झूठ कहाँ बोला / प्रतिभा सक्सेना

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छिप कर बातें सुनने का एक अपना ही आनन्द है। चाहे किसी से हमारी जान-पहचान न हो, उसकी किसी बात से मतलब भी न हो, फिर भी उसकी व्यक्तिगत बातें सुनने में जो मज़ा आता है वह सबके साथ स्टेज पर नाटक देखने में भी नहीं आता। कला यदि जीवन की अनुकृति है। तो पराई - व्यक्तिगत - बातें सुनना जीवन की वास्तविकता है। इससे वास्तविक आनन्द की अनुभूति होती है।

मुझे बचपन से ही छिप कर बातें सुनने का शौक रहा है। जब स्कूल में पढ़ता था तो क्लास में बैठ कर मुझे कभी चैन नहीं पड़ता था। किसी -न-किसी बहाने उठ कर स्टाफ़-रूम के पास बने टायलेट में पहुँच जाता था और ऊपर के रोशनदान से कान सटा कर खड़ा हो जाता था। टीचर्स की एक से एक मज़ेदार बातें मुझे पता हैं। टायलेट में आधा-आधा घंटा बंद रहने के लिये साथ के लड़कों ने मेरा कितना मज़ाक नहीं उड़ाया, पर मैंने कभी उनकी परवाह नहीं की। अब भी किसी अकेले कमरे में दरवाज़े की सँध से कान लगाये मैं काफ़ी समय काट लिया करता हूँ। इस समय सुनाई देनेवाला वार्तालाप यदि सर्वजनिक किस्म का न होकर व्यक्तिगत किस्म का होता है तो मुझे अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है और मैं देश-काल की सीमाओं से ऊपर उठ कर तन्मय हो उठता हूँ। इससे कभी-कभी मुझे बड़ा लाभ भी हुआ है।

नारी-चरित्र के गूढ़तम रहस्यों में मेरी विलक्षण गति है। वैसे तो स्त्रियों की बातें अधिक रहस्यपूर्ण मानी जाती हैं, किन्तु उन रहस्यों में विविधता अधिक नहीं है, यह मैं डंके की चोट पर कह सकता हूँ। कौन, किस समय, क्या करेगा इसका अंदाज़ चाहे मैं ठीक-ठीक न भी लगा सकूँ, पर ऐसी विचित्र बातें जिन पर दुनिया दाँतों तले अँगुली दबा ले, मुझे नितान्त स्वाभाविक प्रतीत होती हैं।

मेरी सबसे बड़ी कमज़ोरी यही है कि मैं अकेले में मकान लेकर नहीं रह सकता। इसलिये मैं सदा ऐसे घरों में रहा हूँ जहाँ आस-पास, चारों तरफ लोग रहते हों। घर मिले हुये हों तो और भी अच्छा! अब ज़रा मेरी बिल्डिंग का जुगराफिया समझ लीजिये।

मेरे से लगे हुये कमरे में इतिहाय के प्रवक्ता रहते हैं। बीवी -बच्चे उनके शायद हैं नहीं, क्योंक उनके घर इस प्रकार के पारिवारक पत्र कभी नहीं आते। हालनुमा कमरेवाले हिस्से मेंएक पंजाबी व्यपारी हैं। उनके बच्चे हैं जरूर पर यहाँ नहीं। यहाँ फिलहाल मियाँ-बीवी दोनो ही हैं। एक लड़की ज़रूर जब-तब दखाई दे जाती है -कहीं बाहर रह कर पढ़ती है।

नीचे जो दिखाई दे रहा है वह मकान मालिक का आँगन है। और ऊपर मेरे सामने जो दो कमरों का फ़्लैय है दाँतों के एक डाक्टर का सपरिवार निवास है। इनके यहाँ अक्सर ज़ोर-ज़ोर से रेडयो बजता रहता है, जो मुझे सख़्त नापसंद है।

पंजाबी व्यपारी की बीवी और मकान मालकिन में काफ़ी घुटती है। दिन-दुपहरी का काफ़ी समय दोनों साथ बिताती हैं। पंजाबिन अपना घर धो-पोंछ कर बंद कर देती है और मकान मालकिन के यहाँ जा बैठती है। मकान मालकिन के कोई बाल-बच्चा नहीं। विवाह को सोलह बरस हो गये। यों स्त्री-पुरुष दोनों में कोई कमी दिखाई नहीं पड़ती, अच्छे-खासे मोटे-ताजे हैं। पैसे की भी कमी नहीं, पर माया है भगवान की क्या जाने कोई?

कभी-कभी दाँतों के डाक्टर की दुबली-सी बीवी भी आ बैठती है। उसे अधिकतर अपने छोटे-छोटे बच्चों से ही फ़ुर्सत नहीं मिल पाती। ये दोनों जनी टाक्टरनी की हँसी भी काफ़ी उड़ाती हैं।

ये डाक्टर की बीवी पढ़ी-लिखी है, हलाँकि लगती नहीं। और पंजाबिन देखने में बी। ए। पास लगती है पर उसे लिखना तक नहीं आता। हाँ, मेकप करने में ओर ऊपरी टीम-टाम में खूब होशियार है। मकान-मालकिन पहले मुझे पता नहीं था, कौन लोग हैं, काला अक्षर भैंस बराबर, है भी भैंस जैसी ही।

एक बार टाक्टरनी अपनी बड़ी लड़की को डाँट रही थी, ’ इत्ती बार समझाया, बिल्कुल अकल नहीं है तुझमें। ’

पंजाबिन नीचे ही नीचे बोली, ’अकल का सारा ठेका आपने ले रखा है, किसी और के लिये बचेगी कहाँ से!’

फिर वे दोनों ज़ोर से हँसीं। डाक्टरनी को कुछ पता नहीं चला। बह अपने बच्चों से उलझ रही थी। वह उन्हें ख़ुद ही पढ़ा लेती है।

कभी-कभी अंग्रेज़ी भी पढ़ाती है, और यही बात सारी मुसीबत की जड़ बन गई।

बड़ी लड़की ने पूछा, 'मम्मी, नोउन क्या होता है? स्कूल में दीदी ने बताया नहीं। बस लिख कर लाने को कह दिया। ’

मां कुछ तेज़ स्र्वर में बोली, ’नोउन क्या होता है? नाउन क्यों नहीं कहती? बोलने में ज़ुबान साफ़ होनी चाहिये। ’

उसने कई बार शब्द लड़की से दोहराने को कहा। लड़की खीजे हुये स्वर में पाँच बार नाउन, नाउन बोली।

मकान मालकन आँगन में निकली थी।

कान में भनक पड़ी तो ठिठक कर खड़ी रह गई। कान खड़े कर ध्यान लगा कर सुनने लगी। ज़बान की सफ़ाई की बात भी उसे खटकी।

'अपने को जाने क्या समझती है। हम जैसे बोलते हैं अपने लिये, इसे क्या? करना... चुड़ैल!’ वह बड़बड़ाई।

किसी को अपनी नहीं बताना चाहती थी, सो चुप लगा गई। भुनभुनाती काफ़ी देर तक रही थी।

ये डाक्टरनी जाने क्या अल्लम-गल्लम बके जा रही है। ठीक-ठीक समझ में नहीं आता। नाऊ, नेम धींग (थिंग)नये तरीके की गालियाँ दे रही है। ’

साफ़-साफ़ बात उसकी समझ में नहीं आई फिर भी मतलब तो निकाल ही लिया, ऐसे क्या वह बिल्कुल बेवकूफ़ थी?

ऊपर से फिर आवाज़ आई’कमिन। '

लड़की और अम्माँ दोनो कह रही हैं’कमीन - कमीन’अच्छा तो हम कमीन हैं। हमारे मकान में रह कर हमीं से गाली गुप्तारी! देख लूँगी इसे भी -बड़बड़ाती हुई वह कमरे के अंदर चली गई।

फिर तो मकान मलकिन परेशान करने पर उतर आई। नल का पानी ऊपर जाने का मौका ही नहीं देती। बच्चों को बात-बात पर टोका-टोकी और भी बहुत कुछ। मन की कुढ किसी प्रकार निकाल रही थी।

फिर एक दिन पंजाबिन के साथ बैठे-बैठे उसने कह ही डाला, ’ देखो तो जरा इस डक्टराइन को! ऊपर से कमीन-कमीन कहती रहती है। ’

'ये तो बड़ी बुरी बात है। देखने में तो ऐसी लगती नहीं... पर अस्लियत कौन जाने! ऐसा तो नहीं करना चाहिये। ’

'पता नहीं कैसी है। शकल से ही ऐंठू लगती है। पहला मकान इसीलिये छोड़ा होगा इसने। बच्चों को भी तो देखो, जरा-जरा से हैं और गाली देते हैं। ’

ऐसों से तो दूर रहे वोई अच्छा। ’

दोनों सोच रहीं थीं, वे लोग उसकी जो हँसी उड़ाती हैं, कहीं उसने सुन लिया हो और इसलिये यह सब कर रही हो।

कहीं मेरे साथ भी न करने लगे - पंजाबिन ने सोचा आगे से सावधान रहेगी।

♦♦ • ♦♦

अंदर ही अंदर घुटती मकान- मालकिन को चैन नहीं पड़ रहा। मुकद्दमा आगे बढ़ कर मकान मालिक के पास पहुँचा --

'मैंने अपने कानों से सुना, तुम्हें और मुझे नाऊ नाउन कहते रहते हैं। ’

कुछ देर चुप्पी।

'कमीन, कमीन कहते भी मैंने साफ़ सुना।

'तो तुमने अपने लिये ही कैसे समझ लिया? "

नाऊ-नाउन कहने बाद मैंने सुना। मैं क्या ऐसी बेवकूफ़ हूँ जो बे- बात की लड़ाई खड़ी करूँ?’

'अच्छा!’स्वर बड़ा भारी -सा हो गया था।

पत्नी ने कहना जारी रखा -’एक तो वैसेई दुखी हूँ ऊपर से और कुढ़ाती है। मरे जब देखो संडे के संडे कहते रहवें... अब बताओ कोई तुम्हें संडा कहे तो मुझे कैसा लगेगा। किसी का दिल जलाना अच्छा थोड़े ई है। हमारे बच्चे नहीं तो हम संडा-संडी हो गये! इन्हीं ने पैदा करके कौन कमाल कर लिया... क्या करूँ मेरी ही किस्मत फूटी है। ये नासपीटी और जलाने आ गई मुझे। ’

इसके बाद डाक्टर का रेडियो ज़ोर-ज़ोर से बजने लगा था। कुछ सुन नहीं पाया आगे।

♦♦ • ♦♦

गर्मियों की सुबहें बड़ी प्यारी नींद लाती हैं। उस समय मानव जगत में अपेक्षाकृत शान्ति रहती है। सुनने लायक कुछ खास होता नहीं। अच्छी-खासी नींद में था कि कानों में कुछ आवाज़ें आने लगीं। अलसाया-सा शरीर बिस्तर से उठना नहीं चाहता था। लगा कहीं कोई बड़े जोर से दरवाजा खड़का रहा है। साथ में आवाज़ भी किसी लड़की की’खोलिये, खोलिये’।

मकान मालकिन का रूखा-सा स्वर, ’कौन है? , क्या है?’

'आण्टी मैं हूँ, गुड्डी। परशाद भेजा है मम्मी ने। ’

डाक्टर की बड़ी लड़की।

कुछ देर चुप्पी, फिर, ’खोल रहे हैं। ’

ज़ोर से दरवाज़ा खोलने की आवाज़, ’क्यों ये अण्टी-सण्टी क्या होवे?’

'नहीं, तीई जी। मुँह से निकल गया।

'अम्माँ पढ़येगी वही तो निकलेगा। होवे क्या है ये अण्टी, ये भी तो बता जा। ’

'चाची को आण्टी कहते हैं।

'हमसे मत कहा कर ये सब। ’

'अरे भागवान, लड़की से काहे उलझ रही है? मकान मालिक की भारी आवाज़, ” बिटिया जरा अपने पिता जी को भेज दीजो। ’

मैं फ़ौरन उठ कर खिड़की से लग गया।

मकान मालकिन ने झटाक से प्रसाद की प्लेट ली और से लाकर वापस कर दी।

कुछ देर बाद ज़ीने पर आहट हुई, फिर दरवाज़ा खुलवाया गया। जरूर दाँतों का डक्टर होगा, मैं चौकन्ना हो गया।

नमस्कार-चमत्कार के बाद दो मिनट चुप्पी रही। , मैं झाँकने का लोभ संवरण न कर सका। दोनों कमरे में जाकर बैठ गये। मैंने कान खिड़की से सटा लिये।

'देखये साब, हम तो सोच रहे थे आप-लोग पढ़े-लखे समझदार हैं। पर बच्चों को आपके घर से कैसी बातें सिखाई जा रही हैं। ’

'क्या हुआ? बच्चों ने क्या किया?’

ऊपर से हमें नाऊ-नाउन और कमीना कहा जाता है। ’

'कब? किसने कहा?’डाक्टर की चौंकी आवाज़।

'कोई बच्चे अपने मन से थोड़े ही कह देते हैं। आपके घर से भी... '

'ऐं... ऐसा कैसे हो सकता है?’

'हमने सोचा था डाक्टर हैं, भले लोग हैं पर ये गाली-गुप्ता तो ठीक नहीं। वह भी बेबात में... हमारे बच्चे नहीं हैं आपके हैं पर इससे हमें संडे-संडी तो नहीं कहना चाहिये। कितना दुख हुआ घरवाली को... '

उनकी पत्नी भी बोलने आ गई थी।

'हाँ भइया, अपने कानों से सुना। नहीं सुनती तो क्योंकर बिसबास होता! हम तो वैसे ही दुखी हैं ऊपर से और... 7हमने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा? ऐसे ई करना है तो हमारा मकान खाली कर दो और क्या। ’

'बेकार हल्ला मत मचाओ, चुप रहो। जाओ अंदर हम लोग बात कर लेंगे। ’

डाक्टर भारी सोच में था।

...उन्होंने ऐसा कैसे कहा होगा? ... अभी बुलाता हूँ उन्हें। ’

'नहीं यहाँ बुलाने से क्या फ़ायदा? आप खुद ही समझा देना। बेकार तमाशा लगाने से क्या फ़ायदा?’

'पर ऐसा हुआ कैसे?’डाक्टर आहत स्वर में कह रहा था।

♦♦ • ♦♦

एक घंटा बीत गया था, सोचा मामला ठंडा हो गया। नहाने जा रहा था, डाक्टरनी के चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं।

पहले मैं समझा मकान मालकिन से लड़ रही हैं। फिर समझ में आया अपनी लड़की पर बिगड़ रही हैं।

'गुड्डी सच्ची बताओ, तुमने क्या कहा था। ?’

'नहीं, हमने नहीं कहा, मम्मी। ’

'सच्ची, सच्ची बोल दे... '

नहीं कहा, हमने कभी नहीं कहा। ’

तड़ाक् से एक चाँटा, ’बोल सच्ची। ’

'नहीं, नहीं हमने कभी नहीं कहा। ’। 'बिलबिला कर लड़की चीखी।

फिर तड़ातड़ मारने और रोने -चीखने की आवाज़ें।

'ऐसे नहीं मानेगी। पट्टू डंडा ला। ’

फिर रोना -चीखना। ’

नहीं बतायेगी तो तेरी हड्डी पसली तोड़ दूँगी। यही सिखाया है हमने... '

लड़की की ज़िद, ’हम तो स्कूल से आकर पढते हैं। नहीं कहा, कभी नहीं।

डाक्टरनी की दया-माया क्या बिल्कुल खत्म हो गई। फिर पिटाई, चीखें।

'अपनी ही रट लगाये है। ठहर जा। तुझे आज मार कर ही छोड़ूँगी। वे क्या झूठ बोल रहे हैं?’

वह फिर आगे बढ़ी, मकान मालकिन चिल्लाई, ’ अब क्या मार ही डालोगी लड़की को?’वह बीच में आ गईं।

'नहीं बहन जी, कबुलवा लेने दो, बीच में मत पड़ो। ’


लड़की जोर-जोर से चिल्ला रही थी, ’ताई जी हमने कब कहा?’

ताई जी चुप्प।

मम्मी का फिर गरजना। लड़की का रोये जाना।

अब असह्य होता जा रहा है मेरे लिये।

सामने-सामने, सब कुछ जानते हुये भी कह नहीं सकता। दुस्सह हो उटा तो मैं कमरा बंद कर बाहर निल गया।

बड़ी देर बाद लौटा डाक्टर का रेडियो चुप था। लड़की की सिसकयाँ सुनाई दे रहीं थीं।

डाक्टरनी रो-रो कर कहे जा रही थी, ’इत्ता झूठा नाम! उनने तो कहा गुड्डी के साथ मैंने भी कहा।

'मेरी तो समझ में कुछ नहीं आता। ’

'मेरे बच्चे जहाँ आँखों का काँटा हों, मुझे नहीं रहना उस मकान में... छोड़ दो ये मकान... इत्ता पिटवाया लड़की को। अब तो जी ठंडा हो गया होगा! क्या फ़ायदा इस मकान में रहने से?’

दूसरी ओर मकान मालकिन झींक रही थी, ’मेरी ही किस्मत खोटी है। क्या कहेगा कोई कि अपने नहीं हैं तो दूसरे के बच्चों को पिटवाती है।

जरा सी ममता नहीं। इत्ती बुरी तरह पीटा लौंडिया को। कौन जलम के पाप भुगत रही हूँ। हे, मेरे राम। सब मुझे ही दोष देंगे। ’

'अब चुप भी करो, तुम लोगों से चैन से रहा भी नहीं जाता, ’ मकान मालिक ने डाँटा, ’न यों चैन, न वों चैन। ’

'... तो मेरा क्या दोष इसमें। जो सुना सो कह दिया। तुम भी मुझे ही कहोगे... मैं कहाँ जाऊं, मेरे राम!’

आज मुझे डाक्टर के रेडियो का न बजना खटक रहा था।

कुसूर किसका है? , डाक्टरनी का या मकान मालकिन का? नहीं किसी का नहीं। मैं दोनों के बीच फँस गया हूँ। सब कुछ जानता हूँ फिर भी कुछ बोल नहीं सकता, क्योंक सच गूँगा होता है -सुनता सब है कहता कुछ नहीं।

♦♦ • ♦♦

दूसरा दिन।

मुझसे रहा नहीं जा रहा था। गुड्डी के स्कूल जाने के थोड़ा पहले जाकर मकान मालिक के घर बैठ गया।

बातें करने लगा, ’ पिता जी पूछ रहे थे आप लोगों के बारे में। हम लोग बिजनौर की तरफ़ के हैं। आप कहाँ के हैं चाचा जी?’

'चाचा जी’ सुन कर मकान मालिक की मुद्रा कोमल हो गई।

' हम? उधर मेरठ साइड में गाँव है अपना घर है, भाई बंद हैं, वहीं रहते हैं।

'हाँ बोली से मैं समझ रहा था कि अपनी तरफ़ के हैं। और चाची जी। वे कहाँ की हैं?’

अपना उल्लेख सुन कर वे अंदर से निकल आईँ, ’ हमारा मायका उधर दौराला में... '

'हाँ, हाँ, नाम तो सुना है हंमने, वहाँ गन्ने की मिल है... वहाँ के गन्ने का क्या कहना! "

वे खुश हो गईं, ’ अभी भी वहाँ हमारे भाई लोग हैं... '

इतने में गुड्डी आती दिखाई दी, हाथ मे बस्ता लिये थी।

'अरे गुड्डी, इधर तो आना, ’ मैने आवाज़ लगाई।

वह दरवाज़े तक आगई थी, ’ कम इन, कमिन, गुड्डी अंदर आ जाओ। ’

चाची जी हैरत से देख रही हैं।

'मेरी भतीजी भी तुम्हारे बराबर है। तुम कौन से क्लास में हो? अंग्रेजी ग्रामर मे आज कल क्या चल रहा है?’

'आजकल पार्ट्स ऑफ़ स्पीच... '

'हाँ उसी में तो... आज कल क्या चल रहा है?’

'अभी तो शुरुआत है नाउन की परिभाषा और कांइंड्स। ’

तुम्हें आता है? बताओ कितने तरह के है?’

वह शुरू हो गई, ’ कामन नाउन, प्रापर नाउन, एब्सट्रेक्ट। और और... '

'हाँ अभी पक्के नहीं हैं, ’ रटा करो, हर इतवार को, संडे के संडे। ’ मेरी भतीजी आने वाली है मैं उसे पढ़ाऊंगा। तुम चाहो तो आ जाना अगले संडे तुम्हारे बराबर की है। ’

'मम्मी से पूछ लूँगी’ जाते-जाते उसने कहा।

वे दोनों अवाक् बैठे हैं। कुछ सोचते-से।

भतीजी नहीं आनेवाली है, लेकिन काम पूरा हो गया।

मैं झूठ कहाँ बोला, सच बोलने लगा हूँ।