ज्वाला और जल / हरिशंकर परसाई / पृष्ठ 2
पत्नी ने कहा,
‘‘इस लड़के को कुछ दे दो।’’
मैंने हाथ में एक रुपया लिया और उसे पुकारा।
वह पास आकर बोला,
‘‘कितने कप बाबू ?’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, चाय नहीं चाहिए; रक्खो।’’
मैंने रुपया उसकी ओर बढ़ाया।
‘‘क्यों ?’’ उसने पूछा।
‘‘यों ही।’’ मैंने कहा।
वह बड़ी बेरुखी से बोला,
‘‘वाह खैरात बाँटते हो क्या, बाबू साहब ? मैं कोई भिखमंगा हूँ क्या ? ऐसे रईस मैंने बहुत देखे हैं। अपना रुपया रख लो। मैंने उन माँ जी की परेशानी देखकर टिकटें दी थीं। आप मेरे ऊपर एकदम अहसान ही करने लगे।’’
आहत-सम्मान मैं सहमकर रह गया। बड़ी बदतमीजी से बात की उसने। पर परिवार-विशेषकर स्त्रियों के साथ बैठा आदमी हर एक की सुन लेगा।
पत्नी ने कहा, ‘‘जाने दो। बड़ा गँवार है।’’
लड़का घूमता हुआ बढ़ रहा था। एकाएक वह मुड़ा और पास आकर बड़ी नरमी से बोला,
‘‘बाबूजी, माफ करना। मेरी आदत जरा साफ बात करने की है। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। थोड़ी खिदमत मैंने ही माँ की कर दी, तो क्या हुआ। जैसी आपकी माँ, वैसी मेरी माँ।’’
पानवाले लड़के को उसने पुकारा,
‘‘ए लच्छू इधर आ बे ! तीन पान दे इधर। पैसे मुझसे बाहर ले लेना।’’
पान हमने ले लिये और वह चाय की आवाज लगाता चला गया।
बीस-बाईस साल का तगड़ा तरुण था वह। अच्छा कद्दावर और पुष्ट-सुगठित। नाक-नक्शा अच्छा सुडौल। जबान और चाल दोनों में ऐंठ। चेहरे पर बड़ी बेपरवाही और ढीठपन। बड़े मद से चलता था। बातचीत में बड़ी हेकड़ी मालूम होती थी।
कभी-कभी वह मुझे सड़क पर मिल जाता, तो सलाम करके पूछता,
‘‘बाबू साहब मजे में हैं ? और अम्मा ?...’’
अजब वेश-भूषा में अजब स्थानों में वह मिल जाता। कभी साफ कुरता-पायजामा पहने मिल जाता; कभी पतलून-कोट; कभी मैली बनयाइन पहने ही घूमता दिखता और कभी मलमल के महीन कुरते के नीचे काली बनियाइन पहिने और तेल से तर बालों पर हरा या पीला रूमाल बाँधे-बिलकुल शोहदा ! मुझे देखते ही दुआ-सलाम जरूत करता और वे जो सवाल पूछता। कभी-कभी मैं सहम भी जाता। शरीफ दोस्तों से बातें कर रहा हूँ और इतने में वह हरा रूमाल लपेटे आ गया। बड़ी आत्मीयता से हालचाल पूछने लगा। उसके चले जाने पर दोस्त पूछते,
‘‘इसे कब से जानते हो ?’’ उनका मतलब यह होता कि इसे जानना मेरे लिए कलंक की बात है।
हमने यह तय कर रखा है कि हम किसे जानें और किसे नहीं जानें। मुझे मित्रों का इस तरह पूछना भी अच्छा नहीं लगता था। घूस के धन से बेटे का नाम ले दुकान खोलकर एक दो साल जेल काट आनेवाले सफेदपोश के पास खड़ा होता, तो कोई नहीं पूछता कि इसे कब से जानते हो। मगर मलमल के कुरते के भीतर से झाँकती काली बनियाइन ! और इन तर बालों पर यह हरा रूमाल ! इससे जान-पहचान रखने में भी बदनामी है।
पतलून के भीतर नंगे हम सब, किसी का पायजामा जरा खिसका देख किस कदर हँसते हैं।
मैंने उससे जान-बूझकर पहचान नहीं बढ़ाई। परिवार वाला आदमी था। हमें एक निश्चित दायरे में घूमना पड़ता है। पर उस लड़के की निर्भयता और अलमस्ती मेरी ‘रोमांटिक’ कल्पना को बड़ी भाती थी। मैंने भी कुछ समय इसी स्वच्छन्दता से गुजारा था। बचपन से अखाड़े जाने लगा था। कुश्ती का बड़ा शौक था। शक्ति के साथ शक्ति की आजमाइश की भावना भी आयी थी और मैं झगड़ा-फसाद, मारपीट में अक्सर शामिल रहता। लॉ कालेज से एक बार मार-पीट के कारण निकाला भी गया था। फिर गृहस्थी हो गयी। इस शहर में वकालत आरम्भ कर दी। वकालत के पेशे में भी मैंने अपने डील-डौल का समुचित उपयोग किया था। गवाह के कटघरे पर बाँद रखकर, मैं आँखें निकालकर कर्कश स्वर में, गवाह के सिर पर से दहाड़ता तो वह बेचारा घबड़ा जाता। फौजदारी मुकदमों के लिए मैं अच्छा वकील माना जाता था। पर अब धीरे-धीरे स्वभाव समतल होता जाता था। अब मुझे देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने कभी गुण्डागिरी भी की होगी। फिर भी ऐसे किसी युवक को देखता, तो मेरा मन छटपटा उठता था।
एक दिन लगभग आधी रात को किसी ने मेरे द्वार की साँकल खटखटायी दरवाजा खोला, तो सामने उसी युवक को खड़ा पाया। उसके चेहरे पर बड़ी कठोरता थी। कपाल की नसें उभरी हुई थीं और मुट्ठियाँ कसी हुईं। बड़ी बदहवास स्थिति में था वह। मैं देखकर जरा सहम गया।
इस तरह सहमना भी हमारा एक गहरा संस्कार है। हम लोग आशंका से घिरे रहते हैं। कोई हमारे घर की ओर देखता है तो हम समझते हैं कि इसका इरादा चोरी करने का है। कोई अनायास हमसे पहचान निकाल ले तो हम समझते हैं कि कुछ माँगना चाहता है। हमारे बच्चे को कोई प्यार से पुचकारे तो हम डरते हैं कि कहीं जादू-टोना न कर दे। आसपास आशंका और सन्देह के कँटीले तारों की बाड़ी लगाकर, हम उसमें बाल-बच्चों को लेकर दुबके बैठे रहते हैं। आधी रात को कोई द्वार खटखटाये तो हम उसके इरादे पर शक करने लगते हैं। मुझे आशंका हुई कि यह तंग करके कुछ लेने आया है। मेरी निगाह उसके कुरते के छोर पर पड़ी। वहाँ ताजा खून के धब्बे थे। मेरा कानून-भीरु मन चिन्तित हुआ।
मैंने पूछा, ‘‘क्यों ? क्या बात है ?’’
उसने कहा, ‘‘मुझे दस रुपये चाहिए।’’
कुछ इस अधिकार से बोला, जैसे कोई सेठ अपने मुनीम से तिजोड़ी से रुपये निकालकर देने को कहता हो।
मैंने कहा, ‘‘इतनी रात को रुपयों की क्या जरूरत है ?’’
वह बोला, ‘‘जरूरत है, तभी तो आया। पुलिसवाले को देना है।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘इसलिए कि मैंने एक आदमी का सिर फोड़ दिया। उसे दस रुपये नहीं सुँघाऊँगा, वह साला मुझे कोतवाली ले जाएगा। चोट तो मामूली है, पर मेरे कुरते पर दाग तो पड़ गये हैं।’’
‘‘तुमने उसे क्यों मारा ?’’
मेरी बातचीत के सिलसिले से वह ताड़ गया होगा कि मैं रुपये दे दूँगा। इसलिए धीरज से बतलाने लगा-
‘‘वह मेरा दोस्त ही है। मिल में काम करता है। साले को शराब पीने की लत लग गयी है। खैर भाई पी-तेरा पैसा है। तू चाहे जहर पी। पर कम्बख्त रात को आकर औरत को पीटता है। उस बेचारी ने क्या बिगाड़ा है ? इस हरामखोर को सबेरे धुँधलके में खाना पकाकर देती है, रात को खाना बनाकर बैठी रहती है। और यह बदमाश पी कर आता है और बेचारी को पीटता है। मैंने बहुत समझाया, पर वह नहीं माना तो आज मैंने इसे मारा। अब बेटा, कभी नहीं गड़बड़ करेगा। इतने में एक पुलिसवाला आ गया और मुझे कोतवाली ले जाने लगा। मैं समझ गया कि कुत्ते को रोटी चाहिए। मैं जानता हूँ इन्हें। एक टुकड़ा फेंक दो, तो दुम हिलाने लगते हैं। मैं उसे बैठने को कह आया हूँ। जल्दी रुपया दीजिए।’’
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