ज्ञान और अनन्य भक्ति / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
इस प्रकार हमने देखा कि जिस भक्ति के नाम पर बहुत चिल्लाहट और नाच-कूद मचाई जाती है और जिसे ज्ञान से जुदा माना जाता है वह तो घटिया चीज है। असल भक्ति तो अद्वैत भावना, 'अहं ब्रह्मास्मि' - मैं ही ब्रह्म हूँ - यह ज्ञान ही है। इसीलिए 'अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्' (9। 22) में यही कहा गया है कि 'भगवान को अपना स्वरूप - अपनी आत्मा - ही समझ के जो उसमें लीन होते हैं, रम जाते हैं तथा बाहरी बातों की सुध-बुध नहीं रखते, उनकी रक्षा और शरीर यात्रा का काम खुद भगवान करते हैं।' यहाँ अनन्य शब्द का अर्थ है भगवान को अपने से अलग नहीं मानने वाले। इसीलिए अगले श्लोक 'येऽप्यन्य देवताभक्ता:' (9। 23) में अपने से भिन्न देवता या आराध्यदेव की भक्ति का फल दूसरा ही कहा गया है। 'अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:। तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:' (8। 14) में भी यही बात कही गई है कि 'जो भगवान को अपनी आत्मा ही समझ के उसी में प्रेम लगाता है उसे भगवान सुलभ हैं - कहीं अन्यत्र ढूँढ़े जाने की चीज है नहीं।' यदि असल और सर्वोत्तम भक्ति ज्ञान रूप नहीं “भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वत:। ततो मां तत्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्' (18। 55) श्लोक में क्यों कहते कि 'उस भक्ति से ही मुझे बखूबी जान लेता है और उसके बाद ही मेरा रूप बन जाता है।' जानना तो ज्ञान से होता है, न कि दूसरी चीज से। इससे पूर्व के श्लोक 'ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा' आदि में उसे ब्रह्मरूप कह के समदर्शन का ही वर्णन किया है। समदर्शन तो ज्ञान ही है यह पहले ही कहा गया है। यहाँ उसी समदर्शन को भक्ति कहा है। इस संबंध में और बातें आगे लिखी हैं।
इससे इतना सिद्ध हो गया कि जब ब्रह्म हमीं हैं ऐसा अनुभव करते हैं, तो प्रेम के प्रवाह के लिए पूरा स्थान मिलता है और उसका अबाध स्रोत उमड़ पड़ता है। क्योंकि वह प्रवाह जहाँ जा के स्थिर होगा वह वस्तु मालूम हो गई। मगर निषेधात्मक मनोवृत्ति होने पर ब्रह्म हमसे अलग या दूसरी चीज नहीं है, ऐसी भावना होगी। फलत: इसमें प्रेम-प्रवाह के लिए वह गुंजाइश नहीं रह जाती है। मालूम होता है, जैसे मरुभूमि की अपार बालुका-राशि में सरस्वती की धारा विलुप्त हो जाती है और समुद्र तक पहुँच पाती नहीं, ठीक वैसे ही, इस निषेधात्मक बालुका-राशि में प्रेम की धारा लापता हो जाती और लक्ष्य को पा सकती है नहीं। यही कारण है कि विधि-भावना ही गीता में मानी गई है। भक्ति की महत्ता भी इसी मानी में है।