झिंग्गू डिंग्गू / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
बहुत बडा घर था जीजी बाई का। तीन बड़े-बड़े कमरे दो आँगन और दो बरामदे। मकान पक्का नहीं था पर कच्चा भी नहीं था। दीवारें ईंट की थीं परन्तु जुड़ाई और छपाई मिट्टी की थी। फर्श मिट्टी का था किन्तु गोबर से लिपा पुता होने से स्वच्छ भारत का सन्देश देता-सा प्रतीत होता था।
" गाँव-गाँव का कहे किसान, मेरा भारत देश महान।
सुन्दर भारत अपनी शान, साफ़ सफ़ाई ही पहचान। '
घर की दीवारों से ऎसी ही आवाज़ सुनाई पड़ती थी।
शाही मेहमान की तरह दो चूहे झिंग्गू और डिंग्गू बड़ी शान से इस पवित्र पावन घर में रहते थे। इस कमरे से उस कमरे और उस कमरे से इस कमरे तक धमा-चौकड़ी करते रहते थे। कभी-कभी बरामदे की सैर कर आते तो कभी आँगन में जाकर दंड पेलते। किचिन में जाकर एकाध रोटी का टुकड़ा ले आते और अलमारी के पीछे अथवा पलंग के नीचे बैठकर लंच का आनंद लेते।
रात को गेहूँ या चांवल पर हाथ मारते तो रात भर डिनर चलता रहता। डिंग्गू पूछता दादा दिन वाले खाने को लंच और रात वाले को डिनर क्यों कहते हैं, जबकि खाना तो लगभग एक-सा ही होता है। झिंग्गू कहता " चुप रहो बेकार बातों में क्यों समय वेस्ट करते हो लंच हो या डिनर, अपने राम को तो खाने से मतलब। हम लोग पढ़े लिखे लोग हैं, समझदार हैं, काम से काम रखो, झपट्टा मारो और मॉल खाओ। डिंग्गू हाँ में हाँ मिला देता, कहता सच बात है झिंग्गू दादा, जब अंग्रेज चले गए तो क्या लंच क्या डिनर।
दीवारें ईंट की थीं इस कारण बिल बनाना संभव नहीं था किन्तु फ़र्श मिटटी का होने से दीवार और फ़र्श के जोड़ पर कोने में तो बिल बन ही सकता था। झिंग्गू ने कडा परिश्रम करके एक बिल एक कमरे में बना लिया था। बिल्ली आती तो झिंग्गू दौड़ लगाकर बिल में घुस जाता। डिंग्गूराम बेचारे किसी अलमारी के पीछे या ड्रेसिंग टेबिल अथवा पलंग के नीचे दुबक जाते। जब बिल्ली चली जाती तो फिर दोनों धमा-चौकड़ी करने लगते। झिंग्गू डिंग्गू को समझाता-
" जैसे भी हो, छोटा मोटा बिल्ल बनालो डिंग्गूराम,
अगर पडी आफत तो डिंग्गू आएगा तेरे ही काम। "
परन्तु डिंग्गू को कहाँ चिंता थी। कौन लफड़े में पड़े \ उसके पिताजी तो क्या, उसके दादाजी तक ने कभी बिल नहीं बनाया था तो वह क्यों बनाये।
' डिंग्गू कहता-बिल्ल बनाना है मूरख लोगों का काम,
मैं तो अलमारी की पीछे छुपकर करता हूँ आराम। "
झिंग्गू समझाता, मेरे दोस्त बिल बहुत ही ज़रूरी है यदि अचानक बिल्ली आ गई और झपट्टा मारा तो दौड़कर बिल में तो घुस सकते हैं और अपनी जान बचा सकते हैं। डिंग्गू हंसने लगता " क्या बात करते हो यार-
" बिल्ली तो क्या बिल्ली की, अम्मा भी क्या कर पायेगी,
लाख पटक ले सिर धरती पर मुझलो पकड़ न पायेगी। '
झिंग्गू बार-बार समझाता, अति विश्वास ठीक नहीं होता मेरे प्यारे भाई। रावण ने घमंड किया तो राम के हाथों मारा गया। कंस का हाल भी जानते हो, किशन कन्हैया ने कैसे उसके दर्प को चूर किया था। मैं फिर तुम्हे गाकर समझता हूँ-
" देखो डिंग्गू प्यारे डिंग्गू, आलस ठीक नहीं भाई।
जिसने आलस किया मुसीबत, उसके ऊपर मडराई।
बार बार तुमसे कहता हूँ, बिल एकाध बनाले तू।
जीवन की रक्षा करना है, यह उपाय आजमाले तू।
परन्तु डिंग्गू को यह सलाह बिलकुल पसंद नहीं आती, कहता-
" तू क्यों देता व्यर्थ मशविरा, तू जाकर बिलमें छुप जा।
बड़ी ज़ोर से हंसने लगता, हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा। '
खैर, दिन बीतते गए। दोनों आलू कुतर-कुतर कर खाते, तो कभी अखवार कुतरते। जो भी मिलता अपनी भूख उसे ही खाकर बुझाते रहते।
कुछ दिन बाद दीपावली आनेवाली थी। मकान मालकिन जीजीबाई ने घर का सारा सामान निकलवाकर बाहर आँगन में रखवा दिया ड्रेसिंग टेबिल और पलंग खोलकर सफ़ाई के लिए एक कोने में टिकवा दिए। एक कमरे में एक पलंग भर रखा रह गया जो की नीचे से थोड़ा-सा ही ऊपर था, जिसमें चूहे छुप तो सकते थे किन्तु बिल्ली भी दुबक कर नीचे घुस सकती थी। झिंग्गू को तो कोई डर नहीं था। बिल्ली आती तो दौड़ लगाकर बिल में घुस जाते। किन्तु डिंग्गू राम अब परेशान रहने लगे। बिल्ली आती तो इधर उधर भागते फिरते। जैसे तैसे जान बचाते। बिल तो था ही नहीं, सो कभी बाहर आँगन तरफ़ भागते, तो कभी कमरे में बचे एक मात्र पलंग के नीचे छुपकर थर-थर कांपते रहते। बिल्ली जब चली जाती तो जान में जान आती।
एक दिन दोनों कुतर-कुतर कर एक रोटी पर हमला कर रहे थे की अचानक बिल्ली जी आ धमकीं। अचानक हमले से दोनों घबरा गए झिंग्गू तो दौड़ लगाकर अपने बिल में जा समाये। परन्तु डिंग्गू! बेचारे क्या करते, दौड़े और पलंग के नीचे जा घुसे। बिल्ली वहीँ घात लगाकर बैठ गई। उसने देखा कि पलंग के नीचे वह भी घुस सकती है। धीरे-धीरे दबे पैरों वह नीचे घुसने लगी। अब तो डिंग्गू के-के हाथ पैर फूल गए। बचने के लिए बाहर भागे। पर कहाँ जाते।
बिल्ली ने झपट्टा मारा और उसे दबोच लिया। डिंग्गू की हालत खराब हो रही थी, पर अब क्या हो सकता था। अब पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत।
बिल्ली के मुंह में जाते-जाते उसके कानों में झिंग्गू दादा के शब्द गूँज रहे थे-"देखो डिंग्गू प्यारे डिंग्गू आलस ठीक नहीं भाई" । इधर झिंग्गू अपने प्रिय मित्र को मौत के मुंह में जाता देख कर आंसू भर-भर कर रो रहा था। , मन ही मन सोच रहा था।
" अगर मान लेता तू डिंग्गू, बात हमारी छोटी-सी।
प्यारे भइया, छोटे भैया, नहीं मौत मिलती ऐसी।