ज्ञान और भक्ति / बालकृष्ण भट्ट
ज्ञान और भक्ति दोनों परस्पर प्रतिकूल अर्थ के द्योतक मालूम होते हैं, ज्ञान के अर्थ हैं जानना या जानकारी और ज्ञ धातु से बना है। भक्ति भज धातु से बनी है जिसके अर्थ हैं सेवा करना या लगाना (टू सर्व आर टू डिवोट)। मनुष्य में जानकारी स्वच्छंद या सर्वोपरि रहने के लिए प्रेरणा करती है, जो अज्ञ या अबोधोपाहत हैं वे ही दूसरे के अधीन या मातहत रहना पसंद करते हैं। एक या दो मनुष्यों की कौन कहे समस्त जाति की जाति या देश का देश के साथ यह पूर्वोक्त सूत्र लगाया जा सकता है। अमेरिका में ईस्ट इंडियंस और अफ्रीका के काफिर अथवा काले कुरूप हब्शी क्यों गुलाम बना लिये गये और यूरोप की सभ्य जाति ने सहज में उन्हें जीत अपने वशंवद तथा अधीन बना लिया? इसलिये कि इन हब्शियों में तथा ईस्ट इण्डियंस में ज्ञान तथा बुद्धि तत्व की कमी थी जो सर्वथा अज्ञ और अबोधोपहत होते हैं। ज्ञान आध्यात्मिक उन्नति (स्पिरिचुअल प्रोग्रेस) का मुख्य द्वार है। नेशन में 'नेशनैलिटी' जातीयता और आध्यात्मिक उन्नति (स्पिरिचुअलिटी) दोनों साथ-साथ चलती हैं अर्थात् कोई कौम जब तक अपनी पूरी तरक्की पर रहती है तब तक रूहानी तरक्की का घाटा या अभाव उसमें नहीं पाया जाता।
भारत में वैदिक समय आध्यात्मिक उन्नति का मानो एक उदाहरण था, ज्यो-जयों उसमें अंतर पड़ता गया। भारत आरत दशा में आय बराबर नीचे को गिरता गया। उपरांत पुराणों की सृष्टि ने लोगों में बुद्धि का पैनापन न देख भक्ति को उठाय खड़ी किया इसलिये कि लोग ब्रह्यचर्य क ह्रास से बुद्धि की तीक्ष्णता खो बैठे थे उतने कुशाग्र बुद्धि के न रहे कि आध्यात्मिक बातों को भली-भाँति समझ सकें। भक्ति ऐसी रसीली और हृदयग्राहिणी हुई कि इसका सहारा पाय लोग रूखे ज्ञान को अवज्ञा और अनादर की दृष्टि से देखने लगे और साथ ही साथ जातीयता नेशनैलिटी को भी विदाई देने लगे-जिसके रफूचक्कर हो जाने से भारतीय प्रजा में इतनी कमजोरी आ गई कि पश्चिमी के देशों से यवन तथा तुरुष्क और मुसलमानों को यहाँ आने का साहस हुआ।
इसी बीच स्वामी शंकराचार्य जन्म ग्रहण कर उसी रूखे ज्ञान को पुन: पुष्ट करने लगे-"संसार सब मिथ्या स्वप्न सदृश हैं, हमी ब्रह्म हैं, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क दोनों एक और बंधन के हेतु हैं" इत्यादि-इत्यादि न जानिये क्या-क्या खुराफत प्रीच करने लगे-यहाँ तक कि प्रच्छन्न बौद्ध इन आधुनिक वेदांतियों के अद्वैतवाद से महर्षि कृष्णद्वैपायन के वेदांत के दर्शन में बड़ा अंतर पड़ गया। प्रेम, सहानुभूति, प्राणपण के साथ स्वदेश गौरव का ममत्व, आदि जो जातीयता के बढ़ाने के प्रधान अंग हैं सबों पर पानी फिर गया, आध्यात्मिक उन्नति जिसका ज्ञान एक अंग हैं उसमें शंकर के अद्वैतवाद का कुछ भी असर न पहुँचा। बौद्धों को पराजित कर हिंदुस्तान से निकाल देने ही के लिये शंकर महाराज की विशेष चेष्टा इसलिये सायन, माधव, वाचस्पति आदि इनके अनुयायी तथा कुमारिल और गौड़पाद प्रभूति महापंडित जो शंकर के समकालीन थे इन सबों की चेष्टा भी केवल बाद के ग्रंथ निर्माण पर विशेष हुई। आर्षप्रणाली छहों शास्त्र की सर्वथा भुला दी गई केवल बाद मात्र रहा, आध्यात्मिक विषयक वास्तविक 'प्रैक्टिकल' कुछ न रहा। हम पहले सिद्ध कर चुके हैं आध्यात्मिक उन्निति (स्पिरिचुअल प्रोग्रेस) और जातीयता (नेशनैलिटी) या (पॉलिटिक्स) मुल्की जोश साथ-साथ चलते हैं।
हमारे यहाँ जिस समय मुहम्मद गोरी आदि अत्याचारी मुसलमान विजेता सब ओर से देश को आक्रमण किये डालते थे उस समय संस्कृत में प्रत्येक विषय के कैसे-कैसे आकर ग्रंथ निर्माण किये गये पर उनमें पॉलिटिक्स की कहीं गंध नहीं पाई जाती। वही चाल अब तक संस्कृत के पुराने पंडितों में कायम है। लड़ना-भिड़ना केवल अबोधोपहत राजपूत बेचारे विषय-लम्पट कतिपय राजाओं ही में रह गया। देश के विद्वानों में इसका कुछ भी असर न पड़ा। अंत को यह कहावत ही चल पड़ी "कोई नृप होहिं हमें का हानी। चेरी छोड़ न होउब रानी" और अब तो इस अंग्रेजी राज में दक्षिणा-लंपट इन कोरे पंडितों का कुछ अद्भुत हाल हो गया कि जिससे कुछ संशोधन या देश का उद्धार है उसमें जहाँ तक वश चलता है अड़चन डालने को मुस्तैद रहते हैं। क्षत्रियों में जब जोश बाकी न रहा तो इन पंडित और ब्राह्मण बेचारों की कौन बात रही? तालीम की धारा में सभ्यता के सामने ब्राह्मणों की चतुराई का खुलासा इनके वर्तमान बिगड़े हुए हिंदू धर्म को पूछता कौन है?
अस्तु, इसी समय स्वामी रामानुज तथा मध्वाचार्य जन्म लै सेव्य-सेवक भाव की बुनियाद डाल अहं ब्रह्मास्मि के प्रचार को बहुत कुछ ढीला किया पर दासोस्मि कह इतना दास्य भाव और गुलामी को लोगों की नस-नस में भर दिया कि जिसमें ब्रह्मास्मि ही बल्कि अच्छा था कि लोगों में स्वच्छंद रहने की उत्तेजना तो पाई जाती थी। भक्ति का रसीला शुद्ध-स्वरूप वल्लभाचार्य विशेष कर कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दिखाया। प्रेम, सहानुभूति, ऐक्य आदि अनेक बातें जो हमारे में 'नेशनैलिटी' कायम रखने के मुख्य अंग हैं उनकी जड़ जहाँ तक बन पड़ा पुष्ट किया पर ये लोग ऐसे समय में हुए जब देश का देश म्लेच्छाक्रांत हो रहा था और मुसलमानों के अत्याचार से नाकों में प्राण आ लगे थे। इससे आध्यात्मिकता पर इन्होंने बिलकुल जोर न दिया बल्कि यह कहना अनुचित न होगा कि ऋषि प्रणीत को हल के इन आचार्यों ने सब भाँति तहस-नहस कर डाला। भक्ति-मार्ग की उन्नति की गई किंतु हमारी आध्यात्मिक अवनति के सुधार पर किसी की दृष्टि न गई। शुद्ध स्फटिक-सी भक्ति की जो विमल मूर्ति थी उसमें से कज्जल-सी कालिमा का उद्गार होने लगा। मूर्खता संक्रमित हिंदू जाति के लिये, यह भक्ति बानर के हाथ में मणि के सदृश हुई। अब इस भक्ति में दंभ जितना समा गया उतना चित्त की सरतला, अकौटिल्य और सचाई नहीं पाई जाती। भक्ति मार्ग के स्थापित करने वाले महाप्रभुओं के समकालीन भक्त जनों में सच्ची भक्ति का पूर्ण उद्गार था, उन महात्माओं का कितना विमल चित्त था, अकुटिल भाव के रूप थे, यही कारण है कि उन्हें भगवान् का साक्षात्कार हुआ। मीराबाई, सूरदास, कुंभनदास, सनातन गोस्वामी आदि कितने महापुरुष ऐसे हा गये जिन के बनाये भजन और पदों में कैसा असर है जिसे सुन चित्त आर्द्र हो जाता है। मुल्की जोश की कोई बात तो इन लोगों में भी न थी उसकी जड़ ही न जानिये कब से हिंदू जाति के बीच रो उखड़ गई पर परमार्थ साधन और आर्जव के तो वे सब लोग स्तंभ सदृश हो गये।
अब ऐसे लोग इस भक्ति मार्ग में क्यों नहीं होते यही एक पक्का साबूत है कि अब इसमें भी केवल ऊपरी ढोंग-मात्र रह गया। वास्तविक कोई बात न बच रही जिससे हमारे हिंदू धर्म के विरोधियों को यह कहने का मौका अलबत्ता मिला कि यहाँ आध्यात्मिकता कुछ नहीं है। दुनिया भर को अध्यात्म का रास्ता दिखानेवाला भारत आध्यात्मिक विषय से शून्य है। ऐसा कहने और मानने वालों की कुंठित बुद्धि को हम कहाँ तक पछतायँ? तवारीखों से साबित है कि ईसा और मुहम्मद आदि यहाँ का कण-मात्र पाय सिद्ध हो गये। वही भारत के संतानों को समय के बलाबल से यह सब सुनना पड़ता है, सात समुद्र के पास से आय विदेशी लोग अब हमें ज्ञान देने और सभ्यता सिखाने का दावा बाँध रहे हैं; लाचारी है।
मार्च, 1903 ई.