ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-11
अधूरी लड़ाइयों के पार- ४
प्रगतिशील धारा के बिखराव और व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों के उभार के पसमंज़र में ही 1970 का युवा लेखक सम्मेलन हो रहा था। चूँकि यह सम्मेलन ’सिर्फ़’ नामक पत्रिका की ओर से आयोजित था, इसलिए उसके पीछे उस ज़माने की सारी अराजकता, दिशाहीनता और वैचारिक विभ्रम तो था ही, ’सिर्फ़’ का वैचारिक ढुलमुलपन भी था।
’सिर्फ़’ के कुल जमा छै अंक निकले जिनमें से सिर्फ़ दो ऐसे थे जो युवा लेखक सम्मेलन के बाद प्रकाशित हुए थे। ये दो अंक भी न निकलते, अगर ’सिर्फ़’ के सम्पादक और सम्मेलन के प्रमुख आयोजक नन्द किशोर नवल को सम्मेलन की रपटें और लेखकों की प्रतिक्रियाएँ न छापनी होतीं और सम्मेलन के हुड़दंग, अराजकता, अव्यवस्था और असप लता पर एक लम्बी सफ़ाई न पेश करनी होती। यूँ भी नवल जी अल्पश्वासी व्यक्ति रहे हैं। स्वभाव से चिड़चिड़े, तुनुकमिज़ाज लेकिन अकृत्रिम सदाशयता से भरे हुए। वैचारिक स्पष्टता कभी उनका प्रमुख गुण नहीं रहा, जैसा कि उनके द्वारा सम्पादित पत्रिकाओं को देख कर लगता है। वे लम्बी दौड़ के घोड़े न हो कर गहरेबाज़ी के तुरंग रहे हैं। ’सिर्फ़’ से पहले वे शायद ‘ध्वजभंग’ से जुड़े थे, जिसके नाम ही से एक विद्रोही तेवर वाली पत्रिका का आभास मिलता था। हक़ीक़त यह थी कि उस ज़माने के और बहुत-से सम्पादकों की तरह ‘ध्वजभंग’ के सम्पादकों के भी दिमाग़ में इस विद्रोह नामक गतिविधि की कोई साफ़ तसवीर नहीं थी। बस एक अराजक और थोथा चना था जो घना-घना बज रहा था। लेकिन इसमें नवल जी का दोष क्या, हम में से बहुतों का यही हाल था। रहा ’सिर्फ़’ तो उसके सिर्फ़ छै अंक निकले और उसके बाद जब हालात साज़गार हुए तो नवल जी ने ‘कसौटी’ का सम्पादन किया - पहले ही से घोषणा करके कि वे उसके गिने हुए अंक ही निकालेंगे। यों, अंकों की संख्या किसी पत्रिका की उत्कृष्टता का कोई कसौटी नहीं है। चन्द्रभूषण तिवारी ने आरा जैसी जगह और अपने सीमित साधनों के बल पर ‘वाम’ के केवल तीन अंक निकाले जो आज तक अपनी वैचारिक प्रखरता के कारण संग्रहणीय बने हुए हैं। लेकिन जहाँ तक ’सिर्फ़’ का ताल्लुक है उसमें एक विलक्षण गपड़चौथी अस्पष्टता छायी हुई थी।
यही अस्पष्टता और अन्तर्विरोध उस परिपत्र में भी झलकता था, जो उन्होंने 1970 के युवा लेखक सम्मेलन के सिलसिले में जारी किया था। लगभग चार दशक बाद उस पर नज़र डालना दिलचस्प साबित हो सकता है -
युवा लेखक सम्मेलन
(‘सिर्फ’ द्वारा आयोजित)
27 और 28 दिसम्बर, ’70
पटना
बंधुवर,
सम्मेलन के आयोजन के मूल में निम्नलिखित तीन बातें हैं :
देश की वर्तमान परिस्थिति में युवा लेखक न केवल अपनी भूमिका स्पष्ट करें, बल्कि विद्रोह और परिवर्तन की लड़ाई में वे अपनी हिस्सेदारी का वह तरीका निश्चित करें, जो एक ओर उन्हें व्यापक जन-समुदाय से जोड़ता हो और दूसरी ओर उनके लेखन को अधिक-से-अधिक सार्थक बनाता हो। विचार और रचना के स्तर पर चलने वाले उस संघर्ष में, जो युवा और युवतर पीढ़ियों में एक बार फिर दिखलायी पड़ने लगा है, सच्चाई की खोज की जाए। बदले हुए सन्दर्भ में कविता, कहानी और आलोचना - जैसी विधाओं के ‘स्वरूप’ पर पुनर्विचार हो।
इस सम्मेलन में तीन प्रकार के लेखक भाग ले रहे हैं : वैसे लेखक, जो किसी-न-किसी रूप में युवा-लेखन से गहरे स्तर पर जुड़े रहे हैं; वैसे लेखक, जो स्वीकृत और स्थापित युवा लेखक हैं और वैसे लेखक, जो आज नहीं, कल के युवा लेखक हैं और जिन्होंने युवालेखन की रूढ़ियों को तोड़ कर नये क्षितिज उद्घाटित करने का दायित्व स्वीकार किया है। अनुभव और रचना के स्तर पर इन तीनों प्रकार के लेखकों का आपसी संवाद हमारा लक्ष्य है। इससे हम किसी निष्कर्ष पर भले न पहुँचें (शायद वह अभीष्ट भी नहीं है) पर अपनी समस्या को अवश्य ‘पहचान’ सकेंगे।
युवा पीढ़ी में प्रतिबद्ध और अप्रतिबद्ध रूप में कई प्रकार के लेखक सक्रिय हैं। उनमें परस्पर विरोधी विचार भी देखने को मिलते हैं। हमने यह मान कर कि अनुभव और रचना के स्तर पर विभिन्न विचारों के लेखकों में भी ‘एकता’ या ‘समानता’ है, इस सम्मेलन में हर प्रकार के लेखक को आमन्त्रित किया है। हम विद्रोह करने वाले लेखक को तो विद्रोही लेखक मानते ही हैं, केवल ऊब, या खीझ या निराशा, या विरक्ति व्यक्त करने वाले लेखक को भी विद्रोही लेखक मानते हैं। इसका कारण हमारा सही और ग़लत के फ़र्क को मिटा देने वाला उदारतावाद नहीं, बल्कि रचना की वह ‘विशेषता’ है, जो उसे विचारों से अलग कर एक दूसरे बिन्दु पर टिकाती है। यह बात दूसरी है कि जिस तरह ‘विद्रोही’ लेखक ग़लत होता है, उसी तरह ‘ऊबा हुआ’ या ‘निराश’ लेखक भी। इसके अलावा जिस प्रकार विद्रोह, केवल विद्रोह नहीं, बल्कि कहीं सृजन भी है, उसी प्रकार निषेध भी कहीं स्वीकार है। लेखन की इस जटिलता या रहस्यमयता को समझे बग़ैर युवा लेखकों के पक्षपातरहित मंच का निर्माण सम्भव नहीं था। हमने हर प्रकार के दुराग्रह से अपने को मुक्त रख कर सम्मेलन के अवसर को अधिक-से-अधिक सही और उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है।
युवा लेखकों के सामने आज बड़े-बड़े सवाल हैं। जो सवाल सबसे अहम है, वह यह कि आज लेखन की सार्थकता पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है। ‘साहित्य क्यों ?’ का सवाल इसी प्रसंग में उठाया गया है और साहित्य को छोड़ कर ‘मुनासिब कार्रवाई’ की बात इसी प्रसंग में की गयी है। ‘युवा लेखकों की रण-नीति’ पर आयोजित गोष्ठी में यही विचारणीय है कि वर्तमान सन्दर्भ में लेखक अपने अस्तित्व को कैसे सार्थकता प्रदान कर सकता है, किस मोर्चे पर लड़ कर और यदि वह विभिन्न मोर्चों पर लड़ता है, तो उनमें परस्पर कैसा सम्बन्ध बना कर। यह स्पष्ट है कि उसे अब, केवल सोचना ही नहीं, बल्कि करना है। उस करने की दिशा और पद्धति क्या हो, ‘रण-नीति’ का यही अर्थ है।
साहित्य में सारा व्यापार भाषा के माध्यम से चलता है। इस भाषा का सर्वाधिक रचनात्मक रूप कविता में देखने को मिलता है, इसलिए कविता हमेशा उस भाषा की तलाश में रहती है, जो कि चीज़ों को ठीक-ठीक आख्यायित कर सके। ‘कविता: सही भाषा की तलाश’ इस विषय पर चिन्तन करके कविता के सही स्वरूप की ओर बढ़ा जा सकता है। इसी प्रकार कहानी केन्द्रीय विधा हो या नहीं, वह ऐसी विधा ज़रूर है जो वास्तविकता - वह वस्तु हो, या पात्र - को अधिक सही रूप में परिभाषित करती है। कविता में हम उसे ‘पहचानते’ हैं और कहानी में उसे सूक्ष्मता और ब्योरे में जा कर जानते हैं। कविता और कहानी दोनों के सामने आज नया सबक है, इसलिए उनकी इन दोनों विशेषताओं पर गम्भीरतापूर्वक सोचना फिर से ज़रूरी हो गया है।
आलोचना की हालत साहित्य में सबसे नाज़ुक है। यह एक तरफ़ रचना को जानने के लिए ही नहीं, बल्कि उसे पूर्णता प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण साधन है और दूसरी तरफ़ रचना के प्रसंग में एक फ़ालतू या बाहरी चीज़ है। ऐसी स्थिति में यदि साहित्य के किसी नये रूप का अस्तित्व ख़तरे में है, तो वह आलोचना का। हम चाहते हैं कि ‘आलोचना क्यों ?’ पर विचार करने के माध्यम से लेखक और आलोचक नये साहित्य द्वारा आलोचना के अस्तित्व को दी गयी चुनौती का सामना करें और उसकी सार्थकता या निरर्थकता से सम्बन्धित महत्वपूर्ण विचार सामने लायें। निश्चय ही कविता, कहानी और आलोचना से सम्बन्धित सभी चर्चाएँ समकालीन साहित्य के सन्दर्भ में होंगी, वर्ना उन्हें सनातन प्रश्न-चर्चा बना देने से कुछ नहीं मिलने वाला है।
शिवशंकर सिंह नन्दकिशोर नवल, ज्ञानेन्द्रपति अध्यक्ष शिवदेव मंत्री, आयोजन-समिति
इतने वर्षों बाद इस परिपत्र को दोबारा पढ़ते हुए बेसाख़्ता हँसी आती है और आश्चर्य होता है कि 1970 में हिन्दी के लेखकों ने इस परिपत्र को गम्भीरता से लिया था। ०० जहाँ तक 1957 के दो लेखक सम्मेलनों और 1970 के ‘परिमल रजत पर्व’ से सम्बन्धित परिपत्रों का सवाल है, उनसे सहमत या असहमत होने के बावजूद एक चीज़ बिलकुल साफ़ थी - कि आयोजक इन सम्मेलनों को किस उद्देश्य से कर रहे हैं और इसमें भाग लेने वाले लेखकों को क्या सोच कर आमन्त्रित कर रहे हैं। लेकिन ’सिर्फ़’ द्वारा जारी इस परिपत्र का घालमेल एकदम साफ़ नज़र आता है। आज तो और भी।
इसके पहले जो सम्मेलन हुए, उनमें कहीं भी यह नहीं कहा गया था कि ‘अनुभव और रचना के स्तर पर विभिन्न विचारों के लेखकों में भी एकता या समानता है।’ विचारों में अलगाव को स्वीकार करते हुए लेखकों को आमन्त्रित किया गया था। लेकिन अगर ’सिर्फ़’ उस पुरानी लीक से हट कर इस ‘एकता’ और ‘समानता’ पर बल न देता तो मनोहर श्याम जोशी के शब्द उधार ले कर कहें तो नवल जी का ‘वीरबालकवाद’ कैसे चरितार्थ होता। वे विद्रोह करने वाले लेखक को तो विद्रोही लेखक मान ही रहे थे। यह उनकी महती कृपा थी। इससे भी बड़ा औदार्य वे ‘केवल ऊब या खीझ या निराशा या विरक्ति व्यक्त करने वाले लेखक को भी विद्रोही लेखक’ मान कर प्रदर्शित कर रहे थे। और इसका कारण भी उन्होंने हाथ-के-हाथ बता देना मुनासिब समझा कि यह उनकी ओर से ‘सही और ग़लत के फ़र्क को मिटा देने वाला उदारतावाद’ नहीं है बल्कि ‘रचना की वह विशेषता है’ जो उसे ‘विचारों से अलग कर’ एक दूसरे बिन्दु पर टिकाती है। किस बिन्दु पर ? इसे स्पष्ट करते हुए नवल जी परिपत्र के आरम्भ में की गयी ‘रणनीति’ की चर्चा को भूल कर दार्शनिक प्रपत्तियों में चले गये। आश्चर्यलोक में ऐलिस की मानिन्द, तार्किक जगत से अचानक एक ऐसे संसार में जहाँ कुछ भी तर्कसिद्ध नहीं था । - और नवल जी की नज़र में यह बिन्दु क्या था ? जिस प्रकार विद्रोह विद्रोह नहीं, बल्कि कहीं सृजन भी है, उसी प्रकार निषेध भी कहीं स्वीकार है। और इस जटिलता या रहस्यमता को समझे बग़ैर ‘युवा लेखकों के पक्षपात रहित मंच का निर्माण सम्भव नहीं था।’
यानी कुल मिला कर यह जैनेन्द्र जी की उलटबाँसियों से भी ज़्यादा गूढ़ कुछ ऐसी दार्शनिक प्रपत्ति थी जो शेर और बकरी को एक ही घाट पर लाने की मुहिम में संलग्न थी, जो काम कि इससे पहले के किसी संगठन या आन्दोलन ने नहीं किया था।
इसी क्रम में चूँकि परिमल के रजत पर्व में ‘साहित्य क्यों ?’ का प्रश्न उठ चुका था, इसलिए ’सिर्फ़’ के इस युवा लेखक सम्मेलन में उसे भी शामिल कर लिया गया - यह कहते हुए कि आज लेखन की सार्थकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है। साहित्य को छोड़ कर ‘मुनासिब कार्रवाई’ की बात इसी प्रसंग में की भी गयी। यानी अगर लेखकों की संसद यह तय करे कि लेखन की अब कोई सार्थकता नहीं रह गयी है तो फिर दूसरे कुछ उपाय किये जा सकते हैं। चूँकि परिपत्र में इन उपायों की कोई बहुत स्पष्ट रूप-रेखा नहीं प्रस्तुत की गयी थी, इसलिए लेखकों को यह पूरी छूट थी कि वे अपने-अपने ढंग से इस ‘मुनासिब कार्रवाई’ को परिभाषित करें और अमल में लायें, जो काम कि उन्होंने सम्मेलन के दो दिनों में पूरी निष्ठा के साथ किया भी, जिसका ज़िक्र आगे होगा। यह अलग बात है कि इसी ‘मुनासिब कार्रवाई’ को ले कर बाद में तरह-तरह के प्रवाद-विवाद उठते रहे।
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इस परिपत्र के साथ एक छोटा-सा पत्र और भी भेजा गया था जिसमें एक साप्ताहिक के प्रकाशन की भी योजना थी -
बंधुवर,
आगामी जनवरी, ’71 से हम एक साप्ताहिक का प्रकाशन करने जा रहे हैं। यह साप्ताहिक समाचार और विचार-साप्ताहिक होगा। इसका लक्ष्य होगा - वर्तमान राजनीति में जनता के पक्ष का समर्थन और विभिन्न पक्षों में उलझी हुई सच्चाइयों की खोज। यह जन-विरोधी राजनीति का हर प्रकार से मुकाबला करेगा और उन लोगों पर प्रहार करने से कभी नहीं चूकेगा, जो कि अनेक रूपों में जनता के साथ धोखाधड़ी करते हैं।
समाजवाद एक अमूर्त चीज़ होती जा रही है। यह साप्ताहिक उसकी ठ¨स शकल उभार कर लोगों के सामने रखेगा और इसकी कोशिश करेगा कि उसकी पहचान कार्यों के द्वारा हो, शब्दों के द्वारा नहीं। कार्य ही वह कसौटी होगी जिस पर वह विभिन्न राजनीतिक दलों के चरित्र की परीक्षा करेगा।
राजनीति के अलावा साहित्य और कला - इन क्षेत्रों की गतिविधियों से भी यह साप्ताहिक पूरा सरोकार रखेगा, ताकि राजनीतिक और वैचारिक आयामों के साथ-साथ यह देश की चेतना को सही सांस्कृतिक आयाम भी दे सके। आपसे अनुरोध है कि आप युवा लेखक सम्मेलन में पटना आवें तो प्रस्तावित साप्ताहिक के सम्बन्ध में अपने निश्चित सुझाव अपने साथ लाएँ। आप युवा लेखकों के सहयोग से ही उक्त साप्ताहिक का प्रकाशन सम्भव है। तभी वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं। धन्यवाद।
निवेदक
शिवशंकर सिंह नन्दकिशोर नवल, ज्ञानेन्द्र पति, शिवदेव
अध्यक्ष मंत्री, आयोजन-समिति
युवा लेखक सम्मेलन, पटना
जैसा कि अमूमन होता है, परिपत्रों को बहुत कम लोग ध्यान से पढ़ते हैं और मुझे यकीन है कि हमारी तरह सम्मेलन में भाग लेने वाले लगभग 90-95 प्रतिशत लोगों ने भी सिर्फ़ सरसरी नज़र से युवा लेखक सम्मेलन के परिपत्र को और उसके साथ संलग्न पत्र को देखा था। मेरे ख़याल में शायद उन्हीं 9-10 लोगों ने इस परिपत्र को ध्यान से पढ़ा होगा जिन्हें इस सम्मेलन के चार सत्रों में निबन्ध पाठ करने थे और जिनका उस प्रस्तावित साप्ताहिक से कुछ वास्ता था। बाकी तो सभी लोग हमेशा की तरह इस तर्क के आधार पर आये थे कि लेखक के वक्तव्य की तैयारी तो मंच पर आसीन होने के बाद शुरू होती है। और सम्मेलन में शामिल होने वाले दिग्गज आलोचक नामवर जी के बारे में तो यह मशहूर था कि उनके वक्तव्य का अथ ही तभी लिखा जाता है जब उनसे पहले का वक्ता इति करने के बाद लौट कर अपने स्थान पर जा रहा होता है। यों, सम्मेलनों का एक वतीरा है कि जिसको जो कहना होता है, वह वही कहता है, उसे इसकी फ़िक्र नहीं होती कि उसके पहले किसने क्या कहा है और उसके बाद कौन क्या कहेगा। वह मंच पर आता है, अपने पैंतरे दिखाता है, और फिर तपे हुए पटेबाज़ों की तरह अखाड़े की मुँडेर पर जा बैठता है - यह देखने के लिए कि दूसरे पट्ठे अब कौन-सा पैंतरा दिखाते हैं। 1970 के युवा लेखक सम्मेलन में भी कुल मिला कर यही हुआ। लेकिन इसकी चर्चा आगे अपने क्रम में।