टिंकू बन गया टीचरजी / बलराम अग्रवाल
पात्र-
टिंकू—उम्र आठ-दस साल
मम्मी
पापा
मम्मी-पापा डाइनिंग टेबिल के सहारे कुर्सियों पर बैठे हैं। पापा के हाथ में चाय का कप है। मम्मी थाली में रखे चावलों से कंकड़ बीन रही है।
पापा—टिंकू नजर नहीं आ रहा?
मम्मी—अन्दर के कमरे में बैठकर होमवर्क पूरा कर रहा है अपना।
पापा—पढ़ाई तो ठीक-ठाक चल रही है न इसकी?
मम्मी—बिल्कुल।
पापा—और शैतानियाँ?
मम्मी (हँसते हुए)—उनका तो कोई जवाब ही नहीं है।
पापा—मारपीट तो नहीं करता अपने साथ वाले बच्चों के साथ?
मम्मी—अरे नहीं।
पापा—तब?
मम्मी—आजकल टीचरजी बनने का भूत चढ़ा हुआ है सिर पर।
पापा—टीचरजी बनने का भूत?
मम्मी—अभी आता होगा होमवर्क पूरा करके। खुद ही देख लेना।
मम्मी के इस संवाद के साथ ही अपने कमरे से निकलकर टिंकू का डाइनिंग रूम में प्रवेश।
पापा—हाय टिंकू।
टिंकू (पापा की ओर देखते हुए)—शोर नहीं बच्चो। सीधे बैठो।
उसकी बात सुनकर मम्मी मुँह पर हाथ रखकर हँसती है। और फुसफुसाकर पापा से कहती है—
मम्मी—अब यह टिंकू नहीं है, टीचरजी हैं…और आप पापा या मैं मम्मी नहीं हूँ। इनकी क्लास के बच्चे हैं।
पापा—ओ...ह! अब समझा।
टिंकू—क्या खुसुर-फुसुर हो रही है दोनों में ? चुप बैठने को कहा है—सुनाई नहीं देता क्या?
पापा (अपने दोनों कान पकड़कर)—सॉरी टीचरजी।
टिंकू—ठीक है, ठीक है। आज हम आपको बादलों के बारे में पढ़ायेंगे।
मम्मी—जी टीचरजी।
टिंकू—सबसे पहले बतायेंगे कि बादल बनते कैसे हैं ? देखो—समुद्र, नदी, तालाब या जहाँ-जहाँ भी खुला पानी होता है, वह सूरज की गर्मी से वाष्प के छोटे-छोटे कणों के रूप में इकट्ठा होकर हवा में उड़ जाता है।
इस बीच पापा चाय का अपना कप मम्मी की ओर सरका देते हैं।
टिंकू—शरारत नहीं वैभव। ध्यान से सुनो।
पापा—सॉरी टीचरजी।
टिंकू—वाष्प के ये इकट्ठे कण ही दूर से हमें बादल के रूप में दिखाई देते हैं। सबसे पहले वाष्प के ये बादल पर्वतों की ओर जाते हैं और पहाड़ों से टकराते हैं। इस टकराहट से उनमें दो तरह का विद्युत आवेश पैदा हो जाता है। कुछ में ऋण आवेश पैदा होता है तो कुछ में धन आवेश।
इस बीच मम्मी चावल की अपनी थाली को लेकर उठ खड़ी होती है।
टिंकू—आप किधर चलीं माधुरीजी?
मम्मी—जी यह थाली...
टिंकू—पढ़ाई में तो आपका दिमाग कभी लगता ही नहीं है। जब देखो, बीच-बीच में उठ खड़ी होती हो। बैठ जाओ और जो कुछ भी बता रहा हूँ उसे ध्यान से सुनो।
मम्मी चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठ जाती है।
टिंकू—आप लोग जो बादलों में बिजली को कड़कते देखते हैं, वह धन आवेश और ऋण आवेश वाले दो बादलों के आपस में टकराने से कड़कती है। जानते हो, इसकी शक्ति घरों और फैक्ट्रियों में काम आने वाली आम बिजली की तुलना में कई गुना अधिक होती है।
पापा—एक बात पूछूँ टीचरजी?
टिंकू—ओहो, आज तो हमेशा घुग्घू की तरह क्लास में ऊँघते रहने वाले वैभव जी भी सवाल पूछ रहे हैं !! पूछो, पूछो बेटा।
पापा—सर, बादल टकराते क्यों हैं?
टिंकू—लो सुन लो इनकी बात। अरे भाई, किसी भीड़ भरी जगह में जाने पर तुम नहीं टकराते हो किसी से?
पापा—हम तो नहीं टकराते। हाँ, दूसरे लोग हमसे टकराते हैं।
टिंकू—तुम किसी से टकराओ या दूसरा तुमसे टकराए, बात तो एक ही है न।
पापा—जी।
टिंकू—एक बात और सुन लो। ऋण आवेश और धन आवेश वाले दो बादल जब तक आपस में टकराते नहीं हैं, तब तक वे बरसने के लायक बनते भी नहीं हैं।
मम्मी—पहाड़ों से टकराकर वे मैदानी इलाकों में कैसे आ जाते हैं?
टिंकू—बहुत अच्छा सवाल किया माधुरी ने। देखो, हवा हमेशा अधिक दबाव से कम दबाव की ओर बहती है। रुई की तरह हल्के-फुल्के तो होते ही हैं। बस, जिधर को हवा बहती है उसके साथ-साथ उधर को ही ये भी बह जाते हैं।
पापा—सर, अक्सर सुनते हैं कि अमुक इलाके में बारिश हुई ही नहीं। उसका कारण क्या है?
टिंकू—देखो, धरती पर उगे पेड़ बादलों को अपनी ओर खींच लाने वाले चुम्बक का काम करते हैं। इसलिए घने वनों और जंगलों में खूब बारिश होती है। जहाँ-जहाँ से आदमी ने जंगलों और वनों को काटकर सीमेंट के जंगल बना दिये हैं, वहाँ-वहाँ बारिश न होने का संकट पैदा होना स्वाभाविक ही है।
मम्मी—यानी कि हमें अपने आसपास खूब पेड़ उगाये रखने चाहिएँ, ताकि मौसम आने पर बादल बिना बरसे ही न चले जाएँ।
टिंकू—बिल्कुल ठीक। आज से कसम खाइये कि एक बच्चा कम-से-कम एक पेड़ अपने आसपास की खाली जगह में जरूर उगायेगा।
पापा—ताकि आगे आने वाली पीढ़ियों को सूखे की समस्या से न जूझना पड़े।
टिंकू—वैरी स्मार्ट ब्वॉय। अच्छा, विज्ञान की क्लास अब खत्म हुई।
तभी नेपथ्य में घंटी की आवाज़ सुनाइ देती है।
टिंकू—लो, इसके साथ ही स्कूल की भी छुट्टी हो गई। सब शान्ति से अपने-अपने घर जाओ। जय हिन्द।
मम्मी-पापा दोनों की तेजी से अपनी जगह से उठकर टिंकू को गोद में उठाकर चूम लेते हैं और जोर से बोलते हैं—
मम्मी-पापा (एक साथ)—जय हिन्द।