ज्ञान के अथाह समुद्र में पैठकर / स्मृति शुक्ला
डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय एक ऐसे व्यक्तित्व, ऐसे सर्जक, ऐसे आलोचक, ऐसे नाटककार, ऐसे सम्पादक का नाम हैं, जिन्होंने श्रेष्ठता के मानक रखे हैं। शास्त्रीय और व्यावहारिक आलोचना-पद्धति के साथ भारतीय ओर पाश्चात्य आलोचना के तत्त्वों को आत्मसात कर उन्होंने आलोचना की एक नयी शैली विकसित की जिसे हम सर्जनात्मक आलोचना कह सकते हैं। प्रभाकर श्रोत्रिय ने आलोचना के प्रचलित ओर रूढ़ हो चुके चौखटे को तोड़कर अपनी मौलिक आलोचना-पद्धति और ऐसी समर्थ और वजनदार भाषा निर्मित की है, जो हिन्दी के किसी आलोचक के पास नहीं है। उन्होंने 'अक्षरा', 'साक्षात्कार', 'वागर्थ', ‘नया ज्ञानोदय', 'पूर्वग्रह' और ‘समकालीन साहित्य' जैसी पत्रिकाओं का सफल सम्पादन किया। श्रोत्रिय जी के सम्पादन काल में ये पत्रिकाएँ उत्कृष्टता के शिखर को स्पर्श कर रही थीं। पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री के चयन का एकमात्र आधार उस सामग्री की स्तरीयता ही थी। श्रोत्रिय जी ने विभिन्न पत्रिकाओं का सम्पादन करते हुए सम्भावनाशील लेखकों की खोज की ओर अपना एक नया पाठक-वर्ग भी तैयार किया। उनके द्वारा सम्पादित पत्रिकाओं में जहाँ एक बुद्धिजीवी के लिए बौद्धिक खुराक होती थी तो सामान्य पाठक के स्तर की भी कुछ सामग्री होती थी इस कारण इन पत्रिकाओं के बहुत से पाठक बने। हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में प्रभाकर श्रोत्रिय का योगदान इतना अधिक ओर बहुआयामी है कि बहुत आसानी से इसका मूल्यांकन सम्भव नहीं है। श्रोत्रिय जी मौन रहकर अपनी साहित्य साधना में लगे हुए एक से बढ़कर एक नायाब कृतियों की सौगात साहित्य- जगत् को सौंपते रहे हैं। (आलोचना की तीसरी आँख', ‘कवि परम्परा तुलसी से त्रिलोचन तक', 'रचना एक यातना है', 'कालयात्री है कविता', 'मेघदूत एक अन्तर्यात्रा' जैसी पच्चीसों आलोचना पुस्तकों के बाद शोध-समीक्षात्मक ग्रन्थ 'भारत में महाभारत’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है।
'भारत में महाभारत' हिन्दी साहित्य की अद्भुत कृति है। यह महाभारतीय ज्ञान का ऐसा समुद्र है जिसमें श्रोत्रिय जी के सर्जक आलोचक और तत्त्वान्वेषी विवेक रत्न बिखरे हैं। 'मेघदूत' की भाँति 'महाभारत' भी श्रोत्रिय जी को अपनी ओर खींचता रहा है इसलिए 'शाश्वतोऽयं' की रचना हुई। 'भारत में महाभारत' के पूर्व 'शाश्वतोऽयं' में महाभारत की कहानियों को नये सन्दर्भों में व्याख्यायित किया गया है।
श्रोत्रिय जी ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही महाभारत” को अब तक प्रचलित मतों से इतर सर्वथा नवीन दृष्टि से देखा है। 'भारत में महाभारत' के पूर्वारम्भ में ही स्पष्ट किया है कि महाभारत धर्म-ग्रन्थ नहीं है, उल्टे इसका धर्म-विवेचन कई बार रूढ़ धर्म शास्त्रीय धारणा को ध्वस्त कर देता है। महाभारत को इतिहास कहा है, पर वह मानवता के विकास की कथा है। महाभारत के विषय में प्रचलित तीसरे मत कि 'यह एक युद्ध कथा है' का भी बहुत विवेक-सम्मत ढंग से खंडन करते हुए प्रभाकर श्रोत्रिय कहते हैं कि यह युद्ध कथा नहीं है, युद्ध इसमें एक अर्थ में प्रासंगिक है। कृष्ण और अर्जुन के योग से जिस विजय का उद्घोष है “वह युद्ध की पराजय है' क्योंकि निस्तरंग शान्ति, द्वन्द्वों के बीच ही जन्म लेती है इसलिए यह महाकाव्य शान्ति का महा आख्यान है। श्रोत्रिय जी की ये स्थापनाएँ जहाँ पहले पाठक को चौंकाती हें फिर उनके तर्कों का कायल होकर पाठक इस पुस्तक के सघन ज्ञान अरण्य में प्रवेश करने को व्याकुल हो जाता है। प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने महाभारत की तुलना समुद्र से की है समुद्र अगाध है, रत्नाकार है, अमृत और विष का, लक्ष्मी और अलक्ष्मी का जनक है। समुद्र की अपनी मर्यादा है ,पर कुपित होकर सुनामी, कैटरीना और फैमिनी जैसे तूफानों के रूप में विनाश भी करता है। प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने इसी विचार को केन्द्र में रखकर महाभारत को समुद्र कहा है। उन्होंने महाभारत के इस श्लोक को उद्धत किया है-
यथा समुद्रो भगवान यथा हि हिमवान गिरि:
ख्याताकभौ रत्ननिधि तथा भारत मुच्यते।। स्वर्गा 5/65
महाभारतकार का कहना है कि महाभारत समुद्र है, हिमालय है। दोनों रत्ननिधि हैं, जिनमें कोई चाहे जितने रत्न निकाले, वे अकिंचन नहीं होते, न कभी किसी को कुछ देने से इनकार करते हैं। श्रोत्रिय जी मानते हैं कि महाभारत ऐसा ही ग्रन्थ है जो हजारों नये ग्रन्थों के प्रणयन की प्रेरणा का आधार बना। इसकी कथाओं, उपकथाओं ओर सांकेतिक कथाओं से हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं ओर विदेशी भाषाओं और विदेशी भाषाओं के रचनाकारों ने अपनी रचनाओं के लिए आधार सूत्र ग्रहण किए
प्रभाकर श्रोत्रिय ने भारत में महाभारत की भूमिका में लिखा है - “महाभारत जैसे विराट काव्य के अनुसृजन, पुनः सृजन का अध्ययन कितना दुःसाध्य है, यह मुझे तब पता चला, जब मैंने यह कार्य प्रारम्भ किया।” 'भारत में महाभारत' बहुत ही वैज्ञानिक पद्धति पर लिखी एक अनुसन्धानात्मक पुस्तक है। हिन्दी में महाभारत पर मौलिक शोध न के बराबर हुआ है। प्रभाकर श्रोत्रिय की यह कृति इस अभाव की पूर्ति करती है। यह उनके सुचिन्तित बौद्धिक उत्कर्ष की परिणति है। श्रोत्रिय जी अपनी इस कृति को रचते-रचते स्वयं महाभारत को उपजीव्य बनाकर लिखी गई रचनाओं में डूब गए और फिर नया चिन्तन प्रारम्भ कर इस ग्रन्थ का सृजन किया। प्रभाकर श्रोत्रिय मौलिक चिन्तक हैं और अपने प्रत्येक ग्रन्थ में वे नये स्थापत्य रचते हैं। उनकी पुस्तक 'मेघदूत एक अन्तर्यात्रा' इस बात का प्रमाण है।
इस ग्रन्थ की एक खास बात यह है कि प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने महाभारत को काव्यशास्त्र का स्रोत मानकर हिन्दी में सर्वप्रथम यह मत स्थापित किया है कि 'महाभारत' काव्यशास्त्र का पहला आधार है। उन्होंने लिखा है- “महाभारत में कई आयामों पर विचार हुआ है, परन्तु यह कृति काव्य शास्त्र की माँ है, इस पर ध्यान नहीं दिया गया। यहाँ तक कि काव्यशास्त्रियों ने भी इसे नज़रअन्दाज किया।” आगे उन्होंने लिखा कि “महाभारत भरत मुनि के नाट्य शास्त्र के पूर्व ही अपना अन्तिम रूप ले चुका था फिर भी काव्यशास्त्रियों ने महाभारत की बजाय भरत के नाट्यशास्त्र को अपना आधार बनाया।” (पृ. 23)
महाभारत काव्य शास्त्र का आधार मानने के लिए श्रोत्रिय जी के पास पर्याप्त ओर अकाटय तर्क हैं, वे लिखते हैं- “नाट्यशास्त्र को काव्यशास्त्र का स्रोत मानने से उसमें गम्भीर विसंगतियाँ पैदा हुईं। क्योंकि नाट्यशास्त्र नाटक का मूल 'विभाव' है ,जबकि काव्य का मूल 'शब्द' है। भरत के रस सिद्धान्त के आधार पर काव्य में रस-निष्पत्ति की लम्बी बहस एक तरह से नाट्य से काव्य का उद्धव बताती है। जबकि होना इसके उल्टा था। काव्य में नाटक निहित है, न कि नाटक में काव्य। 'दृश्य' और श्रव्य काव्य के ही भेद हैं। भरत ने रस सूत्र में जिस काव्य शब्द का प्रयोग किया है वह लक्षणा से नाट्य का स्थानापन्न है।” (पृ. 23 ) उपर्युक्त उद्धरण से पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि प्रभाकर श्रोत्रिय जी के चिन्तन में नया क्या है। हिन्दी साहित्य में आज तक नाट्यशास्त्र ही काव्यशास्त्र का आधार बना हुआ है, लेकिन प्रभाकर श्रोत्रिय ने महाभारत को काव्यशास्त्र का आधार माना है। हिन्दी के विद्वानों को इस मत को गम्भीरता से लेकर श्रोत्रिय जी का ऋणी होना चाहिए। प्रभाकर श्रोत्रिय के पास प्राचीन संस्कृत साहित्य के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान की अकूत सम्पदा है; इसीलिए वे इतना मौलिक चिन्तन कर नवीन मत स्थापित कर पाए हैं। उन्होंने भामह, दंडी ओर अन्य परवर्ती आचार्यों के गम्भीर विवेचन के साथ महाभारत में उग्रश्नवा के कथन को उद्धृत किया है- ग्रन्थ ग्रन्थि तथा चकेर मुनिगूढ़ कुतुहलात् तथा तच्छुलोक कूटमद्यापि ग्रन्थितं सुदृढ़े मुनेः।” (पृ. 26) प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने महाभारत के आदि पर्व के इन दो सूत्र-कथनों से भारतीय ध्वनि सिद्धान्त और पश्चिम के अभिव्यंजनावाद को उद्धाटित माना है। श्रोत्रिय जी ने माना है कि ध्वनि के अतिरिक्त अलंकार, रीति वक्रोक्ति और ओचित्य जैसे सभी सिद्धान्तों के समुचित संकेत महाभारत में हैं। महाभारत ही काव्यशास्त्र का जन्मदाता है। विद्वानों ने महाभारत की पहचान स्रोत ग्रन्थ के रूप में यथासमय न कर, भारतीय काव्यशात्त्र को डेढ़ हजार साल पीछे धकेल दिया ओर काव्यशात्त्र के सन्दर्भ में भरत की रस निष्पत्ति पर बहस करते हुए तीन सौ साल तक काव्य के मूल स्वरूप पर ध्यान नहीं दिया।” प्रभाकर श्रोत्रिय की भारत में महाभारत' में महाभारत की अन्तरात्मा में गहरे धँसकर निकाले गए अद्वितीय रत्न हैं। यह विराट और मानवीय भावनाओं की ऊष्मा से स्पन्दित ग्रन्थ है जिसमें पूरे भारत की ‘साहित्यिक और सांस्कृतिक धारा प्रवहमान है।'
प्रभाकर श्रोत्रिय ने भारत में महाभारत' के अनुसन्धानात्मक सृजन के लिए अथक परिश्रम किया है। विभिन्न भारतीय भाषाओं, संस्कृत भाषा ओर हिन्दी में महाभारत की कथाओं, उपकथाओं, घटनाओं , पात्रों ओर प्रतीकों से जन्मी हजारों रचनाओं का न केवल गहन अध्ययन किया, वरन् उनके स॒जन आयामों की भी खोज की। श्रोत्रिय जी की इन खोजों पर पाठक मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। प्रभाकर श्रोत्रिय अपने तत्त्वभेदी लोचनों से और अर्थवान् शब्दों के योग से इन रचनाकारों की अन्तर्दृष्टि को पाठकों के सामने लाते हैं। इतना ही नहीं वे हजारों साल पुरानी कथा महाभारत को आज के समय की धारा में तैरकर अपने लेखकीय कौशल और ज्ञान की पतवार से साहित्य के घाट पर लगाकर, नयी पीढ़ी को चिन्तन के नए आयाम देते हैं। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूँ कि नयी पीढ़ी को 'भारत में महाभारत' में समेटी गई शताधिक कृतियों को पढ़ने में ही वर्षों लग जाएँगे। प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपनी इस कृति में महाभारत की उपजीव्य रचनाओं को बहुत ही शोधपरक ढंग से ओर धैर्य से उत्खनन कर इनके मर्म को बेधकर उनके नवीन सृजनात्मक आयामों की खोज की है। वे लिखते हैं - “महाभारत के अनुसूजन और पुनः सृजन में मिथक इतने अधिक उपादेय हैं कि अपनी असम्भवताओं और बहुविध सम्भावनाओं को अनेकानेक सृजन कल्पनाओं में ढालने में सहायक होते हैं। वे अनेक प्रकार के भाष्यों के जनक हैं , साथ ही वे महाभारत के तलातोम में भी अपने उत्तोलन से उसी समुद्र का भाग लगते हैं, जो विराट सजन-उत्प्रेरण कर नयी-नयी कल्पनाओं ओर स्वप्नों को जन्म देता है। इनके कारण भी महाभारत में पुनरुत्पादन की शक्ति, विशाल फलकता विश्व के किसी भी महाकाव्य से अधिक है।” (पृ. 51) श्रोत्रिय जी के 'भारत में महाभारत' में व्यास के प्रमुख शिष्य जैमिनी के 'आश्वमेधिक पर्व,' जैन कवि जिनसेनाचार्य का 'हरिवंश पुराण' मदन भट्ट का “चम्पू भारत' से लेकर 'पम्प का विक्रमार्जुनविजयम्' (कन्नड़ ), नन्नय भट्ट का 'आन्ध्र महाभारत', विल्लि पुत्तुरर का विल्लि भारतम्’, विष्णुदास का 'पांडव चरित' (हिन्दी ), सारलादास का 'सारला महाभारत' (ओड़िया ), तुज्वयु ऐषत्तच्छन (मलयालम ), काशीराम दास का ‘महाभारत’(बांग्ला), राम कवि और अन्य सत्रह कवियों द्वारा लिखित 'महाभारत' (असमिया), मुक्तेश्वर का भारत रचना' (मराठी), कुमार व्यास का युगीन्द्र' (कन्नड़), वासुदेवशरण अग्रवाल का 'भारत सवित्री' (हिन्दी), न्हानालाल दलपत राम का ‘कुरुक्षेत्र’ (गुजराती ), चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य का 'व्यासर विरुन्द' (तमिल), एस.एल. भैरप्पा का पर्व” (कन्नड़ उपन्यास), नरेन्द्र कोहली का “महासमर' (उपन्यास हिन्दी ) और महाभारत के वस्तु-बीज से जन्मी रचनाएँ- शिशुपाल का वध, कालिदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम्, भारवि का किरातार्जुनीय, माघ का 'शिशुपाल वध,' त्रिविक्रम भट्ट का ‘नल चम्पू', श्री हर्ष का 'नैषधीय चरित' और आधुनिक भारतीय भाषाओं में रत्न कवि का “गदायुद्ध', सन्त ज्ञानेश्वर का ज्ञानेश्वरी', श्री अरविन्द का 'सावित्री', जयशंकर प्रसाद का “जनमेजय का नागयज्ञ,' धर्मवीर भारती का 'अन्धा युग', नरेन्द्र शर्मा का 'द्रौपदी' के अतिरिक्त पंजाबी, नेपाली, अँग्रेजी आदि भाषाओं में महाभारत को केन्द्र में रखकर लिखी गई रचनाओं की गहन पड़ताल है। श्रोत्रिय जी ने 'भारत में महाभारत' में जिन रचनाओं को लिया है, उनमें क्या नया जोड़ा गया है, इसके साथ रचनाकार की मौलिक उद्धावनाओं को बड़ी सूक्ष्मता से आकलित किया है। महाभारत की उपजीव्य इन तमाम रचनाओं के मूल्यांकन में श्रोत्रिय जी की रचनात्मकता उनकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म को परखने की गहरी प्रज्ञा दृष्टि, नया खोज लेने की व्यापक अन्वीक्षा दृष्टि, रचना के मर्म को पकड़ने में समर्थ प्रातिभ ज्ञान शक्ति और सशक्त और मोहक भाषा पाठकों को अपने सम्मोहन में ऐसा बाँधती है कि पाठक इस पुस्तक को पूरा पढ़े बिना चैन नहीं पाता। इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में प्रभाकर श्रोत्रिय ने कहन की अनेक शैलियाँ विकसित की हैं। भास के नाटकों पर चर्चा करते हुए हिडिम्बा घटोत्कच प्रसंग में श्रोत्रिय जी लिखते हैं - “घटोत्कच से भीम का यह मिलन महाभारत की तुलना में अधिक कलात्मक ओर कल्पनाशील है।” श्रोत्रिय जी की पुस्तक 'भारत में महाभारत' पाठकों को बहुत कुछ नया देती है। वे महाभारत के अनछुए वैचारिक सूत्रों को वर्तमान से सम्बद्ध कर मौजूदा समय के प्रश्नों के हल ढूँढ सकते हैं। महाभारत के प्रमुख पात्र और उन पर केन्द्रित विभिन्न रचनाओं के विवेचन में भी श्रोत्रिय जी के मौलिक चिन्तन का आलोक पाठक की आँखें चौंधियाता है, फिर सीधे हृदय में धँसकर पाठक से आत्मिक रिश्ता बना लेता है। इस पुस्तक में श्रोत्रिय जी ने महाभारत के छह प्रमुख पात्रों कृष्ण, कर्ण, युधिष्ठिर, भीष्म, दुर्योधन, द्रौपदी के चरित्र का बड़ा ही बारीक विश्लेषण किया है। महाभारत में व्यास द्वारा रचे कृष्ण का स्वरूप है- “यतो धर्मस्ततः कृष्णो, यतः कृष्णस्ततो जयः' कृष्ण के चरित्र पर श्रोत्रिय जी अपनी तत्त्वान्वेषी बुद्धि से हर कोण से विचार किया है। साथ ही कृष्ण के चरित्र को केन्द्र में रखकर लिखी गई रचनाओं का एक वृहद् और विवेचनात्मक संसार प्रस्तुत किया है। द्वारिका प्रसाद मिश्र का 'कृष्णायन',के.एम. मुंशी का 'कृष्णावतार', रणजीत देसाई का 'राधेय', बॉग्ला के प्रसिद्ध लेखक बंकिमचन्द चटर्जी का श्रीकृष्णचरित्र', प्रमथनाथ विशी का 'पूर्णावतार', धर्मवीर भारती का 'अन्धायुग', दिनकर जोशी का ‘सूर्यास्त’ आदि रचनाओं के माध्यम से कृष्ण के ईश्वर, मानव, मित्र, दार्शनिक, कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ आदि रूपों का परत-दर-परत विश्लेषण श्रोत्रिय जी ने किया है। इसी प्रकार कर्ण, युधिष्टिर, द्रौपदी, भीम, दुर्योधन के चरित्रों को 'महाभारत' और अन्य रचनाकारों की दृष्टि से परखते हुए श्रोत्रिय जी का चिन्तक और सर्जक व्यक्तित्व क्रियाशील हो जाता है। इन चित्रों के जीवन से जुड़ी घटनाओं और रूपकों की विवेक-सम्मत व्याख्या इस ग्रन्थ की बड़ी उपलब्धि है। भारत में महाभारत का वितान संस्कृत ओर अन्य भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त लोक से विश्व तक फैला है। 'दक्षिण-पूर्व एशिया में महाभारत' और 'पीटर ब्रुक का महाभारत और उसके असमंजस' शीर्षक से श्रोत्रिय जी ने पीटर ब्रुक द्वारा प्रस्तुत महाभारत के नाट्य रूपान्तरण और प्रस्तुतीकरण के आधार पर अपने मत प्रस्तुत किए हैं। श्रोत्रिय जी ने लिखा है - “पीटर महाभारत को एक ब्रह्मांडीय (कॉस्मिक) रचना मानते हैं। महाभारत ओर भारतीय संस्कृति को समझने ओर नाटक को निष्ठापूर्वक रचने में यद्यपि पीटर ने कोई कोताही नहीं की है, फिर भी किसी देश की संस्कृति और मनुष्य के पारस्परिक सम्बन्धों की जटिलता को सांगोपांग उतारना किसी विदेशी के लिए साधारणतया कठिन होता है, खासकर उस रचना को जो संस्कृति की प्रतिनिधि रचना हो।” (पृ. 616) श्रोत्रिय जी ने पीटर ब्रुक द्वारा प्रस्तुत इस नाटक को मंच पर देखा है; इसलिए वे इतनी गहराई से पीटर ब्रुक और जीन क्लॉड के योगदान का विवेचन कर पाए हैं। 'भारत में महाभारत' का समापन श्रोत्रिय प्रभाकर विश्व की तीन महान कृतियों 'इलियाड', 'ओडेसी' और शाहनामा का महाभारत के साथ तुलनात्मक विवेचन से करते हैं। प्रभाकर श्रोत्रिय हिन्दी की बीसवीं ओर इक्कीसवीं सदी के श्रेष्ठ आलोचक हैं। उनकी प्रत्येक कृति नयी अर्थवत्ता, नयी व्यंजना और नयी दृष्टि के आलोक से उद्धासित है। श्रोत्रिय जी का गहन, अध्ययन, संस्कृत ओर हिन्दी पर असाधारण अधिकार और एक मनीषी की तत्त्व दृष्टि इस ग्रन्थ में समवेत होकर इसे श्रेष्ठ आन्वीक्षकीय ग्रन्थ बना देती है। छह सो अड़तीस पृष्ठों में फैले इस ग्रन्थ के एक-एक पृष्ठ पर प्रभाकर श्रोत्रिय के प्रातिभ ज्ञान, महाभारत पर उनके गहन चिन्तन-अनुचिन्तन की महाप्राणता, संवेदनशीलता, भारत की सतत प्रवाहमान सांस्कृतिक धारा, श्रोत्रिय जी की क्रान्तधर्मिता, महाभारत के सूक्ष्म संकेतों और व्यंजनाओं को अभिव्यक्त करती सर्जनात्मक भाषा और ज्ञान का सघन प्रकाश दिपदिपाता है , जिससे पाठक भी आलोकित हुए बिना नहीं रहता। 'भारत में महाभारत' श्रोत्रिय जी के वर्षों के अथक-परिश्रम का साकार रूप है। हिन्दी साहित्य में यह शोध समीक्षात्मक ग्रन्थों में श्रेष्ठ इसलिए हैं, क्योंकि यह महाभारत को सर्वथा नयी दृष्टि से देखने वाला मानक ग्रन्थ है। देश में हिन्दी के सभी शोध संस्थानों में इस ग्रन्थ की उपलब्धता होनी चाहिए।
'भारत में महाभारत ज्ञान के अथाह समुद्र में पैठकर निकाले गए विवेक रत्नों का पुंज है। इस पुस्तक को पढ़कर पाठक निश्चित ही वहाँ नहीं रहेगा जहाँ वह पुस्तक को पढ़ने से पहले था। उसका बौद्धिक और आत्मिक विकास होना सुनिश्चित है।