ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-20

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ज्ञानरंजन के बहाने - २०


अधूरी लड़ाइयों के पार- १३

आज इतने वर्ष बाद युवा लेखक सम्मेलन को याद करते हुए कुछ बातें ज़रूर मन में उठती हैं। उस सम्मेलन में जो अराजक दृश्य देखने को मिले (जिनमें से कुछ में हम लोग बतौर कर्ता शामिल थे) और मंच पर जो गाल बजाये गये, वैसा कुछ भी इससे पहले के किसी सम्मेलन में देखने को नहीं मिला था।

इससे पहले 1957 के दोनों सम्मेलन हों या 1964-65 की इलाहाबाद, कलकत्ता और चण्डीगढ़ की कहानी परिगोष्ठियाँ, या फिर ’परिमल’ का रजत पर्व -- सब में साहित्यकार बड़ी गम्भीरता से जुटते थे, गम्भीर बातें करते थे (भले ही उनका कोई अर्थ निकले या न निकले) और सारा आयोजन ’गरिमापूर्ण’ ढंग से सम्पन्न होता था। 1970 के युवा लेखक सम्मेलन में इस सारे ढाँचे में एकबारगी पलीता लगा दिया गया। यहाँ तक कि हम लोगों में सीनियर, आदरणीय डॉ. नामवर सिंह, जो जहाँ तक मुझे याद पड़ता है 1957 के ’प्रगतिशील लेखक संघ’ के सम्मेलन के एक सत्र के संचालक भी रहे थे, यहाँ सिवा अपने ताल-तिकड़म के (जिसकी शिकायत एकाधिक लोगों ने नन्द किशोर नवल को लिख कर की जो ’सिर्फ़’ के अगले अंकों में छपी भी) और कुछ नहीं कर पाये। न तो अराजकता को काबू में कर सके, न बहसों को किसी गम्भीर दिशा में मोड़ सके और न अन्य किसी प्रकार से सम्मेलन में अपनी मेधा का योगदान कर सके। जब उनका यह हाल था तो बाकियों की तो गिनती ही क्या।

लेकिन यह सब लिखने के बावजूद इतना ज़रूर दर्ज करना आवश्यक है कि 1970 का यह युवा लेखक सम्मेलन अपनी सारी अराजकता और अगम्भीरता के बावजूद, या कहें कि उसकी वजह से, एक महत्वपूर्ण मोड़, एक प्रस्थान बिन्दु, एक ’डिपार्चर’ साबित हुआ। हो सकता है कि उस दौर की अराजकता के इस चरम पर पहुँच कर धारा फिर पलटी और एक नया युग शुरू हुआ। अकारण नहीं है कि अगले कुछ वर्षों के दौरान अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं। वे सारे लोग जो विचारशून्यता में ऊभ-चूभ कर रहे थे, धीरे-धीरे सामाजिक सरोकार और एक सच्ची प्रतिबद्ध राजनीति की ओर बढ़ने लगे। यह ठीक है कि जितेन्द्र भाटिया, विश्वेश्वर, मधुकर सिंह, इब्राहिम शरीफ़, आदि कुछ लेखक कमलेश्वर के साथ मिल कर सचेतन कहानी और समान्तर कहानी जैसे आन्दोलनों की ओर मुड़ गये, लेकिन ज़्यादातर लेखक इस आयोजन के बाद एक तरीके से आत्म-मन्थन की प्रक्रिया से गुज़रे और पिछले दौर की अराजकता और विचार शून्यता को झटक कर यथास्थिति के सच्चे विरोध की दिशा में आगे बढ़े। यह एक तरीके से इस सम्मेलन का एक पॉज़िटिव परिणाम था।

अकारण नहीं है कि इसी के बाद 1972 में प्रगतिशील लेखकों का एक बड़ा जमावड़ा बाँदा में हुआ, जहाँ कुछ और शिकनें सीधी की गयीं। इस बीच देश के हालात भी एक दूसरी दिशा की ओर बढ़ रहे थे जो अन्ततः आपातकाल में परिणत हुई। इन नयी स्थितियों से जूझने के लिए भी छोटे-बड़े पैमाने पर लेखक आपस में मिल-बैठने लगे। ’परिमल’ तो 1970 में ही दिवंगत हो चुकी थी, लेकिन ’परिमल से जुड़े लेखक तब भी मौजूद थे और उनके लिए इन नयी स्थितियों से अकेले दम मुकाबला करना सम्भव नहीं था। इसीलिए 1974 में इलाहाबाद में आपातकाल से ठीक पहले जो सम्मेलन हुआ, उसमें ’परिमल’ के सदस्य और प्रगतिशील लेखक बराबर से शरीक हुए, क्योंकि अब जो स्थिति विकसित हो रही थी, उसमें दोनों के ही अस्तित्व ख़तरे में थे।

1974 के इस सम्मेलन में मुझे याद पड़ता है कि कांग्रेसपरस्त लेखक, मिसाल के तौर पर राजेन्द्र अवस्थी और रवीन्द्र कालिया और उनके कुछ अन्य साथी, बिलकुल अलग-थलग पड़ गये थे। मगर वह एक अलग ही प्रसंग है और उसकी चर्चा फिर कभी। लेकिन इतना ज़रूर है कि 1970 के युवा लेखक सम्मेलन ने नन्द किशोर नवल के परिपत्र की उस स्थापना को पूरी तरह झुठला दिया था कि ’विभिन्न विचारों के लेखकों में भी एकता या समानता है’ और इसीलिए 1970 के बाद के युग में हमें धीरे-धीरे लेखकों के एक एमॉर्फ़स समुदाय की बजाय विचारों के हिसाब से एक ध्रुवीकरण नज़र आने लगता है। इसी दौर में भोपाल का घराना ’परिमल’ का स्थानापन्न बन कर उभरता है और धीरे-धीरे प्रगतिशील लेखकों के भी तीन संगठन उभर कर सामने आते हैं। ’नयी कहानी’ और ’नयी कविता’ ही नहीं, ’अकविता,’ ’अकहानी,’ ’समान्तर कहानी,’ ’सचेतन कहानी’ और भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी, आदि, सब-के-सब ताक पर धर दिये गये। बाद में जनवाद और रूपवाद जैसे कुछ शब्द भले ही इस्तेमाल हुए, मगर अब साहित्यिक सरोकारों की अहमियत बढ़ चली। ’वाद’ और ’आन्दोलन’ किनारे छूट गये और साहित्यिक परिदृश्य एक बार फिर समाज की तरफ़ उन्मुख हुआ, तीन प्रमुख और बुनियादी चिन्ताएँ, जो मध्यकाल से ही हमारे साहित्य का प्रमुख सरोकार रही थीं - धर्म यानी साम्प्रदायिकता, वर्णव्यवस्था यानी जातिवाद, और स्त्रियाँ -- एक बार फिर केन्द्रीय चिन्ताओं में शामिल हो गयीं। एक दूसरे तरीके से कहा जाय तो 1970 से पहले की दुनिया पुरानी दुनिया थी और उसकी तरफ़ लौटना सम्भव नहीं था। रास्ता सिर्फ़ आगे जाता था और थोथी आदर्शवादिता और भाववाद की जगह एक ज़्यादा यथार्थवादी दृष्टिकोण इस दौर में विकसित हुआ।