झवरलोॅ गाछ पीपरोॅ के / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
आय सोलह-सतरह रोजोॅ सें रोजेॅ जैवा दी पूजा-पाठ करी केॅ हमरा ठियां आबी केॅ बैठी जाय छेलै। आबेॅ आरो चौकी पर बैठी जाय। आपनोॅ हाथोॅ रो टेढ़ुआ बौंकड़ी घरोॅ के एक कोना में राखी केॅ डाड़ोॅ सीधा करै आरोॅ हाँसी केॅ कहै-"चाहोॅ एक कप तोरा घरोॅ में मिलतौ ऐकरोॅ आशा नै छै। तीन-चार घंटा बैठेॅ लेॅ पड़ै छै, ऐकरा बीचोॅ में एकाध कप चाय होलां सें माथोॅ हौला होय जाय छै।" फेरू हमरा कटच्छरी सें बचै लेली केन्हेॅ कि हुनी जानै छेलै कि यै मासटरें तुरत कहि देतोॅ कि-"साधु-सन्यासी केॅ चाय पीना शोभा नै दै छै। आखिर तोरा सेें बच्चा-बुतरु की सिखतै।" ई सुनै लेॅ नै पड़ेॅ यै वासतें दीदी तुरत कहै-"चित्राकुट धामोॅ में चाय रोॅ आदत लागी गेलै। पाँच-पाँच महीना वहाँ रहलियै। एक महीना वृंदावन में रहलियै। सांझ-भियान भरी-भरी गिलास चाय वहाँ सभ्भेॅ साधु-संतोॅ केॅ मिलै। मिठ्ठोॅ तेॅ लागतैं न छै चाय, सेॅ आदत लागी गेलै।" कहि केॅ जैवा दी हाँसलै।
हमरोॅ पत्नी मीरा उनका सेवा लेली पैन्हेॅ सें हाजिर रहै छेलै। हुनकोॅ आपबीती सुनै केॅ किंछा हमरा सें कम हुनका में नै छेलै। मीरा तड़ाक सें कहलकै-"चाय बनैहों दीदी। हम्में जानै छियै अपनें हमरा कन चाय नै पीभोॅ।"
"है तेॅ सच्चे कहलोॅ तोय दुलहिन। हम्में नै जानै छियै कि यहाँ दसोॅ कप चाय रोजे बनै छै, मतुर तोरा कन सभ्भे राकस छौं मांस-मछरी खाय में। मांस मछरी जहाँ बनै छै वहाँ शुद्धता रहै नै पारै आरो ऐन्हां जघ्घोॅ पर कुछ्छु खैला-पीला सें हमरोॅ धरमें नाश होय जैतेॅ।" निठुरे मुँहें जैवा दी बोललै। जेना सहिये उनकोॅ धरमनाश होय जैतेॅ।
मीरा नें निहोरा करलकै-"बरतन बढ़ियां सें धोय-धकारी केॅ आखरोॅ चौका पर बनाय छियौं दीदी। आय चाय पीयोॅ न। खाना तेॅ यही कारनें कहियो नहिये खाय छोॅ दीदी। कम से कम चाय तेॅ पीयोॅ। थोड़ोॅ पुन्न हमरोॅ बाँटोॅ।"
"नेम-धरम सें जहाँ खाय छियै तोरे खाय छियौं। ऐन्होॅ नैहरा सब केॅ मिलेॅ कनियैन। हमरा सें बेशी भगवंती के होतै! वियाह की होय छै, नै जानै छेलियै, बढ़ियां सें होशो-हवास भी नै होलोॅ छेलै, तखनिये मोसमास होय गेलियै आरो तहिया सें आय तांय भाइये-भतीजा केॅ सेवी केॅ जिनगी खेपी रहलोॅ छियै। ई नब्बे-पंचानवे वरस बीतलै। हमरोॅ मान-सम्मान में कोनोॅ कमी नै ऐलौेॅ छै। दादा, दादी, माय-बाप, दूनो सहोदर भाय, जैेॅ भतीजा सीनी केॅ गोदी में खेलैलियै के ठो वहोॅ मरलै, मतुर हमरा आदर, प्रेम जस के तस मिली रेल्होॅ छै। खाना-खरचा में कोय कमी नै। कनियैन! कत्तोॅ बरतन धोब्होॅ हमरा सरधा नै बरतौं।" जैवा दी चाय नै पीयै लेली उलटे निहोरा करेॅ लागलै।
हम्में मौका पावी केॅ परिहास करतें बोललियै-"अखनी तेॅ छोड़ी देलिहौं दीदी। मरला पर के बचैतों। माँसोॅ के झोर आरो मछरी के टेंगरी, कांटोॅ-कुसोॅ सिरहनोॅ में राखी के ही चचरी उठैभोॅ।"
जैवा दीदी ठठाय केॅ हाँसलै-"तोंय चौथोॅ पीढ़ी छेकौेॅ हमरोॅ। तहियो हमरा विश्वास छै कि तोंय खाली चिरौरी करै छौेॅ। पोता न लागभोॅ, खाली हाँसै छोॅ, मजाक करै छोॅ। ऐन्होॅ नै करभोॅ तोंय आरो जौं करवेॅ करभेॅ तेॅ हम्में देखै लेॅ एैभौं थोड़ोॅ।"
हाँसतें हुअें बातोॅ के हम्मी पलटलियै-"अच्छा दीदी! ई सच-सच बतावोॅ पाँच महीना चित्राकुट आरो वृन्दावन में एक महीना जे रहलोॅ, कथी लेॅ, कौन कामना सें?"
दीदी हमरोॅ ई सवालोॅ पर गम्भीर होय गेलै। अनचोके ढेर सीनी विचारोॅ के बबंडर हुनका मुँहोॅ पर उठतें हम्में देखलियै। यै अंधड़ में लागलै हुनी उड़ियाय केॅ कोय दोसरोॅ देश में विचरन करी रहलो छ, ै जेकरा में दुख, पीड़ा आरो लोरोॅ के सिवा आरो कुछु नै छेलै। ऐन्होॅ प्रश्नोॅ पर हुनी यहे रं गुमसुम, उदास आरो दुखोॅ सें भरी-भरी जाय छेलै।
हमरा टोकला पर दीदी के चेतना लौटलै आरो तवेॅ हुनी आँखी में अनचोके चल्लो ऐलौेॅ लोरोॅ केॅ पोछी केॅ कहना शुरू करलकै-"अपना से बेशी हुनका परलोकोॅ के चिन्ता छै हमरा। हैजा में बिना औरदा के ही आदमी मरै छै। हुनकोॅ आत्मा केॅ शांति आरो सदगति प्राप्त हुअे। प्रेत योनि में हुनकोॅ भटकवोॅ बंद हुअे, यही लेली चित्राकुट धाम में हनुमान जी के सेवा में छेलियै।"
जैवा दी रो जवाब सुनी केॅ हमरोॅ आँख लोराय गेलै आरो भीतर तांय श्रद्धा सें भींगी गेलियै। भक्ति, वैराग आरो पातिव्रत के ई अद्भुत मूर्ति केॅ एकटक देखतें हुअें सोचलियै कि-"ऐन्होॅ भी लोग होय छै। शायद ऐन्हेॅ त्यागी महान आत्मा के कारण धरती टिकलौ छै।"
मीरा के तेॅ आँखी रो लोरे बंद नै होय रहलोॅ छेलै। हम्मीं बातोॅ केॅ आगू बढ़ैलियै-" ... तेॅ दीदी, आबेॅ बातोॅ केॅ आगू बढ़ाबोॅ। सोनमनी के ४२ बीघा जमीन खरीदला के बाद फेरू केनां, की होलै?
दीदी कहना शुरू करलकै-"तोरोॅ परदादा सोनमनी अतनैं बुधियार आरो मेहनती छेलौं कि गाँव वाला सतावेॅ नै, यै लेली संपति बढ़ावै के साथ वंश विस्तार पर भी पूरा ध्यान देलकौं। दस-पनरह बरसोॅ के भीतर हुनी गामों में चार सो बीघा जमीन आरो दक्खिनोॅ में डेढ़-दू सोॅ बीघा जमीन खरीदी केॅ बनाय लेलकै। छोटोॅ-बड़ोॅ लगाय केॅ पाँच-सात सौ गाय-माल होय गेलै। हुनकोॅ गाय दक्खिन में देवघर, मधुपुर, नंगाजोर आरो उत्तर में गंगा-कोसी के पार तांय चरै लेली जाय छेलै। गंगा पार करै में गाय सें दूनोॅ किनारा एक लाग होय छेलै।" है गाय सीनी दुआर कहियो आबै छेलै कि नै दीदी। " मीरा नेे अचरजोॅ सें पूछलकै।
"फागुन के पूर्णिमा में गाय सब दखनोॅ सें चरी केॅ आबै छेलै आरो औंगरी पर गिनी केॅ पनरह रोज रहै छेलै। फगुआ के रंग दादा गाइये-मालोॅ साथें खेलै छेलौं। चालीस-पचास नौकर-धोरेय, दूधोॅ के नदी बहेॅ छेलै। घी, दही, धोर, मट्ठा खैतें नौकर-चाकर अघाय जाय छेलै। गाँव के सीमानां में गाय प्रवेश करतैं दादा धूप-धूमनोॅ सें बथानी के पूजा करीकेॅ हाथोॅ में लोटा भरी पानी लैकेॅ गला में गमछा लगैनें अरदास होय जाय छेलै। जब तांय दुआरी पर एैली गाय रो हुनी धरफनिया देनें गोड़ छूवी केॅ पूजा नै करै तब तांय अन्न-जल ग्रहण नै करै छेलै। हुनका जीता जिनगी बच्चा बान्ही केॅ गाय नै दूहलोॅ गेलै। आपनें गाय रो बाछा सें चालीस-चालीस होॅर चलै छेलै। बाबू सोनमनी केॅ जमींदारें 'मड़र' कहि केॅ पुकारै आरो अपना साथें हाथी पर बैठाय के घुरावै छेलै। 'मड़र' के उपाधि अपना वंशोॅ केॅ जमींदारे के देलोॅ छेकौं। तोरोॅ दादा घोड़ा रोॅ सवारी करै छेलौं। चार-पाँच देखै लायक घोड़ा दुआरी पर रहै छेलै।"
दीदी लंबा सास लेलकै आरो हाफी करतें हुअें कहलकै-"बाबू सोनमनी में गुनेगुन छेलै। अवगुन सबसें बड़ोॅ यहेॅ छेलै कि बेटी एक्होॅ रोॅ बढ़िया घरोॅ में बियाह नै करलकै। दू बेटा, पाँच बेटी. बेटा रो तेॅ संपत्ति कारनें बढ़िया घरोॅ में रिश्ता होवेॅ करलै, बेटी पाँचोॅ रोॅ बियाह पाँच रंग होलै।"
हम्में दीदी केॅ जिनगी रो सच सुनै लेली जादा व्याकुल छेलियै। हुनको दुख आरो पीड़ा जानै-सुनै लेली ओलबलाय रहलोॅ छेलियै। हम्में कहलियै-"दीदी तोंय अपनोॅ जिनगी सुनाबोॅ। अतना तेॅ जानथैं छियै कि पाँचमा पीढ़ी हमरो बेटा-बेटी रो बियाह-शादी रो भोज ही तोंय नै खैल्होॅ बलुक ओकरो बच्चा-बुतरु केॅ भी गोदी में खेलाय रेल्होॅ छोॅ आरो आभी तांय एक्को ठो दांत नै टूटलोॅ छौं। ऐकरोॅ कारण बतावोॅ दीदी।"
दीदी हँसलै-"यहेॅ रंग इंजोरिया खाद खेतोॅ में तहिया थोड़ोॅ पड़ै छेलै। बोरा रो बोरा इंजोरिया (यूरिया) धानोॅ-गहुंमोॅ में दै छै। तहियकरा वाला सवाद अनाजोॅ में कहाँ छौं। दिन-दिन भर ढे़ंकी आरो जांतोॅ चलै छेलै। यहाँ तेॅ मिलोॅ में चौेॅर कुटावै में चौरोॅ केॅ उजरोॅ-दकदक करै लेॅ यूरिया खाद। साग-सब्जी के तेॅ बातेॅ छोड़ोॅ, गाय दूध जादा दियैेॅ खाद खिलाय छै। कहाँ से स्वास्थ्य बढ़िया रहतौं। संजम भी नै। एक हमरा सीनी रो जमाना छेलै। बियाह-शादी होला पर एक-दू बाल-बुतरु होलोॅ पर बोॅर सदरी कनियैनी के घोॅर न जाय छेलै आरो एक ई जमाना देखै छियौं बिहेॅ राती बोॅर-कनियान फूस-फूस। बिना घोघोॅ तानलें उधारे माथोॅ ठस-ठस ।" दीदी ई बात कुछ ऐन्होॅ अंदाज में कहलकै कि हमरोॅ बेटा-बेटी, पुतोहू सभ्भेॅ ऐन्होॅ खुली केॅ हँसलै कि वातावरण में घुललोॅ विषाद एकबारगिये धूली गेलै।
रात अभी बेशी नै होलोॅ छेले मतुर गाँव आपनोॅ आदत के अनुसार शांत आरो गुमसुम होय गेलोॅ छेलै। दिन भर के थकलोॅ-मांदलोॅ गाँव के लोगें खटिया पकड़ी लेनें छेलै। कुछ देर तांय हँसी-मजाक चल्ला पर बात केॅ आगू बढ़ाय के गरज सें हम्में कहलियै-" दीदी ई हथिया नछत्तर छेकै। केन्होॅ केॅ किसाने करजा लैकेॅ, लाख जतन करी केॅ खेती करलकै। धान रोपा के बाद झोॅर जे गेलोॅ छै, घुरी केॅ नै ऐलोॅ छै। धरती फाटी गेलै। किसानोॅ के हरियैलोॅ धान सुक्खी केॅ मरी रेल्होॅ छै। सरकारें डेम बनवैलकेॅ, नहर खुदबैलकै मतुर सब बेरथ। किसान जीयेॅ कि मरेॅ, केकरोह फिकिर नै छै। बरसे तांय नहरोॅ में पानी। चैत-बैसाखोॅ नांकी सुक्खा हवा सांय-सांय चलै छै। ... कि दीदी, तखनियो यहेॅ रंग होय छेलै की ...?
दीदी शांत आरो गंभीर होय गेलै। अखनी जे क्षण हँसी में बितलोॅ छेलै उ$ तुरत बिलाय गेलै। दीदी ने आँख बंद करी लेलकै, आरो कहना शुरू करलकै-" आय हम्में आपनोॅ सौसे पुराण सुनाइयै केॅ दम लेभौं। ई रंग सरंगें धोखा नै दै छेलै। बेटा, बरसा तेॅ जंगलोॅ सें न होय छै। अपनां गामोॅ से पछियें आरो दखनें जंगले-जंगल छेलै। पछियें जीतनगर, जैठोर से लैकेॅ झरना पहाड़ोॅ तांय आरो दखनें गामोॅ से लैकेॅ मंदार, बासुकीनाथ, देवघर तलक जंगलेॅ छेलै। आबेॅ कहाँ छौं जंगल। जंगल काटी केॅ गाँव बसी गेलै। लोगें खेत बनाय लेलकै। पहाड़ोॅ केॅ सुनों-उजरोॅ, परती-परांट, उजड़लोॅ देखी केॅ मोॅन दुक्खोॅ सें भरी जाय छै। आदमी कुछ्छू बूझतैं नै छै। एकतरफें सरकारें गाछ लगाय छै आरो दोसरा तरफें लोगें एन्हें-मुन्हें काटै छै। ऐन्हा में वरसा केनां होथों? एक समय छेलै। सतहा जों लादै तेॅ घरोॅ सें निकलबोॅ मुश्किल होय जाय छेलै। गाँवोॅ में महिना दिन पैन्हेॅ सें लोगें जरना-काठी सैतेॅ लागै छेलै। ... आरो दीदी 70-75 साल पैन्हेॅ के एक सतहा के यादोॅ में डूबी गेलै।