झांझर की मौत / अमृता प्रीतम
सारा शगुफ्ता की नज़्म का एक जलता हुआ टुकड़ा मेरे सामने था--
यहाँ तो क़ैद की कड़ियाँ खोलते-खोलते मेरा बदन अटकने का है
हर नक्काद,गैर नक्काद मेरे बदन में भौंकना चाहता है
फिर अपने सांस जितना कफन मेरे लिए अलापता है
मेरा ससे बड़ा ज़नाह यह है--कि मैं औरत हूँ
जब उनके साथ क़हक़हा नहीं लगती
वह मेरे खिलाफ हो जाते हैं...
और क़तार में लगे हुए लोग मुझे बताते हैं
कि कितने कूज़े प्यास है
हद तो यह है कि बताने वाला--
शर्म की जूठन से प्याले को धोता है
मैं ऐसे फाहसा नहीं हो सकती
और वह खतना से ज़्यादा वसीह नहीं होते...
पर्दा ?
मैं किस-किस परचम के बंद खोलूँ
क्या औरत का बदन से ज़्यादा कोई वतन नहीं ? ..... लगा इतिहास दो ही लफ्ज़ों से वाकिफ़ है--एक वतनपरस्ती लफ़्ज़ से और एक वतनफरोशी लफ़्ज़ से. जिसमे से एक लफ़्ज़ को वह इज्ज़त की निगाह से देखता है,और दूसरे को हिक़ारत की नज़र से! और लगा--सारा की नज़्म, यह जलता हुआ टुकड़ा,एक जलते हुए सवाल की तरह इतिहास के सामने खड़ा है,कि जिनके पैरों तले की जमीन चुरा कर,उनके बदन को ही उनका वतन क़रार दे दिया जाता है,तुम उनकी बात कब करोगे ?