झुन्नू कपूर का किताबख़ाना: अनंत लालसाओं की कहानी / स्मृति शुक्ल
हरिचरन प्रकाश हिन्दी कथा-जगत् के प्रतिष्ठित कथाकार हैं। वे यथार्थ की ऊपरी सतह पर दिखने वाले परतों को भेदकर वास्तविक यथार्थ को पाठकों तक बड़ी रोचकता से पहुँचाने वाले समर्थ कहानीकार हैं। बाजारवादी, पूँजीवादी और उपभोक्तावादी, मानसिकता से उपजी स्थितियों को विश्लेषित करने वाली उनकी कहानियाँ मनुष्य के अन्तर्जगत को खँगालकर पाठक के सामने लाती हैं। हरिचरन प्रकाश की बहुआयामी रचनात्मकता में लेखन की श्रेष्ठता के प्रमाण मौजूद हैं। उनकी कहानियाँ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चेतना की प्रामाणिक छवियों के प्रकटीकरण के साथ मनुष्य को बाह्य और आंतरिक जगत को पूरी ईमानदारी से अभिव्यक्त करती हैं। कहानीकार के रूप में हरिचरन प्रकाश के पास गहन जीवनानुभव हैं। एक अध्येता की गहन अध्ययनशीलता और एक मनुष्य की गहन मानवीय संवेदना के साथ उनके पास एक समर्थ और सशक्त भाषा है इस कारण उनकी कहानियाँ अपनी कथात्मक संवेदना और कहन की विशिष्ट शैली के कारण अनूठी और प्रभावशाली हैं।
उनकी नयी कहानी 'झुन्नू कपूर का किताबख़ाना' शीर्षक वनमाली कथा विशेषांक (सितम्बर 2025) में प्रकाशित हुई है। काल के व्यापक फलक को समेटे इस कहानी में लम्बा समय जीवंत होकर स्पंदित है। 1955 में स्थापित किताबखाना 2020 में बंद हो चुका है। कहानीकार के अनुसार किताब की दुकानें बंद हो रही हैं क्योंकि किताबों ने कुनमुनाना छोड़ दिया था क्योंकि किताबें तभी कुनमुनाती हैं जब कोई उन्हें पढ़ता है। बकौल कहानीकार-"बेनूर किताबें, नदारत दीदावर और हलाकान मालिकान।" कोरोना काल के बाद कर्तिकेय कुमार कपूर उर्फ झुनू बाबू की किताबों की दुकान बंद होने के साथ ही उनके गले की त्वचा पर झुर्रियाँ बढ़ गई थी और वे अपने आप से ही बातें करने लगे थे यह वह उनके जीवन का उत्तरार्द्ध था।
झुन्नू बाबू का वंशवृक्ष 1847 से बनना शुरू हुआ था। झुन्नू बाबू के पूर्वजों ने जमींदारों की गिरवी रखी जमीनों को खरीद कर अपने को समृद्ध बनाया था। कहानीकार ने 1857 से 2025 तक के समय को इस कहानी में पूरी विश्वसनीयता के साथ मूर्त किया है। हरिचरन प्रकाश की यह कहानी अपनी कथावस्तु में औपन्यासिक फलक को समेटे हुए हैं। झुन्नू के बाबा गणेश प्रसाद ने जब मैट्रीक्युलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की थी तो परिवार में उत्सवी माहौल व्याप्त हो गया था उन्होंने अपनी अच्छी अंग्रेज़ी के बलबूते पर सराफे की नौकरी के साथ-साथ ठेकेदारी का कारोबार जमाया, बेटी को घर से बाहर आर्य कन्या मिडिल स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा था। इसके साथ ही उन्होंने अंग्रेज हाकिमों से शराब बेचने का लाइसेंस हासिल किया था। इसके लिए उन्हें दो-चार साल लोक-निंदा भी सहनी पड़ी थी बाद में लोगों ने उनके इस व्यापार को सामाजिक स्वीकृति भी दे दी थी। झुन्नू के बाबा से कहानी प्रारंभ करते हुए कहानीकार ने अनेक ऐसे संकेत दिए हैं, जिससे पाठक तत्कालीन समाज व्यवस्था और अंग्रेज़ी राजकाज के उसूलों को समझ सके तथा गणेश प्रसाद की अग्रगामी सोच और दूरदृष्टि का अंदाजा लगा सके। हरिचरन प्रकाश अपनी कहानियों में प्रायः अतीत को दृश्यभाव करने और अतीत के पात्रों को मूर्त करने के लिए बड़ी-बड़ी तस्वीरों को मुख्य उपादन बनाते हैं। उनकी कहानी 'तस्वीर का तिलक' का नायक जयप्रकाश भी अपने को राजवंश का वंशज बताने के लिए तस्वीरों का ही इस्तेमाल करते हैं। इस कहानी में भी उन्होंने झुन्नू बाबू के बाबा गणेश प्रसाद के व्यक्तित्व को उनकी तस्वीर के द्वारा ही उकेरा है। बाबा गणेश प्रसाद ने अपने जीवन की प्रत्येक बात का अभिलेखीकरण किया था जिससे वे अपने पूर्वजों की आदतों, व्यवहार व्यवसाय और आचरण को जान पाए थे। उनके ताऊ जी फार्मासिस्ट थे और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उनकी अंग्रेज़ी दवाओं की दुकान चल निकली थी।
हरिचरन प्रकाश की प्रायः सभी कहानियों के केन्द्र में परिवार होता है उन्होंने अपनी कहानियों में समाज के उन व्यक्तियों को पात्र नहीं बनाया जो परिवार केन्द्रित न हों। झुन्नू बाबू का किताबखाना के नायक झुन्नू बाबू के पूर्वज भी एक पत्नीव्रती रहे हैं इस बात पर झुन्नू बाबू मन ही मन गर्व करते रहे हैं। झुन्नू बाबू ने वंदना टंडन नामक कन्या से प्रेम किया था जिनसे उनकी भेंट एक रिश्तेदार की शादी में हुई थी। वंदना टंडन ने उस वक़्त कक्षा बारह का इम्तिहान दिया था और झुन्नू बाबू एल.एल.बी. प्रथम वर्ष में थे। इस उम्र में उन्होंने प्रेम किया और जल्दी ही उसे अंजाम तक पहुँचाया। विवाह समारोह में वंदना टंडन ने एक फ़िल्मी गीत गाया उसे सुनकर झुन्नू बाबू को ऐसा लगा मानो यह गीत उन्हीं के लिए गाया जा रहा हो। उन्होंने उसी समारोह में एकांत देखकर अपने प्रेम का इज़हार किया जिसे वंदना टंडन ने सकुचाते हुए सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस तरह वंदना उनकी जीवन संगिनी बन गई। वंदना का कोई निकनेम नहीं था इसलिए झुन्नू बाबू उन्हें प्यार से बिन्नू कहने लगे। विवाह के पन्द्रह वर्षों के बाद अनेक अनुष्ठान और उपचार करने के उपरांत उन्हें कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। इस कन्या का नाम लावनी रखा गया पर लाड़ से उसे सब गुलगुली कहते थे। लावनी अपने नाम के अनुरूप लावण्यवती थी, उसका सौन्दर्य बेमिसाल था उसी ने अपने पिता की दुकान को लायब्रेरी का टच दिया था। धीरे-धीरे इंटरनेट की दुनिया के फलस्वरूप ई-लायब्रेरी प्रचलन में आ गई जिसमें झुन्नू की लायब्रेरी धीरे-धीरे चलना बंद हो गई। अब किताबें दुकान में ही भरी रहती। यद्यपि वे बिजनेस के गुर जानते थे, तथापि उनकी किताबों की बिक्री कम होती थी। वे किताबों को उलट-पलट लेते थे और उनके विषय में इतनी जानकारी हासिल कर लेते थे कि ग्राहकों को उनके विषय में बता सकें। साल के अंत में राजधानी के दफ्तरों में भी उनकी किताबों की बिक्री हो जाती थी। लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा था उनकी किताबों की बिक्री कम होती जा रही थी। कोरोना काल एक ओर उनकी किताबों की दुकान के ठप्प होने और उनके निजी जीवन दरार लाने वाला साबित हुआ। ऐसी दरार जो वक़्त के साथ-साथ और भी गहरी होती चली गई। हरिचरन प्रकाश ने झुन्नू के माध्यम से सम्पूर्ण मनुष्य जाति के अटल सत्य की ओर इंगित किया है-"बहरहाल, इतना भविष्य दर्शन उनकी जन्मपत्री में नहीं लिखा था। वैसे भी बुढ़ापे में ढेर सारा अतीत होता है और बहुत कम भविष्य, लाजिम है कि आदमी अतीत को रच-रचकर भोगें। भविष्य की ज़मीन प्रतिपल कम होते-होते बस नाप के दो गज बचते हैं, उसी में चाहे जितना कूद-फाँद करो। बूढ़ा तन जितना बेबस होता है, बूढ़ा मन उतना ही तरंगी। चौंक-चौंक कर यादों के जूठे का भोग लगाता है।" झुन्नू कपूर भी अतीत की यादों के जंगल में भटक रहे थे। बार-बार अपनी जन्मकुंडली पढ़ते, चंदामामा के पीले पढ़ चुके पन्नों को पलटते अपनी झुर्रियों पर हाथ फेरते।
इस बीच गुलगुली की शादी एक ऐसे उत्तम परिवार में हो गई जो दूर दृष्टि सम्पन्न था और यह जानता था कि इकलौती लावनी कपूर झुन्नू कपूर की सारी जायजाद की वारिस है। विवाह के बाद गुलगुली अपनी गृहस्थी में रम गई। उसने केक बनाना सीखा था; इसलिए केक का बिजनेस भी शुरु कर दिया। जब कभी वह मायके आती तो अपने पिताजी की दुकान पर बैठती। दुकान पर बैठकर उसने यह समझ लिया था कि दुकान पूरी तरह से चलना बंद हो चुकी है। इसलिए उसने अपनी माँ को सुझाव दिया कि इस दुकान को लीज पर दे दो, किताबें किसी प्राइवेट स्कूल कॉलेज को दान में दो और बाक़ी बची किताबें कबाड़ियों को किलो के हिसाब से बेच दो।
झुन्नू कपूर ने बेमन से ही सही इस सुझाव पर अमल करते हुए अपनी चल अचल संपत्ति बेटी के नाम पर कर वसीयत रजिस्टर करा दी और दुकान वाले हिस्से को लीज पर देने के लिए तैयार हो गए। जगह बड़ी थी इसीलिए कॉफी हाऊस, ज्वेलरी शॉप और पब खोलने के ऑफर आए। पब वाले ज़्यादा पैसे दे रहे थे इसीलिए पब खुल गया। समय का पहिया घूमा, पीढ़ियों पुराना व्यवसाय फिर नए अवतार में वापिस आ गया। इस बार मय के साथ मयखाना भी झुन्नू कपूर के घर में आ गया। मयखाने के तेज शोर से रात में झुन्नू को दिक्कत तो होती थी; पर इसके बदले में किराए के रूप में मोटी रक़म भी मिल रही थी। समय के साथ झुन्नू की प्रोस्टेट की समस्या दिन व दिन बढ़ रही थी। डॉक्टर ने ऑपरेशन की सलाह दी और झुन्नू का ऑपरेशन भी सफलता पूर्वक हो गया; लेकिन विधि के विधान को कौन टाल सकता है। जिस दिन डिस्चार्ज होकर घर जाना था उसी दिन झुन्नू कपूर को इन्फेक्शन हो गया। झुन्नू कपूर को अब मृत्यु की पदचाप साफ़ सुनाई दे रही थी। अपने युवा काल में वे जिस मृत्यु के विषय में किताबों में पढ़ा करते थे और मृत्यु के बारे अकादमिक चिंतन करते हुए एक सचेत और मनोहर मृत्यु की कामना करते थे। मृत्यु की रचनात्मक प्रतीक्षा करते थे। वह मृत्यु अब एकदम उनके सामने खड़ी थी। वे घबरा रहे थे, शेव करना चाहते थे। आखिरी समय में झुन्नू ने अपनी बेटी से कहा था कि वह अपने हाने वाले बच्चे को चंदामामा की जिल्द और शजरा देदे। इसके अगले दिन उनके हाथ-पैर ठंडे हो गए वे कुछ बुदबुदाएँ उस बुदबुदाहट को केवल उनकी पत्नी ही समझ पाईं। वे कह रहे थे शीशा। यह शीशा उनके मन का दर्पण है।
हरिचरन प्रकाश पर काया प्रवेश करने वाले काहानीकार हैं। वे अपने पात्रों के मन की अतल गहराइयों में जाकर उसकी असल इच्छा को एक गोताखोर की तरह खोजकर एक झटके से बाहर फेंक देते हैं।
झुन्नू बाबू का किताबख़ाना एक ऐसी कहानी है जो न केवल एक पात्र के सम्पूर्ण जीवन को पाठक के सामने रखती है वरन उसके दादा परदादा का इतिहास भी संजोती है। कहानी मृत्यु के आर्य सत्य को सामने रखती है। झुन्नू के माध्यम से कहानीकार मनुष्य जीवन के अटल सत्य जरा-मृत्यु को बड़ी रोचकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। प्रेम भी शाश्वत नहीं है। शरीर के क्षरण के साथ प्रेम भाव भी क्षरित होता है।
झुन्नू कपूर की मृत्यु के पूर्व इच्छा शीशा देखने की थी उसकी पत्नी बिन्नू ने कहा कि न देवी न देवता, न राम का नाम और ना नारायण की पुकार। तुम शीशा देखना चाहते हो उसने आगे बढ़कर अपने होंठ झुन्नू कपूर के कानों पर रख दिए और कहा जोड़ी अच्छी थी। वस्तुतः हरिचरन प्रकाश ने इस कहानी में मनुष्य की कामनाओं को सांकेतिक ढंग से व्यक्त किया है। अंतिम समय तक मनुष्य इस संसार की भौतिकता में डूबे रहना चाहता है। शरीर चाहे कितना भी जर्जर हो जाए, इंद्रियाँ शिथिल हो जाएँ पर उसकी कामनाएँ और इच्छाएँ समाप्त नहीं होती। अंतिम समय में शीशा देखना आत्मरति का प्रतीक है। हरिचरन प्रकाश ने एक साक्षात्कार में कहा था कि उन्होंने चिरकालिक चरित्र नहीं रचे, पर झुन्नू और वंदना जैसे चरित्र चिरकालिक हैं जो हर युग में रहे हैं और भविष्य में भी रहेंगे। हरिचरन प्रकाश ने समय के लंबे कालखंड को और झुन्नू कपूर को जीवन से लेकर मृत्यु तक यात्रा को एक कहानी में समेट दिया है यह कहानीकार के रचनात्मक कौशल का कमाल है। हरिचरन प्रकाश अपनी कहानियों में सर्वथा मौलिक सूक्तियाँ रचते हैं, जो गहरी व्यंजकता से परिपूर्ण होती है। उनकी सूक्तियों की बानगी देखिए-
उनका बेटा आई आईटियन था इस कारण उसका श्यामरंग कांतिमय था।
"जैसे दान पट्टियाँ मंदिरों की शान बढ़ाती हैं, वैसे ही दानदाताओं की सूची इन स्कूलों की औक़ात बढ़ाती हैं।" ये पंक्तियाँ कहानी की अर्थवत्ता को बढ़ाती हैं।
कहानीकार के पास अद्भुत भाषिक सामर्थ्य है। अपनी कथावस्तु और शिल्प की अभिनव कलात्मकता के कारण यह कहानी हिन्दी की श्रेष्ठ कहानी ठहरती है।
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