टंगटुट्टा / मृणाल आशुतोष
घर का माहौल थोड़ा असामान्य-सा हो चला था। परसों ही राजेन्द्र ने किसी दुखियारी से शादी करने की बात घर पर छेड़ दी थी। छोटे भाइयों को तो आश्चर्य हुआ, पर बहुओं की आवाज़ कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो गई। बेचारी बूढ़ी माँ समझाने की कोशिश कर थककर हार मान चुकी थी।
बहुओं के तीखे बाण से कलेजा छलनी हो रहा था, पर कान में रूई डालने के सिवा कोई चारा भी तो नहीं था।
शाम में तमतमाते वीरेंद्र का प्रवेश सीधा माँ की कोठरी में हुआ। बिना देर किए दोनों बहुएँ दरवाजे से चिपक गईं।
"माँ, यह हो क्या रहा है घर में? भैया पागल तो नहीं हो गए हैं।"
"बेटा, इसमें पागल होने वाली क्या बात है?"
"इस उम्र में शादी? लोग क्या कहेंगे? मुहल्ले वाले थूकेंगे हम पर!" गुस्से में वह लाल-पीला हो रहा था।
"बेटा, उसने कोई निर्णय लिया है, तो सोच-समझकर कर ही लिया होगा न! उस दुखियारी के बारे में भी तो सोच।"
"हाँ, कुछ ज़्यादा ही सोच कर लिया है। अपना तो दोनों टाँग टूटा हुआ है ही और ऊपर से बुढ़ापे में एक औरत का जिम्मेदारी लेने चले हैं!"
"बीस साल से बिना टाँग के ही चाय बेचकर हमारा-तुम्हारा ख़र्चा चला रहा है न! थोड़ा कलेजे पर हाथ रखकर सोचना कि असली टंगटुट्टा वह है या...!"