रकाशित की, भैरव प्रसाद गुप्त ने ' दिवास्वप्नी' प्रकाशित की। धर्मवीर भारती ने पाँच कहानियाँ प्रकाशित कीं। प्रेमचंद के पुत्र श्रीपत राय ने' कहानी' पत्रिका में ज्ञानरंजन की कहानियाँ प्रकाशित की। ज्ञानरंजन की कहानियों ने अपने प्रकाशन के साथ ही आम पाठकों और आलोचकों का ध्यान अपनी ओर खींचा और इन्द्रनाथ मदान, उपेन्द्रनाथ अश्क, नेमिचन्द्र जैन, नामवर सिंह, सुरेन्द्र चैधरी, विश्वनाथ त्रिपाठी, परमानंद श्रीवास्तव और विजय मोहन सिंह जैसे आलोचकों ने ज्ञानरंजन की कहानियों पर लिखा।
ज्ञानरंजन ने भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता में दिये गये एक व्याख्यान में कहा है कि " मेरे जीवन के हर छोटे-बड़े पहलू में एक उदासी अपने आप उपस्थित रही है। ज्ञानरंजन के इस कथन से मुझे मशहूर ' ाायर फैज अहमद फैज की एक नज़्म याद आ रही है जिसमेे फै़ज साहब ने भी अपनी उदासी और उसके कारणों पर बात की है-
क्यूँ मेरा दिल शाद नहीं है
क्यूँ ख़ामोश रहा करता हूँ
छोड़ो मेरी रामकहानी
मैं जैसा भी हूँ अच्छा हूँ
क्यूँ ना जहाँ का ग़म अपना ले
बाद में सब तदबीरें सोचे
हमने माना जंग कड़ी है
सर फूटेंगे, खून बहेगा
खून में ग़म भी बह जायेगें
हम न रहें ग़म भी न रहेगा।
ये पंक्तियाँ ज्ञानरंजन की उदासी के सबब को स्पष्ट करने के लिये एकदम उपयुक्त हैं। बकौल ज्ञानरंजन यह उदासी मेरे भीतर इनबिल्ट है। इस वक्तव्य में ज्ञानरंजन ने अपने समय के महत्त्वपूर्ण सवालों को उठाया है। वे कहते हैं-"हम अपने किसी भी प्रचलित लोकोन्मुख मिथक को, प्रतीक को सकारात्मक अर्थों में विकसित नहीं कर सके और न ही उन्हें फाड़कर उसके प्रकाश को आगे के समय में फेंक सके। मेरा निर्माण नयी दुनिया की पुरानी अवधि में हुआ है और पुरानी दुनिया के साथ मेरा भी अवसान हो गया है। यह अकेला मेरा अवसान नहीं है यह युगांत है।"
'उपस्थिति के अर्थ' में संकलित ज्ञानरंजन के वक्तव्यों और व्याख्यानों में उनकी वैचारिकता, देश और दुनिया को देखने में समर्थ उनकी तीक्ष्ण दृष्टि समाज में फैले पाखंड, विद्वेष, विद्रूप और पूँजी के खेल को देख सकती है और उनकी वाणी अन्याय के विरुद्ध पूरी दम-खम से बोलने का साहस रखती है। साहित्य में हो रही दुरभिसंधियाँ, पुरस्कार की राजनीति आदि पर ज्ञानरंजन बेखटके, बेबाक बोलते हैं। प्रेमचंद सम्मान (31 अक्टूवर 2010 को बाँदा) में दिये वक्तव्य में ज्ञानरंजन ने कहा था कि-"साथियो, धीरे-धीरे पुरस्कारों की दुनिया में एक अनूठा घटाटोप बढ़ रहा है। दुर्भाग्य की बात यह है कि पुरस्कारों के ऐश्वर्य की चपेट में हमारा प्रमुख साहित्य संसार आ गया है। इस पर किसी प्रकार का विचार, चिंता या विराग का कोई चिह्न नहीं है। ये पुरस्कार तटस्थ पारदर्शी, सम्यक, न्यायोचित, शुचितापूर्ण, इतिहास बोध सम्पन्न होने के स्थान पर लगभग ताकतवर कब्जों की गिरफ्त में हैं। जैसे हमारे छोटे' ाहरों के चैरस्ते अवांछितों की मूर्तियों से सज गये हैं। कुछ इसी तरह पुरस्कारों का रेला बढ़ गया है। बढ़ता जा रहा है। पढ़ने-लिखने वाला समाज सिकुड़ रहा है। आगे उन्होंने कहा है कि कभी-कभी पुरस्कार गहरे आत्मविश्वास और प्रबंधन से भी हासिल कर लिये जाते हैं। संसार के सभी छोटे-बड़े लेखक जो लेखन के प्रति न्यौछावर हैं, प्रतिबद्ध हैं जो एक लम्बे मार्ग पर चल रहे हैं वे पुरस्कार के हकदार हैं। दरअसल ये लेखक उसी दिन पुरस्कृत हो जाते हैं जिस दिन उन्हें लोक प्यार करने लगता है, खोजने लगता है और वे हमारे ख्यालों में बस जाते हैं।"
'उपस्थिति के अर्थ' में ज्ञानरंजन के वक्तव्यों में पूरे विश्व की रचनाशीलता के साथ भारत की रचनात्मकता का समकालीन परिदृश्य, देश और समाज, राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों के साथ काल, इतिहास और संस्कृति की सघन और जीवंत उपस्थिति है। अपने वक्तव्यों में ज्ञानरंजन ने रचनाकारों को समाज में धँसने की प्रेरणा दी है क्योंकि समाज में धँसे बिना तो कहानीकार भाषा की तमीज सीख सकता है और न समाज के ज़रूरी कथ्य को अपनी रचनाओं में ला सकता है। ज्ञानरंजन का मानना है -" केवल छपते जाना ही पर्याप्त नहीं है। नये मुहावरे को जन्म देना, त्रासदी के मध्य डूबना-उतरना और लगभग अकेले पड़ जाना, आवेग, धीरज और श्रम तथा ताज़गी इसके लिये बेहद ज़रूरी है। लघु पत्रिकाओं की राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन अवसर पर ज्ञानरंजन का वक्तव्य लघु पत्र-पत्रिकाओं के संपादन और प्रकाशन की चुनौतियों पर गंभीर दृष्टि डालने वाला है। उन्होंने इसमें कहा है कि हिन्दी की बिरादरी में जो पत्रिकाएँ हैं, वे मिलजुलकर एक विशाल गुएर्निका का निर्माण करती हैं। उसके बीच भी सहमति-असहमति होनी चाहिए तभी हमारा विशाल पत्तल हरा-भरा रहेगा वह बचा रहेगा। वर्तमान समय की चुनौतियाँ और रचनाकार की भूमिका पर भी ज्ञानरंजन ने गंभीर चर्चा की है। दरअसल इन व्याख्यानों में साहित्य के साथ एक पूरी सामाजिक संरचना भी मौजूद हैं। ज्ञानरंजन इन वक्तव्यों को अपनी स्वअर्जित भाषा में इस तरह विन्यस्त करते हैं कि उनके विचारों की सघनता और संवेदनाओं की तरलता पाठक की चेतना के अनिवार्य अंग बन जाती हैं।
ज्ञान गरिमा मानद अलंकरण के अवसर पर (11.2.2017) ज्ञानरंजन ने अपने कहानी न लिखने के कारणों को विस्तार से लिखा है। इसी वक्तव्य मंे उन्होंने 'पहल' के सम्बंध में भी चर्चा की है जिसमें लिखा है कि 'पहल' किसी भी पत्रिका का विकल्प या किसी रचना कर्म का विकल्प नहीं है।
'उपस्थिति का अर्थ में' 'हमारे छोटे से समय का बड़ा 'शीशा' ाीर्षक से मुक्तिबोध पर जो संस्मरण है वह मुक्तिबोध की स्मृति और इलाहाबाद में पहली बार मुक्तिबोध से मिलने की अनुभूति के दृश्यों से निर्मित है। इलाहाबाद का पूरा साहित्यिक माहौल इस संस्मरण में है। इलाहाबाद के साहित्यकार साहित्यिक गुटबाजी, इलाहाबाद से निकलने वाली 'निकष' , 'क ख ग' और नयी कविता जैसी पत्रिकाओं का इसमें ज़िक्र है। ज्ञानरंजन ने लिखा है कि मुक्तिबोध का काव्यपाठ एक खुले लॉन में आयोजित था और हमें उसमें आमंत्रित नहीं किया गया था। तो हम फेंस के बाहर थे और मुक्तिबोध की 'औराँग ऊटाँग' कविता सुन रहे थे। मुक्तिबोध के हाथ में कविता का काग़ज़ काँप रहा था, संभवतः ऐसे भद्रलोक में मुक्तिबोध पहली बार आए थे। वे उबड़-खाबड़ लगते थे। नख-शिख पोशाक कवियों जैसी तो नहीं थी। साधारण थे कुछ-कुछ शमशेर के करीब। वे दिन ऐसे थे जब हिन्दी में मुक्तिबोध का होना लगभग अँधेरे में होने जैसा था। यह नामालूम-सा कवि अपनी भाषा में भूमंडल के अँधेरों को देख रहा था। " इस संस्मरण में ज्ञानरंजन से अपनी कुछ ख़ामोश और कुछ बोलती मुलाकातों का ज़िक्र किया है।
मुक्तिबोध के अंतिम दिनों के शब्दचित्र भी इस संस्मरण में है। एम्स और सफदगंज का चैराहा भी इस संस्मरण में अपने समय के साथ मूर्त है। प्रभाकर माचवे, नेमिचन्द्र जैन,शमशेर, प्रेमलता, श्रीकांत वर्मा, कमलेश, अशोक वाजपेयी, शीला संधू सभी का ज़िक्र इस संस्मरण में है।' चाँद का मुँह टेढ़ा है' संकलन के प्रकाशन की तैयारी और प्रसिद्ध चित्रकार रामकुमार द्वारा इसके मुख पृष्ठ की डिजायन बनाना और अर्धचैतन्य से लेटे हुए मुक्तिबोध को दिखाना ये सारी दृश्यावलियाँ इस संस्मरण को जीवंत बना देती है।
आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित एक संस्मरण जिसका शीर्षक छोटी-छोटी पत्तियों से बनी स्मृतियाँ एक टहनी'अपने आप में एक सुन्दर कविता की पंक्ति लगती है। ज्ञानरंजन के संस्मरणों के शीर्षकों को साहित्य जगत में बहुत पसंद किया गया क्योंकि ये अद्भुत और अपूर्व होते हैं।
इस पुस्तक में समकालीन कविता के शिखर कवि केदारनाथ सिंह की कविता पर एक गहरा आलोचनात्मक लेख तथा रंगकर्मी निर्देशक और कवि अलखनंदन की मृत्यु पर लिखा गया गहरी उदासी से भरा संस्मरण है। यह संस्मरण अलखनंदन की स्मृतियों के बहाने से पिछले चार दशकों के रंगकर्म की सघन पड़ताल करता है।
'उपस्थिति का अर्थ' के फ्लैप पर मंगलेश डबराल ने ज्ञानरंजन की कहानियों के सम्बंध में लिखा है-उनकी कहानियों ने पिछली सदी के सत्तर के दशक में मध्यवर्ग के व्यवहारों का जो बेमिसाल संधान जैसी तोड़-फोड़ करती और नया विन्यास रचती भाषा में किया था, उसकी समृति हिन्दी साहित्य के कैनवस पर अमिट है और एक प्रचलित मुहावरे में कहें, तो ज्ञान 'भारतीय साहित्य के निर्माता का दर्जा पा चुके हैं। उनके संपादन में' पहल' आज तक इस महाद्वीप की ज़रूरी किताब बनी हुई है। उनका यह जादू कहानी से इतर संस्मरण, साक्षात्कार व्याख्यान और वक्तव्य जैसी विधाओं में भी वहीं जगमगाहट लिये होता है। "
प्रसिद्ध कथाकार राजेन्द्र दानी को 'आजकल' पत्रिका के लिये दिये एक साक्षात्कार में ज्ञानरंजन ने बताया था कि 'पिता' कहानी मैंने एक निर्जन पर्वतीय गाँव गेठिया में रह कर लिखी थी। गाँव में रोशनी नहीं थी। युवकों के लिए एक छोटा-सा सेनेटेरियम भर था। भारत-चीन युद्ध के आसपास के दिन थे। पिता या किसी पिता की भौतिक उपस्थिति दूर-दूर तक नहीं थी। गहरे सुनसान में सैनिक सामग्री ढोने वाले ट्रक की आवाज़ थी। ज्ञानरंजन कहते हैं कि जब आप जीवन और उसकी घटनाओं को दूर से देखते हैं तो कहानियाँ बहुत मार्मिक बनती है। कहानियों के साथ अवतरित होते हैं और कहानी को कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर पुनर्जीवित करते हैंं।
आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने 'लमही' 'हमारा कथा समय-दो' में ज्ञानरंजन की कहानियों के विषय में लिखा है कि "ज्ञानरंजन की कहानियाँ भीतरी अंधेरों की शिनाख्त की कहानियाँ हैं। उनकी कहानियाँ उपभोग की ज़मीन पर टिके मध्यवर्गीय युवकों के स्खलन, विघटन, सपनो-आकांक्षाओं की कहानियाँ नहीं तमाम अराजक और क्रूर परिस्थितियों के बीच से अपनी डगर आप बनाते संकल्पों और दायित्वों की कहानियाँ हैं।" ज्ञानरंजन की कहानियों का शिल्प अपनी शक्ति के कारण अद्भुत अपूर्व और अनुपमेय बन गया है।
ज्ञानरंजन राजेन्द्र दानी को बताते हैं कि शिल्प मेरे लहू में था कला मेरी धमनियों में थी। भाषा समाज में बिखरी हुई थी एक आर्गेनिक रचनावली बनावटी तरीकों से नहीं बनती हम गलियों में भटकते थे। सूरतों का एक्सरे करते थे, मजाज को गाते थे। बिल्कुल अराजक पर साहित्य और माक्र्स के विचारों ने हमें बर्बाद होने से बचा लिया। माक्र्स को हमने किताबों से अधिक जीवन की पाठशाला में पढ़ा। "यहाँ पर ग़ौर करें कि ज्ञानरंजन की भाषा स्वअर्जित है। यह 'ाास्त्र-पुराण से प्राप्त भाषा नहीं न ही तत्समता से लदी-फदी हिन्दी प्राध्यापक की भाषा है। यह भाषा जो उन्होंने जीवन से सीधे उठाई है। वह भाषा जो उन्होंने स्वयं इजाद की है यह भाषा विसंगतियों के भीतर-बाहर प्रवेश कर सकती है जो बेधक है और इस भाषा में तीव्र व्यंजना है उन्होंने हिन्दी कहानी में अपनी भाषा उस समय रची जब नई कहानी की कुछ समर्थ और सशक्त कहानियों के बाद ऐसी कहानियों की भीड़ लग रही थी जिससे कहानी विधा का अस्तित्व ही संकट में आ रहा था निर्मल वर्मा ने तो स्पष्ट घोषित कर दिया था कि" अब हमें कहानी की मृत्यु की चर्चा करनी चाहिए। " ऐसे समय ज्ञानरंजन ने अपनी पच्चीस श्रेष्ठ कहानियाँ हिन्दी कथा-साहित्य को दी हंै उनके आगे की कहानियाँ अभी लिखी जाना शेष हैं। ज्ञानरंजन ने कहानियाँ लिखना क्यों बंद कर दिया, वे संपादन की ओर क्यों मुड़ गये? यह प्रश्न प्रायः सभी के मन में उठता रहा है। इस प्रश्न का उत्तर स्वयं ज्ञानरंजन जी ने भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रदत्त ' ज्ञान गरिमा आनद अलंकरण प्राप्ति के अवसर पर दिनांक 11 फरवरी 2017 को अपने वक्तव्य में दिया था। उन्होंने कुछ बाजिव कारण बताए एक तो यह कि जब आप यथार्थ को स्पष्ट और एकदम निरावृत्त देख लेते हैं तो फिर लिखना अवरुद्ध हो जाता है। यही यथार्थ की सीमा है। बस स्मृतियों की बहार में जाइये और सुस्ताइये। यह लिखना नहीं है। विस्थापन, हिंसा, प्रकृति विनाश के बाद नई चुनौतियाँ थी। एक भयानक स्तब्धता, इंतज़ार और अवसाद था।
मैंने जितना लिखा उसके कई पाठ बकाया हैं। उनकी खोज बाक़ी है। मैंने जितने भी पात्र रचे और कहानियों के मुख्यपात्र रचे अधिकांशतः मैं उनके खिलाफ खड़ा हो गया। मैं उस पंक्ति का लेखक था जो पात्रों को जन्म देता है और उन्हीं की कब्र भी बनाता है। यह एक दुस्साहस है और ऐसा लेखक ज़्यादा नहीं लिख सकता। मैंने तब अपनी ही उँगलियाँ काट ली।
ज्ञानरंजन ने अपने न लिखने का एक और कारण बताया कि मैं उन्नीस वर्ष की उम्र में पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बन गया था और यहीं से मेरे जीवन की 'ाुरूआत हुई। बहुत बाद में पार्टी से मेरा घमासान भी हुआ। पर मैं अपने विचार में सौन्दर्य बोध में भाषा और विचार में शहरों के प्रति आग्रह में लेखकी भाषा के उद्वेलन में और संपादन में एक आधुनिक विस्फोटक की तरह हूँ। पर मैं जिस आधुनिकता की चपेट में था वह भग्न हो रही थी, उसका क्रांति और ज्ञानोदय से सम्बंध टूट चुका था। स्पेंडर से दार्शनिक फूको तक सोचते-समझते एक सूरत मेरा विनाश आधुनिकतावाद की इसी जद्दोजहद में हुआ।
अब एक अंतिम कारण है वह है अद्वितीयता, सर्वोच्चता, उत्कृष्टता और श्रेष्ठताओं की अमूर्त दीवारों से टकराने का है जिसने जीवन में कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ा। यह एक मृगमारीचिका है। पर यह मेरे जीवन की ज़िद रही है, अब वह भले थक गई हो पर वह है। इसका अस्तित्व संसार की उस महान मौलिक सर्जना से है जिसकी सुगंध कभी मरती नहीं। मैं बार-बार पीछे जाता हूँ, अस्वीकृत करता हूँ, फेंकता हूँ और अधूरा बना रहता हूँ। वे अधूरी तो मेरी सारी दुनिया है। इस तरह ज्ञानरंजन ने कहानी न लिखने के कारण स्पष्ट कर दिये हैं।
'उपस्थिति के अर्थ' में बाबुषा कोहली, विमल कुमार, अश्विनी कुमार, डॉ. रामनाथ झारिया, ओमप्रकाश तिवारी, रणविजय सत्यकेतु और द्वारा लिये गये साक्षात्कार हैं। बाबुषा कोहली को दिये साक्षात्कार में ज्ञानरंजन ने कहा है कि आज से 46 साल पूर्व जब मैंने 'पहल' के संपादन की ओर क़दम बढ़ाये तब मैं ग्रांटा, पेरिस रिव्यू, कल्पना, निकष, एनकाउंटर पोयट्री जैसी ऐतिहासिक पत्रिकाओं का सपना देख रहा था। दुनिया भर में पहल को उसके प्रगतिशील-आधुनिक नजरिये के कारण जगह मिली। जर्मन विश्वविद्यालयों में भारत की एकमात्र पत्रिका पहल को जर्मन भाषा में रूपांतरित किया गया, उसे डिजीटल स्वरूप दिया गया। मेरा कहानीकार रूप अपनी जगह मौजूद है। उसे पाठकों ने पहली पंक्ति में जगह दी और पहल को भी। मेरी कहानियों के विश्व अनुवाद हुए वे पाठ्यक्रमों में लगाई गयीं, उन पर फ़िल्में बनी और कहानीकार 'पहल' से पृथक बना रहा। इसी साक्षात्कार में ज्ञानरंजन ने कहा है कि दक्षिणपंथ, कलावाद और फासीवाद के विरुद्ध पहल का रचनात्मक संसार कभी लड़खड़ाया नहीं है। निरंतरता और विश्वसनीयता पहल की पूँजी है। बाबुषा कोहली के एक प्रश्न कि यह आरोप लगता रहा है कि पहल ने शुरू में इमरजेंसी का समर्थन किया ज्ञानरंजन ने उत्तर देेते हुए इस बात से स्पष्ट इंकार किया और कहा कि पहल ने आपातकाल का कभी समर्थन नहीं किया। पहल आपातकाल के कुछ महीनों पूर्व ही निकली थी। हमारे दाँत भी नहीं आये थे फिर भी हमने उसी अँधेरे दौर में फासिज्म के विरूद्ध एक अंक निकालकर अपने को प्रकट किया। इस अंक में सारी दुनिया के फासीवाद विरोध की महानतम रचनाएँ शामिल हैं। आगे ज्ञानरंजन ने यह भी स्पष्ट किया कि 'पहल' किसी भी कम्यूनिस्ट पार्टी की पत्रिका नहीं है न रही है। हमारे उपर प्रलेस के बड़े रचनाकारों की तरफ़ से यह दबाव बनाया गया था कि 'पहल' को संगठन की मुख-पत्रिका बना दें, पर हमने उसका स्पष्ट तिरस्कार किया। "
'उपस्थिति का अर्थ' पढ़कर ही पता चलता है कि ज्ञानरंजन इलाहाबाद पर एक संस्मरण पुस्तक पूरी कर रहें है। कथेतर गद्य पर उनकी इसी वर्ष एक पुस्तक आने वाली है। एक अधूरे उपन्यास को भी पूरा कर रहे हैं। ज्ञानरंजन की उपस्थिति का अर्थ बताने वाली विभिन्न विधाओं की यह पुस्तक ज्ञानरंजन के व्यक्तित्व के अनेक अनछुए पहलुओं और ज्ञानरंजन की सोच उनके वैचारिक मुद्दे, साहित्य और साहित्यकारों से अपेक्षाओं को स्पष्ट करती है। ज्ञानरंजन के होने के अर्थ को यदि हमें निष्पक्ष और असल रूप में जानना है तो 'उपस्थिति का अर्थ' पढ़ना ही एकमात्र विकल्प है।
पुस्तक-उपस्थिति का अर्थ,लेखक-ज्ञानरंजन,प्रकाशन-सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2020, पृष्ठ-192, मूल्य-200 रुपये