टाट के परदों और लिहाफों के पार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 21 फरवरी 2013
आज महिला समानता-स्वतंत्रता और समाज की असहिष्णुता सुर्खियों में है। फिल्म, किताब और अन्य माध्यमों को प्रतिबंधित किए जाने की खबरें रोज आ रही हैं। सलमान रश्दी को रोकने की चर्चा किताब से अधिक हो रही है। यह सब वर्तमान की ही विसंगतियां और विदू्रप नहीं है। यह सिलसिला बहुत पुराना है। इस्मत चुगताई का जन्म १९१५ में हुआ और वे सुपुर्दे खाक की गईं १९९१ में। उन्होंने बीसवीं सदी के प्रारंभिक चरण में ही समानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सघन संघर्ष किया। उनकी 'लिहाफ' १९४२ में लिखी गई थी और १९४४ में लाहौर में इस महान कथा पर अश्लीलता के आरोप का मुकदमा चला। उन पर हर ओर से दबाव बनाया गया कि वे क्षमा मांगकर बात को समाप्त करें। उन्होंने क्षमा मांगने के आसान रास्ते को नहीं चुना और मुकदमा लड़ा। हर बार अदालत में जाते समय उन पर अभद्र फब्तियां कसी जाती थीं, परंतु उन्होंने साहस और यकीन के साथ मुकदमा जीता। फिल्मों तक अपनी रुचियों को सीमित रखने वालों को लेख के प्रारंभ में ही बता देना ठीक होगा कि भारत के विभाजन की त्रासदी पर रची मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत एमएस सथ्यु की फिल्म 'गरम हवा' इस्मत चुगताई ने लिखी थी और श्रेष्ठ कथा के लिए उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था।
इस्मत चुगताई का जन्म उत्तरप्रदेश के बदायूं में हुआ, परंतु प्रारंभिक शिक्षा जोधपुर में हुई। उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई लखनऊ में की। उनके भाई अजीम बेग चुगताई लेखन क्षेत्र में स्थापित थे और उन्हीं की प्रेरणा से इस्मत ने लेखन प्रारंभ किया। दोनों बहन-भाई ने 'दोजखी' नामक किताब लिखी। उस दौर में सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करना एक महिला के लिए कितना कठिन रहा होगा, इसकी कल्पना आज की जा सकती है, जब कुछ साहसी रचनाओं के लिए लेखिकाओं को गालियां खानी पड़ती हैं। महिलाओं को लेखन क्षेत्र में आने के लिए आधुनिक पश्चिम में भी बहुत कुछ सहना पड़ा। इंग्लैंड की लेखिकाओं को चोरी-छिपे कागज खरीदना पड़ता था और परिवार के लोगों से नजर बचाकर रहना पड़ता था। पूर्व हो या पश्चिम यह स्थापित सच है कि लड़की को किसी भी अवस्था में अपना निजी कमरा नहीं मिलता। बचपन से जवानी तक मां के साथ या बहन-भाई के साथ कमरा बांटना पड़ता है और शादी के बाद पति का कमरा ही उसका संसार होता है। अत: सोचने और लिखने के लिए महिला को अपना कमरा कभी नहीं मिलता। उसका समय अपना समय नहीं होता, कोई स्थान निजी नहीं होता। लिखने जैसी चीज सार्वजनिक स्थान पर कैसे की जा सकती है। अगर महिला का लेखन स्वीकार भी किया जाता है तो उससे उम्मीद की जाती है कि वह पारंपरिक मूल्यों की गरिमा बढ़ाने वाली कथाएं लिखे, परंतु समाज के आवरणों को हटाने वाला ईमानदार लेखन पुरुष समाज में हड़कंप मचा देता है। यौन संबंधों या उससे जुड़े सपनों और भय की अभिव्यक्ति तो पुरुषों तक के लिए प्रतिबंधित है, फिर औरतों द्वारा लिखना कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। इस विषय को दबाने के कारण ही इस पर कुछ गुप्त किताबें लिखी गई हैं, जो अत्यंत भ्रामक और नुकसानदेह हैं, परंतु विश्वसनीय सामग्री के बहाव पर भांति-भांति के बांध होने के कारण थमे हुए जल में सड़ांध का पनपना तो अवश्यंभावी था। बहता पानी ही साफ रहता है। यही सिनेमा के बारे में हुआ, उसकी किताबें उपलब्ध नहीं होने के कारण गॉसिप पत्रकारिता का बाजार पनपा। यह सोचकर ही कंपकंपी होती है कि इस्मत चुगताई ने बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में तथाकथित भद्रता के सारे आवरण हटा दिए, सारे लिहाफ ही हटा दिए। उनकी लेखनी ने जख्मों की शल्य चिकित्सा की और सारे मवाद को बहने दिया।
पांचवें दशक से ही वे फिल्मों से भी जुड़ीं और उन्होंने कुछ फिल्मों के संवाद लिखे। श्याम बेनेगल की फिल्म 'जुनून' के लिए लिखे उनके संवाद खूब सराहे गए। उन्होंने नूतन अभिनीत 'सोने की चिडिय़ा' न केवल लिखी, वरन् उसका निर्माण भी किया। इसमें साहिर साहब के गीत खूब लोकप्रिय हुए। दरअसल, इस फिल्म के द्वारा ही हम कुछ कामयाब महिला सितारों के दर्द को समझ सकते हैं। उस दौर में महिला सितारों का शोषण पिता ने किया और विवाह के बाद पति ने किया। 'सोने की चिडिय़ा' नामक फिल्मी अफसाने में मीना कुमारी, मधुबाला, नरगिस व नूतन के दर्द और यथार्थ को समझा जा सकता है। साहिर का गीत 'प्यार पर बस तो नहीं मेरा, अब तू ही बता तुझे प्यार करूं या ना करूं , मेरे ख्वाबों को सजाने वाली तू बता दे कि तेरे ख्वाबों में मेरा बसर है कि नहीं, पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है कि नहीं...।' इस्मत चुगताई के पति शाहिद लतीफ फिल्म निर्देश थे। स्वयं उन्होंने १९६८ में 'जवाब आएगा' नामक फिल्म निर्देशित की थी।
उस दौर के तमाम प्रगतिशील साहित्यकारों में इस्मत के लिए इतना सम्मान था कि वे उन्हें 'आपा इस्मत' कहकर संबोधित करते थे। उनके दरबार में सबका सम्मान था। यह कितनी अजीब बात है कि उसी दौर में सआदत हुसैन मंटो की साहसी कहानियों पर भी प्रतिबंध लगा और मुकदमेबाजी उन्हें झेलनी पड़ी। रशीद जहां सज्जाद जहीर उनके करीबी थे। क्या हम सआदत हुसैन मंटो का नारी स्वरूप इस्मत को या इस्मत का पुरुष स्वरूप मंटो को मान सकते हैं, क्योंकि दोनों की बेबाक विचार-प्रणाली एक जैसी ही थी।