टाइप कास्टिंग और जीविका.../ जयप्रकाश चौकसे

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टाइप कास्टिंग और जीविका...
प्रकाशन तिथि : 01 अगस्त 2013


चरित्र अभिनेता जगदीश राज खुराना की 85 वर्ष की आयु में चरित्र मृत्यु हो गई। उनके नाम रिकॉर्ड है कि उन्होंने 144 फिल्मों में पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निबाही और उनके बाद दूसरे नंबर पर अभिनेता इफ्तिखार का नाम था। यूं भी पुलिस 144 धारा लगाती है। फिल्म उद्योग में इसे टाइप कास्ट कहते हैं अर्थात कलाकार को उसकी लोकप्रिय छवि में बार-बार फिल्म में लिया जाता है। यह भारत से कुछ कम ही सही, परंतु हॉलीवुड में भी हुआ है कि जॉन वेन ने वेस्टर्न फिल्मों में सबसे अधिक काम किया। क्लिंट ईस्टवुड को भी प्राथमिक सफलता वेस्टर्न में मिली, परंतु बाद में उन्होंने विविध भूमिकाएं कीं। प्राय: चरित्र भूमिकाएं निबाहने वाले कलाकार टाइप-कास्ट होते हैं और इसी कारण उन्हें लंबे समय तक काम भी मिलता है। जगदीश राज ने एक भरे-पूरे परिवार के लालन-पालन के लिए दशकों इंस्पेक्टर की भूमिका निबाही। अगर वे यह जिद करते कि उन्हें अपनी कला के विकास के लिए विविध भूमिकाएं करनी हैं तो शायद उन्हें नियमित रूप से काम नहीं मिलता। इफ्तिखार साहब ने भी यही किया। कन्हैयालाल तो जन्म से बनारस के ब्राह्मण थे, परंतु सारी उम्र उन्होंने सूदखोर महाजन की भूमिका अभिनीत की, यहां तक कि 1940 में बनी मेहबूब खान की फिल्म 'औरत' के वे एकमात्र कलाकार थे, जिसे 1957 में उसी कहानी पर बनाई गई 'मदर इंडिया' में लिया गया। अनेक कलाकारों को इस टाइप कास्ट व्यवस्था ने आर्थिक रूप से लंबे समय तक सक्षम रखा। सुंदर ने नौकर की भूमिका ही की और नाना पलसीकर हमेशा गरीब आश्रित व्यक्ति रहे तथा जब उन्हें 'प्रेम पर्बत' में अमीर आदमी की भूमिका दी तो दर्शक ने फिल्म ही अस्वीकार कर दी। यह लोकप्रिय छवियां फिल्मकार की सहायता इस मायने में करती हैं कि पात्र को स्थापित करने के लिए उन्हें अतिरिक्त दृश्य नहीं बनाना पड़ते, क्योंकि दर्शक उनके परदे पर आते ही जान जाता है कि यह इंस्पेक्टर है, नौकर है या दलाल है। सिनेमा दर्शक को यकीन दिलाने की कला है और टाइप कास्टिंग इसमें मदद करती है। नायकों को लोकप्रिय बने रहने के लिए अपनी सफल छवि के दायरे में नए प्रयोग करते रहना होता है और सामंजस्य बनाना होता है कि पुराना अति परिचित और नया एकदम अजनबी न लगे, गोयाकि उसी शराब को नई बोतल और लेबल में बेचा जाता है। व्यवसाय में भी यही किया जाता है। कदाचित भारत के सबसे पुराने साबुन ब्रांड लक्स और लाइफबॉय हैं तथा किंचित परिवर्तन के साथ वे इतनी लंबी पारी खेल पाए और आज भी लोकप्रिय हैं। कोई पचास-साठ वर्ष पूर्व लक्स को शहरी और लाइफबॉय को ग्रामीण साबुन समझा जाता था, परंतु महानगरों में ग्रामीण क्षेत्रों और गांव में कुछ शहरी इलाकों के बस जाने के कारण इनकी लोकप्रियता सभी जगह है।

हमारे महानगर पश्चिम की तरह के महानगर नहीं होते, मैनहटन में अटलांटा नहीं मिलेगा, परंतु मुंबई में बिहार और काशगंज मिल जाते हैं। भारत का समाजवादी नेता घोर धनाढ्य हो सकता है, परंतु धनाढ्य व्यक्ति समाजवादी नहीं हो सकता। कांग्रेस में भाजपाई और बीजेपी में आपको कांग्रेसी मिल सकते हैं, क्योंकि राजनीतिक आदर्श तथा सिद्धांत किसी भी दल का आधार नहीं हैं। नेता-अभिनेता के भी ब्रान्ड होते हैं और लेबल में कुछ नवीनीकरण किया जाता है। कुछ विलक्षण कलाकार लोकप्रिय छवियों में कैद नहीं होते, मसलन संजीव कुमार ने जया बच्चन के साथ विविध रिश्ते निभाए हैं। 'शोले' में वे श्वसुर रहे तो गुलजार की 'परिचय' में जया उनकी बेटी बनीं। यही नहीं, फिल्म 'कोशिश' में वे पति-पत्नी बने। इसी तरह फिल्मकार भी अपने ब्रान्ड की रक्षा करते हैं। रोहित शेट्टी की फिल्म कभी अनुराग बसु की फिल्म की तरह नहीं हो सकती। महेश भट्ट भी एक ब्रान्ड हैं, परंतु वे सदैव ऐसे नहीं थे। उन्होंने 'सारांश', 'अर्थ' और 'नाम' जैसी विविध फिल्में रची हैं। राज खोसला ने सबसे अधिक विविधता रची है। पहाड़ नहीं बदलते, नदियां प्रवाहित रहती हैं। जीवन में पहाड़ की स्थिरता के साथ नदी जैसा प्रवाह भी आवश्यक है।