झील दर्पण, हाइकु-संग्रहः पुष्पा मेहरा / शिवजी श्रीवास्तव
झील दर्पण’ पुष्पा मेहरा जी का नवीन हाइकु संग्रह है। वयस के जिस मोड़ पर प्रायः लोग थके और चुके हुए होते हैं उस अवस्था में भी पुष्पा जी सतत सृजनरत हैं। अनेक काव्य-कृतियाँ कि रचयिता पुष्पा जी का प्रथम हाइकु संग्रह ‘सागर मन’ चर्चित एवं पुरस्कृत संग्रह है, उसी कड़ी में उनका यह द्वितीय हाइकु-संग्रह ‘झील दर्पण’ भी एक महत्त्वपूर्ण संग्रह है। हाइकु काव्य की ऐसी विधा है जो कलेवर में अत्यंत लघु होने के बावजूद गहन अर्थ व्यंजक होती है इसीलिए इस विधा में रचना सहज नहीं है, किन्तु पुष्पा जी ने इस विधा का निर्वाह अत्यंत सफलतापूर्वक किया है। ‘झील दर्पण’ में संकलित समस्त हाइकु अत्यंत सरस और विविध भावों के अभिव्यंजक हैं। संग्रह की विशेषता स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार और श्रेष्ठ हाइकुकार श्री रामेश्वर काबोंज हिमांशु ने फ्लैप कवर पर लिखा है… “जिन हाइकुकारों ने अपने समृद्ध रचनाकर्म से पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया, उनमें पुष्पा मेहरा प्रमुख हैं। जीवन के 82 वर्ष पूरा करने पर भी आप सृजनशीलता के पथ पर पूर्ववत अग्रसर हैं। ‘सागर मन’ संग्रह से जो यात्रा आरंभ की थी वह एक दशक बाद ‘झील दर्पण’ हाइकु की सरस स्रोतस्विनी के रूप में प्रवाहित है। भारतीय काव्य के मापदंड पर खरे उतरने वाले हाइकु ने सिद्ध कर दिया है कि काव्य का कोई भी रूप हो, अच्छी भाषा भावनाओं और गहन अनुभूति वाली रचना सहृदय के मन को अवश्य स्पर्श करती है।” निःसंदेह हाइकु एक गंभीर काव्य-विधा है, मूलतः जापान कि यह विधा जब हिन्दी में आई तो इसने हिन्दी कि प्रकृति के अनुरूप स्वयं को परिवर्तित भी किया, उसका कलेवर अवश्य जापानी हाइकु की अनुकृति रहा पर भाव और कला में यह भारतीय बन गई, यद्यपि बहुत से समीक्षक अभी भी इसे भारतीय काव्य-शास्त्र के मापदंडों पर मापने के पक्षधर नहीं हैं पर भारतीय कवियों द्वारा हाइकु रचे जाने पर वे विशेषताएँ स्वाभाविक रूप से आ ही जाती हैं। पुष्पा मेहरा के हाइकु भी जापानी शिल्प के साथ भारतीय काव्य-शास्त्र की विशेषताओं को भी समाहित किए हुए हैं।
‘झील-दर्पण’ के समस्त हाइकु क्रमशः-‘जीवन राग’ , ‘जीवन सूत्र हमारे’ , ‘रंग तरंग’ , ‘धरा’ एवं ‘विविध रंग पाती’ नामक पाँच खंडों में विभक्त हैं। इन पाँच खंडों को भी विविध शीर्षकों में विभक्त किया गया है। ‘जीवन राग’ के अंतर्गत क्रमशःप्रभात, शब्द, वसंत, यादें विषयक हाइकु हैं, ‘जीवन सूत्र हमारे’ खंड में गुरु, माँ, पिता, रिश्ते, धरती और हवा के हाइकु, ‘रंग-तरंग’ में गर्मी, वर्षा, शीत, साँझ के हाइकु तथा ‘धरा शृंगार’ में झील, सागर और पर्वत के हाइकु संकलित हैं जबकि ‘विविध रंग पाती’ खंड में कोई उपशीर्षक न देकर विविध विषयों के हाइकु संकलित किए गए हैं। संग्रह के खंडों के शीर्षकों के विषयों से ही स्पष्ट है कि पुष्पा मेहरा जी ने अपने हाइकु के लिए व्यापक कैनवास का चयन किया है, उनमें प्रकृति के विविध-रूप हैं, मानवीय सम्बंधों एवं रिश्तों के गरिमा है, हृदय की भावाकुलता एवं समय-समय पर परिवर्तित होती मनःस्तिथियाँ हैं। सभी विषयों पर पुष्पा मेहरा जी ने सहज और प्रभावी ढंग से हाइकु लिखे हैं।
जापान में हाइकु मूलतः प्रकृति की कविता है अतः हिन्दी हाइकुकारों का भी प्रिय विषय प्रकृति ही रहता है, ‘झील’ दर्पण में भी प्रकृति के विविध-रूप अपने समस्त वैशिष्ट्य के साथ उपस्थित हैं। सत्य तो यह है कि संग्रह के अधिकांश हाइकु प्रकृति विषयक ही हैं, प्रकृति से हटकर भी उन्होंने जो हाइकु लिखे हैं वहाँ भी अधिकांश हाइकुओं में उन्होंने बिम्ब या उपमान प्रकृति से ही चुने हैं, उदाहरण के रूप में ‘यादें’ शीर्षक के ये हाइकु देखे जा सकते हैं-
भोर चिरैया / उड़ मुड़ेर आई / चहकी यादें।
गीज़र युग / धूप में गर्माता पानी / दादी की यादें।
ये दोनों ही हाइकु ‘यादें’ विषय से हैं पर दोनों में प्रकृति के उपादान आ गए हैं। इसी प्रकार ‘पिता’ और ‘रिश्ते’ विषय हाइकु लिखते हुए उन्होंने प्रकृति के ही प्रसिद्ध उपमानों को चुना है-
चाँद है पिता / बच्चों को दे प्रकाश / पाए मावस।
पिता की सीखें / सिंधु का खारा पानी / सौंपती मोती।
रिश्ते गुलाब / सूखे भी महकते / मन में बसे।
दरअसल प्रकृति इतनी व्यापक है कि उसे जीवन के हर क्षेत्र में हर सम्बंधों में देखा जा सकता है इसीलिए अधिकांश कवि अपनी अभिव्यक्ति के लिए प्रकृति से ही बिम्ब ग्रहण करते हैं, प्रकृति से अपनी अभिव्यक्ति हेतु प्रेरणा ग्रहण करते हैं। भारतीय काव्य-शास्त्र में प्रकृति अनेक रूपों में चित्रित है, हिन्दी की छायावादी कविता तो प्रकृति के विविध रूपों से सुसज्जित है उसमें प्रकृति के आलंबन, उद्दीपन, आलंकारिक, मानवीकरण, उपदेशक इत्यादि रूपों के आकर्षक चित्र है। छायावाद के पश्चात भी कवियों को जब अवसर मिला है उन्होंने प्रकृति के विविध चित्र अंकित किए हैं, हिन्दी कविता की यह प्रवृत्ति परंपरा-रूप में चलती हुई हिन्दी हाइकु में भी आई। हिन्दी-हाइकु में भी प्रकृति अपने वैविध्य में मुखर हुई है। ‘झील दर्पण’ के हाइकुओं में भी प्रकृति के अनेक रूप देखे जा सकते हैं, विशेषतःप्रकृति के आलंकारिक और मानवीकरण रूप तो हर खंड में विद्यमान हैं कुछ उदाहरणों द्वारा इन विशेषताओ को देखा जा सकता है-
ब्रह्म मुहूर्त / उषा की माँग भर / रवि मुस्काया।
वर्षा धोबन / पेड़ों के धोती गई / धूसर वस्त्र।
भोर सहेली / लगा रही आलता / नदी में बैठ।
धूप की छोरी / गरम सलाखें ले / दागती फिरे।
मुख न दाँत / दहाड़ता सागर / सोने न देता।
ये समस्त हाइकु प्रकृति के मानवीकरण के सुंदर उदाहरण हैं, इनमें बिम्बग्रहण तो है ही साथ ही मानवीकरण भी है। ब्रह्म-मुहूर्त में आकाश में फैलती लालिमा का दृश्य देखकर कवयित्री को प्रतीत होता है जैसे उषा कि माँग भरकर सूर्य मुस्करा रहा हो, इसी प्रकार वर्षा का मानवीकरण करते हुए उसे वृक्षों के पत्र-रूपी वस्त्रों को धोने वाली धोबन के रूप में चित्रित किया गया है। शेष हाइकुओं में भी प्रकृति के मानवीकरण के सुंदर चित्र हैं। इन हाइकुओं की विशेषता यह है कि इनमें आलंकारिकता / मानवीकरण तो है ही साथ ही प्रकृति के मोहक बिम्ब और लोक-जीवन के चित्र भी हैं माँग भरना, आलता लगाना, धोबन द्वारा वस्त्र धोना, गरम सलाखों से दागना या दहाड़ना लोक जीवन के चिर-परिचित बिम्ब हैं। इसी प्रकार अन्य हाइकु भी संश्लिष्ट अर्थ-बोधक हैं।
‘झील-दर्पण’ में प्रत्येक ऋतु के वर्णन हैं, कवयित्री ने प्रत्येक ऋतु के स्वाभाविक चित्र अत्यंत सरसता के साथ अपने हाइकुओं में अंकित किए हैं, गर्मी,
वर्षा, शीत, वसंत शीर्षकों के साथ ही प्रभात, धरती, हवा इत्यादि में भी ऋतुओं के चित्र देखे जा सकते हैं। प्रत्येक ऋतु-वर्णन में उसके विवध स्वरूपों के सहज बिम्ब चित्रित किए गए हैं। ऋतुओं में भी वसंत कवियों कि सबसे प्रिय ऋतु है, कवियों ने उसे ऋतुराज कहा है, क्योंकि वही एक ऐसी ऋतु है जब न शीत का त्रास होता है, न ग्रीष्म का ताप होता है और न ही वर्षा की अस्थिरता। अनेक वनस्पतियों के फलने-फूलने से-से धरा का सौन्दर्य निखर आता है वह सभी के अंदर उल्लास जगाती है, इसीलिए इसे ऋतुराज कहा जाता है। ‘झील दर्पण’ में भी वसंत के सुंदर और मोहक चित्र विद्यमान हैं, इन चित्रों के लिए अनेक स्थलों पर उन्होंने सर्वथा नवीन बिंबों का प्रयोग किया है यथा वसंत के आगमन से पूर्व शीत का त्रास झेलती प्रकृति को भी मानो वसंत कि प्रतीक्षा रहती है, वसंत के आगमन का आभास होते ही शीत अपने जाने के दिन गिनने लगती है, इस भाव के लिए कवयित्री ने शीत के बूढ़े होने का नवीन बिम्ब चुनकर लोक में प्रचलित मुहावरे का प्रयोग करते हुए में सुंदर ढंग से अभिव्यक्ति प्रदान की है,
बुढ़ाती शीत / जीवन के गिनती / दो चार दिन।
वसंत में प्रकृति के रग-रग में जो उल्लास है उसे भी कुछ हाइकुओं में देखा जा सकता है-
अल्हड़ हवा / धरती का बदन / छू-छू भागती।
फूली सरसों / नाच रहीं बालियाँ / रोमांच भरी।
सुगंध भरी / खिल गईं कलियाँ / तृप्त हैं भौंरे।
राग औ रंग / जीवन के हैं अंग / कहे वसंत।
वसंत की भाँति ही अन्य ऋतुओं के भी अत्यंत सहज एवं स्वाभाविक चित्र झील दर्पण के हाइकुओं में देखे जा सकते हैं, गर्मी में नीम फूलने लगता है, धरती का ताप बढ़ता जाता है उस ताप में भी गुलमोहर का सौन्दर्य देखते बनता है, इन अनेक दृश्यों के स्वाभाविक चित्र देखने योग्य है-
फूल भार ले / भीनी ख़ुशबू तले / ऊँघती नीम
भुट्टे-सी भुनी / धरती पर बूँद / छन्न भी भूली।
गुलमोहर / लिए फूल आयुध / जेठ पर भारी।
गर्मी की ही भाँति वर्षा और शीत के भी इसी प्रकार सहज वर्णन देखे जा सकते हैं-
वर्षा
वर्षा ने डाला / सतरंगा जनेऊ / नभ के काँधे।
मेघ मल्हार / गा रहा है सावन / बजे मँजीरे।
शीत
घना कुहासा / सूर्य के सातों घोड़े / भटके राह।
घेरे अलाव / श्वान-श्रमिक बैठे / एक ही ठाँव।
पुष्पा मेहरा जी ने झील-दर्पण में प्रकृति के सुंदर चित्र तो अंकित किए ही हैं साथ ही मानव-जीवन कि बेहतरी से सरोकार रखने वाले विविध विषयों को भी स्पर्श किया है उन्होंने जीवन को गढ़ने वाले और दिशा-निर्देश देने वाले रिश्तों-माता-पिता और गुरु पर भी प्रेरक एवं मार्मिक हाइकु लिखे हैं, कुछ हाइकु दृष्टव्य हैं-
माँ जो मुस्काई / अंधेरे को आ मिली / तारों की छाँव
जोड़ती रही / माँ विश्वास की कड़ी / टूटे जो रिश्ते।
मोम थे पिता / तिल-तिल जले / दर्द न बांटा।
नींव थे पिता / थाम रखी थीं सारी / छत दीवारें।
गुरु पारस / छुए जो लौह-खंड / बनता पारस।
इन विषयों के साथ ही सामयिक विषयों और समस्याओं पर भी कवयित्री की दृष्टि है, भौतिक विकास की दौड़ में, विकास के नाम पर प्रकृति से निरंतर की जाने वाली छेड़छाड़ से उत्पन्न पर्यावरण असंतुलन हो, कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से लुप्त होते पशु-पक्षी हों या मोबाइल युग में सिमटते सम्बंध हों या समाज में बढ़ती स्वार्थपरता अथवा कोरोना काल में अकेलेपन की व्यथा झेलते लोग हों, कहने का आशय यह है कि जो भी सामाजिक विसंगतियाँ हैं सभी पर उनकी दृष्टि अवश्य गई है, उदाहरण रूप में कुछ हाइकु देखे जा सकते हैं-
विकास डाकू / काट रहा जंगल / वृक्ष हलाल।
निर्मल गंगा / सबके पाप धोती / दूषित पड़ी।
बुलडोजर / विकास खूँद रहा / पर्वत गढ़।
पिघल रहा / प्लास्टिक के बोझ से / हिम आलय।
खेत खेत में / कीट नाशक चख / भागी गौरैया।
सिमट गया / सम्बंधों का दायरा / मोबाइल में।
लॉक डाउन / लोग घरों में बंद / दौड़ती यादें।
निःसंदेह वस्तु, विषय, भाव और शिल्प समस्त दृष्टियों से ‘झील दर्पण’ एक सुंदर कृति है, यद्यपि कृति के अधिकांश हाइकु प्रकृति-केंद्रित हैं पर इसके साथ ही कवयित्री सामाजिक समस्याओं और सामयिक संदर्भों से भी दूर नहीं हैं उन्होंने प्रायः हर विषय पर सरस और सार्थक हाइकु रचे हैं। वस्तुतः झील-दर्पण अपने नाम के ही अनुरूप सरस हाइकुओं की ऐसी सुंदर झील है जहाँ हर भाव और विषय के सुंदर हाइकुओं के प्रतिबिंब अपनी मोहक छटा से हाइकु-प्रेमियों को मुग्ध करते रहते हैं। इस कृति के महत्त्व के संदर्भ में अपनी बात को मैं पुस्तक की भूमिका में लिखे डॉ. सुरंगमा यादव के इन शब्दों के साथ ही विराम देना चाहूँगा-“पुष्पा मेहरा जी के हाइकु झील-दर्पण में मुखड़ा निहारने वाले चाँद की तरह सलोने हैं। कवयित्री का शिल्प-सौष्ठव, शब्द-चयन, काव्यात्मकता, भावाभिव्यक्ति का निर्बाध प्रवाह, हाइकु के निर्बाध सम्प्रेषण की सामर्थ्य रखता है। निश्चित ही यह हाइकु-संग्रह हाइकु प्रेमियों के बीच अपना विशेष स्थान बनाएगा।”
‘’’झील दर्पण, हाइकु-संग्रहः पुष्पा मेहरा, पृष्ठ संख्या-117, मूल्य-200 / -,संस्करण-प्रथम-2023,प्रकाशक-शब्दांकुर प्रकाशन, नई दिल्ली-110062’’’ -0-