टाफियाँ / राजेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रामदीन नाई ने कुर्ते की ज़ेब से बड़े ठाठ से टाफि़याँ निकालीं, पर उसका पाँच वर्षीय छोटू उन्हें लेने के लिए नहीं दौड़ा। इससे पहले वह जब भी कभी टाफियाँ देखता, सारा खेलकूद छोड उन्हें लेने दौड़ पड़ता था। उसने टाफियाँ दीवार में बने आले में रख दीं और किसी काम से बाहर निकल गया।

कोई घंटे भर बाद जब वह लौटा, तो देखा कि टाफियाँ ज्यों-की-त्यों रखी हुई हैं। पत्नी से उसने छोटू की तबीयत के बारे में पूछा। पता चला कि अभी तक तो सब ठीक-ठाक था, बल्कि दोनों भाई ख़ूब बातें कर रहे थे। ...शायद टाफियों के बारे में कुछ बात कर रहे थे। ...देर तक दिमाग़ी कसरत करने के बाद वह इस नतीजे़ पर पहुँचा कि संभव है कि बड़े बेटे ने छोटू को बताया हो कि ये टाफि़याँ प्रधान के शव पर लुटायी हुई टाफि़याँ हैं और कई तो शव पर से उठायी हुई भी हैं। ...उसने यह भी बताया होगा कि जि़न्दगी भर जिस प्रधान ने हमें टाफ़ियाँ खाने को दी नहीं, अब मरकर अपने शव पर न्यौछावर की हुई टाफि़याँ खिलवा रहा है। ...मरकर भी सामन्ती दिखा रहा है ससुरा! '

रात को खा-पीकर जब रामदीन बिस्तर पर लेटा, तो उसने तय किया कि वह आज से किसी शव पर लुटायी गयी टाफ़ियों को हाथ भी न लगायेगा!