झूठ / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / अल्पना दाश
एक
— तुम झूठ बोल रही हो ! मैं जानता हूँ, तुम झूठ बोल रही हो !
— अरे, तुम चिल्ला क्यों रहे हो? देखो, कोई सुन लेगा ।
वह फिर झूठ बोल रही थी। मैं चिल्ला नहीं रहा था, बल्कि मैं तो बहुत ही धीमी आवाज़ में बोल रहा था और ज़हर भरा शब्द ‘झूठ’ साँप की फुफकार की तरह मेरे कानों में गूँज रहा था।
— मैं तुमसे प्यार करती हूँ, उसने कहा, और तुम्हें मुझ पर भरोसा करना चाहिए। क्या भरोसे के लिए इतना ही काफ़ी नहीं ?
और उसने मुझे चूम लिया। लेकिन जब मैंने उसे अपनी बाहों में लेना चाहा, तो वह वहाँ से चली गई। वह उस अँधेरे गलियारे से निकल चुकी थी और मैं उसको खोजते हुए फिर उसी जगह जा पहुँचा, जहाँ थोड़ी देर पहले तक मौज-मस्ती चल रही थी। उसी ने मुझसे वहाँ आने को कहा था। मैंने पार्टी में कई जोड़ों को रात भर थिरकते हुए देखा था वहाँ । लेकिन मेरे पास न कोई आया और न ही किसी ने मुझसे बात की। इतने लोगों के बीच अकेला-सा मैं एक कोने में ऑर्केस्ट्रावालों के पास बैठा रहा। ताम्बे की बड़ी सी तुरही का रूख़ बिलकुल मेरी ओर था। लगता था उसके अन्दर कोई बन्द था जो हर दो मिनट में सहसा, फटी-सी आवाज़ में भद्दे ढंग से हो-हो करके हँसने लगता था – हो- हो- हो।
कभी-कभी लगता, मानो एक ख़ुशबूदार बादल उड़ता हुआ मेरे बेहद क़रीब आ गया है। यह तो वही थी। न जाने कैसे वह सबकी नज़रें बचाकर मुझे सहला जाती थी। कभी एक पल को उसका कन्धा मेरे कन्धे को छू जाता था, तो कभी एक पल को उसकी सफ़ेद पोशाक से झलकती हुई उसकी गोरी गर्दन मुझे नज़र आ जाती थी । मैं आँखें उठाता तो उसकी बेहद उजली, दृढ़ और साफ़-सुथरी छवि दिखाई देती, बिलकुल एक देवदूत की तरह, जो मानो किसी भूले-बिसरे आदमी की क़ब्र पर अपने ख़यालों में डूबा हुआ खड़ा हो। मैंने उसकी आँखें भी देखीं — रोशनी को तरसती हुई, बड़ी-बड़ी, ख़ूबसूरत और शान्त आँखें। नीले घेरे वाली पुतलियाँ काली होती जा रही थीं। जितना भी मैं उनमें झाँकता, वे वैसी ही काली, गहरी और अभेद्य लगती थीं। हो सकता है, उनमें मैंने एक क्षण से भी कम समय के लिए झाँका हो। लेकिन इससे पहले मैंने अन्तहीनता को इतनी गहराई और भयानक रूप से कभी नहीं जाना था, कभी महसूस नहीं किया था। भय और पीड़ा के साथ मुझे इस बात का अहसास हो रहा था कि मेरा सारा जीवन एक बारीक़ किरण बनकर उसकी आँखों में समाता जा रहा था और मैं ख़ुद के लिए ही अजनबी, खोखला और मूक यानी लगभग मृत होता जा रहा था। उस वक़्त वह मेरे प्राण अपने साथ लिए मुझको छोड़कर जा रही थी और फिर से उसी लम्बे, घमण्डी और ख़ूबसूरत आदमी के साथ नाचने लगी थी। मैंने उस आदमी की एक-एक चीज़ को बारीक़ी से देखा — उसके जूतों का आकार, उसके कन्धों की चौड़ाई और उसका बालों को झटकने का अंदाज़।अपनी बेरुख़ और बेपरवाह नज़रों से वह जैसे मुझे मेरे पीछे दिखाई दे रही दीवार के अन्दर धकेल रहा था और मैं उसी सपाट दीवार में विलीन होकर अस्तित्वहीन होता जा रहा था।
जब रात गहरा गई और मोमबत्तियाँ बुझाई जाने लगीं, तो मैंने उसके पास जाकर कहा :
— अब चलना चाहिए। आइए, मैं आपको छोड़ दूँ।
लेकिन वह हैरान हो गई।
— मैं तो उसके साथ जा रही हूँ — उसने उसी लम्बे और ख़ूबसूरत आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, जो हमारी तरफ़ देख भी नहीं रहा था। तभी पास के एक ख़ाली कमरे में ले जाकर उसने मुझे चूम लिया।
— तुम झूठी हो -— मैंने बहुत धीरे से कहा।
— हम आज ज़रूर मिलेंगे। तुमको आना होगा — उसने बड़े इसरार के साथ कहा।
जब मैं घर लौट रहा था, ऊँचे घरों के पीछे से जाड़े की धुंध भरी हलकी हरी सुबह बाहर झाँक रही थी। उस वक़्त, उस पूरी सड़क पर हम सिर्फ़ दो ही लोग थे — कोचवान और मैं। वह चेहरा ढके ज़रा झुककर बैठा हुआ था और मैं भी उसके पीछे, आँखों तक अपना चेहरा ढके, आगे की ओर झुककर बैठा था। कोचवान के मन में अपने ही कुछ विचार चल रहे होंगे और यहाँ मेरे अपने। और वहाँ, उन मोटी दीवारों के पीछे उस वक़्त सो रहे हज़ारों लोगों के मन में भी अपने ही कुछ सपने और ख़याल घूम रहे होंगे। मैं उसके बारे में सोच रहा था कि कैसे वह इतना झूठ बोल लेती है। मैं मौत के बारे में सोच रहा था, और मुझे लग रहा था कि शायद इन धुँधली रोशनियों वाली दीवारों ने मेरी मौत को देख लिया था, इसीलिए वे इतनी ठण्ड में भी अकड़ के साथ खड़ी थीं। न जाने कोचवान क्या सोच रहा था। पता नहीं, उन दीवारों के पीछे सो रहे लोग उस वक़्त किस चीज़ की कल्पना कर रहे थे। वैसे वे भी तो नहीं जानते थे कि मैं क्या सोच रहा हूँ, किस बात की कल्पना कर रहा हूँ।
तो हमारी घोड़ा-गाड़ी कुछ लम्बी और सीधी सड़कों से गुज़र रही थी। सवेरा हो रहा था और चारों तरफ़ सब कुछ अचल और सफ़ेद था। एक ठण्डा ख़ुशबूदार बादल मेरे क़रीब आया और मुझे लगा कि उसके भीतर कोई क़ैद है, जो एकदम मेरे कानों में हो हो करके हँस दिया : हो-हो-हो।
दो
इस बार उसने फिर झूठ कहा था। आख़िर वह नहीं आई और मैं बेकार ही उसका इन्तज़ार करता रहा। एक सुरमई-सा, शान्त और सर्द धुँधलका अँधेरे आसमान से नीचे उतर रहा था। मैं समझ ही न पाया कि कब झुटपुटे से शाम और शाम से रात हो गई। मुझे यह समय एक लम्बी रात की तरह लग रहा था। लम्बे इन्तज़ार के दौरान मैं धीरे-धीरे वहाँ टहलता रहा। मैं न तो उस मकान के पास गया, जिसमें मेरी महबूबा रहती थी, और न ही मकान के काँच के उस दरवाज़े के पास, जो पीले छप्पर की छाया से पीला लग रहा था। मैं नपे-तुले कदमों से ही वहाँ आगे-पीछे आ-जा रहा था । आगे की ओर जाते वक़्त मैं अपनी आँखें काँच के दरवाज़े पर गड़ाए रखता और वापस लौटते समय मैं अक्सर रुककर पीछे मुड़कर देख लिया करता था। उस दिशा में चलते हुए मेरे चेहरे पर पड़ते बरफ़ के ज़र्रे नुकीली सुई की तरह चुभते महसूस हो रहे थे। ये ठण्डी और तेज़ सुइयाँ इतनी लम्बी जान पड़ती थीं कि वे मेरे सीने को छेदती हुई सीधे दिल तक पहुँच रही थीं। मेरा दिल उसके इन्तज़ार की बेबसी, तड़प और ग़ुस्से से पागल हो गया था। बर्फ़ीली हवा तेज़ रोशनीवाली उत्तर दिशा से अँधेरे दक्षिण की ओर तेज़ी से दौड़ रही थी और बर्फ़ से ढकी सफ़ेद छतों पर सीटी बजाती खेल रही थी। वहाँ से भागकर हवा मेरे पास आई, और अपने साथ छोटे-छोटे बर्फ़ के पैने ज़र्रे लाई। मेरा चेहरा काटती हुई यह हवा सड़क किनारे लगी बत्तियों के काँच के खोल पर दस्तक देने लगी, जिनके अन्दर एक तनहा पीली लौ ठण्ड से काँप रही थी। मुझे उस असहाय लौ पर तरस आने लगा, जिसकी ज़िन्दगी सिर्फ़ रात-भर की ही थी। मैं सोच रहा था कि इसी सड़क पर उसका सारा जीवन कट जाएगा। कुछ समय बाद मैं भी यहाँ से चला जाऊँगा, सुनसान सड़क पर सिर्फ़ बर्फ़ के ज़र्रे इधर से उधर लुढ़कते फिरेंगे और पीली लौ इस सर्द रात में झुकी हुई तन्हाई में काँपती रहेगी।
मैं उसका इन्तज़ार कर रहा था, लेकिन वह नहीं आई । मुझे लगा, जैसे वह अकेली लौ भी मेरी तरह ही थी। फ़र्क, बस, इतना था कि लौ काँच के खोल में काँप रही थी और मैं उसका इन्तज़ार करते हुए सड़क पर काँप रहा था। कभी-कभी वहाँ से कोई गुज़र जाता था। उसकी छाया अचानक मेरे पीछे से उभरती और फिर बड़ी और काली होकर मेरे क़रीब आ जाती। फिर धूसर रंग की होकर मेरी बग़ल से गुज़र जाती और इसके बाद सफ़ेद मकान के कोने पर मुड़कर ग़ायब हो जाती। फिर उसी कोने से निकलकर वैसी ही छायाएँ मेरी तरफ़ आतीं। धीरे-धीरे वे मेरी बग़ल में आ पहुँचतीं और फिर धीमे से मेरे पीछे उसी धूमिल मैदान में ग़ायब हो जातीं, जहाँ बर्फ़ के फ़ाहे बिना कोई आवाज़ किए इधर से उधर लुढ़क रहे थे। गरम कपड़ों से लदी चुपचाप चलती जा रही वे छायाएँ मुझे ऐसी लग रही थीं, जैसे वे मेरी ही छायाएँ हों। मैं जैसे मैं नहीं रह गया था, बल्कि एक छाया बन गया था। मुझे लग रहा था कि मेरी तरह ही दर्जनों छायाएँ वहाँ किसी का इन्तज़ार कर रही थीं, सरदी से काँप रही थीं और ख़ामोश थीं। मेरी ही तरह वे भी कुछ सोच रही थीं, शायद अपने रहस्यों और दुखों के बारे में।
मैं उसका इन्तज़ार कर रहा था, लेकिन वह नहीं आई । मैं दर्द से रोया या चिल्लाया क्यों नहीं ? न जाने क्यों मैं हँस रहा था और ख़ुश हो रहा था। मैंने अपनी मुट्ठियाँ भींच ली थीं, और उनमें साँप की तरह फुफकारने वाले उस ज़हरीले ‘झूठ’ को पकड़ रखा था। मेरी मुट्ठी में फँसा वह छटपटा रहा था और मुझे डँस भी रहा था। उसके ज़हर के असर से मेरा सिर चकराने लगा। मेरा सब कुछ झूठ में बदल चुका था। मेरा भविष्य भी और वर्तमान भी। मेरे वर्तमान और मेरे अतीत के बीच का फ़र्क भी ख़तम हो चुका था। उन दो ज़मानों के बीच की रेखा मिट चुकी थी, जब मैं इस दुनिया में आया भी नहीं था और फिर जब पैदा होकर मैं अपनी ज़िन्दगी जीने लगा था । दोनों ज़मानों में ही मुझपर उसका राज था। मुझे यह जानकार हैरानी हुई कि उसका एक मूर्त रूप भी है और उसके अस्तित्व का आदि और अंत भी है। उसका कोई नाम नहीं था। उसकी सिर्फ़ एक ही पहचान थी — हमेशा झूठ बोलनेवाली, हमेशा इन्तज़ार करवाकर कभी न आनेवाली। पता नहीं क्यों, मैं हँस रहा था। तेज़ सुइयाँ मेरे दिल में धँसती जा रही थीं और कहीं भीतर क़ैद कोई आदमी मेरे कान में ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था : हो-हो-हो …।
मेरी आँखें खुलीं तो मुझे उस सफ़ेदवाले ऊँचे मकान की रोशन हो चुकी खिड़कियाँ नज़र आईं, जो अपनी नीली और लाल ज़ुबान में मुझसे कह रही थीं :
— वह बेवफ़ा है। इस पल, जब तुम तन्हाई में भटक रहे हो, उसके इन्तज़ार में तड़प रहे हो, वह पूरी तरह से सजी-सँवरी, पूरी तरह से चमकती-दमकती और झूठ में डूबी हुई यहाँ मौजूद है और उसी लम्बे और ख़ूबसूरत आदमी की फुसफुसाहट सुन रही है, जो तुमसे नफ़रत करता है । अगर तुम किसी तरह यहाँ घुस आते और उसको मार डालते तो बड़ा अच्छा होता। इस तरह तुम झूठ को हमेशा के लिए ख़तम कर देते।
मैंने अपनी उँगलियों को और ज़ोर से भींच लिया, जिनमें मैंने छुरा पकड़ रखा था। मैंने हँसकर जवाब दिया :
— हाँ, मैं उसको मार डालूँगा।
लेकिन खिड़कियाँ मुझे बड़ी दुखभरी नज़रों से देखते हुए बोलीं :
— तुम उसे कभी नहीं मारोगे। कभी भी नहीं, क्योंकि तुम्हारे हाथ में जो हथियार है, वह भी वैसा ही झूठ है जैसे उसके चुम्बन।
इन्तज़ार करने वालों की ख़ामोश परछाइयाँ कब की ग़ायब हो चुकी थीं। अब उस ठण्डी जगह पर अकेला मैं बचा था और रह गई थी कड़ाके की सर्दी और निराशा से काँपती हुई आग की लौ। तभी, कुछ ही दूरी पर चर्च के घण्टाघर की घड़ी बजने लगी। घड़ी के मन्द घण्टे की आवाज़ खुले मैदान में निकलकर काँपने और रोने लगी और दीवानों की तरह घूमते हुए वहाँ पड़े बर्फ़ के ढेरों में ग़ुम हो गई। मैं घड़ी के घण्टे गिनने लगा और उन्हें सुनकर मुझे हँसी आ गई। घड़ी ने पन्द्रह घण्टे बजाए थे। घण्टाघर काफ़ी पुराना हो चला था, घड़ी भी पुरानी थी। वह समय तो सही दिखाती थी, लेकिन घण्टे बेहिसाब बजाने लगती थी। कभी-कभी तो इतने सारे घण्टे बजाती कि वहाँ काम करने वाले सफ़ेद दाढ़ीवाले बूढ़े बाबा को उस हथौड़े को अपने हाथ से पकड़कर रोकना पड़ता था, जो लगातार घड़ी के घण्टे पर चोट कर रहा होता था । सर्द अँधेरे से घिरी और दबी हुई ये जर्जर, उदास और काँपती हुई ध्वनियाँ किसके लिए झूठ बोल रही थीं ?
तभी, घड़ी के उस आख़िरी झूठे घण्टे के बजते ही काँच के दरवाज़े के खुलने की आवाज़ आई और एक लम्बा-सा आदमी सीढ़ियों से उतरता हुआ दिखाई पड़ा। मैंने उसकी पीठ देखकर ही उसे पहचान लिया। अभी कल ही तो देखी थी मैंने उसकी वह पीठ, जो घमण्ड और तिरस्कार से भरी थी। अपनी ठसक-चाल से भी वह पहचान में आ रहा था। आज उसकी चाल कल से ज़्यादा सहज और निडर लग रही थी। एक बार मैं भी इन दरवाज़ों से इसी तरह निकला था। ऐसी चाल उन्हीं लोगों की होती है, जिनको हाल ही में उस औरत के झूठे होंठों ने चूमा हो।
तीन
मैंने उसे बहुत धमकाया और दाँत पीसते हुए कहा :
— मुझे सच बताओ !
बर्फ़ जैसे ठण्डे चेहरे, अपनी अथाह गहरी, भावहीन और सपाट काली पुतलियों तथा हलकी उठी हुई भौहों से आश्चर्य प्रकट करते हुए उसने कहा :
— क्या मैं कभी तुमसे झूठ बोलती हूँ ?
वह भली-भाँति जानती थी कि मैं उसका झूठ साबित नहीं कर सकता, और यह भी कि उसके सिर्फ़ एक शब्द से, एक और झूठे शब्द से मेरे सारे भयानक कष्ट दूर हो जाएँगे। मुझे जिस बात का इन्तज़ार था, वह उसके होंठों से निकलने ही वाली थी। लेकिन मुझे मालूम था कि वह बात पूरा सच नहीं होगी, बल्कि वे सच की चमकती हुई तह में लिपटे हुए शब्द होंगे।
— मैं तुमसे प्यार करती हूँ। मैं तो सिर्फ़ तुम्हारी हूँ न ?
हम शहर से बहुत दूर थे। अँधेरी खिड़कियों के बाहर बर्फ़ से भरा एक सफ़ेद मैदान था, जो अँधेरे की कालिमा में डूबा हुआ था - घना और ख़ामोश अँधेरा । लेकिन फिर भी मैदान अपनी भीतरी रोशनी से दमक रहा था, ठीक वैसे ही, जैसे किसी मरे हुए आदमी का चेहरा दमकता है । घर के सबसे बड़े और गरम कमरे में एक मोमबत्ती जल रही थी और उसकी काँपती हुई लौ में उस मैदान का धुँधलापन झलक रहा था।
— मैं सच जानना चाहता हूँ, चाहे वह कितना भी कड़वा क्यों न हो। मुमकिन है कि उसको सुनकर मुझे मौत आ जाए। लेकिन सच जाने बिना जीने से तो मर जाना अच्छा है । तुम्हारे चुम्बनों और आलिंगनों में मुझे झूठ की बू आती है। तुम्हारी आँखों में भी झूठ ही झूठ झलकता है। मुझे सच बता दो तो मैं हमेशा के लिए तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा — मैंने कहा।
वह चुप रही। उसकी ठण्डी और तीख़ी नज़र मेरे भीतर धँसती चली गई। वह मानो मेरी रूह को कौतूहल से उलट-पलटकर देख रही थी। उसकी ख़ामोशी देखकर मैं उसपर चिल्ला पड़ा :
— चुप क्यों हो ? हमेशा चुप्पी ओढ़े रहती हो। जवाब दो, वरना मैं तुम्हारी जान ले लूँगा।
— ले लो, भई, जान भी कोई लेने की चीज़ है ? -— उसने बड़े आराम से जवाब दिया — मैं तो पहले ही इस बेमक़सद, बेमज़ा ज़िन्दगी से उकता चुकी हूँ । लेकिन धमकी देकर तो तुम सच का पता नहीं लगा सकते हो।
मैं उससे इतना तंग आ चुका था कि अब मैं उसके सामने गिड़गिड़ाने लगा था। मैं घुटनों के बल बैठ गया और उससे मिन्नतें करने लगा।
— बेचारा ! — उसने मेरे सर पर हाथ रखते हुए कहा — बेचारा !
— मुझ पर तरस खाओ, — मैं गिड़गिड़ाया, — मुझे सच बता दो !
मैं उसके सपाट माथे की ओर देख रहा था और सोच रहा था कि सच वहीं छिपा है, उसकी पतली-सी खाल के पीछे, इस आड़ के पीछे। सच को जानने के लिए उसकी खोपड़ी फोड़ने का ख़याल मुझ पर पागलपन की तरह सवार हो गया। मैं उसके सफ़ेद सीने को भी चीरना चाहता था, जहाँ उसका दिल धड़क रहा है। मेरी बेहद इच्छा हुई कि कम से कम एक बार मैं इस इनसान का दिल असल में देख लूँ । मोमबत्ती पूरी तरह से जल चुकी थी, उसकी आख़िरी लौ फड़फड़ाने लगी थी। उसकी मन्द होती लौ में दीवारों का रंग भी काला होता गया। फिर ऐसा लगने लगा मानो कमरे की सारी दीवारें एक-दूसरे से दूर होने लगी हैं । यह सब इतना तकलीफ़देह और भयानक था कि मैं अपने आप को बहुत अकेला महसूस करने लगा।
— बेचारा ! — वह बोलती जा रही थी,— बेचारा !
मोमबत्ती की काँपती हुई पीली लौ पहले नीली हुई और फिर बुझ गई। वहाँ अन्धेरा छा गया। अब मैं न उसका चेहरा देख पा रहा था, न आँखें। उसके हाथ मेरे सिर को घेरे हुए थे। और तब मुझे वहाँ किसी झूठ का एहसास नहीं हो रहा था । मेरी आँखे बन्द थीं। मेरे सारे एहसास भी जैसे ख़त्म हो चुके थे। मैं न तो कुछ सोच ही पा रहा था, और न ही सांस ले पा रहा था। बस, उसके हाथों की छुअन ने मुझे घेर रखा था । मैं उसी छुअन में डूबा हुआ था। बस, यही एहसास मुझे सच लग रहा था। अचानक अँधेरे में वह अजीब ढंग से फुसफुसाई :
— मुझे अपने आग़ोश में ले लो। मुझे डर लग रहा है।
थोड़ी देर के लिए वहाँ चुप्पी छाई रही । फिर उसकी डरावनी आवाज़ सुनाई दी। वह फुसफुसाकर बोल रही थी :
— तुम सच जानना चाहते हो न ? मैं तो ख़ुद भी सच नहीं जानती ? मैं भी उसको जानना चाहती हूँ। मुझे तुम ही बचा सकते हो, मुझे बचा लो ! मुझे बहुत डर लग रहा है।
मैंने अपनी आँखें खोल दीं । बाहर दिन निकलने लगा था। कमरे का कमज़ोर पड़ता अँधेरा डर के मारे खिड़कियों से निकल भागा और दीवार के पास रुककर कमरे के कोनों में छिप गया। बाहर की बर्फ़ीली ठण्ड जैसे कमरे में घुस आई थी और अपनी मृत आँखों से हमको खोज रही थी। उसकी भयानक बर्फ़ीली निगाहें हम दोनों पर चिपक गयी थीं। हमें ऐसा लगने लगा जैसे वह कोई प्रेतात्मा हो। चौंककर हम एक-दूसरे से लिपट गए और मुझे उसकी फुसफुसाहट सुनाई पड़ी :
— कितना डरावना है यह सब !
चार
मैंने उसे मार डाला ! मार ही डाला आख़िर ! उसका बेजान और पिचका हुआ जिस्म उसी खिड़की के पास पड़ा था, जहाँ से वह बर्फ़-ढका सफ़ेद मृत मैदान झलक रहा था। मैं उसके बेजान जिस्म के क़रीब खड़ा हो गया और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। यह किसी पागल की हँसी नहीं थी, बिलकुल नहीं। मैं तो इस बात पर हँस रहा था कि मेरे सीने में सांसें बराबर और बिना किसी मुश्किल के चल रही थीं और सीने के अन्दर ख़ुशी, ख़ामोशी और एक ख़ालीपन था। मेरे दिल से वह कीड़ा निकल गया था, जो उसे छेद रहा था। मैंने झुककर उसकी बेजान आँखों में झाँका। रोशनी को तरसती उसकी बड़ी-बड़ी आँखें खुली हुई थीं और किसी मोम की गुड़िया की आँखों की तरह दिख रही थीं, गोल और निर्जीव। मैं उनको अपनी उँगलियों से छू सकता था, उनको बन्द कर सकता था और खोल सकता था। अब मुझे उनसे डर नहीं लग रहा था, क्योंकि अब उसकी काली और सपाट पुतलियों में झूठ और संदेह का वह राक्षस नहीं था, जिसने इतने लम्बे समय तक बेरहमी से मेरा ख़ून पिया था।
जब मुझे पकड़ा गया, मैं हँस रहा था। मुझे पकड़नेवालों को मेरी हँसी बहुत डरावनी और अजीब-सी लग रही थी। कुछ लोग उपेक्षा और घृणा से मेरी ओर देखकर मुँह मोड़कर चले गए। और कुछ मुझे गालियाँ देते हुए बड़े हमलावर ढंग से सीधे मेरी तरफ़ बढ़ने लगे। लेकिन जब उनकी नज़र खुशी से दमकती मेरी आँखों पर पड़ी, तो उनके चेहरे पीले पड़ गए और वे अपनी जगह पर रुक गए ।
— इसका दिमाग ख़राब हो गया है, शायद पागल हो गया है — वे कह रहे थे और मुझे लगा कि यह सोचकर उन्हें बड़ी तसल्ली हुई है। असल में इसी तरह उनके मन की यह गुत्थी सुलझती है कि मैंने अपनी महबूबा को मार डाला है, जिससे मैं बेइंतहा प्यार करता था और अब उसे जान से मारने के बाद मैं इस क़दर हँस रहा हूँ । सिर्फ़ एक लाल गालोंवाले मोटे-से आदमी ने मेरे ऊपर तरस खाकर इस तरह की बात कही, जिससे मुझे बड़ी ठेस पहुँची। उसकी बात सुनकर मेरी आँखें धुँधला गईं और मेरे सामने अँधेरा छा गया। उसने कहा था :
— बेचारा आदमी !
— नहीं ! चुप हो जाओ ! मुझे बेचारा न कहो ! — और मैं उस पर झपट पड़ा।
— मैं उसे मारना तो दूर, उसे हाथ भी लगाना नहीं चाहता था। लेकिन हमारे आस-पास जो लोग खड़े थे, वे मेरी हालत देखकर काफ़ी डरे हुए थे। उनके लिए मैं एक सामान्य आदमी से पागल राक्षस में बदल चुका था, जिसने अपनी जान से ज़्यादा प्यारी महबूबा की भी जान ले ली।
उस मोटे आदमी की तरफ़ देखकर मैं ज़ोर-ज़ोर से हँसा। लोग यह मान चुके थे कि मैं पागल हो गया हूँ, तभी तो अपनी माशूक़ा के बेजान जिस्म के पास खड़ा होकर भी बेतहाशा हँस रहा हूँ। उन लोगों की घबराहट देखकर मैंने तेज़ आवाज़ में कहा :
— आज मैं बहुत ख़ुश हूँ ! बेहद खुश !
और यह एकदम सच था।
पाँच
एक बार बचपन में एक चिड़ियाघर में मैंने एक तेंदुआ देखा था। उसने मेरे मन पर ऐसा असर डाला कि मैं अक्सर उसके बारे में सोचा करता हूँ। वह वहाँ के उन दूसरे जानवरों की तरह नहीं था, जो बेमतलब सोते रहते थे या वहाँ आनेवालों को गुस्से से घूरा करते थे। एक कोने से दूसरे कोने तक, रेखागणित के नियमों का पालन करते हुए, एक सीधी रेखा पर चलता था वह। हर बार एक ही जगह पर मुड़ता और हर बार लोहे की जाली की एक ही पट्टी को छूता हुआ गुज़रता था। उस ख़ूँख़ार जानवर का सिर हमेशा नीचे झुका रहता था और उसकी आँखे हमेशा अपने आगे की तरफ़ ही देखा करती थीं। वे कभी दाएँ-बाएँ नहीं घूमती थीं। उसके पिंजरे के सामने हमेशा उसे देखनेवालों की भीड़ लगी रहती थी, वे बातें करते थे, हल्ला-गुल्ला करते थे, लेकिन वह कभी किसी की ओर आँखें उठाकर नहीं देखता था। बस, चलता रहता था। वहाँ खड़े लोगों में से सिर्फ़ कुछ लोग ही यह नज़ारा देखकर मुस्कराते थे। ज़्यादातर लोग चिंतन-मनन की उसकी इस निराशाजनक ज़िन्दा तस्वीर को बड़ी संजीदगी से या उदासी से देखते थे और आह भरते हुए वहाँ से चले जाते थे। जाते-जाते वे लोग कुछ हैरानी और उत्सुकता से एक बार फिर मुड़कर उसे देखते, मानो पिंजरे में क़ैद उस बदनसीब जानवर की क़िस्मत और इन आज़ाद लोगों में कुछ समानता थी। और अब, इतने साल गुज़र जाने के बाद, जब अन्तहीनता का सवाल उठा, तो मुझे वही तेंदुआ याद आ गया। मुझे लगा कि मैं अन्तहीनता और उसकी यातनाओं को भली-भाँति जानता हूँ।
अपने पत्थर के पिंजरे में मैं भी एक ऐसा ही तेंदुआ बन गया था। मैं चलते-चलते सोचता रहता था। मैं अपने पिंजरे के एक कोने से दूसरे कोने तक, तिरछी रेखा बनाते हुए चलता था। वहीं, एक छोटी रेखा पर मेरे विचार चलते थे। वे इतने भारी थे कि लगता था, मैं अपने कन्धों पर अपना सर नहीं, पूरी दुनिया उठाए हुए हूँ। और यह दुनिया सिर्फ़ एक शब्द से बनी है। सिर्फ़ एक शब्द से। लेकिन यह एक शब्द भी कितना विराट, कितना दर्दनाक और कितना मनहूस है ।
झूठ — वह शब्द है — झूठ !
झूठ फुफकारते हुए फिर से मेरे जिस्म के हर कोने से निकला और मेरी रूह के चारों तरफ़ लिपट गया। लेकिन अब वह कोई नन्हा सँपोला नहीं रह गया था, अब वह एक बड़ा, चमकीला और भयंकर नाग बन चुका था। वह मुझे डँस रहा था और मुझे चारों तरफ़ से कसकर मेरा गला घोंट रहा था। जब मैं दर्द से चिल्लाने लगता, तो मेरे मुँह से वही घिनौनी सीटी जैसी फुफकार निकलती, मानो मेरी पूरी छाती इन घिनौने कुलबुलाते जीवों से भरी पड़ी हो :
— झूठ !
अपनी पिंजरेनुमा कालकोठरी में बन्द मैं इधर से उधर चल रहा था और गहरी सोच में डूबा हुआ था। मेरे लिए जैसे कमरे का फ़र्श एक उबलते हुए पानी के कुण्ड में बदल गया था । पैरों के नीचे ज़मीन महसूस नहीं हो रही थी। मुझे लगा मानो मैं असीम ऊँचाइयों पर हवा में तैर रहा हूँ और मेरे चारों तरफ़ कोहरे का परदा है । मेरे सीने से फिर वही फुफकारनुमा कराह निकली। तभी वहाँ नीचे से, कोहरे की परत के नीचे से उसकी भयंकर गूँज सुनाई दी, लेकिन वह इतनी धीमी और मंद थी कि लगता था, जैसे वह हज़ारों सालों को भेदती हुई मुझ तक पहुँच रही हो और हर पल कोहरे की हर परत से गुज़रते हुए कमज़ोर होती जा रही हो। मुझे लग रहा था कि वहाँ, लोगों की दुनिया में यह आवाज़ उस आँधी की तरह तेज़ होगी, जिससे मज़बूत और क़द्दावर पेड़ तक टूटकर गिर जाते हैं। परन्तु मेरे कानों तक पहुँचते-पहुँचते वह मनहूस फुफकार धीमी फुसफुसाहट में बदल जाती :
— झूठ ! वह फुफकार मुझे फिर से सुनाई दी।
इस फुफकार ने तो मेरा दिमाग़ खराब कर दिया है।
— अब तो कोई झूठ-वूठ ज़िंदा ही नहीं है ! मैंने उसे मार डाला है।
मैंने ज़ोर से अपनी बात कही। मुझे मालूम था कि इसका जवाब मुझे ज़रूर मिलेगा । और कोहरे की परतों के पार से जवाब आया :
— झूठ ! हा हा हा, मैं अभी भी ज़िन्दा हूँ !
असल में, मुझसे एक बहुत बड़ी गलती हो गई । मैंने उस ख़ूबसूरत औरत को तो मार डाला, लेकिन झूठ को हमेशा के लिए ज़िन्दा छोड़ दिया । दरअसल औरतों को तब तक नहीं मारना चाहिए, जब तक कि आप उनसे प्यार से या सख़्ती से, जैसे भी हो, सच न उगलवा लें।
यही सब सोचते-सोचते मैं अपनी कोठरी में एक कोने से दूसरे कोने तक घूमता रहा।
छह
मुझे लगा कि मेरी वह ख़ूबसूरत जानेमन सच के साथ-साथ झूठ को भी अपने साथ उस दुनिया में ले गई, जहाँ बहुत घना अँधेरा है और डर का राज है। मुझे भी तो एक दिन वहीं जाना होगा। शैतान के सामने मेरी पेशी होगी और मैं उसे पकड़कर उससे कहूँगा :
— सच क्या है ? मुझे सच बता !
मुझे लगता है कि जो कुछ भी वह मुझे बताएगा, वह झूठ ही होगा। आख़िर अनन्तकाल से झूठ चला आ रहा है और वह अनन्तकाल तक चलेगा। उसका जीवन अन्तहीन है। वह अमर है। हमारी इस दुनिया के हर पल-क्षण में, कण-कण में झूठ बसा है । पैदा होने के बाद जब भी बच्चा सांस लेता है, तो सबसे पहले झूठ उसके सीने में घुस जाता है और उसकी सारी ज़िन्दगी पर क़ब्ज़ा कर लेता है।
ओह, कितना मुश्किल है इस दुनिया में सच को ढूँढ़ना और सच को बचाना। मुझे सच की दर्दनाक चीखें सुनाई दे रही हैं :
— बचाओ ! मुझे बचाओ ! कोई बचाओ !
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अल्पना दाश
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’लोझ’ (Леонид Андреев — Ложь)