झूठा सच / यशपाल
सास के अन्तिम समय दोनों बहुएँ उपस्थित थीं। बड़ी बहू ने सास की मृत्यु की घोषणा करने के लिए, दारुण दुःख के समय की रीति का ध्यान कर देवरानी को असह्य पीड़ा के ऊँचे स्वर में चीत्कार करने के लिए कहा। घबराहट में देवरानी से ठीक तरह से बन न पड़ा। बड़ी बहू ने रीति कि रक्षा के लिए स्वयं खिड़की में जाकर उचित ऊँचे स्वर में विलाप का हृदय-बेधी चीत्कार किया जैसे बाण से बिंध गयी कोई चील मर्मान्तक पीड़ा से चीख उठी हो। गली भर के लोग नींद से जाग उठे। पड़ोसिनें मेलादई, लाल्लो, कर्तारो, संतकौर पीतमदेई और जीवां तुरन्त आ गयीं। छाती पीट-पीटकर विलाप होने लगा। विलाप करती स्त्रियाँ बीच-बीच में संतोष भी प्रकट कर देती थीं—बुढ़िया का समय भी आ गया था। भागवान पोते-पोतियों से भरा घर छोड़ गयी है। कर्मों वाली थी।
मर्द भी नीचे गली में, मकान के चबूतरे पर एकत्र हो गये थे। सब लोग मास्टर रामलुभाया और बाबू रामज्वाया के माँ की छत्रछाया से वंचित हो जाने पर सोक प्रकट करके, संसार की अनित्यता की याद दिला कर उन्हें सांत्वना देने लगे। वृद्धा प्रायः अपने बड़े लड़के बाबू रामज्वाया के ही घर पर रहती थी। रामज्वाया रेलवे पार्सल दफ्तर में नौकर थे। वे छब्बीस वर्ष से नौकरी में थे। उन्होंने पीपल बेहड़े (पीपल वाले आँगन) मुहल्ले की उच्ची गली में गिरे दो गिरे हुए मकान खरीद कर, नये तिमंजिले मकान बनवा लिये थे। आमदनी के लोभ में, अपने रहने के मकान का भी आधा भाग किराये पर दे दिया था।
रामज्वाया के बड़े लड़के का विवाह हो चुका था। मकान का एक कमरा लड़के और नयी बहू ने सँभाल लिया था। अन्य सबका तो निर्वाह हो ही जाता था, केवल बुढ़िया माँ के लिए जगह न रहती थी। बुढ़िया को ऐसा कुछ करना भी क्या था कि उसके लिए खास जगह की जरूरत समझी जाती। रामज्वाया की घरवाली का स्वभाव कुछ तीखा था। दो मकानों की मालकिन बन जाने से उसकी जिह्वा की तीव्रता भी कुछ बढ़ गयी थी। सास बुढ़ापे की चिड़चिड़ाहट में बक देती तो स्वयं सास बन चुकी बहू खरा-खटाक उत्तर दिये बिना न रहती। जब तब ऐसा झगड़ा हो जाता और बुढ़िया अपने बड़े बेटे की पहली बहू का गुण याद करने लगती। अपने चार कपड़ों की पोटली बगल में दबाये, भोला पाँधे की गली में, अपने छोटे बेटे रामलुभाया के घर आ जाती। कुछ दिन बाद रामज्वाया जाकर माँ को लौटा लाते या बुढ़िया के छोटे बेटे के घर में जगह की तंगी से तंग आकर बड़े बेटे के बच्चों को देख आने के लिए उच्ची गली में लौट आती थी सन् 1946 के जाड़ों में बुढ़िया छोटे के यहाँ आयी थी तो गहरी सर्दी खा गयी। उसे निमोनिया हो गया। दोनों बेटों ने बहुत दौड़-धूप की परन्तु माँ का समय आ गया था।
मास्टर रामलुभाया आर्य समाजी डी. ए. वी. स्कूल में अध्यापक थे और विचारों से सुधारवादी थे। उनके विचार में माता की मृत्यु का शोकाचार और सूतक दूर करने का उपाय ईश्वर-भजन और हवन में होना चाहिए था। गली की स्त्रियों ने उचित स्यापे के स्थान में रूखे ईश्वर-भजन और हवन के प्रस्ताव सुने तो उन्होंने विस्मय प्रकट कर आपत्ति की—हाय, यह कैसे हो सकता है। कर्मों वाली बुढ़िया थी, पोते-पोतियों का, पोते की बहू का मुँह देखकर मरी; इसका विमान नहीं सजेगा, इसके लिए संगस्यापा नहीं होगा तो फिर क्या किसी जवान के मरने पर होगा ?
बुढ़िया की मृत्यु मास्टर रामलुभाया के घर में हुई थी। नड़ोया (अर्थी) भी उन्हीं के दरवाजे से उठी परन्तु बाबू रामज्वाया की भी तो माता थी और बुढ़िया का किरिया-कर्म उचित सम्मान के साथ होने में उनके सम्मान का भी प्रश्न था। ऐसी भाग्यवान बुढ़िया का विमान जिस सज-धज से उठना चाहिए था, वह गरीब मास्टर जी के वश की बात न थी। रामज्वाया को इस बात के लिए बहुत खेद और लज्जा थी, शहर में उनका अपना घर रहते माँ का अन्तकाल छोटे भाई के यहाँ आया। माँ के किरिया-कर्म का अनुष्ठान छोटे भाई के घर पर भोला पाँधे की गली में हो रहा था, परन्तु माँ के प्रति उचित प्रतिष्ठा प्रदर्शन के लिए सब खर्च और व्यवस्था उन्होंने सँभाल ली थी।
मास्टर जी किराये के मकान की ऊपर की मंजिल में रहते थे। नीचे आँगन में पानी का नल था और नीचे की कोठरियों में मकान मालिक का बजाजे का गोदाम था। ऊपर एक बड़ी कोठरी, एक रसोई और बरामदा ही तो था। रीति के अनुसार स्यापे की संगत ऊपर की मंजिल पर नहीं बैठ सकती थी। बाबू रामज्वाया मास्टर की ससुरालों से और गाँव के सम्बन्धियों का आना भी आवश्यक था। मास्टर जी के मकान से लगते मकान में डाकखाने का बाबू बीरूमल और इंश्योरेन्स कम्पनी के क्लर्क टीकाराम रहते थे। इन मकानों के साथ गज भर चौड़े रास्ते से पीछे एक छोटा-सा आँगन था। गली के काज, संग-स्यापे उस खुले स्थान में ही होते थे। स्यापे के लिए वहाँ ही चटाइयाँ बिछा दी गयी थीं। वृद्धा की मृत्यु का समाचार पाकर ‘बुद्ध समाज’ की बहिनें आ गयी थीं। यह बहिनें समाज से कुरीतियाँ दूर करने का और सदाचार का प्रचार करती थीं। इन बहिनों ने दिवंगत वृद्धा के सोग में स्यापे की कुप्रथा को छोड़कर भक्ति और वैराग्य के भजन गाने का उपदेश दिया। वृद्धा की बड़ी बहू ने एक न सुनी, बोली—”हम चली आयी रीति को छोड़ अपनी नाक कैसे कटा लें ? लोग नाम धरेंगे कि खर्च से डर गये...।”
रामज्वाया की घरवाली ने कौलां नाऊन को बुलवा लिया था। कौलां स्यापा-विशारद समझी जाती थी। सब स्त्रियाँ स्यापे और सोग के परम्परागत पहनावे में थीं। काले लहँगे और राख घोलकर रंगी हुई मोटी मलमल की खूब बड़ी-बड़ी चादरें। नाऊन, दिवंगत भागवान बुढ़िया की दोनों बहुओं के साथ बीच में बैठी। जिन स्त्रियों का जितना निकट का सम्बन्ध था, वे उतनी ही निकट, एक के पश्चात एक वृत्तों में बैठ गयीं। कौलां नाऊन ने पहली उलाहनी (विलाप का बोल) दी—”बोल मेरिए राणिए रामजी का नाम।” स्त्रियों ने समवेत स्वर में उसका अनुसरण किया।
नाऊन वृद्धा माँ की स्मृति के उपयुक्त उलाहनियाँ बोल रही थी—”डिट्ठे पलंगा वालिए (भरे-पूरे घर वाली) राणिए अम्मां।” स्त्रियों ने समवेत स्वर में दोहराया—”हाय-हाय राणिए अम्मां।” नाऊन बोली—” हुन्दयां हुक्मां वालिये (जिसका हुक्म चलता हो) राणिए अम्मां।” स्त्रियों ने दोहराया—”हाय-हाय राणिए अम्मां।” नाऊन बोली—‘लग्गे बागां वालिए (अनेक बागों की मालकिन) राणिए अम्मां।” स्त्रियों ने अनुसरण क्या—”हाय-हाय राणिए अम्मां।”
स्यापे में स्त्रियों के हाथ से एक ताल से धप-धप छातियों पर पड़ने लगे। नाऊन वेदना के कुरलाते स्वरों में विलाप के बोल बोलती थी और स्त्रियाँ एक स्वर से “हाया-हाया, हाया-हाया’ पुकारती दोनों हाथों से एक साथ छाती पीटती जाती थीं। रीति के इस विलाप और पीटने में एक सुनिश्चित क्रम था। स्त्रियों के हाथ तभी छातियों पर पड़ते थे कभी क्रम से जांघों और छातियों पर, फिर जांघों, छातियों और गालों पर पड़ते थे। कौलां के संकेतों के अनुसार यह क्रम कभी विलम्बित में, कभी द्रुत में और फिर अति द्रुत में चलता और कभी बैठ कर और कभी खड़े होकर। नाऊन इस अनुष्ठान का नेतृत्व सतर्कता और आनुशासन से करती थीं। आँखें मूँद कर अथवा दीवार की ओट से सुनने पर स्त्रियों का छाती पीटने का सम्मिलित स्वर इस प्रकार बँधा हुआ जान पड़ता था मानों मैदान में बहुत सधे हुए सिपाही मार्च, मार्क-टाइम और क्विक मार्च कर रहे हों। किसी स्त्री के बेमेल हो जाने पर नाऊन उसे संगत से उठा दे सकती है।
स्यापों का भारीपन मृतक के वियोग के शोक के अनुपात से होता है। भरी जवानी में हुई मृत्यु पर सोग-स्यापा अधिक और बूढ़ों के मरने पर कम होता है। रामज्वाया की माँ की मृत्यु पर शोक कम और आमोद अधिक होने का अवसर था परन्तु रीति पूरी करने में किसी प्रकार की शिथिलता नहीं दी गयी। बुढ़िया के जीवन-काल में उसके प्रति जो उपेक्षा हुई थी, उसे मृत्यु उपरान्त प्रतिष्ठा से पूरा किया जा रहा था।
स्यापे में हाय-हाय कर छाती पीटने का प्रत्येक दौर पाँच-पाँच मिनट का होता था। नाऊन के संकेतों पर आरम्भ और विराम होता था। विराम के समय स्त्रियाँ गत स्यापों और सम्भावित सगाइयों की चर्चा करती रहती थीं। दूर के सम्बन्धों या बिरादरी की स्त्रियाँ स्यापा करने वालियों को घेर कर दूसरी बातें करने लगतीं; अथवा हाथ में लिया कोई काम करती रहतीं। शोक में उनका कर्तव्य उनकी अनुपस्थिति से ही पूरा समझ लिया जाता था। सोग का ‘देय और कर्तव्य’ सम्बन्ध की निकटता के अनुसार माना जाता था। बिरादरी और परिचय के सम्बन्ध में आने वाली स्त्रियाँ साधारण पोशाक में भी आ सकती थीं। परिवार में शोक की पोशाक से छूट केवल कुमारी लड़कियों और नयी दुल्हिनों की होती थी। वृद्ध-वृद्धाओं के स्यापे में मृतक के जीवन की सफलता का प्रदर्शन किया जाता था। उसके लिए उनकी कुमारी पोतियों और पोत-बहुओं के गहने-कपड़े से सज-धज कर आकर बैठने की रीति थी।
मास्टर रामलुभाया की माता का शोर मनाने के लिए, पुरुषों की बैठक उनके मकान के चबूतरे पर दरी बिछाकर लगती थी। दोनों भाइयों ने सिर, दाढ़ी मूँछ उस्तरे से मुड़ा दिये थे। दोनों भाई चेहरे लटकाये आगतों के बीच में बैठे रहते। उनकी आँखों से रुलाई की लाली रहती। लोग पहले आकर मिनट-दो-मिनट चुपचाप उनके समीप बैठ जाते। फिर माता-पिता के स्नेह और वत्सलता की चर्चा करते। दोनों भाइयों के सिर से माता की छत्र-छाया और वरद-हस्त का बादल उठ जाने पर संवेदना प्रकट करते। अन्त में, इस शरीर के नश्वर होने के उपदेश की याद दिलाकर, संसार से विरक्ति द्वारा संतोष पाने का उपदेश दोहरा कर चले जाते हैं। बाबू रामज्वाया और मास्टर जी अभ्यागतों के कुछ देर बैठ लेने पर हाथ जोड़कर आओ जी’ कहकर उनकी संवेदना के लिए धन्यवाद देते। यह अभ्यागतों के लिए उठकर जा सकने का संकेत था। सहानुभूति प्रकट करने वाले शोकग्रस्त से ऐसा संकेत दो-तीन बार पाकर ही उन्हें छोड़ कर जाते थे।
शोक के इस अनुष्ठान में प्रयत्न, सतर्कता, सावधानी और संयम की इतनी आवश्यकता रहती थी कि मस्तिष्क शोक के आघात से जड़ नहीं हो पाता था। शोक आघात न रहकर एक अनुष्ठान और कर्तव्य बन जाता था, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। शोकातुरों को शोक के वशीभूत न होने देकर शोक को अनिवार्य सम्पादन और कर्तव्य बना देना, शोक को वश करने का और उसे बहा देने का मनोवैज्ञानिक उपाय भी था। बाबू रामज्वाया और मास्टर रामलुभाया की माँ की मृत्यु के चौथे दिन ‘मरना’ बाँटा गया। रामज्वाया की बहू विशेष रूप से बन-सँवर कर आयी थी। मास्टर जी की लड़की तारा और रामज्वाया की लड़की शीलो को भी नये रंगीन कपड़े पहनाकर कुछ समय स्यापे की संगत के समीप बैठना पड़ा था।
दोपहर में शीलो और तारा अपने छोटे भाई-बहनों को लेकर मास्टर जी यहाँ बैठ कर बातचीत करने और कुछ खाने-पीने के लिए जाने लगीं तो उन्होंने भाभी को भी साथ चलने के लिए कहा परन्तु बहू सिर में दर्द बताकर उच्ची गली लौट गयी। शीलो की बातचीत करते समय कुछ नमकीन या मीठा ठुंगते रहने की आदत थी। छः मास पूर्व उसकी सगाई हो चुकी थी इसलिए उसे भी दादी के ‘मरने’ के दो रुपये मिले थे। बेचारी तारा की सगाई अभी तक नहीं हुई थी इसलिए उसका कोई हक नहीं आता था। शीलो ने तारा के घर जाकर बैठने से पहले, गली को मोड़ पर जाकर दो आने का ताजा मोंगरा दोने में ले लिया था। तारा के घर में सूना था। बड़ा भाई जयदेव कालिज गया हुआ था। तारा ने अपनी बरस भर की बहिन के सामने रबड़ की गुड़िया और झुनझुना रख दिया और चटाई बिछाकर शीलो के साथ लेट गयी। मोंगरे का दोना बीच में रख कर, दोनों मोंगरे के दाने ठुंगती हुई बातें करने लगीं। शीलो ने कहा—”भाभी की बात जानती हो। उसे लहँगा-दुपट्टा मिला और पाँच रुपये मिले हैं। फिर भी कह रही थी, मैं तो दस रुपये लूँगी।” फिर शीलो बोली, “और तू देख, हमने बुलाया तो हमारे यहाँ नहीं आयी। झूठी कह दिया, सिर में दरद हो रहा है। घर लौटकर भाई के साथ कमरे में जाकर किवाड़ बन्द कर लेगी, और क्या। बेशर्म कहीं की दिन में भी नहीं मानती।”
“क्या ?” तारा ने पूछा। “वाह तू नहीं जानती ?” शीलो मुस्कराकर घुले स्वर में बोली, “मैंने तो उन्हें किवाड़ों से की फाँक से झाँक कर देखा है। तूने कभी नहीं देखा ?” तारा का मुँह झेंप से लाल हो गया—”हमारे यहाँ एक ही तो कोठरी है। भाई और मास्टर जी बरामदे में सो जाते हैं। एक रात नींद खुल गयी। नाली पर जाने के लिए उठी तो मास्टर जी...मुझे बहुत शरम आयी...।” तारा ने दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया।
हँसी और संकोच के मारे तारा की बात रुक गयी थी—”हाय तुझे कैसे बताऊँ, हरी अभी कितना है और सामने वाली पीतो; वही जो अभी नीचे बिना झगले के फिर रही थी। हाय कैसे बताऊँ, गधों ने जाने कहाँ क्या देख लिया होगा।” तारा ने लाज से होंठों पर हाथ रख लिया, “पीतो के आँगन में वैसे ही करने लगे। कर्तारी मौसी ने देख लिया तो हरी को घसीटती हुई माँ के पास आयी और लड़ने लगी—क्या सिखाती हो बच्चों को ? कुछ लाज-शर्म है तुमको ?”
माँ उल्टे बोली, “तू ही दिखाती-सिखाती होगी। तेरी पीतो तो बड़ी है।” दोनों में बहुत लड़ाई हुई।
मास्टर जी ने आकर सुना तो हरी को बहुत पीटा। माँ से नाराज हुए—लड़के को जाँघिया क्यों नहीं पहनाती। वही हाल है हमारे यहाँ। इतनी ही जगह पीतो के घर है। बच्चे मरे देखकर समझते हैं खेल और मार खाते हैं। हाय मर गयी, कितनी बेशर्मी है।” शीलो ने स्वर दबाकर विज्ञता से कहा—”और क्या, मैंने बाबू जी और माँ को भी देखा है।” और कुछ सोच कर फिर बोली, “तुझे लड़कों से डर लगता है ?”
तारा ने उत्तर दिया—”कई लड़के बहुत खराब होते हैं। सिर सड़े (कपाल फूटे) छेड़ते हैं।” शीलो बोली—”हमारी गली में बलदेव है न, हाय कितना अच्छा लगता है। भैड़ा (बेशर्म) कहीं का, मुझे देखकर आँख....।” जीने में तेजी से ऊपर आते कदमों की आहट सुनकर शीलो ने अनुमान प्रकट किया—”भाई !” तारा ने कहा—”रतन होगा।”
कोठरी के किवाड़ खुले ही थे। आधे मकान के पड़ोसी बाबू गोविन्दराम के लड़के रतन ने पुस्तकें बगल में दबाये झाँककर पूछ लिया—”मासी जी स्यापे से अभी नहीं लौटीं ? झाई (मेरी माँ) नहीं आयी ?” शीलो ने रतन को तारा के यहाँ पहिले भी कई बार देखा था। रतन ने शीलो से पूछ लिया—”तू कब आयी ?” तारा ने रूखा-सा उत्तर दे दिया—”अभी से कैसे आ जायेगी ! तेरी झाई रसोई में कटोरदान के नीचे ढाँक गयी है।” रतन लौट गया। रतन ग्यारहवीं श्रेणी में पढ़ रहा था। उम्र सत्रह-अठारह की की थी। तारा से तीन बरस बड़ा था। गोरा-गोरा, लम्बा कद, होंठों पर रोयें काले हो रहे थे।