ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-2

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ज्ञानरंजन के बहाने - 2

इसके बाद कई महीनों तक ज्ञान, शहर में रहते हुए भी, मेरे लिए ग़ैर-हाज़िर रहा। वैसे भी, उन दिनों मेरा ज़्यादा समय दूधनाथ, सुरेन्द्रपाल, और बुद्धिसेन शर्मा के साथ गुज़रता था।

दिल्ली के नरक, और अपनी दुखद मृत्यु, की ओर जाने से पहले, सुरेन्द्रपाल लगभग रोज़ हरे रंग की अपनी रैले साइकिल पर, चमड़े का अक्सर प्रूफ़ों से भरा थैला हैण्डल से लटकाये, हमारे घर आते; प्रूफ़ पढ़ते; पाण्डुलिपियों की प्रेस-कॉपी तैयार करते, तरह-तरह की योजनाएँ बनाते, घण्टों गप्पें लड़ाते, और शहर के साहित्यिक जगत के बारे में गलचौर करते। इस सब फरफन्द के साथ सुरेन्द्रपाल रेलवे के हिन्दी अनुभाग में थे, जहाँ वे रेलवे कर्मचारियों को हिन्दी पढ़ाते थे। लेकिन इसे वे दिन में ही किसी समय निपटा देते थे। उनका एक कविता-संग्रह और आंचलिक शैली में लिखा गया एक उपन्यास ‘लोक लाज खोयी’ प्रकाशित हो चुका था, और वे भी हिन्दी के तमाम लेखक-प्रकाशकों की तरह अपना एक प्रकाशन शुरू करने की सोचते थे जो उन्होंने बाद में किया भी। मझोले क़द, गोल चेहरे, और बेहद साँवले रंग के इन्सान थे। चेहरे पर उनके माता के दाग़ थे जो थोड़ा और नुमायाँ होते अगर उनका रंग इतना साँवला न होता। सामने के दाँत थोड़ा-सा बाहर को निकले हुए थे, और पेट भी। अक्सर वे दिन में या शुरू शाम के समय कॉफ़ी हाउस या फिर कॉफ़ी हाउस परिसर में लोकभारती प्रकाशन या हमारे प्रकाशन पर चले आते। चूँकि कुलवक़्ती कलन्दर थे, इसलिए गप-शप, अफ़वाहबाज़ी, परनिन्दा - जिसे हम लोगों ने ‘रसों’ की सूची में शामिल कर दिया था - और छींटाकशी उनका शेवा था। यों, सुरेन्द्रपाल शहर के बहुत-से लोगों की चिढ़ थे। श्रीराम वर्मा ने एक बार तीखे व्यंग्य से कहा था कि सुरेन्द्रपाल हँसता है तो लगता है अफ़्रीकन दही खा रहा है।

दूधनाथ उन दिनों अपने मख़सूस तिलिस्मी अन्दाज़ में ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ के किसी ऐयार की तरह प्रेम में मुब्तिला था। उन दिनों वह शायद लीडर प्रेस में काम करता था और ख़ुल्दाबाद चौराहे से अन्दर को बसे मुहल्ले, पुरुषोत्तम नगर, से ख़ुसरो बाग़ रोड होते हुए ख़रामा-ख़रामा लीडर प्रेस आता-जाता नज़र आता। बीच में कई बार वह हमारे घर भी चला आता, किसी नयी कहानी पर अश्क जी से बात करता, मन्द-मन्द मुस्कराता और अपनी घनी बरौनियों वाली बड़ी-बड़ी आँखों की चमक से एक अजीब-सा प्रभाव डालता।

पतला-छरहरा तो जैसा वह आज है, तब भी था, लेकिन उन दिनों उसके खुलते हुए गेंहुए रंग पर एक हलकी-सी पाण्डुर आभा बनी रहती थी। आज सोचते हुए यह कहना मुश्किल है कि उस समय दूधनाथ को सबसे ज़्यादा किस चीज़ ने अपनी गिरफ़्त में ले रखा था। प्रेम ने या यक्ष्मा ने, जिसके चिह्न दूधनाथ के अजाने ही उसके चेहरे पर झलकने लगे थे। अश्क जी ने कई बाद दूधनाथ की कलाई पकड़ कर उसकी हरारत को या फिर धँसे हुए कल्लों वाले वाले उसके पाण्डुर मुख को लक्ष्य कर उससे कहा था कि दूधनाथ, तुम अपना चेक-अप करवाओ। मैं ख़ुद इस मूज़ी रोग की चपेट में आ कर किसी तरह बचा हूँ। ग़फ़लत से काम लेना दानाई नहीं है। हर बार दूधनाथ अपनी धवल दन्त पंक्ति की दूधिया आभा बिखेरते हुए ग्लाइकोडिन टर्प वसाका, बेनाड्रिल या ऐसे ही किसी कॉफ़-मिक्सचर का हवाला देता, मानो आसन्न विपदा को बरबस, केवल इच्छा के बल पर टालने की कोशिश कर रहा हो, और फिर उसी तरह हल्के-हल्के क़दम रखता हुआ, ख़रामा-ख़रामा चला जाता।

गणित की शब्दावली में दूधनाथ एक अज्ञात राशि था और यह उसकी महारत है कि वह आज तक एक अज्ञात राशि बना हुआ है। उसकी जीवनी एक भित्ति-चित्र की तरह नहीं, बल्कि एक मोज़ेक की तरह ही तैयार की जा सकती है, क्योंकि दूधनाथ को सिर्फ़ दूधनाथ ही जानता है। बाक़ियों के पास तो समय-समय पर उससे पाये ‘दर्शन’ ही हैं। उस समय बस इतना मालूम था कि उसने एम.ए. इलाहाबाद से किया था। उससे पहले वह अपने गाँव में और फिर बनारस रहा। स्थायी रूप से इलाहाबाद आने के पहले उसने कुछ समय कलकत्ते में भी बिताया। कभी वह अपना गाँव ग़ाज़ीपुर बताता, कभी बलिया। यह बात कि इलाहाबाद आने से पहले उसकी शादी हो चुकी थी और वह पत्नी से अलग हो गया था, अचानक पता चली थी जब उसकी कहानी ‘रक्तपात’ छपी थी और अश्क जी ने एक दिन उस पर दूधनाथ से लम्बी चर्चा की थी। कभी-कभार बातचीत के दौरान उसके एक मित्र विपिन का ज़िक्र आता (जिसे मैंने सिर्फ़ एक बार देखा था) या देवकुमार का जिससे मैं बाद में मिला। बाक़ी अधिकांश कोहरे में था। यह भी मुझे बाद में पता चला कि वह एम.ए. में ज्ञान का सहपाठी था, जब ज्ञान से मेरा परिचय हुआ। उस अर्से में दूधनाथ हमेशा की तरह एक रहस्य में लिपटा हुआ आता-जाता रहता। यों, इससे कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता था, क्योंकि उन दिनों जब मैं इण्टर में था, मेरी दिलचस्पी ‘अभी और अब’ में थी।

बचे बुद्धिसेन शर्मा, तो वे विभूति थे। किसी हद तक आज भी हैं; गो, आज उनकी श्वेतकेशी, वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार वाली धजा को देख कर उस ज़माने के बुद्धिसेन शर्मा की कल्पना करना कठिन है। बुद्धिसेन शर्मा लीडर प्रेस में जॉब डिपार्टमेंट में प्रूफ़ रीडर थे। इसी नाते हमारे यहाँ आने-जाने लगे थे; प्रूफ़ पढ़ने और प्रेस-कॉपी तैयार करने लगे थे। जब उन्हें रिहाइश के लिए जगह की ज़रूरत पड़ी तो अश्क जी ने एक कमरे का प्रबन्ध उनके लिए कर दिया था, जिसमें वे लगभग साधुओं-सरीखी सादगी और किफ़ायतशारी बरतते हुए दिन गुज़ारते थे। बुद्धिसेन कानपुर के रहने वाले थे, जिस शहर से - बकौल सुरेश सिन्हा - दो ही विभूतियाँ पैदा हुई थीं - बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और बुद्धिसेन शर्मा (प्राचीन)। यह तो हमें बहुत बाद में पता चला कि ‘नवीन’ जी ग्वालियर और शाजापुर होते हुए कानपुर पहुँचे और परवान चढ़े थे, कानपुर की मौलिक प्रतिभा तो बुद्धिसेन ही थे। बहरहाल, उन दिनों बुद्धिसेन शर्मा को ग़ज़ल का चस्का नहीं लगा था, वे धड़ल्ले से गीत और छन्दोबद्ध रचनाएँ करते थे, कभी-कभी स्वाद बदलने के लिए नयी कविता की तर्ज़ पर कविताएँ लिखते और ऑल इण्डिया रेडियो या फिर छोटे कवि-सम्मेलनों में सुनाते। मुझे भी वे एक बार डाक-तार विभाग द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन में ले गये जहाँ उन्होंने एक गीत सस्वर सुनाया था और मैंने अपनी एक बेहद कच्ची कविता पढ़ी थी। यह ख़ुसरो बाग़ रोड की फ़िज़ा का असर था या अचानक इलाहाबाद में कहानी का चढ़ता हुआ बाज़ार, बुद्धिसेन अक्सर अपने कमरे में कहानियाँ लिखते भी पाये जाते। यूँ वे सुरेन्द्रपाल के अनुसार चटनी थे। चटनी यानी परम ज़ायका तत्व यानी नमक। ये तीन विशेषण लगभग एक ही अर्थ में ऐसे लोगों का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किये जाते, जिनकी नुमाइन्दगी शहर के इस हिस्से में बुद्धिसेन शर्मा करते थे। लीडर प्रेस से जुड़ी प्रकाशन संस्था ‘भारती भण्डार’ के स्थायी महन्त वाचस्पति पाठक उन्हें बुद्धि-से-न कहते। सरल इतने थे कि जब बनारस का बज्र बदमाश नागानन्द मुक्तिकण्ठ, जो कुछ दिन बीटनिकों के उस्ताद कवि ऐलन गिन्सबर्ग की चिलम-भराई का काम करके कुछ शोहरत बटोर चुका था, इलाहाबाद आया और उसने ठेठ बनारसी हरामीपन से दिन में चार-पाँच बार बुद्धिसेन को कभी बुद्धिदूत, कभी बुद्धिदेव, कभी बुद्धिदास, कभी बुद्धिचन्द्र कह कर सम्बोधित किया तो वे इसे नागानन्द के सहज, स्वाभाविक भुलक्कड़पने का ही सबूत मानते रहे। मेरे शुरू के रचनात्मक जीवन पर इन तीनों का बहुत असर पड़ा।

सुरेन्द्रपाल हृदय से चाहते थे कि मैं प्रशासनिक सेवाओं की भूल-भुलैयाँ अथवा चार्टर्ड अकाउण्टेन्सी के मरुस्थल में गुम हो जाने की बजाय कोई सार्थक काम करूँ। सार्थक काम से उनकी मुराद थी - साहित्य का पठन, पाठन, अध्यापन। यही वजह है कि जब मैंने बी. कॉम. करने के बाद आगे न पढ़ने की घोषणा की थी तो सुरेन्द्रपाल ने (अश्क जी के कहने पर, हालाँकि उसमें काफ़ी कुछ प्रेरणा ख़ुद सुरेन्द्रपाल की थी) मुझसे घण्टों बहस करके मुझे क़ायल किया था कि मुझे विश्वविद्यालय में दाख़िल हो जाना चाहिए, चाहे अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. करने के लिए, चाहे हिन्दी साहित्य में। दूधनाथ मुझे हर बार एक नये विदेशी साहित्यकार को पढ़ने की सलाह देता। उसी के सुझाव पर मैंने ओसामू दजाई का उपन्यास ‘द सेटिंग सन’ पढ़ा, कामू के उपन्यास पढ़े, सेफ़रिस की कविताओं से परिचित हुआ। आज यह स्वीकार करने में मुझे रत्ती भर हिचक नहीं है कि अगर सुरेन्द्रपाल और दूधनाथ न होते तो घर में साहित्य को ओढ़ना-बिछौना बनाने के बावजूद मैं शायद लेखन की ओर न जाता, सम्भव है एक प्रबुद्ध पाठक ही रह जाता। आज पीछे मुड़ कर उसे पूरे दौर को देखता हूँ तो भारी आश्चर्य होता है। मेरी आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा जैसे हुई थी, उसके हिसाब से तो पहला विकल्प नैशनल डिफ़ेन्स अकैडेमी का ही था, जहाँ से मैं सेकेण्ड लेफ़्टिनेंट बन कर निकलता। दूसरा विकल्प प्रशासनिक सेवाओं का था। इसके बाद ही किसी और पेशे की बात सोची जा सकती थी। मेरे साथ दिक़्क़त यह थी कि मैं शुरू ही से कर्तव्य-पालन और अनुशासन-विरोध के बीच झूलता रहा। ‘अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए’ एक सुनहरा आप्त-वचन था। मुझे इससे कोई ऐसा एतराज़ भी नहीं था। लेकिन बचपन ही से मुझे ‘रेजिमेंटेशन’ से, ‘कला कला के लिए’ की तर्ज़ पर ‘अनुशासन या कठोर नियन्त्रण महज़ अनुशासन या कठोर नियन्त्रण के लिए’ से भी स्वभावगत चिढ़ थी। इसीलिए मैं मर्चेण्ट नेवी में एक ख़लासी बनना चाहता था। लूकरगंज के कुछ ऐंग्लो इण्डियन युवक, जिनसे मेरा रात-दिन का साथ था, मर्चेण्ट नेवी में ख़लासी बन गये थे और मेरी दिली ख़्वाहिश थी कि मैं भी मर्चेण्ट नेवी में चला जाऊँ। लेकिन उन दिन किसी भी नेवी में - वह फ़ौजी हो या ग़ैर फ़ौजी - नज़र का सही होना अज़हद ज़रूरी था। लेकिन मैं तो बारह साल की उमर ही से चश्मा पहन रहा था। इसलिए जब स्कूली जीवन पूरा करके मैं दिल्ली गया और मैंने अपने एक सम्बन्धी से पूछ-ताछ की और उन्होंने पक्के तौर पर कहा कि बतौर इंजीनियर तो शायद मैं मर्चेण्ट नेवी में ले भी लिया जाऊँ, ख़लासी के तौर पर असम्भव है, तो मैंने आशा छोड़ दी, क्योंकि नज़र के साथ-साथ मेरा गणित और भौतिक शास्त्र भी कमज़ोर था।

दूसरा काम जो मुझे बहुत रुचता था, वह चिकित्सा का था। मैं डॉक्टर बनना चाहता था। लेकिन यहाँ भी वही दिक्कत थी। मात्र रसायन-शास्त्र और जीव-विज्ञान में प्रवीणता के बल पर डेढ़-दो सदी पहले तो शायद मैं डॉक्टर बन भी जाता, 1960 में यह अकल्पनीय था, क्योंकि इण्टर में तो मुझे गणित और भौतिक शास्त्र की वैतरणी पार करनी ही पड़ती। तब, ये दोनों रास्ते बन्द देख कर मैंने बग़ावती अन्दाज़ में एक अलग दिशा थामी, इण्टर की परीक्षा कॉमर्स ले कर पास करने का फ़ैसला किया, दो साल का पाठ्यक्रम एक साल में पूरा किया, उसके बाद रफ़्तार के धीमी होने से पहले बी.कॉम भी कर डाला। चूँकि पढ़ने-लिखने में ठीक-ठाक था, इसलिए नम्बर अच्छे मिलते गये। मगर अन्दर तो कुछ और ही पक रहा था। कुछ और ही बीज थे जो अँकुआने के लिए मुनासिब मौसम का इन्तज़ार कर रहे थे। इसीलिए शायद मुझे बीच-बीच में बड़ी शिद्दत से महसूस होता था कि कहीं कुछ है जो ठीक नहीं है। आज यही कह सकता हूँ कि सुरेन्द्रपाल और दूधनाथ ने शायद मेरे अन्दर की यह हलचल महसूस कर ली होगी और इन बीजों के अँकुआने का जाने-अजाने प्रबन्ध कर दिया होगा, क्योंकि पिता ने तो कभी सचेत रूप से साहित्य की ओर प्रवृत्त किया नहीं था। उनके लिए साहित्य व्यवसाय या कैरियर नहीं, बल्कि जीवन-शैली था और वे मानते थे कि हर व्यक्ति अपनी जीवन-शैली का चुनाव ख़ुद करता है। यह बात अलग है कि जब मैंने साहित्य के बैलट बॉक्स में अपना मत पत्र अन्तिम रूप से डाल ही दिया तो फिर उन्होंने पिता के आसन के साथ-साथ गुरु-सहकर्मी और सखा का आसन भी ग्रहण कर लिया। सुरेन्द्रपाल और दूधनाथ के साथ, या शायद एक ही अहाते में रहने और नित सुबह-शाम की मुलाक़ात के कारण उनसे भी ज़्यादा, बुद्धिसेन शर्मा ने मेरी उस आरम्भिक और कच्ची कविताई को झेला चूंकि मुझ पर कविता का एक जुनून-सा छाया हुआ था, इसलिए रोज़ दो-एक कविताएँ लिखता और सहज सुलभ बुद्धिसेन जी को जा सुनाता। वे भी माथे पर ज़रा भी शिकन लाये बग़ैर बहुत ध्यान से उन बेहद ख़राब कविताओं को सुनते, राय देते और हौसला-अफ़ज़ाई करते।

आज उन कविताओं को देखता हूँ तो उनके अनगढ़ कच्चेपन पर हँसी आती है, साथ ही आश्चर्य भी होता है कि यह सब मेरा ही किया-कराया है। एक-डेढ़ संग्रह लायक कविताएँ तो होंगी ही, मगर आज वे अजीबो-ग़रीब और दिलचस्प लगती हैं। ‘अलिवृन्द गुंजित उपवनों में झूमता मधुमास’ के साथ-साथ

हमने तो माना था तुम्हें मुसहफ़े -एहसास-ए-तफ़सीर
अफ़सोस कि तुम शाम-ए-फ़रोज़ाँ न बन पाये

जैसी पंक्तियाँ और नयी कविता के प्रभाव में लिखी गयी कविताओं के ‘नॉस्टैल्जिया,’ ‘मशीनी ज़िन्दगी,’ ‘श्रम,’ ‘मृत्यु के पूर्व,’ ‘अँधेरे की मौत,’ ‘प्रश्न और सम्बोधन’ जैसे शीर्षक 1963-64 के उस दौर की निशानदेही करते हैं, जब एक जुनून-सा छाया हुआ था और हर रास्ते पर कुछ क़दम चलने के बाद लगता था यह तो किसी और का रास्ता है और किसी और की मंज़िल पर मुझे ले जायेगा, जहाँ वह पहले ही से आसीन होगा, मेरे लिए जगह न होगी।