ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-23

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ज्ञानरंजन के बहाने - २३


मित्रता की सदानीरा - २


बहरहाल, वापस ज्ञानरंजन की तरफ आयें तो जहां तक मुझे याद पड़ता है, ज्ञान के साथ पिछले कुछेक झटकों के बाद एक सिलसिला बैठ गया था, लेकिन जैसा कि मैंने कहा, यह नया दौर पिछले दौर की तुलना में और अधिक ऊबड़-खाबड़ साबित होने वाला था और इसके कुछ बाहरी कारण भी थे। ‘आधार’ का सम्पादन करने के बाद ज्ञानरंजन के अपने लिखने-लिखाने की रफ्तार कुछ-कुछ मन्द पड़ चली थी। बहुत ज़्यादा तो वह पहले भी नहीं लिखता था, लेकिन उसमें एक नियमित गति थी। 1970 के बाद इस गति में कुछ धीमापन आ गया। जिस रूकी हुई कहानी का जिक्र ऊपर के अ'पने पत्र में ज्ञान ने किया था, वह गालिबन ‘अनुभव’ थी, जो 1972 में जाकर छपी और जिसके बाद ज्ञान ने फिर कोई कहानी नहीं लिखी। हो सकता है यह कहानी ‘बहिर्गमन’ हो जो अशोक वाजपेयी द्वारा सम्पादित ‘पहचान’ श्रृंखला में छपी थी। चूंकि ‘पहचान’ की किसी भी संख्या की किसी भी पुस्तिका पर सम्पादक-प्रकाशक-मुद्रक ने प्रकाशन वर्ष अंकित करने की जिम्मेदारी नहीं निभायी है, इसलिए पक्के तौर पर कुछ कहना सम्भव नहीं। हां, इतना भर निश्चित है कि ‘घण्टा’ का प्रकाशन ‘कथा’ में 1968 में हुआ था और उसके बाद ज्ञान ने दो ही कहानियाँ लिखीं। ‘अनुभव’ के बाद हालांकि ज्ञान ने अपने प्रस्तावित उपन्यास के दो अंश भी छपाये, लेकिन वह उपन्यास भी पूरा नहीं हो पाया। बाद में, जब उसने ‘पहल’ का सम्पादन प्रकाशन शुरू किया तो वह उसमें इतना रम गया कि लिखना उससे छूटता चला गया।

हमने -- मैंने और दूधनाथ ने -- कई बार इस पर माथापच्ची की है कि आख़िर ज्ञान ने लिखना क्यों बन्द कर दिया। इस सवाल पर सोचते हुए मुझे कई कारण सुझायी देते हैं और यह मेरा नितान्त निजी आकलन है। ज्ञान का लेखन नेहरू युग में शुरू हो कर उससे मोहभंग के युग में परवान चढ़ा था। इस मोहभंग का पहला संकेत ‘नयी कहानियाँ’ में प्रकाशित पिछली पीढ़ी के कथाकार अमरकान्त की कहानी ‘हत्यारे’ से मिलना शुरू हुआ था। नेहरू युग से मोहभंग ने हिन्दी साहित्य में कुछ दिलचस्प प्रवृत्तियाँ पैदा की थीं। ‘भटका मेघ’ जैसी कविता लिखने वाली श्रीकान्त वर्मा अनास्था और आक्रोश की मूठहीन तलवार भांजने लगे थे। चूंकि जनवादी आंदोलन और वामपन्थी धारा का ज्वार तब तक दीर्घकालीन भाटा बन गया था, चुनांचे ‘नयी कविता’ की अस्थिर आत्म-केन्द्रित मनोभूमि को ध्वस्त करते हुए ‘अकविता’ जैसा आक्रोश-भरा, लेकिन पूरी तरह दिशाहीन, अराजक और विचार-शून्य काव्यान्दोलन उभरा, जिसने कुछ पुराने वामपन्थियों को भी लपेटे में ले लिया।

इसी दौर में अगर दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया की कहानियों पर नज़र डालें तो उनमें एक निहिलिज़्म, एक नकारवाद साफ-साफ दिखायी देता है। रवीन्द्र कालिया और काशीनाथ सिंह ने तो यह नकारवाद ओढ़ा हुआ था, जैसा कि रवि की कहानी ‘5055’ में या फिर काशीनाथ सिंह की ‘अपने लोग’ में नज़र आता है; लेकिन दूधनाथ और ज्ञान, दोनों ही -- एक चालू फिकरे का इस्तेमाल करूं तो -- आस्था के साथ अनास्थावादी थे। इनमें भी दूधनाथ का नकारवाद उसकी अपनी प्रकृति की देन था और ‘सारिका’ में छपी कहानी ‘बिस्तर’, से ले कर ‘सुखान्त’ और ‘धर्मक्षेत्रो कुरूक्षेत्रे’ से होते हुए ‘नमो अन्धकारम’ और ‘निष्कासन’ तक चला आया है। फ़र्क़ बस इतना है कि पहले यह नकारवाद आत्म-हनन और अवसाद से रंजित था, धीरे-धीरे वह दूसरों के द्वेषपूर्ण हनन और आत्म-विभोरता और आत्म-गौरवीकरण की ओर चला गया है।

ज्ञान में चूंकि सामाजिक सरोकार की अन्तर्धारा शुरू ही से मौजूद थी, इसलिए उसका नकारवाद सच्चे सामाजिक विक्षोभ की उपज था और ‘बीटनिक’ आन्दोलन भी उसे प्रभावित करने के बाद इस राह से डिगा नहीं सका। ‘अमरूद का पेड़’, ‘शेष होते हुए’ और ‘फेन्स के इधर और उधर’ हो या ‘घण्टा’ और ‘बहिर्गमन’ ज्ञान की नज़र और कलम मध्यवर्ग के पाखण्ड को उघाड़ने से नहीं चूकती रही। अजीब बात है कि 1972 में छपी कहानी ‘अनुभव’ को जब हाल ही में दोबारा मैंने पढ़ा तो मुझे हैरत के साथ यह एहसास हुआ कि अपने समय की यह फ़्लाप कहानी समय से बहुत आगे की हकीकतें बयान करती है।

मुझे यह भी लगा कि काश, ज्ञान ने ‘अनुभव’ की अनगढ़ता को थोड़ा और बरदाश्त किया होता। अपने अर्जित सांचे को नयी सामग्री के अनुरूप तोड़ कर फिर से ढालने में वक्त लगता ही है। लेकिन ज्ञान तो तीखे जुमलों और नश्तर जैसी काट का कायल था। उसका कथ्य भले ही मध्यवर्ग का माहौल रहा हो, पर उस मध्यवर्ग की परतों को उघाड़ने में उसकी भाषा-शैली, उसका अन्दाज़े-बयाँ बिलकुल उसका अपना था। और जब कोई भाषा-शैली की शमशीर पर सान चढ़ाता चला जायेगा तो एक दिन हाथ में मूठ ही बचेगी। शायद ज्ञान में वह धैर्य, वह सलाहियत नहीं थी कि अपने ही बनाये अप्रतिम सांचे को तोड़ कर नया सांचा गढ़े, जैसा कि निराला ने किया, सर्वेश्वर और रघुवीर सहाय ने किया। उसकी कला पहले एक क़िला बनी, फिर एक क़ैद। एक कारण और भी था। निहिलिज़्म के पहले दौर में ज्ञान ने सारी मध्यवर्गीय संस्थाओं पर कटाक्ष किये थे। घर उसके लिए आश्रम था, विवाह हास्य-रस से लबरेज़, पिता अपनी ताक़त से आदर-भरी खीझ उपजाने वाली दीवार जिससे टकराना ज़रूरी था, बच्चे और बच्चों के प्रति लोगों का लाड़-प्यार, मज़ाक़ का मौज़ूं। लेकिन इस दौर के बाद ज्ञान ने जब ख़ुद विवाह किया, बाप बना और घर बसाया तो इन सब चीज़ों का मखौल उड़ाना या उन पर कटाक्ष करना सम्भव न रहा।

(जो लोग ज्ञान को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस बात से वाक़िफ़ हैं कि ज्ञान में प्यार लौटाने की अकूत क्षमता है। जिन दिनों वह अपनी मारक कहानियाँ लिख रहा था, उन दिनों भी अपने बड़े भाई श्रीरंजन के बच्चों से उसका बहुत स्नेह-भरा सम्बन्ध था, श्रीरंजन के बड़े बेटे को वह अक्सर ‘पप्पू गुण्डा आलू चाप’ के नारे से सम्बोधित करता था। यह तो मध्यवर्गीय दोहरापन था, जो ज्ञान को व्यंग्य की तरफ ले जाता था। लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि दूधनाथ का निहिलिज़्म उसे जिस तरह ‘सुखान्त’ की गलदश्रु भावुकता और आत्म-गौरवीकरण की तरफ़ ले गया ज्ञान ने वह रास्ता अख़्तियार करने की बनिस्बत कुछ समय के लिए लिखना मुल्तवी करने का फैसला किया होगा और फिर यह वक़्फ़ा एक अल्लंघ्य खाई बन गया होगा।)

इन सबके अलावा सबसे बड़ा परिवर्तन 1967-68 के नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन ने घटित किया। उसने वामपन्थ की समझौतावादी धारा को चुनौती भी दी और वामपन्थ को मंच के बीचों-बीच ला भी खड़ा किया। देखते-ही-देखते सारे नकारवादी ख़ास तौर पर ‘अकविता’ और ‘नयी कविता’ के हवाबाज़ हवा हो गये और वे रचनाकार जिन्हें इस बीच ‘आत्मा का अनुसन्धान’ करने वालों ने हाशिये पर धकेल दिया था, मगर जो बराबर लिख रहे थे -- नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर -- सब एक बार फिर साहित्य की हिरावल पांत से आ मिले, सबका पुनर्वास हुआ। 1970 के युवा लेखक सम्मेलन में चाहे जितनी अराजकता हुई हो, मगर उसका सबसे बड़ा योगदान समूचे हिन्दी साहित्य की बहस को जनवाद की तरफ उन्मुख करने का भी था।