ज्योतिष विद्या और कर्मकांड / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
पढ़ने की बात खत्म करने के पूर्व दो बातें कहनी हैं। एक तो ज्योतिष की और दूसरे मिथिला जाने की। जब मैं श्रीहर्ष का खंडन खंड खाद्य पड़ता था, जो वेदांत का अत्यंत उच्च कोटि का क्लिष्टतम ग्रंथ माना जाता है, तो उसमें मैंने वैद्यक और ज्योतिष के सिद्धांतों की कई बातें पाईं। उस समय ठीक-ठीक उनका अभिप्राय समझ न सका। पढ़ानेवाले भी न आयुर्वेद जानते थे न ज्योतिष। इसलिए जैसे-तैसे काम चला लिया। लेकिन उसी समय से ज्योतिष की ओर विशेष ध्यान गया और वैद्यक की ओर भी। ज्योतिष की बात तो कुछ पहले भी चलती ही थी। पीछे चल कर मैंने वैद्यक के कुछ प्राचीन ग्रंथों का संग्रह किया और थोड़ा-बहुत उन्हें देखा भी। पर, विशेष जानकारी न कर सका। हालाँकि कुछ तो जान ही लिया। मगर ज्योतिष में विशेष माथा-पच्ची करने की नौबत पड़ी। जब मैंने कर्मकलाप नामक कर्मकांड की पुस्तक लिखी। क्योंकि उसमें हिंदी में सारी बातें समझा दी गई हैं ताकि हिंदी पढ़े-लिखे भी समझ सकें, तो उसमें ज्योतिष की बातें भी लिखनी जरूरी हो गईं। उसके बिना कर्मकांड अधूरा ही रह जाता है। इसीलिए गणित और फलित ज्योतिष के सभी ग्रंथों का संग्रह कर के उसमें अधिक शक्ति लगानी पड़ी। यह पढ़ने का समय भी न था कि जा के किसी से पढ़ लेता। इसलिए सोलहों आने अपने ही बल पर सारा काम करना पड़ा। अंत में सफलता मिल के ही रही। जब एक बार तय कर लिया कि इसे पूरा करना है, तो फिर विफलता का क्या प्रश्न? उसमें मेरी कितनी सफलता हुई या तो कर्मकलाप के ज्योतिष प्रकरण के पढ़नेवाले पंडित ही बता सकते हैं।
यही बात कर्मकांड के संबंध में भी है। यों तो स्मार्त्त या साधारण गृहस्थ जीवन से संबंध रखनेवाला कर्मकांड भी बहुत कठिन तथा जाल की तरह विस्तृत है। मगर वैदिकत कर्मकांड तो अत्यंत दुष्प्रवेश और दुरूह है। अभाग्यवश सिवाय संध्योपासनादि नित्य कर्मों के बाकी में मेरा कोई प्रवेश शुरू से ही न था। उसका मौका ही न लगा। पीछे मीमांसा दर्शन के ग्रंथों के पढ़ने के समय वैदिक कर्मकलाप का प्रसंग आया सही। उसमें मेरा प्रेम भी हुआ। मगर उन कर्मों के बतानेवाले कोई थे ही नहीं। इसलिए पुस्तकों और पद्धतियों के संग्रह और उनके मंथन में ही लग गया। फलत: उसमें भी सफलता मिली। कर्मकलाप नाम की पुस्तक में मैंने इस ज्ञान को रख दिया। उस पुस्तक के बारे में काशी के एक बुकसेलर ने मुझे बताया कि ─वैदिककर्मकांड के विज्ञ अग्निहोत्री पं. प्रभुदत्ता जी शास्त्री एक बार उसकी दूकान पर आए। कर्मकलाप को देख कर कौतूहलवश उठा ले गए कि देख के वापस कर देंगे। लेकिन उन्होंने पुस्तक न लौटा कर उसका दाम ही दिया। साथ-साथ इतना पूछा भी कि स्वामी जी क्या पहले से कर्मकांड कराते थे? मुझे इससे खुशी हुई कि मेरा परिश्रम सफल हुआ और मेरा वह कर्मकांडज्ञान भ्रांत सिद्ध न हुआ।