झूठ की मूठ / उपेंद्र कुमार

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मेरे एक मित्र हैं। कहानी उन्हीं की है। मेरी उनसे कभी मुलाकात हुई हो, ऐसा स्मरण नहीं। फिर भी उन्हें मित्र मानने के दो प्रमुख कारण हैं। पहला तो यह कि वे मेरे बहुत सारे मित्रों के मित्र हैं। और दूसरा, सभी मित्रों ने मेरा और उनका नाम अपनी व्यक्तिगत टेलीफोन डायरी में एक ही पन्ने पर लिख रखा है। यह और बात है कि साहित्यकार के नाते उनका नाम प्रकाश में आ गया है जब कि मेरा कहीं हाशिए पर टहल रहा है। वैसे कहानी तो किसी नाम से कही जा सकती है। मान लिया जाए कि मेरे उस प्रसिद्ध साहित्यकार मित्र का नाम मेरा ही नाम है। परन्तु इससे उलझन की आशंका हो तो इस कथा के नायक का नाम ठाकुर उपेन्द्र नारायण सिंह रख लिया जाए। अब नाम यदि ठाकुर साहब हो तो फिर केवल लेखक या कवि होने से तो काम चलेगा नहीं - कुछ तो ठाकुरों वाली बात होनी चाहिए। और वह थी भी। ठाकुर उपेन्द्र के पास एक तलवार थी। पुरखों की। पीढ़ियों से चली आ रही वह प्रसिद्ध तलवार ठाकुर उपेन्द्र को उत्तराधिकार में प्राप्त हुई थी। यह तलवार पुरखों के बड़े काम आई थी। इसके बल पर अबलाओं की इज्जत लूटी गई थी, दलित बँधुआ मजदूर बने थे, मुगलों के चरणों पर लोट-लोटकर इसने मालिकों के लिए जागीरें हासिल की थीं, अंग्रेज बहादुर की हुकूमत कायम रखने को इसने कितने विद्रोहियों की गर्दनें उतार दी थीं, इस तरह की कितनी सेवाएँ थी जो इस तलवार ने पुरखों की थीं।

उपेन्द्र जी यूँ तो तलवार के नहीं कलम के धनी थे और उन्होंने जो भी लिखा कहानी, कविता, लेख आलोचना, सब की हिंदी साहित्य में धाक थी। वैसे धाक और आंतक तो उनकी तलवार की भी कम नहीं थी, विशेषकर उन साहित्यकारों पर जो उनकी टोली के नहीं थे, क्योंकि उपेन्द्र जी कलम और तलवार के स्थानों की परस्पर अदला-बदली करते ही रहते थे। कुल मिलाकर स्थिति यह थी कि कलम और तलवार के सम्मिलित प्रभाव से उपेन्द्र जी हिंदी साहित्य के क्षेत्र में निरंतर प्रगति और प्रसिद्धि के पथ पर बढ़ते क्या, दौड़ते चले जा रहे थे। परंतु अच्छे दिन तो विधाता से राम और कृष्ण के भी नहीं देखे गए। फिर ठाकुर उपेन्द्र क्या चीज थे। शनि देवता ने एक दिन उनकी भी खबर ले डाली।

हुआ यह कि ठाकुर की तलवार चोरी चली गई।

शुरू में तो उपेन्द्र जी ने यह खबर दबाने-छिपाने की पूरी कोशिश की और अपने बल-बूते पर तलवार की खोज करते रहे। परंतु जिस चमकती तलवार ने अतीत में एक दिन के लिए भी साथ नहीं छोड़ा था, जो मित्रों के आँखों की ठंडक और शत्रुओं के लिए शिव का तीसरा नेत्र थी, एक बार जो ओझल हुई तो फिर नहीं मिली तो नहीं मिली।

ऐसी खबरें छिपाए छिपतीं भी नहीं। बात दबाने से दबती तो क्या, और तेजी से फैली। फैलते-फैलते ठाकुर कुल के कवि शिरोमणि तक पहुँची। वे जेब में चना-चबेना रखे शाम के तरल-गरल की व्यवस्था के लिए शिकार की तलाश में निकलने ही वाले थे कि यह दर्दनाक खबर उन्हें मिली। उन्हें पहले तो इस बात का विश्वास ही नहीं हुआ। फिर सच्चाई जानने तुरंत ठाकुर के घर पहुँचे। वहाँ चतुर्दिक व्याप्त शोक तथा सूनेपन ने दुर्घटना का पूर्वाभास करवा दिया। व्यथित स्वर में उन्होंने पूछा, “तलवार रखी कहाँ थी?” उपेन्द्र जी के कुंठित कंठ से मरी-मरी आवाज निकली, “यहीं सामने दीवार पर टँगी थी।”

सुनते ही कवि शिरोमणि एक साथ आश्चर्य, क्रोध और दुख की त्रिवेणी बन गए, “अरे, जो साहित्य से इतर चीजें हैं कम से कम उनमें तो बुद्धि का प्रयोग किया करो। चोर की निगाह सबसे पहले तलवार पर पड़ती है। दीवार से उतारने में भी उसे क्या दिक्कत होती। फिर वह कुछ और क्यों चुराता। ले गया उसे ही। तुम्हारी तलवार तो ठाकुर-कुल की सुरक्षा की साहित्यिक गारंटी थी। उसी की बदौलत तो हमने कभी साहित्यिक पुरस्कारों के अश्वमेधी घोड़ों को अपने राज्य की सीमा नहीं लाँघने दी। कहो भला, गुरु विश्वामित्र जी सुनेंगे तो क्या होगा। क्या उनका माथा शर्म से नहीं झुक जाएगा।”

गुरु विश्वामित्र के कोप की चिंता तो उपेन्द्र जी को भी बुरी तरह सता रही थी। वे जानते थे कि यदि कोई महत्वपूर्ण बात कवि शिरोमणि को पता लगी तो समझो गुरु विश्वामित्र जी को भी पता लगी ही लगी और सचमुच उपेन्द्र जी अभी चैन की साँस भी नहीं ले पाए थे कि विश्वामित्र जी दृष्टिगोचर हुए।

अपने क्रोध को किसी तरह दबाते हुए उन्होंने भी वही प्रश्न पूछा, “तलवार रखी कहाँ थी?”

उपेन्द्र जी की तो सिट्टी-पिट्टी गुम। दीवार पर टाँगने की बात पर तो डाँट सुन ही चुके थे। घबड़ाहट में कुछ सूझ भी नहीं रहा था। मिमियाते हुए झूठ बोले, “जी, तकिए के नीचे। मैं उसे अपने तकिए के नीचे रखकर सोता था।”

इतना कहना था कि उनकी शामत आ गई। प्रारंभ हो गया कुलगुरु का व्याख्यान - “तुम्हारे लेखन से कुछ-कुछ अंदाजा तो मुझे पहले से ही था परंतु तुम इतने मूर्ख होगे ऐसा कभी नहीं सोचा था। अरे, चोर तो सबसे पहले तकिए के नीचे ही देखते हैं। तुम्हें तो सावधानी बरतनी थी। दरअसल मानव मन की थोड़ी भी पहचान नहीं है तुम्हें। यही तुम्हारे लेखन की सबसे बड़ी कमजोरी रही है। किसी भी सुधार की आशा ही व्यर्थ है। एक पीढ़ी ने राजपाट गँवाया। उसके बाद की पीढ़ी ने शराब-कबाब में स्वास्थ्य गँवाया। अगली पीढ़ी ने चरित्र गँवाया। फिर भी संतोष था कि चलो, तलवार तो सुरक्षित बची है हमारे पास। तुम्हारी पीढ़ी ने उसे भी गँवा दिया। छोटी-मोटी रियासतों की कौन कहे, अब तो तुम्हारे कारण तक्षशिला और साहित्य अकादमी के साम्राज्य भी संकट में पड़ गए। मात्र मंत्रों-आलोचनाओं के सहारे मैं तुम सबकी कब तक और कहाँ तक रक्षा करता रहूँगा?”

उपेन्द्र जी सर थामे बैठे रहे और गुरु विश्वामित्र पैर पटकते हुए चले गए।

उपेन्द्र जी अभी सोच ही रहे थे कि अब कौन आ सकता है और उसे क्या बताना होगा कि तभी कुलाधिपति वशिष्ठ जी प्रगट हुए। उनके होंठों पर वही स्थायी रहने वाली हँसी उस समय भी विद्यमान थी। शायद वे भूल ही गए थे कि मातमपुर्सी में आए हैं। बहरहाल प्रश्न उनका भी वही था, “तलवार रखी कहाँ थी?”

उपेन्द्र जी कुलाधिपति की कृपाओं और अपनी कृतघ्नताओं को याद कर कुछ शर्मिंदा तो अवश्य थे परंतु मन में जिद वही थी। इस पंडित से तो पटखनी नहीं ही खाऊँगा। अस्तु, सुविचारित उतर दिया, “तिजोरी में रखी थी।” कुलाधिपति जी हतप्रभ। बोले, “वाह भाई वाह, भोपाल के दिनों से लेकर आज तक तुममें कोई विकास ही नहीं हुआ। चोर तो सबसे पहले तिजोरी की ही खबर लेते हैं और फिर तुम्हें तो आवश्यकता होने पर भी तिजोरी नहीं रखनी चाहिए। यारों को भनक लग गई तो सारी जनवादी चेतना और प्रगतिशील लेखन धरा रह जाएगा। यानी कीमती सामान तो कहीं दूसरी जगह रखते और तिजोरी में अपना साहित्य रख देते। मुझे ही देखो, मेरे भाष्य और टीकाएँ छपती रहती हैं। लोग उन्हें सहेज कर रखते भी हैं। परंतु मेरा सबसे महत्वपूर्ण लेखन अखबारों में होता है जो उठा कर फेंक दिया जाता है। खैर चलो, तुम ये बातें नहीं समझोगे। एक तो अभी बच्चे हो, दूसरे कुसंग में पड़े रहते हो। फिर भी मेरा कहा मानो तो तलवार का दुःख छोड़ दो। क्योंकि तलवार रखने वाले के पास जो स्वाभिमान, धैर्य और पराक्रम चाहिए वह तुम्हारे पास नहीं है। जहाँ थोड़े दिन शांति से बीतते हैं तुम्हारे हाथ में खुजली होने लगती है। किसी न किसी पर अकारण ही तलवार चला देते हो। मुझ तक को नहीं बख्शा तुमने और फिर भी ग्रांट या स्कॉलरशिप की तलाश में मेरे दफ्तर में हाजिर हो जाते हो।”

उपेन्द्र जी सोच रहे थे कि कुलाधिपति जब बोलने पर आते हैं तो बोलते ही चले जाते हैं। सच में उनका प्रवचन चालू था, “देखो, केवल विदेशी साहित्य पढ़कर गाहे-बगाहे उसकी नकल जैसा कुछ लिखकर या वमन कर तुम मुनि वशिष्ठ नहीं बन सकते। उसके लिए और भी बहुत कुछ चाहिए जो तुममें नहीं है। इसलिए मेरी मानो तो मेरे अष्टछाप में शामिल हो जाओ। तलवार के बिना भी तुम्हारा भविष्य कल्याणमय होगा।” सांत्वना देकर कुलाधिपति वशिष्ठ तो प्रस्थान कर गए पर शांति तो नसीब में ही नहीं थी।

हिंदी साहित्य के शुक्राचार्य क्यों पीछे रहते। खबर मिलते ही अपने वाहन गरुड़ पर सवार वे भी आ धमके। फिर वही प्रश्न, “तलवार रखी कहाँ थी?” उपेन्द्र जी ने मन ही मन निश्चय किया कि अब इनसे तो पटखनी नही ही खाऊँगा। कहा, “संदूक में रखी थी।”

“क्यों भाई, संदूक में क्या सोचकर रखी थी?” शुक्राचार्य का भाषण शुरू हुआ, “चोर क्या तुम्हारे कपड़े-बर्तन चुराने आएगा? जिसे भी कीमती सामान की तलाश होगी वह संदूक तो जरूर ही देखेगा। पता नहीं तुम्हें कब समझ आएगी। लेखन में नहीं तो कम से कम जीवन में तो मैच्योर बनो। कहो, अब क्या होगा। उधार के हल से खेती नहीं होती जैसे अन्य अनेक मुहावरों को झूठा सिद्ध करते हुए जब भी जरूरत होती थी। मैं तुमसे तलवार भँजवा लेता था।”

गरुड़ाधिपति ने पाइप सुलगाते हुए अपनी मोहिनी मुसकान फेंकी और ठेठ भाषा पर उतर आए, “छोड़ो ये रंडी-रोना और तलवार-वलवार को भूलकर मेरा वामहस्त स्थायी रूप से पकड़ लो। तलवार हिंसा का प्रतीक है जब कि वाम विचारधारा का। प्रगतिशीलता के नाम पर जिसे चाहो पीट डालो और सुर्खरू भी बने रहो। मेरे संपादकीय तो तुम पढ़ते ही होगे। फिर चोरी-बोरी का भी कोई डर नहीं। सोचने-समझने की तो खैर तुम्हारी आदत नहीं है, फिर भी यदि संभव हो तो अपने स्वभाव के प्रतिकूल मेरे प्रस्ताव पर विचार करना।” इतना कहकर गरुड़ाधिपति ने अपना पाइप राखदानी में उड़ेला, काले चश्मे के पीछे से अपनी वही डॉन स्टाइल वाली मुस्कान फेंकी और उठकर फड़फड़ाते चल दिए।

दरवाजे पर फिर खटखट हुई, उपेन्द्र जी ने देखा कि भारत सरकार के डायरेक्टर का पद छूटने पर बहुत दिनों तक इधर-उघर भटकने के बाद, साहित्य की राजनीति में तक्षशिला के माध्यम से पुनः प्रवेश करने वाले गंगापुत्र धवल अपनी मोहक मुसकान के साथ द्वार पर विराजमान थे। बिना किसी विशेष पूछताछ के धवल जी शुरू हो गए, “बंधुवर, जाने दो। जो होता है अच्छे के लिए होता है। तलवार है भी बेकार की चीज! मैं तो स्वयं परेशान हूँ अपने यहाँ की तलवार से। लाख कोशिशों के बावजूद म्यान में टिकती ही नहीं। इस तलवार के चलते तो बंधु, मेरी चेयरमैनी खतरे में पड़ी रहती है। लोग चाहे मेरी जितनी उपेक्षा या विरोध करें, मैं तो सदा सब की सहायता को तत्पर रहता हूँ। इस संकट की घड़ी में मैं आपके साथ हूँ। मेरी बिना माँगी सलाह यदि आप मानें तो अब तलवार के मोह से स्वयं को मुक्त करें और यदि आप सच में ऐसा कुछ चाहते ही हैं तो मेरे एक मित्र हैं, रक्षा मंत्रालय में। उनसे कह कर आपको एक तोप दिलवा दूँगा। बस आप लाइसेंस का प्रबंध कर मुझे सूचित भर कर दें। बाकी का जिम्मा मेरा।”

उपेन्द्र जी बिचारे ने राहत की साँस ली कि धवल जी ने शाश्वत प्रश्न नहीं पूछा। वह बेकार के झूठ बोलने से बच गए। आश्वस्त मन से उपेन्द्र तोप रखने की संभावनाओं पर विचार कर रहे थे कि धवल जी ने तोप का गोला छोड़ ही दिया, “वैसे वंधुवर, तलवार रखी कहाँ थी?”

हड़बड़ा कर उन्होंने उत्तर दिया, “बिस्तरे के नीचे।”

धवल जी ने दोनों हाथ जोड़ दिए, “धन्य हैं आप, महाराणा प्रताप की परंपरा आज भी निभा रहे हैं। धरती पर सोना या तलवार के साथ पलंग पर सोना एक जैसी ही बात है और यही कारण है कि आपके लेखन में वह पैनापन है कि छू भर जाए तो काट-छील कर रख दे। सच बात तो यह है कि मैं पहाड़ी आदमी स्वभाव से ही इतना भीरु हूँ कि इसी काटने-छीलने आदि के डर से आपका साहित्य न कभी पढ़ा है न पढ़ पाऊँगा। परंतु आप इसकी चिंता न करें। वाह वाह, क्या बढ़िया बात है। तलवार के साथ सोना। सोना पाने के लिए तो तलवार का बहुत प्रयोग हुआ पर साथ सोने के लिए तलवार का उपयोग आप जैसे ओरिजिनल थिंकर के ही बस की बात है। अवश्य ही आपने रात में गलत तरफ करवट ले ली होगी और चोर बिस्तर के दूसरी तरफ के उभार का रहस्य जानने के प्रयत्न में तलवार ले उड़ा होगा।”

तक्षशिला में जब बात फैल चुकी थी तो प्रबंधक जी कैसे पीछे रहते। वे भी पहुँचे और हँसते हुए बोले, “अरे भाई, मैं तो अब साम्यवादी हो गया हूँ। न तलवार में, न जाति प्रथा वगैरह में विश्वास है मेरा। आपकी हानि पर फिर भी मैं दुःखी हूँ। वैसे तलवार रखी कहाँ थी?”

फिर वही बेताल प्रश्न जिससे जूझ-जूझकर उपेन्द्र जी अब तक थक चुके थे। परंतु उत्तर तो देना ही था। चिढ़ते हुए कहा, “कमर में बाँध कर सोया था।” सुन कर प्रबंध जी खिलखिला उठे, “अरे, आप सोते समय अपने ऊपर किसी कुमार्गी के हमले से आशंकित थे क्या? फिराक साहब को तो स्वर्गवासी हुए जमाना गुजर गया। अब आजकल कौन ऐसा वीर पुरुष इस धरती पर विचरण कर रहा है जिससे आपको इस उम्र में भी भय लग रहा है। उस तलवार को तो आपके ... ने भी कभी कमर में नहीं बाँधा। फिर आपने यह दुःसाहस क्यों किया और किया तो फल भुगतिए। दुःसाहसी तो आप हैं ही। आपकी जादुई यथार्थ की कहानियाँ देखते समय मेरे मन में एक पुरानी अंग्रेजी की कहावत अकसर घूमती है कि जहाँ देवदूत भी जाने का साहस नहीं करते, मूर्ख धँस पड़ते हैं। ऊपर से आपको कलर ब्लांइडनेस अलग है। जो छाते सबको काले दीखते हैं आपको पीले नजर आते हैं और संतों के धवल चरित्र काले। वैसे अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। आप मेरे द्वारा रचित ग्रंथों को हृदयंगम करो। तोते की तरह नहीं, समझकर, जो आपके लिए निश्चय ही कठिन कार्य है, तो आपका भविष्य ठीक-ठाक हो जाएगा। कुछ ढंग का लिख-पढ़ सकोगे और तलवार की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। फिर भी यदि आपको संतोष नहीं हो तो हमारे तक्षशिला में एक तलवार है। भारतवर्ष की सबसे वीर तलवार। आप जब चाहो उसे आपको सौंप, हम उसी तरह प्रसन्न होंगे, जैसे किसी चरित्रहीन कन्या का विवाह निपटाकर उसके माता-पिता प्रसन्न होते हैं।”

इतने सारे मेहमानों को निपटाने के बाद उपेन्द्र जी की स्थिति चिंताजनक हो गई थी। उन्हें तलवार के खोने से ज्यादा दुःख इस बात पर हो रहा था कि वह तलवार रखने की कोई ऐसी जगह नहीं सोच पाए जिसे सामनेवाला भी उचित माने। यह असफलता उन्हें पागल किए दे रही थी। अपने सारे लेखन, अपने जीवन दर्शन यहाँ तक कि उन्हें स्वयं से भी वितृष्णा हो रही थी। चिढ़ थी कि बढ़ती ही जा रही थी। साथ ही रक्तचाप भी।

ऐसे ही समय में पधारे विरुचिकथा संपादक श्री वादरायण। ठाकुर को तो उन पर संपादकीय के चलते पहले ही गुस्सा था और शक भी। पुलिसवालों का तो चारों से गाढ़ा संबंध होता है। कहीं वादरायण ने ही तो किसी शातिर चोर को उकसा उनकी तलवार चोरी नहीं करवा दी। बुझे मन से स्वागत किया। पर वादरायण जी कहाँ मानने वाले? शुरू हो गए, “देखो भाई, मैं तो स्वयं शस्त्र धारण नहीं करता और निहत्थों पर वार करना क्षुद्रता है, अतएव मैं तुम पर और कुछ नहीं लिखूँगा। निश्चिंत रहें। पर तुमने तलवार रखी कहाँ थी?”

अब इस प्रश्न के बाद उपेन्द्र जी बेचारे क्या निश्चिंत रहते। चिढ़ते हुए बोले, “पुरस्कार कुमार के रहते भला आपको दूसरी तलवार की क्या जरूरत। तलवार तो मैंने अलमारी में किताबों के पीछे छुपाकर रखी थी। जरा पुलिस-दुलिस से कहकर कुछ करवाइए।” यह सुनते ही वादरायण जी तुरंत पुलिस अफसर वाले रौब में आ गए, “तुम्हारी सबसे बड़ी भूल यह है कि तलवार रखने में तुमने सावधानी नहीं बरती। तुम्हारे यहाँ चोरी करने कोई साधारण चलता चोर तो आएगा नहीं। मैं अपने पुलिसिए अनुभव के आधार पर शर्त लगा सकता हूँ कि तुम्हारे यहाँ आने से पहले उस चोर ने तुम्हारे विषय में पूरी रिसर्च की होगी। आश्चर्य नहीं कि सिरदर्द की गोलियाँ खा-खाकर तुम्हारा साहित्य भी पढ़ा हो। अब यदि कोई थोड़ा-सा समझदार भी तुम्हारी रचनाएँ पढ़ेगा तो तुरंत जान जाएगा कि तुम अपनी तलवार निश्चय ही लिखने-पढ़ने वाली सामग्री के साथ रखते होगे। उसे तो अपना पूरा काम समाप्त करने में पाँच मिनट से ज्यादा नहीं लगे होंगे। खैर, अब तलवार खोने का शोक मनाना छोड़ो और कुछ कायदे का साहित्य पढ़ो। तुम्हारे यहाँ तो वह उपलब्ध भी नहीं होगा। लेकिन इस संकट के समय में मैं तुम्हारी सहायता अवश्य करूँगा। ऐसा करता हूँ कि गम गलत करने के लिए एक क्रेट रम और पढ़ने के लिए विरुचिकथा के सारे अंक, मोटे-मोटे विशेषांकों सहित तुम्हारे पास भिजवा देता हूँ। दोनों चीजें एकदम फ्री। तुम भी मित्र क्या याद करोगे।”

उनके जाने के बाद उपेन्द्र जी ने उन्हें और उनकी पत्रिका दोनों को एक भारी-भरकम भद्दी गाली दी और भड़ाक से दरवाजा बंद किया। इस बार भी तलवार रखने की गढ़ी हुई जगह गलत निकाली। क्रोध, चिढ़ और रक्तचाप अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच रहे थे। लग लग रहा था जैसे दिमाग की नसें फट जाएँगी। उपेन्द्र जी को समझ में आने लगा था कि आखिर उनके और निराला जैसे महान साहित्यकार छुटमैयों द्वारा कैसे पागल बना दिए जा सकते हैं या बना दिए गए थे।

इसी विषम परिस्थिति में दुर्भाग्य के मारे सह गरुड़पति पधार गए। उन्हें देख इधर उपेन्द्र जी की चिढ़ थोड़ी और बढ़ी और उधर वह भी सबसे बाद में आने की सफाई देने में लग गए, “ऐसा है उपेन्द्र जी, आप तो जानते ही हैं कि साहित्य के जगत में होने वाली घटनाओं या रचनाओं की सूचना मुझे गरुड़पति जी के द्वारा ही होती है। वे जितना बताते हैं और जितना दिखाते हैं, मैं उतना ही जानता, देखता और मानता हूँ। पता तो मुझे पहले ही चल गया था परंतु विवशता थी। उनके द्वारा बताया जाना भी तो आवश्यक था। आज जब उन्होंने मुझे बताया तो विश्वास मानिए मैं बिना एक क्षण की भी देरी किए गरुड़ कार्यालय से सीधा आपके ही पास दौड़ा चला आया हूँ। दुःख प्रगट करने। आखिर ये सब हुआ कैसे? तलवार रखी कहाँ थी?”

एक तो वैसे ही सुसंगत ढंग से सोचना तक असंभव होने लगा था, दिमाग में क्रोध की लहर पर लहर उठ रही थी, उपेन्द्र जी के लिए स्थिति एकदम असहाय हो उठी थी। उनके प्रश्न ने तन-मन में आग लगा दी। मन ही मन सोचा, जाति छिपाने के लिए नाम बदलकर बहुत चालाक बनते हो। सब कुछ जानबूझ कर आए हो और भोलेपन का मुखौटा लगाए वही प्रश्न फिर पूछ रहे हो। इस बार ऐसी जगह बताऊँगा कि उपदेश देना भूल, सोचते ही रह जाओगे। सारी धूर्तता धरी-की-धरी रह जाएगी।

प्रकटतः उपेन्द्र जी ने अपनी सौम्य मुखमुद्रा बनाए रखी और पूर्णतः गंभीर आवाज में कहा, “तलवार तो सोते समय में आत्मसात कर लेता था।”

गरुड़पति सहायक जी को पहले तो कुछ भी समझ में नहीं आया। आत्मसात का भला क्या अर्थ हो सकता है? सोचते-सोचते जब गुत्थी कुछ सुलझी तो उनका मुँह पूरे-का-पूरा खुला रह गया। चिंता हुई कि कानों ने ठीक से सुना या नहीं और फिर मस्तिष्क ने ठीक सोचा या नहीं। पृष्ठभूमि से पूरी तरह अनजान वे कथन में शामिल चिढ़ और क्रोध को नहीं पहचान पाए। उपेन्द्र जी की ओर देखा तो वहाँ पूरी गंभीरता। अब गरुड़पति सहायक और चक्कर में पड़े कि यदि यह कथन सत्य है तो फिर चोरी क्योंकर संभव हुई। अपने सारे जीवन में ऐसी चोरी का कोई वृत्तांत उन्होंने नहीं सुना था। वे जितना सोचते उतना ही असंभव लगता कि इतने जतन से, ऐसी जगह रखी वस्तु की भी चोरी हो सकती है। एक गुत्थी सुलझी नहीं कि दूसरी हाजिर। अचानक उनके दिमाग में एक विचार कौंधा और वह ट्यूब लाइट की तरह जले, “उपेन्द्र जी, अवश्य आपने सावधानी नहीं बरती। बिना किसी असावधानी के ऐसी चोरी असंभव है। मेरा विचार है कि आपने तलवार आत्मसात करते समय गफलत में निश्चय ही न केवल तलवार की मूठ बाहर छोड़ दो होगी वरन सोए भी पेट के बल रहे होंगे और चोर ने इन्हीं बातों का फायदा उठा लिया।”

कथन समाप्त कर गरुड़पति के सहायक जी ने मुस्कुराकर उपेन्द्र जी की ओर ऐसे देखा जैसे कोई बच्चा कठिन सवाल हल कर पुरस्कार की आशा से अपने गुरु की ओर देखता है।

इधर उपेन्द्र जी तो बेचारे पहले से ही बारूद का गोला बने बैठे थे। गरुड़पति सहायक जी की मुस्कान ने जैसे चिनगारी छुला दी। फिर जो विस्फोट हुआ ओर गरुड़पति सहायक जी को जो-जो पुरस्कार मिले उनका वर्णन कठिन है। किसी तरह वे जान बचाकर बाहर निकल पाने में सफल हुए और गिरते-पड़ते अपने घर पहुँचे।

उनको बाहर निकालने के बाद उपेन्द्र जी ने जो किवाड़ बंद किए तो अब तक नहीं खोले हैं। परिचित-अपरिचित, मित्र, बंधु-बान्धव, यहाँ तक कि बांधवियाँ भी साँकल खटखटा, द्वार थपथपा ओर कॉलबेल बजा-बजा कर निराश हो लौट जाते हैं, पर द्वार नहीं खुलता।

पाठकगण! इधर उपेन्द्र जी कमरे में बन्द हैं और उधर उनकी तलवार खो जाने से बढ़े हौसलों वाले टुटपुँजिया आलोचक और सम्पादक उन पर खुलेआम साहित्यिक चोरी का इलजाम लगा रहे हैं। शायद इसीलिए कहा गया है -

पुरुष बली नहीं होत है, समय होत बलवान

भिल्लन लूटी गोपिका! वही अर्जुन वही बान।