झूठ बराबर तप नहीं / गोपाल बाबू शर्मा
जिस प्रकार जैन्टिलमैन को सूट-बूट से, अराजकता को लूट से और सिपाही को सैल्यूट से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार सत्य को झूठ से अलग करना असम्भव है। जिस प्रकार असाढ़ी की शोभा ठूँठ से, रेगिस्तान की शोभा ऊँट से और भारतीय नेताओं की शोभा फूट से होती है, उसी प्रकार सत्य की शोभा झूठ से हुआ करती है।
सत्य और झूठ एक ही बाप के दो सगे बेटे हैं, एक ही गुरु के दो चेले हैं, एक ही मालिक के दो नौकर और एक ही ससुर के दो दामाद हैं। दोनों का टी0 बी0 और डाक्टर अथवा गन्दगी और मच्छर जैसा साथ है।
सत्य तो यह है कि दुनिया में झूठ के बिना गुजारा ही नहीं। बड़ों-बड़ों ने झूठ बोला है।
धर्मराज युधिष्ठिर को ही लीजिए। जिस समय अश्वत्थामा नाम का हाथी मारा गया, उस समय युधिष्ठिर ने जोर से कहा कि अश्वत्थामा मारा गया और फिर धीरे से बोले–"हाथी या आदमी, मैं नहीं जानता।" हालाँकि वे जानते थे।
सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने कभी झूठ बोला था, ऐसा इतिहास से तो प्रमाण नहीं मिलता, पर यह तो सब मानेंगे ही कि पुत्र रोहिताश्व को खिलाते समय उन्होंने चन्दा को मामा जरूर कहा होगा। यह भी झूठ बोलना ही है।
जब युधिष्ठिर और हरिश्चन्द्र जैसे लोगों ने झूठ बोला, तो हम और आप भला किस खेत की मूली हैं! हमारे एक मित्र महोदय ने प्रतिज्ञा की कि वह कभी झूठ न बोलेंगे। एक रात वे घर देर से पहुँचे। उनके पिता जी ने पूछा "इतनी देर कहाँ की?"
उन्होंने तपाक से उत्तर दिया-"जरा, सावित्री बाई के अट्टे पर गाना सुनने चला गया था।"
पिता जी कुछ कहने ही जा रहे थे कि उन मित्र महोदय की माता जी आ गईं और बोलीं-"चलो पहले खाना खा लो। ठण्डा हो रहा है। बात बाद में करना।"
मित्र ने उत्तर दिया-"आज तो कृष्णा होटल में गोश्त-रोटी खा आया। मुझे भूख नहीं।" पिता जी ने जल-भुन कर कहा-"तो शराब भी पी होगी?"
मित्र बोले–"जी, हाँ!"
पिता जी बादलों की तरह गरजते हुए बोले-"अबे सूअर के बच्चे! यह तो बता कि इन हरकतों के लिए नामा कहाँ से आया?" मित्र तो सत्य बोलने की प्रतिज्ञा कर ही चुके थे। फौरन बोले–"आपकी अलमारी का ताला खोल कर दस-दस के दस नोट ले गया था।"
यह सुनना था कि पिता जी अपने गुस्से पर काबू न रख सके और फलस्वरूप उन मित्र महाशय की वह 'पाद्योपाद्यम' हुई कि उनकी झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा उसी क्षण ऐसे गायब हो गई, जैसे आधुनिक मर्द के मुँह से मूँछ।
झूठ के अनेक भेद हैं। जैसे-राजनीतिक झूठ, साहित्यिक झूठ, पेशेवर झूठ, शिष्टाचार सम्बन्धी झूठ, मधुर झूठ, सफेद झूठ, फुटकर झूठ आदि।
राजनीति में तो झूठ बोलना कुशलता का प्रमाण माना ही जाता है, पर साहित्यिक क्षेत्र में भी झूठ ने अपना झण्डा गाड़ रखा है। पुस्तक की भूमिका लिखी जाती है बीस पृष्ठों में और उसी भूमिका का शीर्षक दिया जाता है—'दो शब्द।' हंस का मोती चुगना, सुन्दरी के पदाघात से अशोक वृक्ष का पुष्पित हो उठना, चकवा-चकवी का रात में बिछुड़ जाना आदि को कवियों ने कहते-कहते सत्य बना दिया है, वस्तुतः है यह सब झूठ ही।
समाज में ऐसे लोगों की एक बिरादरी है, जिन्हें मजबूरन झूठ बोलना पड़ता है। यदि वे झूठ न बोलें, तो उनका काम ही न चले। इस प्रकार के झूठ को पेशेवर झूठ कह सकते हैं। वकील यह जानते हुए भी कि अभियुक्त ने चोरी की है, जज के सामने कहता है-"हुजूर, इसने चोरी नहीं की। दुश्मनी की वजह से इस पर झूठा इल्जाम लगाया गया है।"
डॉक्टर को मालूम है कि रोग असाध्य है, फिर भी वह मरीज से कहता है–"घबराने की कोई बात नहीं। जल्दी आराम हो जाएगा।"
प्रोफेसर साहब किसी दिन तैयारी करके कक्षा में नहीं आए, तो कह दिया-"आज तो सिर में दर्द है।"
परीक्षक महोदय ने उत्तर पुस्तिकाओं का बन्डल खोला तक नहीं, किन्तु नम्बर बढ़वाने के लिए आने वाले के सामने विवशता प्रकट कर दी–"अब क्या हो सकता है? मैंने तो कल ही सारी कापियाँ जाँच कर वापस भेज दीं।"
दुकानदार के यहाँ पुराना माल पड़ा है। बेचना तो है ही। ग्राहक से कह दिया-"एक दम नया है। कल ही तो आया है। आप से क्या झूठ बोलना।"
खूब खा-पी लेने पर भी भिखारी किसी को देखते ही पेट पर हाथ रख कर घिधियाने लगता है-"तीन दिन से भूखा हूँ।" यदि वह ऐसा न कहे तो उसके प्रति किसी की सहानुभूति ही न हो और वह सचमुच भूखा ही मर जाए।
कुछ अनिवार्य झूठ भी होते। लड़की वाले लड़की के गुण सौन्दर्य और दहेज आदि के बारे में झूठ बोलकर ही लड़की की शादी ऊँचे घर में कर देने में सफल हो पाते हैं। कर्जदार झूठ के सहारे ही महाजन को महीनों-सालों तक चक्कर कटवाता रहता है। चुनावों के समय मतदाता झूठ बोलकर ही अपनी जान उम्मीदवारों से छुड़ा पाता है। हर एक से कह देता है-"भला आप से अधिक योग्य और कौन है? गेरा वोट तो आपको ही जाएगा।" पर वह वोट देता है किसी एक को ही।
कसाई के पूछने पर कोई भी धर्मप्राण हिन्दू गाय के भागने का सही रास्ता नहीं बताएगा। उस समय झूठ बोलना उसके लिए अनिवार्य हो जाता है।
कभी-कभी शिष्टाचार-वश भी झूठ बोला जाता है। दरवाजे पर मेहतरानी झाडू लगा रही है। उसका छोटा लड़का पास ही खेल रहा है। भीतर से पण्डित जी निकले। पूछा-"यह किसका बालक है?" मेहतरानी ने विनम्र भाव से उत्तर दिया-"आप ही का है महाराज!" पण्डित जी खुश होकर चलते बने।
यदि रात में किसी के सो जाने पर आप उससे मिलने पहुँचते हैं, तो आपके यह कहने पर कि मैंने आपको बहुत कष्ट दिया, वह तुरन्त प्रतिवाद कर उठता है—"नहीं, नहीं, कष्ट किस बात का? यह तो आपका घर है।" यद्यपि आपकी आवाज सुनते ही उसके मुँह से निकलता है-"कम्बख्त कहाँ से आ मरा बेवक्त! सारी नींद खराब कर दी।" और दरवाजा खोलते-खोलते आपको मन ही मन बीसियों गालियाँ दे डालता है।
जब कोई आपके घर आता है और आप उससे खाना खाने के लिए पूछते हैं, तब वह शिष्टाचार के नाते यही उत्तर देता है-"जी नहीं, मैं खाना खा चुका हूँ।" भले ही उस समय चूहे उसके पेट में जिमनास्टिक का प्रदर्शन कर रहे हों।
प्रेम के मैदान तो मधुर झठ से ही जीते जाते हैं। पड़ोसिन की चाटना सिल्क की नई साड़ी देखकर श्रीमती जी ने ठेल कर हमें बाज़ार भेजा। हम थोड़ी देर इधर-उधर घूम-फिर कर हलवाई की दुकान से रबड़ी का दोना लिए वापस आ गए-"कमाल है! सारी साडियाँ इतनी जल्दी खत्म हो गई! अब वैसी तो फिर दो हफ्ते बाद आएँगी।"
श्रीमती दौना लेती हुई हँस पड़ी-"चलो, रहने दो। दो हफ्ते बाद ही सही।"
झूठ बोलने से कभी-कभी आपसी सम्बन्धों में बड़ी मधुरता आ जाती है। छोटा भाई कुछ खास नहीं कमाता, लेकिन बड़ा भाई सबसे यहो कहता है कि घर का सारा खर्व छोटा भाई चलाता है। निश्चय ही छोटा भाई अनाप-शनाप खर्च बन्द कर के घर की ओर ध्यान देगा और बड़े भाई के प्रति उसका मन श्रद्धा से भर जाएगा।
स्वादिष्ट भोजन की जब घर में खूब तारीफ हुई, तो बड़ी बहू ने वैसे ही कह दिया-"आज छोटी बहू ने बनाया है।" क्या छोटी बहू बड़ी बहू के इस स्नेह को बहुत दिनों तक याद नहीं रखेगी? झूठ की एक किस्म सफेद झूठ भी है। इसी का दूसरा नाम 'बेपर की उड़ाना' है। यही झूठ ऐसा है, जो आसानी से पहिचाना जा सकता है। अतः इस ओर से सावधान रहना चाहिए।
झूठ बोलना एक कला है। जो इस कला को नहीं जानता, वही पकड़ा जाता है। झूठ पर ऐसी पालिश की आवश्यकता होती है कि वह सत्य प्रतीत हो, ठीक उसी प्रकार जैसे मुलम्मे की पीतल सोना मालूम देती है।
फुटकर झूठ की तो कोई गिनती ही नहीं। एक-दो सुनना चाहें, तो हम से सुन लें–
एक दिन पत्नी ने हमारे प्यार का इम्तहान लिया। बोलीं–"आज कालेज मत जाओ और न ही अर्जी भेजो।" इम्तहान में फेल होना भला कौन चाहेगा और वह भी प्रेम के इम्तहान में? इसलिए न हम कालेज गए और न अर्जी भेजी।
दूसरे दिन प्रिन्सीपल साहब बुरी तरह बिगड़े, तो हम मरे स्वर में कह उठे–"सर, अचानक वाइफ को डिलीवरी का दर्द शुरू हो गया। हालत गम्भीर थी। अस्पताल।"
"प्रिन्सीपल साहब बीच में ही बोल पड़े—" आई सी, ... कोई बात नहीं... मुझे पता न था। ..."
लीजिए, बला टल गई।
आप कभी किसी दिन दफ्तर में देर से पहुँचें, तो अपने किसी पड़ोसी को जान से मार कर श्मशान घाट पहुँचा दें। बस काम चल जाएगा।
किसी मित्र की शादी में जाना जरूरी हो और छुट्टी आसानी से मिलती नजर न आए तो अर्जी दे दीजिए कि माँ हैं या स्वयं को पेचिस हो गई है। साथ में किसी एम0 बी0 बी0 एस0 डाक्टर से पन्द्रह-बीस रुपए में सर्टीफिकेट लेकर नत्थी कर दीजिए। अफसर की मजाल नहीं कि छुट्टी मंजूर न करे।
एक बार हमारे पड़ौसी ने दिल्ली से एक चीज मँगवाई। हमारे पास समय बहुत कम था और पास-पड़ोस के नाते मना भी नहीं कर सकते थे। अतः चुपचाप 'हाँ' करके चले गए। लौट कर आए, तो पड़ोसी ने तकाजा किया और चीज न लाने की शिकायत हमने झूठ-मूठ कह दिया कि बहुत कोशिश करने पर भी चीज नहीं मिली। दो-चार स्थानों के नाम गिना दिए। उनको तसल्ली हो गई।
यही नुस्खा हम सिफारिश करवाने के लिए आने वालों पर प्रयोग करते हैं। उनसे कह देते हैं-"हमने आपकी सिफारिश कर दी है। आप चिन्ता न करें।" सत्य यह है कि हम कभी किसी की किसी से सिफारिश करते ही नहीं क्यों बेमतलब अपने ऊपर अहसान लें? काम हो गया तो वाहवाही मुफ्त में मिल ही जाती है, अन्यथा कह देते हैं-"भई, क्या करें? बड़े लोगों की बात है। कह तो दिया था। भूल गए होंगे।"
इस प्रकार मनुष्य की पल, पहर और दिनचर्या से लेकर सम्पूर्ण जीवन चर्या ही झूठ के विविध प्रकारों पर खड़ी है। तो फिर क्या अब भी आप झूठ बोलना पाप समझते हैं?