ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-15

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ज्ञानरंजन के बहाने - १५


अधूरी लड़ाइयों के पार- ८


इसके बाद सिलसिलेवार ढंग से तो बहुत कुछ याद नहीं है, बल्कि दृश्यों और छवियों का एक गड्ड-मड्ड हुजूम है। इसकी एक वजह तो सम्मेलन में शामिल होने वाले लोगों की संख्या है, जिसने सम्मेलन को सम्मेलन की बजाय एक विराट मेले की सूरत दे दी थी। सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के अलावा युवा लेखकों की रणनीति, और कविता, कहानी और आलोचना आदि पर चार लम्बी-लम्बी गोष्ठियाँ आयोजित हुई थीं, जिनमें सौ से अधिक भाषण दिये गये। ज़ाहिर है, इनमें ऐसा कुछ नहीं था जो याद रखा जा सके।

सच तो यह है कि ज़्यादातर बहसें उन्हीं पुराने मुद्दों पर केन्द्रित थीं जो 60 के दशक के बाद से साहित्य में आपसी तू-तू, मैं-मैं और जूतम-पैज़ार को जन्म देते रहे थे। होरी किसान और घीसू चमार की तलाश; महानगर कॉफ़ी हाउस और गाँवों के जीवन का द्वण्द्व; आम आदमी की खोज, भाषा का अवमूल्यन, पीढ़ियों का संघर्ष, नये मठ और पुराने मठ, आदि, आदि। प्रकट ही इन बहसों का कोई मतलब नहीं था। कुछ वैसा ही माहौल था जैसा मुर्ग़ों की लड़ाई में होता है। मुर्ग़े आपस में लड़ते हैं और उन्हें लड़ाने वाले कुछ लोग मज़ा लेते हैं। बाकी तमाशबीनों की हैसियत से खड़े रहते हैं। इसलिए जो मंच पर हुआ, वह उतना उल्लेखनीय नहीं है, जितना वह, जो मंच के बाहर हुआ। तो भी मंच पर कुछ बातें ऐसी थीं, जिन्होंने इस समूचे सम्मेलन की टोन को निर्धारित करने में अपनी भूमिका अदा की।


उद्घाटन सत्र शुरू होते ही कुछ बातें साफ़ हो गयीं। पहली तो यह कि स्थानीय लोग अनुपस्थित थे और यह बात सबको खल रही थी। धीरे-धीरे यह भेद खुला कि शिवशंकर सिंह उन धनपतियों में से हैं, जिन्हें भर्तृहरि ने ’शृंग-पुच्छ विहीन विषाण’ कहा था और उनका काम मेडिकल कॉलेज खोलना और पैसे ले कर वहाँ छात्रों को दाख़िला देना है। आज तो यह एक बिलकुल आम बात लगती है, लेकिन 1970 के दिसम्बर में कोई सोच भी नहीं सकता था कि शिवशंकर सिंह की यह परम्परा एक दिन सारे देश में फैल जायेगी। इसलिए लोगों में थोड़ा-सा रोष भी था कि ये किन असाहित्यिक लोगों के पल्ले वे पड़ गये हैं।

(कई वर्ष बाद जब काँग्रेस पार्टी के पैसा-जुटाऊ जुगाड़बाज़ नेता ललितनारायण मिश्र की एक सभा में उन पर बम फेंका गया था तो यही शिवशंकर सिंह, जो नन्दकिशोर नवल के साथ 1970 में ’जन विरोधी राजनीति का मुकाबला’ करने और ’समाजवाद की ठोस शक्ल सामने रखने’ के लिए साप्ताहिक पत्र की योजना बना रहे थे, विप्लवी पलटी मार कर उन्हीं लोगों में जा शामिल हुए थे जिनके विरोध की योजना वे 1970 में बना रहे थे।)

यह बात दीगर है कि शिवशंकर सिंह और उनके गुर्गों ने लाजपत राय भवन को एक जनवासे में तब्दील कर दिया था और पीछे की तरफ़ हलवाई बैठा कर और मेज़ें और बेंचें सजा कर बढ़िया देशी घी में बनी पूरी-कचौड़ी और जलेबी आदि का प्रबन्ध किया हुआ था जिसे प्रेम से ग्रहण करने में युवा लेखकों को कोई एतराज़ नहीं था, जिनकी क्षुधा मंच पर धुआँधार भाषण देने और उन्हें सुनने से लहक आया करती थी । लेकिन इन तथ्यों के ज़ाहिर होने के बावजूद कोई यह समझ नहीं पा रहा था कि पटना के लेखक इस सम्मेलन में क्यों शामिल नहीं हैं। क्या उन्हें आमन्त्रित नहीं किया गया या उन्होंने सम्मेलन का बायकाट किया ?

अभी यह बात धीरे-धीरे लोगों में एक सुगबुगाहट की शक्ल ले ही रही थी कि मंच पर स्थानीय लोगों में से नन्द किशोर नवल और ज्ञानेन्द्र पति के अलावा रेणु जी नज़र आये। इसमें कोई शक नहीं है कि उन्हें मंच पर देख कर लगभग सभी को एक आश्वस्ति का अनुभव हुआ। लेकिन रेणु जी ने मंच पर आने के बाद अपनी तरफ़ से जो कहा सो कहा, जयप्रकाश नारायण की ओर से लिखा एक पत्र भी पढ़ सुनाया। उन दिनों जयप्रकाश नारायण ने मुज़ज़फ़्फ़रपुर के पास मुसहरी में डेरा जमाया हुआ था, जहाँ वे नक्सलियों के आन्दोलन को शान्त करने का प्रयास कर रहे थे। 1970 तक हालाँकि नक्सलबाड़ी के आन्दोलन ने वह रूप नहीं लिया था जो आगे चल कर उसने अख़्तियार किया, तो भी पटना तक उसकी गूँज सुनायी देने लगी थी और नक्सलबाड़ी आन्दोलन से प्रभावित युवा लेखकों को लगता था कि जयप्रकाश नारायण मुसहरी के विद्रोह को दबा कर शासक वर्गों का ही साथ दे रहे हैं। यूँ भी पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में जयप्रकाश नारायण की छवि भले ही ठीक-ठाक समझी जाती रही हो, लेकिन देश के ज़्यादातर हिस्सों में उस समय उन्हें एक बुझी हुई फुलझड़ी से ज़्यादा की अहमियत नहीं हासिल थी। मुझे याद है कि नये लोगों को रेणु जी द्वारा जयप्रकाश नारायण का यह पत्र पढ़ना नागवार गुज़रा था। उन्हें लगा था मानो युवा लेखक सम्मेलन के पीछे कोई निकम्मी किस्म की राजनैतिक साज़िश चल रही है (जो कि चल भी रही थी) और उसमें उन्हें इस्तेमाल किया जा रहा है।


रही-सही कसर नामवर जी को ले कर उठी शंकाओं ने पूरी कर दी थी, जो पहली गोष्ठी के अध्यक्ष तो थे ही, बाकी गोष्ठियों में भी अपना ’अमूल्य योगदान’ करने के लिए अपनी ’विनम्र सेवाएँ’ अर्पित करने को प्रस्तुत थे और अपने साथ एक लॉबी भी ले कर आये हुए थे जो विरोधियों को उन से ज़्यादा ऊँचे स्वर में चिल्ला कर उन्हें परास्त करने में पारंगत थी। यहाँ यह याद रखने की ज़रूरत है कि यह 1970 का साल था और नामवर जी सागर विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद अभी एक तरह से ’विल्डरनेस’ में थे।

(उनके सागर से चले आने के पीछे अनेक प्रकार के प्रवाद उस ज़माने में फैले हुए थे और अभी तक साफ़ नहीं हुए हैं, वरना उस घटना के लगभग 40-45 वर्ष बाद महाश्वेता देवी को ’साहित्य समालोचना के सम्राट नामवर’ के शीर्षक से इस ’सच्चे कम्युनिस्ट’ के बारे में लिखते हुए, ’बताया जाता है’ के अनुमानपरक अन्दाज़ में यह न लिखना पड़ता कि ’... एक अदद अध्यापकी के लिए उन्हें यहाँ-वहाँ भटकना पड़ा। कभी सागर, तो कभी जोधपुर। और अन्ततः दिल्ली। नामवर को सागर विश्वविद्यालय से भी हटा दिया गया। निष्कासन का कारण नहीं बताया गया। वैसे असली कारण यह बताया जाता है कि नन्ददुलारे वाजपेयी को नामवर की बेबाक आलोचना पसन्द नहीं थी। वाजपेयी को यह पसन्द नहीं था कि सभा समारोहों में सरेआम उनसे कोई असहमति जताये। नामवर न सिर्फ़ असहमति जताते थे, उनके सामने पान भी खाते थे। ये सारी बातें नौकरी जाने का कारण बनीं।’ अब, बेचारे नन्ददुलारे जी तो जीवित रहे नहीं कि महाश्वेता जी के सामने दस्तबस्ता पेश हो कर अपने किये-न किये की सफ़ाई दे सकें। उनके भाग्य में तो मृत्यु के बाद ’बताया जाता है’ कहने वालों के हाथ कलंकित होना ही लिखा है। अलबत्ता, अगर कोई परलोक है तो मुझे यकीन है कि ख़ुद पर अटकल-पच्चू मार्का ये कलंक लगते देख कर नन्ददुलारे जी उस घड़ी को ज़रूर कोसते होंगे जब उन्होंने अपने सहकर्मी और नामवर जी के आदरणीय गुरुदेव, आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का आग्रह शिरोधार्य कर, निराला के शब्दों में कहें तो ’युवकों में प्रमुख रत्न-चेतन, समधीत-शास्त्रकाव्यालोचन,’ नामवर जी को सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शामिल किया था।)

बहरहाल, सागर का सत्य जो भी हो, इतना सभी जानते थे कि नामवर जी उन दिनों अपने विल्डरनेस से बाहर आने की तगो-दौ में जुटे हुए थे। सागर से छूट कर दिल्ली आने पर ले-दे कर ’जनयुग’ या ’आलोचना’ की सम्पादकी ही का सहारा था। इसलिए उन्हें यह बोध हो चुका था कि वोल्तेयर और दान्ते चाहे जितने तीर मारते रहें, असली खेल तो रोब्सपिएर और मैकियावेली जैसों का होता है। लिहाज़ा उन्होंने डगर बदल कर हिन्दी का मैकियावेली बनने की राह पर कदम बढ़ा दिये थे और आज 80 वर्ष की आयु में वे एक ही साथ ’सम्राट’ और ’सच्चे कम्युनिस्ट’ के विरुद से नवाज़े जाने वाले हिन्दी के एकमात्र साहित्यकार बन गये हैं। क्या इसे ही विरुद्धों का सामंजस्य तो नहीं कहते ?


लेकिन बात 1970 की हो रही है जब नामवर जी 42-43 बरस के थे और अनेक लोग उनका विरोध करने की हिम्मत कर सकते थे। चुनांचे नामवर जी भले ही ’युवा लेखकों की रणनीति’ विषयक गोष्ठी के अध्यक्ष बन गये थे, पर उन्हें ले कर बहुत-से लोगों के मन में यह शंका थी कि वे अपनी मठाधीशी झाड़े बिना न रहेंगे। असहमति को बरदाश्त न करने का दुर्गुण नन्ददुलारे जी पर चाहे जितना मढ़ा जाय, इतना तो मैं भी पिछले 40 बरस के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि ख़ुद नामवर जी भी हिन्दी के सर्वाधिक असहिष्णु लोगों में से हैं और चूँकि उनकी स्मृति विलक्षण है, इसलिए उनसे असहमति आप तभी जता सकते हैं, अगर आप भी कोई-न-कोई सम्राट हों या फिर निपट फ़कीर। इस पर भी आप उनकी ’कृपादृष्टि’ से बच सकेंगे, इसमें शक है। सो, उद्घाटन सत्र में जो रायता फैलाया गया था, उसकी रही-सही कसर ’युवा लेखकों की रणनीति’ वाली गोष्ठी ने पूरी कर दी। रणनीति के सिलसिले में अर्गल-अनर्गल हर तरह की बातें की गयीं और अपनी सारी कुशलता के बावजूद नामवर जी सभा को काबू में नहीं रख पाये। यहीं से एक अराजकता का माहौल बनना शुरू हो गया था, जो धीरे-धीरे सम्मेलन की अन्य गोष्ठियों की विचारहीन लफ़्फ़ाज़ी की वजह से उदासीनता, खीझ और क्रोध में बदलता चला गया। यहाँ मैं उन सारे लेखों और टिप्पणियों और कार्रवाई को उद्धृत तो नहीं कर सकता, उसके लिए तो सिर्फ़ के अंक ही टटोलने होंगे, लेकिन तीन या चार वक्तव्य ज़रूर उद्धृत कर रहा हूँ -

’हमारे अनुभवों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे झूठे हैं। वैसा करने वाले को हमारी ’केस-हिस्ट्री’ मालूम करनी चाहिए, क्योंकि अकेलेपन की यात्रा का संसार ही हमारा अपना, सच्चा और अर्थपूर्ण संसार है।’ जगदीश चतुर्वेदी

’साहित्य मेरे करीब एक तात्कालिक अनुभव के रूप में आता है, इसलिए मैं मानता हूँ कि साहित्य के सामाजीकरण या उसके साथ जो एक ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है, उससे हमें बचना चाहिए।’ सौमित्र मोहन

’जिनका कथ्य, अनुभव और प्रक्रिया सम्पूर्ण रूप से अपनी है, उनकी भाषा अपनी होगी और उसमें ऐसा कुछ भी नहीं होगा, जो पुराना हो और कथ्य के अनुकूल न हो। इसलिए सब की अलग-अलग भाषाएँ होते हुए भी वे सबको प्रभावित करती हैं। इस दृष्टि से निर्धारित विषय असत्य-सा है, जिस पर बहस करने की कोई गुंजायश नहीं है। दूधनाथ सिंह

’साहित्य एक ऐसा द्वीप है जिसमें आदमी खड़ा हो कर सिर्फ़ अपने आपको तैयार कर सकता है, किसी-न-किसी रूप में, ’एनार्की ’ या ’फ़ासिज़्म’ को बुलाने के लिए सही।’ गंगाप्रसाद विमल

’यह बात बड़ी सफ़ाई से उभर कर आयी कि समकालीन हिन्दी कहानी में कहानीकारों के दो वर्ग है: एक, जो व्यक्ति के माध्यम से परिवेश को आत्मसात् करना चाहता है और दूसरा, जो इसे गलत मानते हुए परिवेश को परिवेश के माध्यम से चित्रित करना चाहता है। समकालीन आदमी दोनों वर्गों के लिए महत्वपूर्ण है, लड़ाई की बात दोनों करते हैं, पर एक वर्ग जहाँ समकालीन आदमी को, अपने माध्यम से ही सही, ’परिभाषित’ करके लड़ाई को स्थगित रखता है, वहाँ दूसरा वर्ग उसे ’अन्वेषित’ करता हुआ नकली लड़ाई लड़ता है।’ कहानी गोष्ठी का सारांश

’ऐसे सम्मेलनों की किसी निश्चित निष्कर्ष या किसी निश्चित ठहराव पर पहुँचने की न तो कोई इच्छा होती है, न ज़रूरत ही, न हममें से कोई शायद इसके लिए तैयार ही होता है।’ अशोक वाजपेयी

युवा लेखक सम्मेलन के परिपत्र पर तो मैं लिख ही आया हूँ, ये वक्तव्य उसकी आत्मा के अनुरूप ही थे। सो अचरज कैसा!