झाड़ग्राम, विवेकानन्द और इस्पात / आलोक रंजन
१२ तारीख जमशेदपुर के प्लेटफार्म संख्या ४ पर इस्पात एक्सप्रेस के इंतज़ार में अकेले ही बैठा हुआ आती –जाती ट्रेनों का मुआयना कर रहा था।
२-३ घंटे पूर्व ही स्टेशन पर आ जाने के उपरांत आपके पास कुछ ही विकल्प होते हैं, उनमे से एक का प्रयोग करते हुए दूसरे विकल्प को अपने झोले से निकालने का प्रयत्न करने लगा अर्थात मुड़े –तुड़े अखबार के पन्नों को सीधा कर फिर से पढ़ने का। “दैनिक जागरण” का प्रथम पृष्ठ मुख्य लेख –
‘आज से खडगपुर-जमशेदपुर रेल लाईन पर परिचालन सुचारू रूप से, खासकर रात्रि परिचालन’,
-पढकर कुतूहल हुआ जाना मुझे भी खडगपुर ही था, सहसा झाड़ग्राम की याद तरोताजा हो उठी, ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसा ...लाशों का मंज़र सब कुछ आँखों के आसपास से जैसे अभी –अभी गुज़रा हो।
मैंने पन्ना बदल डाला और राजनीति, खेल से बचते –बचाते अंतिम पृष्ठ पर विवेकानन्द जी के जन्मोत्सव पर प्रकाशित परिशिष्ट पर जा पहुंचा, और मन को झाड़ग्राम से निकालकर स्वामी जी के आस-पास आरोपित करने का प्रयत्न शुरू कर दिया। भारत की मोहक सांस्कृतिक विरासत और आधुनिंक भारत के प्रलापों से गर्वित होता मैं ट्रेन पर बैठ चुका था, खिड़की के बाहर नजरें टिका लीं।
ट्रेन के छूटते ही इस्पात –संयंत्र के तने हुए चिमनी को देखकर भारत पर इठलाता हुआ, मैं मन ही मन भारत के विकास में इस्पात की भूमिका के आकलन में जुट गया।
थोड़ी देर में घाटशिला गुज़रा और खनिज संपदाओं से पूर्ण इस देश में चहुँ-ओर विकास ही विकास मुझे आभासित होने लगा, संस्कृति और विकास का नारा मैंने भीतर ही भीतर बुलंद करना शुरू किया।
स्वप्न टूटा और गाड़ी एक झटके के साथ झाड़ग्राम पर रुकी।प्लेटफोर्म पर २५ –३० सुरक्षा बल, एक दम मुस्तैद और हर यात्री को घूरते।एक बैनर पर नज़र पड़ी ऊपर ममता जी की तस्वीर, नीचे एक सुरक्षाबल की जो किसी को सविनय कुछ समझा रहा था, कुछ सहयात्रियों से इस सन्दर्भ में पूछना भी चाहा, पर उनकी आँखों में भय के अतिरिक्त और कुछ भी मुझे मिला नहीं।
ट्रेन अब एक स्थल से हो कर तेजी से निकल जाना चाहती थी, कुछ क्षत- विक्षत डब्बे अभी भी पटरी के एक ओर पड़े थे, इस्पात के डिब्बे, इस्पात के क्षत- विक्षत डब्बे .....विकास का ताना –बाना इस्पात अब सामने मुर्दा पड़ा था।
थोड़ी देर पूर्व ट्विट्टर पर सन्देश दिया था-,
”स्वामी विवेकानन्द की जन्मस्थली पहुचने पर रोमांच का अनुभव हो रहा है।”
अब मैं भावना –शून्य हो रहा था, आँखे मूंद ली और सीधे खडगपुर में ही खोल सका।विश्व के सबसे बड़े प्लेटफोर्म ने जैसे मयखाने की तरह फिर से विकास की शराब में मुझे डुबोना शुरू किया, ।सामने इस्पात की सीढियाँ, इस्पात की कार, इस्पात के लोग ...........मैं भी इस्पात का।
आई .आई .टी के प्रांगण में पहुँच कर और भी मादक हो उठा, साक्षात् आधुनिक भारत के विकास में अग्रणी संस्था के सामने खड़ा था। विवेकानन्द जी के एक विशाल पोस्टर ने रही –सही कसर भी पूरी कर दी, झाड़ग्राम अब ओझल हो चला था। इस्पात अब हर ओर नज़र आने लगा, मुझे लगा शायद वह पोस्टर वाला सैनिक उस व्यक्ति को भी इस्पात होने को कह रहा होगा .........!