टाइगर ने अलविदा नहीं कहा ? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 24 नवम्बर 2012
एंग ली की फिल्म 'लाइफ ऑफ पाई' देखने से यह विश्वास दृढ़ हो जाता है कि किसी भी मनुष्य की कोई भी कल्पना फिल्माई जा सकती है और इस विज्ञानजनित माध्यम की असीमित संभावना का आकलन आज भी संभव नहीं है। इस फिल्म को बच्चे पाठ्यक्रम की तरह देख सकते हैं और हर मनुष्य यह भी समझ सकता है कि मानवीय रिश्तों में संवाद नहीं हो पाने के कारण बनी सारी दूरियां निरर्थक हैं, क्योंकि फिल्म में एक छोटी-सी नाव में एक टाइगर और पंद्रह वर्षीय बालक संकट के समय एक-दूसरे की बात समझ लेते हैं और टाइगर अहिंसक तथा मनुष्य का मित्र हो सकता है। जब हम इस तरह के करुणा और प्रेम के रिश्ते को परदे पर देखते हैं, तब हमें शिद्दत से अहसास होता है मनुष्य और मनुष्य के बीच संवाद क्यों नहीं हो सकता और विभिन्न मत तथा प्रवृत्तियां होते हुए भी हम शांति से एक साथ क्यों नहीं रह सकते? आज धरती पर चहुंओर आतंक ही आतंक है। एक-दूसरे के प्रति अविश्वास है। अनेक अनजान भय से जीवन ग्रसित है। ऐसे समय में फिल्मकार एंग ली एक फिल्म लेकर आते हैं, जो सहअस्तित्व और सद्भावना के आदर्श को पुन: सशक्त ढंग से स्थापित करती है।
फिल्म में अर्थ की अनेक सतहें हैं और दर्शक अपनी सामथ्र्य के अनुरूप गहरा उतर सकता है। फिल्म के लगभग सभी पात्र भारतीय हैं। यहां तक कि टाइगर भी बंगाल का है। नायक बचपन से ही सत्य की खोज में मंदिर, चर्च और मस्जिद जाता है। सभी मजहबों को मानने वाला यह बालक मानता है कि सभी वस्तुओं में प्राण हैं, संवेदना है। उसके व्यावहारिक पिता उसे आदर्श की इस भूलभुलैया से बाहर आकर तर्क और विज्ञान के सहारे जीने और अपने सत्य को पाने की व्यावहारिक शिक्षा देते हैं। उसका पूरा परिवार दुर्घटनाग्रस्त पानी के जहाज में समाप्त हो जाता है और भाग्य की लहरें उसे एक नाव पर ला फेंकती हैं, जहां टाइगर भी है, चिंपाजी भी है, जेब्रा भी है तथा एक खूंखार भेडिय़ा भी है। कुछ ही समय बाद केवल टाइगर और बालक जीवित बचते हैं और धीरे-धीरे उन्हें एक-दूसरे पर विश्वास होने लगता है। भाषाहीन संवाद भी कायम हो जाता है। बालक मछलियां पकड़कर टाइगर को खिलाता है और टाइगर का आतंक उसे हमेशा सजग रखता है। यह यात्रा २२७ दिनों तक जारी रहती है और अंत में वे सुरक्षित किनारे लग जाते हैं। टाइगर जंगल चला जाता है और किनारे पर लगभग निष्प्राण बालक को सारा जीवन मलाल रहता है कि उसके मित्र टाइगर ने जंगल में प्रवेश के पहले एक बार पलटकर नहीं देखा, गोयाकि अलविदा नहीं नहीं कहा। इसका अर्थ यह है कि अपने स्वाभाविक स्थान पर लौटते ही मनुष्य हो या टाइगर, अपने असली स्वाभाविक प्रेमहीन लघुता पर लौट जाते हैं। कमोबेश यही संदेश अकिरा कुरोसावा की 'सेवन समुराई' भी देती है। सुरक्षा और संकट की परिस्थितियों में मनुष्य और जानवर दोनों ही अलग-अलग व्यवहार करते हैं।
कथा के अंत में अस्पताल में इलाज कराते हुए बालक से जापान की इंश्योरेंस कंपनी के एजेंट पूछताछ करते हैं और उसके तथा टाइगर की सत्यकथा पर अविश्वास करते हैं। व्यवस्था विश्वसनीय विवरण चाहती है, भले ही वह झूठ हो। अत: बालक उन्हें एक काल्पनिक कहानी कहता है, जिसमें नाव पर सवार मनुष्य भूख शांत करने के लिए एक-दूसरे को मारकर खाते हैं और सबसे मजबूत ही जीवित रह पाता है। दरअसल यह जंगल का कानून है और सभ्य समाज प्रगति करके इसे पीछे छोड़ आया है, परंतु इंश्योरेंस कंपनी को मनुष्य के कमीनेपन वाली बात सत्य लगती है, गोयाकि मनुष्य के भीतर का जानवर उनके लिए विश्वसनीय है। व्यवस्था के लिए विश्वसनीयता की सीमित परिभाषा है और व्यवस्था मनुष्य के उदात्त स्वरूप को नकारती है, क्योंकि इसी में उसका बौनापन सुरक्षित रह सकता है। लिलीपुट के सारे बौने मिलकर मनुष्य को बांध लेते हैं। आज सभी क्षेत्रों में बौनों का बहुमत है और मनुष्य के उदात्त स्वरूप को असंभव कल्पना मान लिया गया है।
क्या यह संभव है कि २२७ दिन मनुष्य के साथ रहने के कारण ही टाइगर ने सद्भावना नहीं दिखाई और शुकराना अदा नहीं किया?