ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-17

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अधूरी लड़ाइयों के पार- १०


दूसरी अराजकता भी उन्हीं दो दिनों में से किसी शाम की थी। हो सकता है, उसी शाम की रही हो। सम्मेलन की दिन भर की बहसें ख़त्म हो चुकी थीं। लोग अपने-अपने हिसाब से छोटे-छोटे झुण्ड बनाये, लाजपत राय भवन में अपनी ’रणनीतियों’ को और माँज रहे थे या गप्पिया रहे थे, कुछ लोग पटना के स्थानीय लोगों से मिलने निकल गये थे। तभी हमारे कमरे के आगे की तरफ़, जहाँ खुले दालान में बनारस के लोग डटे हुए थे, कुछ हल्ला-सा सुनायी दिया। हम सब लोग उठ कर उधर की तरफ़ चले गये। पता चला कि दिल्ली वाले भी कुछ गला तर करके पहुँचे हुए हैं और एक हंगामा-सा बरपा है। कुमार विकल अपनी लहीम-शहीम देह और चेचक के दाग़ों से भरे गोल चेहरे पर मुस्कान खिलाये, किसी मदमस्त भालू की तरह उछल-उछल कर नाच रहा है और ’सारी बीबियाँ आइयाँ, हरनाम कौर ना आयी’ गा रहा है। इस गाने में उसका साथ कौन दे रहा था, यह अब याद नहीं, लेकिन कुछ दिल्ली वाले ज़रूर ’मिले सुर मेरा तुम्हारा’ की तर्ज़ पर ठेका लगा रहे थे और कभी हरनाम कौर की जगह मोना गुलाटी का नाम उछाला जाता, कभी किसी और ’बीबी’ का।

ज़ाहिर है, हम भी उस गाने में शामिल हो गये और तब ज्ञान का एक और रुख़ मेरे सामने उजागर हुआ। बिना किसी बात की चिन्ता किये, उसने भी कुमार विकल की आवाज़ में आवाज़ मिलानी शुरू कर दी। इतना ही नहीं, उसने अपने भण्डार से भी कुछ चुनिन्दा गीत भी वहाँ बुलन्द किये, जिनमें हम इलाहाबाद वालों ने और फिर बाद में दिल्ली वालों ने भी सुर लगाये। ज्ञान का गला उन दिनों बहुत अच्छा था। इसका ज़िक्र में पहले कर आया हूँ। वह फ़ैज़ की ग़ज़लें, केदारनाथ अग्रवाल और ठाकुर प्रसाद सिंह के गीत एक अपने ही अन्दाज़ में गाया करता था। लेकिन ज्ञान का एक दूसरा पहलू भी था, जहाँ एक बिलकुल बोहीमियन, अल्हड़ फक्कड़पना तारी रहता। उन दिनों ज्ञान का एक ख़ास नारा था - ’बंग भग भंग, चमू संग, चतुरंग, जय बजरंग।’ हो सकता है, इसके पीछे लूकरगंजी बंगालियों को चिढ़ाने की मंशा रही हो या फिर हिन्दी की मध्यकालीन कविता, विशेष रूप से भूषण की पंक्ति ’साजि चतुरंग बीर रंग पै तुरंग चढ़ि सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं’ की पैरोडी करने का इरादा -- इलाहाबाद की सड़कों पर साथी-संगियों के साथ टहलते हुए या मुरारी में उधम मचाते हुए कई बार वह अचानक प्रसंग होने या न होने पर यह नारा बुलन्द करता था। इस नारे को ज्ञान मण्डल के हम सब लोगों ने भी अपना लिया था, जो ज्ञान को उन दिनों ’गुरु’ मानते हुए उस पर निछावर होते रहते थे और ’गुरु’ को प्रसन्न करने के लिए गाहे-बगाहे यह नारा हवा में उछाल दिया करते थे। इसके अलावा ज्ञान को कुछ ऐसे गीत भी याद थे, जिन्हें आज भी अश्लील ही कहा जायेगा। उनमें से एक गीत का शीर्षक था - ’बाबर्चीखाने में’। इस गीत में कुछ ऐसा आर.डी.एक्स. है कि बड़ा-बड़ा अस्सी का खस्सी भी उसे गाते हुए इस बात का ख़याल कर ले कि आस-पास कोई महिला तो नहीं है। उसे अगर उद्धृत करना हो तो उसका रूप कुछ ऐसा होगा:

-- देइहो कि चलिहो थाने में
हम -- बबर्चीखाने में
अरे आगा -- पीछा --
-- बाँध के तागा
अरे आधी रात का -- लागे
चूहा -- लै भागा
कि -- देइहो कि चलिहो थाने में
हम -- बबर्ची खाने में

आगे भी कुछ बन्द थे शायद, पर मुझे अब इतना ही स्मरण है। यह गीत अपनी निपट अराजक अश्लीलता की वजह से तो मुझे याद रह ही गया है, इसलिए भी स्मृति में टँका रहा आया है, क्योंकि इसकी अश्लीलता की एक समाजशास्त्रीय अहमियत भी थी जो इलाहाबाद जैसे शहरों की बँगलों वाली संस्कृति के कुछ तलछटिया पहलू भी उजागर करती थी।

एक और गीत था जिसकी मुझे सिर्फ़ दो पंक्तियाँ याद रह गयी हैं -- ’बेर से हते, बेर से हते, मल मल के भये सवा सेर के।’

चूंकि हम सब ज्ञान के इस पहलू से वाक़िफ़ थे, इसलिए जब कुमार विकल की आवाज़ के थोड़ा मद्धम होने पर ज्ञान ने ज़ोर से गीत शुरू किया -- ’बम भोले नाथ’ के नारे के साथ -- तो सब जैसे फड़क उठे। गीत कुछ यों था --

बम भोले नाथ, बम भोले नाथ
तेरी बहन के साथ
हम काटेंगे रात
बम भोले नाथ, बम भोले नाथ
आजा जानी अन्दर में
कोई नहीं है मन्दर में
साधु-सन्त सब सोये पड़े हैं
बम भोले नाथ, बम भोले नाथ

ज्ञान और हम सब लोग बहुत लहक-लहक कर ये सारे गीत गा रहे थे और मुझे इतना याद है कि उस खुले दालान में बनारस का जत्था अपनी-अपनी रज़ाइयाँ ओढ़े हुए, विस्फारित नेत्रों से यह मंज़र देख रहा था। बाद में वाचस्पति उपाध्याय ने ’सिर्फ़’ के अगले अंक में युवा लेखक सम्मेलन की रिपोर्ट प्रकाशित करते हुए इन सारी घटनाओं का ज़िक्र कुछ ऐसे किया कि प्रतीत हो, इलाहाबाद वाले सारे गम्भीर लेखकों का शील भंग करने के लिए आये हुए थे। लेकिन तब तक वाचस्पति ने दुनिया देखी ही कितनी थी।