झूठा भय और मिथ्या अभिमान / भाग 1 / सहजानन्द सरस्वती
कालचक्र ने पलटा खाया है। इसीलिए इस समय भूमिहार, पश्चि म आदि ब्राह्मण समाज में, जिसे पुरोहिती छोड़ने का झूठा या सच्चा गर्व था, उसी पुरोहिती के प्रचार की विशेष चर्चा हो रही है। केवल चर्चा ही नहीं; किंतु कम से कम सैकड़ों स्थानों में ये लोग पुरोहिती करने लग गए हैं और पुराने पुरोहितों को निकाल बाहर किया है और कर रहे हैं। सैकड़ों कर्मकांडी तैयार हो गए और हजारों हो रहे हैं। फिर भी यह संख्या इतने बड़े समाज के लिए पर्याप्त नहीं है। जब तक 10-20 हजार अच्छे-अच्छे कर्मकांड के ज्ञाता ओर कर्ता पुरोहित इस समाज-भर में न हो जावें तब तक काम नहीं चलने का। मगर इस काम में अभी अड़चन पड़ रही है और वह यों है कि सैकड़ों बरस का अभ्यास, भ्रान्त धारणा कि हमें पुरोहिती करना न चाहिए, मूर्खता, स्वरूप-विस्मृति और सबके ऊपर बबुआई का झूठा-सच्चा गर्व, इन्हीं के कारण लोग इस काम में आगे आने से हिचकते हैं। कई पुश्त की रूढ़ि के विपरीत चलना इस समय भारत के लिए, और विशेषत: अवनति-गर्त-पतित ब्राह्मण समाज के लिए आसान काम नहीं है। यह तो एक प्रकार से नक्कू बनने का साहस है। मगर कालगति ऐसी है कि अब रुकने का नहीं। फिर भी लोगों को जो इस विषय में झूठा भय और मिथ्या अभिमान हो रहा है उसे दूर कर देना उचित है।
यह कहना कि पुरोहिती करना उचित नहीं है, क्योंकि इससे हमारी अयाचकता जाती रहेगी, वास्तविक स्थिति के अज्ञान का सूचक है। ब्राह्मणों की याचकता या अयाचकता कोई सामूहिक या सामुदायिक धर्म नहीं है। ब्राह्मणों में कोई दल ऐसा नहीं हो सकता जो सर्वात्मना पुरोहिती से अलग हो, जिसमें पुरोहिती की गंध भी न हो। ऐसा होने से उस ब्राह्मण समाज और क्षत्रिय आदि में देखने के लिए क्या अन्तर होगा? शास्त्र कौन देखने जाता है? सर्व साधारण तो पोथीपत्रा पढ़ते नहीं कि उससे किसी बात का निश्चतय करें और न उनके लिए यह संभव ही है। वह तो सिर्फ बाहरी व्यवहार-आचार को देखते और पढ़ते हैं और उसी से ही फैसला किया करते हैं। यही कारण है कि 25-30 वर्ष से महासभा करते ही रह गए परंतु अभी तक जनता इस समाज को साफ तौर से ब्राह्मण कहने और मानने को तैयार नहीं है। यह कोई छिपी बात नहीं है। यह तो अप्रिय सत्य है। क्या इतने पर भी आँखें नहीं खुलतीं? वह अयाचकता का मिथ्या अभिमान किस कौड़ी का जिसके करते वर्णसंकर, पतित, नीच, क्षत्रिय, बनिया और शूद्र बनने तक की नौबत आ पहुँची थी? जिस अयाचकता के जाने का झूठा भय इस तरह बेकार कर देता है क्या वह जाति और धर्म से प्यारी है? तो क्या उसके करते अभी तक जाति बनी ही है? क्या ब्राह्मणों के जितने भी सर्यूपारी, कनौजिया, गौड़ आदि दल हैं उनमें से किसी को इस अयाचकता या पुरोहिती त्याग का अभिमान है? तो क्या वह ब्राह्मण ही नहीं? या आप लोगों से किसी भी बात में नीचे हैं? कनौजिया तो हर बातों में बढ़े-चढ़े हैं। तो फिर अकेले आप लोगों का ही यह 'मुरारेस्तृतीय: पंथ:' क्यों? इस तरह तो आप अपनी ही मिट्टी पलीद कर रहे हैं। पुरोहिती का करना, न करना व्यक्ति गत धर्म है। समाज का कोई व्यक्तिल चाहे तो उसे करे और दूसरा न चाहे तो न करे। आज करे और कल छोड़ दे, परसों फिर भी करे। इसके लिए कोई नियम तो हो ही नहीं सकता। ब्राह्मणों के किसी भी समाज को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने समाज में किसी भी पुरोहिती करनेवाले को 'स्थान नहीं है' ─ No admission कह सके। ब्राह्मण तो सदा से ही स्वावलंबी और स्वाधीन होते आए हैं। उन्हें औरों के बल और विद्या का कभी भी भरोसा नहीं रहा है। ब्राह्मणों के लिए तो मनु जी कहते हैं कि क्षत्रियादि के बल की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य ठीक है ─ 'स्ववीर्याद्राजवीर्याच्च स्ववीर्यं बलवत्तारम' (11/32)। फिर भी होम और संस्कार या यज्ञ-यागादि के लिए कभी मैथिल, कभी सर्यूपारी, कभी गौड़ और कभी कनौजिया पुरोहित सामने दीनता और साष्टांग प्रणिपात करनेवाले ब्राह्मणों के किसी भी समाज को चिल्लू-भर पानी में डूब मरने के लिए भी जगह नहीं है। इस प्रकार मँगनी, उधार, भाड़े के, अथवा खरीदे हुए धर्म के ठेकेदारों से ब्राह्मणों का धर्म कैसे निभ सकता है? क्या केवल पम्प या नली की बाहरी हवा से शरीर रह सकता है, जबकि भीतर स्वयमेव वह शक्तिन न हो, प्राणवायु न हो? क्या आजकल कोई भी ब्राह्मण समाज ऐसा करता है कि दूसरे समाज के आचार्य या पुरोहितों पर ही निर्भर रहे? वही खा-पी कर उसे और उसके पूर्वजों को तारें, नहीं तो नरक में ही सड़ना होगा? फिर या तो ब्राह्मण कहना छोड़ना होगा, या अन्यान्य ब्राह्मण दलों की जो परिपाटी है, अपने ही दल के आचार्य, गुरु, पुरोहित रखना, वही करना होगा, दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। ब्राह्मणों में इस समय जितने राजे, महाराजे या बाबुआन हैं, उनमें सब नहीं तो अधिकांश के इतिहास से पता चलता है कि उनके पूर्वजों ने इसी पुरोहिती, बल्कि प्रतिग्रह के बल से ही यह राज्य और ठाटबाट संपादन किया है। फिर वंशपरम्परागत अयाचकता की दुहाई कैसी? यदि व्यास, वसिष्ठ और पराशर आदि के ही वंश में अपने आपको मानते हैं और उन्होंने न तो पुरोहिती छोड़ी ही थी और न ऐसा आदेश ही दिया था कि कोई भी उसे न करे, तो फिर उन्हीं के वंशधारों का यह मिथ्या गर्व नहीं तो और क्या है? बाप-दादों ने नहीं किया है, इसलिए हम भी न करेंगे, इस कथन का अर्थ क्या है? क्या बाप-दादों के भीतर व्यास, वसिष्ठ आदि नहीं आते, किंतु सिर्फ दो ही चार पुश्त के लोग?
यदि कहा जावे कि वसिष्ठ ने तो अवश्यमेव पुरोहिती की शिकायत की है, 'उपरोहिती कर्म अतिमंदा' - 'पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम' (अधया. 2/2/28), तो फिर उन्होंने स्वयं क्यों दशरथ के वंश की - रघुवंश की - पुरोहिती स्वीकार की? यदि उन्हें रामचंद्र के गुरु होने का लोभ था तो क्या आपको जाति की रक्षा नहीं करनी है? तो क्या पुरोहिती के बिना जाति को बचा सके या बचा सकते हैं? क्या समाज के लोगों को यह नहीं मालूम कि थोड़े दिनों में ही कम से कम सैकड़ों जगह पुरोहितों ने सिर्फ इसलिए क्रियाकर्म करना छोड़ दिया या छोड़ देने की धमकी दी है कि आप लोग यदि ब्राह्मण हैं तो जाइए पिंड-पानी लीजिए? मैं तो ऐसे कितने स्थान जानता हूँ जहाँ सिर्फ ब्राह्मण कहने के महान अपराध के कारण ही द्वादशाह का पिंडदान कराना उन्होंने ऐन मौके पर छोड़ दिया! मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि पुरोहित समाज को आज मालूम हो जावे कि आपके समाज भर में कोई भी पिंड-पानी कराने योग्य है ही नहीं तो कल ही आपके बड़े-बड़े लोगों को यह साफ धमकी दे देंगे कि 'खबरदार, यदि आप लोगों ने अपने को ब्राह्मण कहा तो ठीक नहीं, आपकी कर्म-क्रिया ऐसी ही पड़ी रह जावेगी।' क्या आप लोग कलेजे पर हाथ दे कर कह सकते हैं कि आप लोगों की ब्राह्मणत पुरोहित समाज को तीर की तरह चुभ नहीं रही है? स्मरण रहे, इसके लिए उसी समाज से आपकी प्रधान लड़ाई है। और जिससे लड़ना हो उसी के हाथ की सामग्री पर निर्भर रह कर लड़ाई या उसमें विजय की आशा केवल मनमोहक है। एतदर्थ तो उस समाज से निरपेक्ष होना ही होगा। दूसरा चारा ही नहीं।
यह भी तो विचारना चाहिए कि वसिष्ठ आदि ने जो पुरोहती की निंदा की उसका नाम लेना आप लोगों के लिए शोभा देता है या नहीं। यदि उन्होंने उसकी शिकायत की तो उनका जीवन बड़ा उच्च था। वह दीनता, गुलामी, सूदखोरी, चोरी, झूठ-सच, धोखेबाजी से और भी दूर रहते थे। नौकरी से अर्थ-संपादन में उन्हें घोर घृणा थी। उन्होंने कहा था कि नौकरी श्वाूनवृत्ति है, उसे किसी भी दशा में ब्राह्मण कर ही नहीं सकता। 'सेवा श्वोवृत्तिराख्याता तस्मात्ता परिवर्जयेत्' (मनु. 4/6)। वकालत, मुख्तारी और पुलिस की घूसखोरी को वे पतित काम समझते थे। वे किसी की नौकरी लगने पर उससे यह प्रश्नम नहीं करते थे कि वेतन के सिवाय ऊपर की आमदनी भी कुछ है या नहीं? इजलास पर जा कर जर-जमीन के लिए गंगा-तुलसी उठाना घोर पाप समझते थे। ओर हम लोग? हमने तो इन सबों को सहर्ष पावन-शिरोधार्य कर लिया है! इन बातों में व्यास-वसिष्ठ का नाम भी लेना अपना कर्तव्य नहीं समझते - उनका उदाहरण पेश करना नहीं चाहते। मगर, पुरोहिती के बारे में? उसके लिए तो दिन-रात उनके वाक्य हमारी जबान पर ही हैं! इसे ही कहते हैं, 'मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू।' इसे ही कहते हैं, 'उत्तरदायित्व-ज्ञान शून्यता।' मगर इससे भला न होगा। किसी भी प्रकार विचारा जावे, तो यही मानना होगा कि व्यास-वसिष्ठ की कसौटी बहुत ही ऊँचे दर्जे की है। वह हमारे लिए आदर्श भले ही हो, पर व्यवहार में कम से कम इस समय उस कसौटी पर जाँच नहीं की जा सकती। जो यह भय दिखलाता है कि पुरोहिती करने से समाज में गरीबी और भिक्षावृत्ति बढ़ेगी, वह भी निर्मूल ही है। काशी, बेतिया, नरहन, सुरसंड, शिवहर आदि के राजे-महाराजे और एकसरिया, जैथरिया, दंसवार, गौतम, दोनवार वगैरह वंशों के जितने बाबुआन हैं उनकी वर्तमान संपत्ति और महाराजा दरभंगा का राज्य भी उसी पुरोहिती, दक्षिणा या प्रतिग्रह वृत्ति के फल हैं। शायद इनमें एकाध ही न हों तो न हों। इनके इतिहास के मूल में यही मिलेगा कि इनके पूर्वजों ने इसी तरह भूमि प्राप्त की। इस प्रकार जब वे लोग गरीब और भिक्षुक न हुए तो समझ में नहीं आता कि किस बुद्धि से यह कल्पना की जा सकती है कि भविष्य में ऐसे हो जाएँगे! साधारणतया तो त्यागी, जमींदार, भूमिहार या पश्चिइम नामधारी समाज का इतिहास ही इस बात का साक्षी है कि पुरोहिती वृत्ति से ही यह समाज बना है, या इसकी भूसंपत्ति और धनवृद्धि हुई है। फिर कैसे कहें कि जिस रास्ते से, जिस काम से इस उच्च सिंहासन पर आसीन हुए उसी से नीचे गिर जाएँगे? यह तो समझ से बाहर की बात है। यह भी समझ में नहीं आता है कि प्रतिवर्ष समाज का जो करोड़ों रुपया दूसरे समाज में जा रहा है और उसके जाने का द्वार यही गुरुवाई और पुरोहिती है, यदि वह समाज में ही उसी के द्वारा रख लिया जावे तो कैसे समाज गरीब और भिक्षुक हो जावेगा? मैं तो सैकड़ों नहीं, हजारों दृष्टांत ऐसे बता सकता हूँ जहाँ पर इस समाज की पुरोहिती करनेवाले दूसरे लोग धनी हो कर इन्हीं की भूमि को खरीद रहे हैं और ये लोग गरीब हो रहे हैं! पुरोहित दल को जो आजकल बड़ा भारी भय है वह यही है कि इस समाज की पुरोहिती और गुरुवाई तो सोने की चिड़िया है, कहीं ऐसा न हो कि हाथ से ही निकल जावे।
यह भी तो देखना चाहिए कि मनु आदि, चाहे किसी भी दशा में सही, जब ब्राह्मण के लिए यह कर्तव्य बताया है कि पुरोहिती करे, तो फिर हम नहीं कह सकते कि अपने को ब्राह्मण कहने और माननेवाला समाज ही उससे इनकार कैसे कर सकता है। यह भी नहीं कि उन ऋषियों का यह अभिप्राय रहा हो कि ब्राह्मण भिक्षुक ही हो जाएँ। क्योंकि वह लोग तो ब्राह्मणों की भिक्षावृत्ति के कट्टर विरोधी थे। पराशर ने तो यहाँ तक कह डाला है कि जिस गाँव में क्रिया, कर्म और संस्कार से रहित ब्राह्मण केवल भिक्षावृत्ति से जीविका करते हों; राजा उस गाँव को दंड दे। क्योंकि वह तो चोरों का पालनेवाला है : 'अव्रता ह्यनधायान यत्रा भैक्ष्यचरा द्विजा:। तं ग्रामं दंडयेद्राजा चौरभक्तंप्रदो हि स:' (1/66)। यही श्लोरक वसिष्ठस्मृति के तीसरे अध्याय में और अत्रिस्मृति का 22वाँ है। उन्होंने तो ऐसों को चोर ही बना डाला! फिर कैसे कहा जा सकता है कि जिस पुरोहिती से वह भिक्षावृत्ति और गरीबी अनिवार्य है उसके ही करने की आज्ञा वे लोग दे सकते हैं? वे इस बात का विचार तक भी कैसे कर सकते हैं? यह भी तो सोचना चाहिए कि ब्राह्मण कहना न कहना घर की बात या लबेद नहीं है। यह तो हमारे धर्म-ग्रन्थों और ऋषियों का बनाया मार्ग है और उसमें पुरोहिती रूप काँटा - क्योंकि बहुतों की दृष्टि ही ऐसी है - जान-बूझ कर उन्होंने रख छोड़ा है। यदि आप उस मार्ग से जाना चाहते हैं, अपने को ब्राह्मण कहना चाहते हैं, तब तो आपके लिए वह काँटा अनिवार्य है। आप उससे बच ही नहीं सकते। और यदि खामखाह बचने की ही मर्जी है तो फिर उस मार्ग को छोड़िए, अपने को ब्राह्मण कहना बंद कीजिए। दूसरा उपाय ही नहीं। दोनों बातें तो साथ चल नहीं सकतीं कि ब्राह्मण भी कहें और समाज भर को उस पुरोहिती से अलग भी रखना चाहे। यहाँ तो 'दुइ कि होंहिं एक संग भुवालू' वाली बात है।
यह भी समझ में नहीं आता कि जब तक भूमिहार, त्यागी या पश्चिेमा ब्राह्मण समाज सभी ब्राह्मण दलों की विवेक बुद्धि का ठेकेदार न हो जावे, अपने हाथ में उसका एकाधिपत्य मान कर 'सर्वाधिकार संरक्षित' का दावा न कर ले, तब तक पुरोहिती के सम्बन्ध में इतने गहरे पानी में उतरने का उसे अधिकार ही क्या है? पुरोहिती के सिर इतनी बड़ी बला लादने का हक ही उसे क्या है? सभी ब्राह्मण दल, जो इस समय सैकड़ों हैं, पुरोहिती से सम्बन्ध रखते हैं और यह भी नहीं कि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और भूमि, धन, संपत्ति का खयाल ही न हो, या उनमें राजा, महाराजा और जमींदार, बाबुआन ही न हों। फिर भी, आज तक किसी ने इस पुरोहिती बेचारी को इतनी अस्पृश्य और ग्रहित मानने का विचार तक न किया! हालाँकि उनमें सहस्रों धुरंधर विद्वान पड़े हैं। विपरीत इसके, उनने, उनकी सभाओं ने और उनके राजे-महाराजे और धनिकों ने इसकी वृद्धि में ही सहायता की है और अपने समाज को संस्कृत पढ़ाने में विशेष उद्योग किया है और करते हैं। हालाँकि, वे ही जानते हैं कि इसके पढ़नेवाले सब नहीं तो अधिकांश पुरोहिती या दक्षिणावृत्ति अवश्य करते हैं और करेंगे। फिर ब्राह्मण नामधारी एक समाज की पुरोहिती को इस तरह बदनाम करना अनधिकार चेष्टा नहीं तो और क्या है? क्या किसी भी ब्राह्मण समाज में आपकी अपेक्षा प्रतिष्ठा या धन-संपत्ति कम है? और पुरोहिती भी हरेक समाज में है ही। तो क्या किसी गौड़ या मैथिल वगैरह को गौड़ या मैथिल स्वीकार करने में गर्व के सिवाय हीनता या लज्जा भी प्रतीत होती है? क्या महाराज दरभंगा को मैथिल और राजा फतेह सिंह को गौड़ बनने में कोई आनाकानी है? तो क्या उनकी प्रतिष्ठा या संपत्ति आपसे कम हो गई है? प्रत्युत गौड़ या मैथिल कहने में उनका सिर और समाजों के सामने ऊँचा और आपके भूमिहारादि का नीचा रहता है। यह स्वयं सिद्ध बात है। क्या इस कलंक कालिमा को दूर करना समाज का कर्तव्य नहीं? क्या इस रोग के निदान का विचार किया गया है? तो क्या केवल पुरोहिती के बायकाट-बहिष्कार-(No admission) को छोड़ कर और भी कोई कारण इस सामाजिक अप्रतिष्ठा का है? क्या अब भी आँखें न खुलीं? तो फिर कब खुलेंगी? संसार में धन, जन, जमींदारी या पदवी वगैरह की चाह लोगों को सिर्फ इसीलिए होती है कि उससे संसार में प्रतिष्ठा ओर समाज के सामने मुख उज्ज्वल रहेगा। मगर यदि इन सभी कुछ के रहते भी केवल पुरोहिती के न रहने से ही समाज में लज्जित और बदनाम होना पड़ता है और यह मान भी लें कि पुरोहिती के करने से जर-जमीन कुछ भी न रह जावेगी, तो भी जिनके दिलों में आत्मसम्मान है और जो सम्मान मनुष्यमात्र का जन्मसिद्ध साथी है, वे सबको लात मार कर भी उस प्यारी पुरोहिती को क्यों न शिरोधार्य करेंगे? क्योंकि आत्मसम्मानी तो इसके सामने मरना ही पसंद करता है ─ 'संभावितस्य चाकीतिर्मरणादतिरिच्यते' (गीता, 2/34)।
ब्राह्मणों में जो समाजपार्थक्य या दलबंदी हुई है उसका आधार यही सर्वात्मना स्वतन्त्रता और स्वावलंबन ही है। हम देख रहे हैं कि आप लोगों को छोड़ कर शेष जितने ब्राह्मण समाज हैं वह हर बात में और खास कर धार्मिक कामों में सर्वात्मना एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं, स्वावलंबी हैं। इसीलिए जब चाहें दूसरे को ललकार या दबा सकते हैं। इसीलिए किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ती कि उनकी ओर उँगली उठावे या उनके हक को हड़पने का यत्नए भी करे। मगर आप लोगों की क्या दशा है? कम से कम जातीय और धार्मिक मामलों में तो आप लोग 'जुलाहे की बकरी' हो रहे हैं। जो ही चाहता है दो बात सुना देता और समूचे समाज को नीच, वर्णसंकर बना डालता है। कभी दीवान जी और मुंशी जी के भाई सिर उठाते हैं, कभी साहू जी त्यौरी बदलते और आप विधाता बन बैठते हैं और कभी पुरोहितों और गुरुओं की करारी डाँट आती है कि खबरदार हमारे सामने ब्राह्मण होने का नाम भी मत लेना, नहीं तो सात पुश्तों तक नरक में ही सड़ते रह जाओगे, सब कर्म-धर्म और पिंड-पानी यों ही रह जावेगा! इतने पर भी खूबी यह है कि आप लोग अपना एक अलग ब्राह्मण दल बनाते हैं और उसे कायम रखना भी चाहते हैं। यह कब संभव है? या तो धर्म-कर्म के मामलों में भी अपने को अन्यान्य ब्राह्मण दलों की तरह स्वतन्त्रता बनाइए, नहीं तो वर्तमान गौड़ आदि ब्राह्मणदलों में जहाँ के तहाँ मिल जाइए। और अगर यह दोनों नहीं कर सकते, तो अपने को ब्राह्मण कहना छोड़िए। और कर ही क्या सकते हैं? चौथा रास्ता तो कोई भी हई नहीं। यदि गौड़, मैथिल आदि में मिल जाएँगे तब तो उन्हीं के पुरोहितों से आप का काम चल जावेगा। यद्यपि यह बात अभी तुच्छ मालूम होती है, तथापि यदि अब भी इस बदनाम पुरोहिती के बारे में समाज की यही मनोवृत्ति रही, तो फिर यह छिन्न-भिन्नता अनिवार्य है और लोग अब इस पर विचार करने भी लग गए हैं। जो हो, अभी भी अवसर हाथ से चूका नहीं है। बुद्धि से काम लेने से सब ठीक हो सकता है।
हम खूब जानते हैं कि इस काम में सबसे बड़े बाधक बड़े-बड़े राजे-महाराजे और बाबू लोग हैं। उन्हें क्या है? उनके सामने तो बड़े-बड़े साहू जी, दीवान जी, और पंडित जी दूर से ही झुकते और हाथ जोड़ते हैं। साथ-साथ, थोड़ी सी बड़ाई भी कर देते हैं और यदि ऐसा ही मौका आ गया तो कभी-कभी ऊपरी दिल से 'आप तो ब्राह्मण ही हैं' भी कह देते हैं। बस वे लोग तो इतने से ही फूल कर कुप्पा हो जाते हैं और इतने से ही पंडित जी वगैरह का तो काम ही बन जाता है। वह बाबू साहब तो समझते हैं कि ऐसी दशा सर्वत्र है और पंडित जी लोग या इनके भाई-बंधु समाज-भर में सर्वत्र ऐसा ही करते होंगे। क्योंकि जिसके पाँव में जूता होता है उसके लिए तो सारी भूमि पर चमड़े बिछे हैं। मगर इधर तो गरीबों या मध्यम श्रेणी के ऊपर जो बीतती है सो वही जानते हैं। पत्रों, पुस्तकों, सभाओं में और जनसाधारण के सामने उनकी जो दुर्दशा और अवमानना की जाती है उसे उनका छिन्न-भिन्न और विदीर्ण दिल ही जानता है। ऐसी विषमता के रहते हुए यदि बाबू, राजे पुरोहिती को न चाहें और समाज के शेष लोग चाहें, तो इसमें आश्चफर्य ही क्या है? क्योंकि उस आदमी को छाया के सुख का क्या अनुभव होगा और उसे दिल से क्यों चाहेगा जिसने कड़ी धूप की ज्वाला का सामना नहीं किया है? गरीब लोग क्या दूसरों की बबुआई और राज्य को ले कर चाटेंगे, जब उनकी जातीय दुर्दशा होती ही रहेगी, उनके लिए 'वही कद्दू की तरकारी जो पहले थी सो अब भी है' ही सदा चरितार्थ होने को है और उनके साथ पुरोहितों और गुरुओं की 'वही रफ्तार बेढंगी जो पहले थी सो अब भी है।' वे बेचारे तो दुविधा में दोनों ओर से गए, न तो माया ही मिली और न राम ही मिले-न तो बबुआई के आनन्द की झलक ही मिली और न जाति या समाज में प्रतिष्ठा ही।
यह कहना तो कि पुरोहिती खराब है, इसलिए उसे नहीं करते, केवल आत्मप्रवंचना मात्र दुनिया को उल्लू समझना है। इतने ही से संसार यह न समझ लेगा और न समझ ही रहा है कि वास्तव में आप पुरोहिती को नीच समझ कर ही नहीं करते इसलिए आप उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं। वह तो आपके उसी व्यवहार से आपको नीच समझता हुआ इस कथन को ढोंग मानता है, जिस व्यवहार के करने से आपकी आत्मप्रवंचना - Self deception - सिद्ध होती है। यदि आप और आपका समाज वस्तुत: पुरोहिती को हीन समझते हैं तो उसके करनेवालों को राह चलते क्यों साष्टांग करते फिरते और सिर पर उनके चरण-रज चढ़ा कर पवित्र होते हैं? क्या इसमें कोई दूसरा रहस्य है? क्या यही बात नहीं है कि 'हाथी का दाँत दिखलाने का और होता है और खाने का और' यदि सचमुच आप उसे नीच कर्म समझते हैं तो उसको प्रणाम करें, न कि उलटा आप ही उनके पाँव पर सिर रगड़ते फिरें! यह दोनों बातें तो एक साथ असंभव हैं। इससे तो यह प्रतीत होता है कि आप जो कुछ एक कहते हैं, माने बैठे हैं, ठीक उसका उलटा। यह आत्मप्रवंचना नहीं तो और क्या है? इससे काम नहीं चलने का। सत्य को स्वीकार करने की हिम्मत होनी चाहिए। सिर्फ इस झूठे भय और मिथ्या अभिमान से - 'अपने मुँह मियाँ मिट्ठू' बनने से काम न चलेगा।
इस बात का भी विचार करना चाहिए कि जो इस समाज में आधे पुरुष बिना ब्याहे रह जाते हैं और यह संख्या क्रमश: उन्नति ही करती जाती है, इसका कारण क्या है। निस्संदेह यदि अविवाहितों की संख्या-वृद्धि का यही स्रोत रहा और वह किसी प्रकार बंद न किया गया तो अतिनिकट भविष्य में समाज का उच्छेद अनिवार्य है। जिन स्थानों में संख्यावली का कार्य हो रहा है वहाँ के कार्यकर्ता ही मेरे इस कथन की पुष्टि अपने अनुभव से करेंगे। मैं तो यह बात सभी प्रांतों के ग्रामों में भ्रमण कर अनुभव प्राप्त करने के कारण कह रहा हूँ। निस्संदेह बिहार के पूर्वीय जिलों में, युक्तक प्रांत या बिहार के ही पश्चि मी जिलों की अपेक्षा यह अविवाह रोग कम भीषण है। मगर अन्यत्र इसकी भीषणता विचार मात्र से ही आतंक उत्पन्न करनेवाली है। निस्संदेह इस विनाशोन्मुख प्रवाह में वैवाहिक कुरीतियाँ भी कारण हैं और उनमें भी तिलक, दहेज की प्रथा उतना नहीं जितना कि असमान विवाह प्रथा। मगर यदि केवल यही कारण होता तो पुरोहिती प्रधान समाज में भी उन ब्राह्मणों में भी जिनमें अभी पुरोहिती मौजूद है - यह दशा उतनी ही भीषण होती। मगर बात यह नहीं है। पुरोहितों में शायद ही कोई मिलेगा जिसका विवाह न हुआ हो। उसकी जमींदारी और रुपए के लेन-देन का कारोबार कोई भी देखने नहीं जाता। खाने-पीने भर की सामर्थ्य रहने से ही विवाह हो जाता है। पर, आपके समाज में राजपूतों या बनिए की तरह रुपए का लेन-देन और भारी जमींदारी देख कर ही विवाह किया जाता है! जिसके खानदान में दो ही चार आदमी हैं और 15-20 बीघा जमींदारी या शरहमुअय्यन काश्तकारी है उसकी भी शादी नहीं हो रही है, जैसे राजपूतों की नहीं होती। सारांश, ब्राह्मणता का भाव चले जाने और राजपूती एवं बनिए का भाव आ जाने से ही अविवाहितों की संख्यावृद्धि विशेष रूप से हो रही है और पुरोहितों में इसके विपरीत भाव रहने से यह बात नहीं है। उनमें भी जो आपकी ही तरह राजपूती या बनिएपन के भाव के हैं और पुरोहिती नहीं करते और न संस्कृत ही पढ़ते या ब्राह्मणों का आचार ही रखते, किंतु धान या जमींदारी की झूठी गरमी से फूले हैं, उनकी दशा आप सरीखी ही है! क्या आप लोगों ने इस पर कभी विचार किया है? यदि किया है तो क्या मेरी बातें वहाँ नजर आई हैं? यदि न भी आई हों तो पुनरपि विचार कर देखिए और पता चलेगा कि मेरा कथन अक्षरश: ठीक है। तो फिर इस भीषण महामारी को समाज से दूर करने का उपाय क्या है? बेशक समान विवाह प्रथा कुछ अंश में इसे दूर कर सकती है। पर उसको जारी करने के लिए समाज में जीवन और जीवित संगठन लाने की जरूरत होगी। यह आसान बात नहीं है। आपकी सभा में अभी तक कोई बल ही नहीं कि समाज में समान विवाह प्रथा ला दे, जबकि तिलक, दहेज को सिर्फ रोक देना असंभव हो रहा है। इसके सिवाय वर विक्रय की ही तरह यदि कन्या विक्रय की प्रथा मैथिलों की तरह सर्वत्र आपके समाज में जारी कर दी जावे तो शायद वह भी कुछ अंश में कुछ समय तक काम करे और तिरहुत की ही तरह अन्यत्र भी अविवाहितों की कुछ कमी हो जावे। पर एक तो यह स्थायी औषधि नहीं हो सकती; क्योंकि 'बुराई से बुराई को दूर करने' का सिद्धांत ठीक नहीं। तीसरी और सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि धर्मशास्त्रों द्वारा सहस्रश: निंदित इस दुष्कर्म के प्रचार का नाम कौन ले सकता है? इसलिए हार कर यही मानना होगा कि समाज में से राजपूती भाव और बनिएपन की प्रधानता हटा कर ब्राह्मण भाव एवं आचरण की प्रधानता की स्थापना हो। मगर यह बात संस्कृत पठन और धर्मग्रन्थों के यथार्थ ज्ञान के बिना हो सकती नहीं और पुरोहिती के प्रचार बिना-क्योंकि पुरोहिती और गुरुवाई लौकिक मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा और अर्थार्जन का साधन हैं - यह दोनों बातें असंभव हैं। केवल ज्ञान और मुक्तिम के लिए संस्कृत पढ़ने की फुर्सत किसे है? सबसे बड़ी बात यह है कि जब तक ब्राह्मण और जगत्-पूज्य होने का अभिमान समाज में न आवेगा तब तक संस्कृत, ब्रह्मज्ञान और ब्राह्मणों के आचार के पीछे माथापच्ची कौन करेगा? और वह अभिमान इस समय सिवाय पुरोहिती के अन्य उपायों से आ ही नहीं सकता। पुरोहितों के 5 वर्ष के बच्चे बेखटके अपने को ब्राह्मण मानते, आपके 60 वर्ष के बूढ़ों को आशीर्वाद देते और जगत के सामने अपना पाँव 'पखारने' के लिए फैला देते हैं। मगर आपके 60 और 80 वर्ष के बूढ़े भी ऐसा नहीं कर सकते! उनमें यह हिम्मत ही नहीं होती! इसके नाम पर ही गोया उन्हें मिर्गी आ जाती है! यह क्यों होता है? क्या आप लोगों ने इस पर ध्यान दिया है? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इस गए-गुजरे जमाने में ब्राह्मणता और पूज्यता का स्वाभिमान दिलानेवाली एकमात्र पुरोहिती ही है और उसी के बिना आपका समाज सुप्त या मृत सिंहवत पड़ा है, जिसके ऊपर आज गीदड़ अपने पाँव की रौंद लगा कर किलकारें करते हैं? तो क्या आपका या महासभा का यह पवित्रतम कर्तव्य नहीं है कि पुरोहिती के मन्त्र का शंख फूँक उसे जगावें, या इसी अमृत-बिंदु से उसे जीवित कर इस घोर अपमान का प्रतिकार करें?
जो बाप-दादों की दुहाई दे कर रूढ़ि के उपासक बनने में सभी अपमान को मृतक की तरह बर्दाश्त करने और विचार को ताक पर रख देने को तैयार हैं और जिनके बाप-दादों की सीमा भी दो-चार या छह पुश्तों तक है, जो व्यास, वसिष्ठ, मनु या पराशर तक अपने बाप-दादों की परम्परा ले जाना नहीं चाहते या ले जाने में असमर्थ हैं, क्योंकि रूढ़ि की उपासना की लगन ने विचार शक्तिन का दीवाला निकाल दिया है, उनसे भी हमें दो-एक बातें कहनी हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि आखिर उनकी बाप-दादा वाली इस अनन्य भक्ति का कारण क्या है? क्या वे लोग कोई ऐसा वसीयतनामा लिख गए हैं कि हमने जो किया है तुम लोग उसे बिना सोच-विचार के करना? और उस वसीयतनामे को मानना क्या लोगों का कर्तव्य हो गया है? मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह बात नहीं है न तो ऐसा वसीयतनामा ही है और न उसकी मानना लोग अपना धर्म ही समझते हैं। इसका पता तो तब लगता है जब हम देखते हैं कि बाप-दादों द्वारा किए गए कमालों की मंसूखी उनके बेटे-पोते धाड़ाधड़ करते हैं और बाप-दादों को नालायक पागल और बदचलन तक बना डालते हैं! इसके विपरीत यदि किसी सत्कार्य के लिए कुछ जायदाद की वसीयत बाप-दादे कर गए हैं तो उसके मानने में कमर टूटती है और सैकड़ों बहाने निकाले जाते हैं। पर, यहाँ अपनी पतिता और नीचता की-कमजोरी को छिपाने के लिए उन्हीं बाप-दादों के कामों की ओट ढूँढ़ी जाती है! यह सब क्यों होता है? इसीलिए न, कि हमारी दृष्टि में एक इंच भूमि और एक कौड़ी की भी कीमत है? अतएव उसको बचाने के लिए बाप-दादों क्या परमेश्वृर तक को भूल जाते हैं। मगर जाति, धर्म और स्वाभिमान तो हमारे लिए कौड़ी का भी नहीं है!!
ऐसे महापुरुषों से हम पूछना चाहते हैं कि आज से 40, 50 या 100 वर्ष पूर्व आपके ही बाप-दादे आवश्यकता पड़ने पर हजारों रुपए बिना दस्तावेज, रेहन या हैंडनोट के ही लोगों को देते थे। तो क्या आप भी अब ऐसा ही करेंगे? यदि नहीं तो क्यों? इसीलिए न, कि तब और अबके समय में फर्क हो गया है? तब लोग सच्ची बातों को मानते, पाप से डरते और बेईमानी नहीं करते थे। कोई भी किसी का रुपया, धर्म या इज्जत डकार जाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। मगर अब सभी ऐसा करते हैं। अब सच्चों का गुजारा नहीं है। फूँक-फँक कर पाँव डालना पड़ता है। तो फिर यही नियम जाति और धर्म के बारे में भी क्यों नहीं लगा लेते? जैसे समय देख कर रुपए-पैसे के बारे में लोगों ने बाप-दादों का नियम और व्यवहार बदल दिया है, ठीक वैसे ही प्रणाम, नमस्कार या पुरोहिती आदि के बारे में भी क्यों न अब किया जावे? देख ही तो रहे हैं इधर 25-30 वर्षों के ही भीतर आपकी जाति और धर्म को सीधे डकार जाने के लिए कितने ही षडयंत्र रचे गए हैं, बीसियों पुस्तकें और लेख लिखे गए हैं, जब कि पहले एक का भी नाम न था। अब आपकी सच्चाई और सिधाई का उलटा अर्थ लगाया जा रहा है। इसी से सजग हो जाना चाहिए। फूँक-फँक कर पाँव देना चाहिए।