टिकोरा / विद्यानिवास मिश्र
बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं। एक दिन था कि मेरी अमराई बौरा उठी थी। उसमें इतने बौर आ गए थे कि किसलय और पल्लव राग-लालसा की ललक से एकदम निलीन हो चुके थे। वे बौर धीरे-धीरे लसिया-लसियाकर धूलि में मिल गए उनकी मादक महक से आती बयार में खुमारी आने लगी, बौर जिन बौरों पर पुरुवा की कृपा नहीं हुई थी। उनकी मुरझाइयों में सरसों जैसे टिकोरे आने लगे। आज तो मंजरियों का सुरभित कषाय लुभावनी अम्लता में परिणत होने लगा है। इस अम्लता के लिए किसोर मन का लोभ बहुत महँगा पड़ रहा है, गौध के गौध इस बचकाने लोभ के शिकार हो रहे हैं। अभी तो इनमें सच्ची खटाई भी नहीं है, पर मेष-संक्रांति (सतुआनि) के दिन नव वर्ष के मंगल के उछाह में टिकोरे के आस्वादन की परंपरा चलाने वालों की जय हो, टिकोरों के घर तो त्राहि-त्राहि मची हुई है। सोचता हूँ। यह समय ही कच्चे टिकोरों के और फलोन्मुख प्रतिभाओं के करुण बलिदान का है। नाती-पोतों के लिए दसहरी, ठाकुरभोग, गौरजीत और सफेदा के बाग लगाने वाली पुरानी पीढ़ी ज्ञान से इसका समाधान करती है कि टिकोरों भरी डाल यदि झहराई न जाए और टिकोरे तोड़ न लिए जाएँ तो पेड़ पर ही आ बनती हैं, आँधी आने पर फलों से लदा पेड़ पहले ढह जाता है। इन्हीं लोगों के संकेत पर कलमी आमों की समूची मोजर की मोजर आरंभ के दो-तीन वर्षों तक हाथ से मींज दी जाती है, क्योंकि इनका अनुभव सिद्ध वचन है कि जल्दी फल लगने से पेड़ कमजोर हो जाता है।
तो बस पेड़ बना रहे, ठूँठ होकर भी बना रहे, कोई हर्ज नहीं, नीचे की डालें सत्यनारायण की कथा में हवन के उपयोग के लिए छिनगा डाली जाएँ, पेड़ सरहँस सा ऊपर ताकता चला जाए उसके छतनारपन के सौंदर्य से भी क्या लेना-देना? हमें तो बाग में अभी गिनती बनाने के लिए पेड़ चाहिए। हम शाश्वत उपयोग में विश्वास रखते हैं, हम टिकाऊपन को ही उपयोगिता की सबसे बड़ी परिभाषा मानते है और उपयोगिता को ही साहित्य का प्राण। बौर और टिकोरे होंगे, बौर बूटी में कुछ रंग लाने में कभी-कभी काम आ जाता हे, वही उसका शास्त्रीय प्रयोग है और जब बूटी का रंग कुछ जरूरत से ज्यादा गहरा हो चलता है, तो उसे उतारने के लिए टिकोरों की भी जरूरत पड़ जाती होगी। इससे अधिक इनका कोई महत्व नहीं है, वैसे बुर्जुआ और हृासोन्मुख साहित्य इनके राग चाहे जितना अलापा करें, उससे कुछ होता-जाता नहीं। महत्व रुख का है। रुख जितना ही खडा़ और सीधा, जितना ही कड़ा और खुरदुरा जितना ही विशाख और अर्पण, जितना ही बाँझ और बीहड़ होगा, उतनी ही मजबूती उसमें आती जाएगी।
काँची अमिया न तुरिह S बलमु काँची अमिया
मोरे टिकोरवा न रसवा पगल हो,
हियरा में गँठुली न अबले जगल हो,
मोरे सुगापंखी सरिया के कुंसुमी मजिठिया में,
राँची धनिया न बोरिह s बलमु राँची
काँची अमिया न तुरिह S बलमु काँची अमिया
मोरे अमिअरिया में मोजरा न अइलें हो,
चोरिया आ चोरिया जो लगलें टिकोरवा
डरियन डरियन पतवा लल s इलें हो,
जाँची बतिया न छुइह S बलमु जाँची बतिया
काँची अमिया न तुरिह S बलमु काँची अमिया
पुरुवा में लसिया के गिरलें टिकोरवा,
बाँव जो गइलें ई दखिना पवनवा,
मोजरा के गितिया त कोइली सुनवली,
साँची बतियो न पुछिह S बलमु साँची बितिया
काँची अमिया न तुरिह S बलमु काँची अमिया
मैं इस कच्ची अमिया को सँजो के रखना चाहता हूँ, क्योंकि रसाल की परिणति की इस दशा में ही में उसकी सच्ची सहकारता मानता हूँ। बौर तो बयार की चीज है और पके हुए टपकुआ आम धरती की, पर बयार को आश्वासन और धरती को आशा दोनों एक साथ देनेवाली कच्ची अमिया तो दोनों की आराध्य है। जानता हूँ, मुँहजली कोयल इस पर नहीं कूकती, अमृतद्रव के पारखी शुक इसमें अपनी ठोर लगाने नहीं आते, इस पर या तो शैतान बालकों की सन-सन करती हुई सधी ढेलेबाजी आती है या पूरबी लोक-साहित्य की ममता भरी सजल दृष्टि। मनचली ढेलेबाजी इसे क्षत-विक्षत करती रहती है। उस साहित्य में नई तरुणाई का तो तादात्म्य इनके साथ अभिव्यंजित है, वह उसकी अपनी निराली निधि है।
वैसे कच्चे आमों की भी जेली और मुरब्बा बनाने की विधियाँ सयानी पछुआई औरतों ने निकाल ली हैं और इसके नयनाभिराम रूपांतर शीशे के अमृतबानों में सजे हुए बड़े घरों में देखने को मिल भी सकते हैं, पर मैं गँवार आदमी अपनी अमियारी की डाली पर ही टिकोरों की गौध झूलते देखना चाहता हूँ। उसके सभ्य उपयोग एवं प्रयोग मेरे गले के नीचे नहीं उतर पाते। हिंदी के नए युग में भी ऐसी सयानी प्रतिभाओं की कमी नहीं है, जो आम की कैरियों के सदुपयोग के लिए पहला, दूसरा इनाम जीतने की होड़ लगाए हुए हैं। उनकी मैं वंदना करता हूँ।
क्योंकि वे वंदनीय हैं। उन्हें नए नाम देने आते हैं, उन्हें कहीं का ईंट और कहीं का रोड़ा लेकर भानमती का कुनबा जोड़ना आता है, परस्पर प्रेम-प्रशंसा और 'हाथमिलौवरि' के बल पर उन्हें समस्त जगत को नगण्य समझना आता है, (यत्र तार्किकास्तत्र:, शाब्दिका:, यत्र नोभयं तत्रचोभयं, यत्र चोभयं तत्र नोभयम्) जहाँ नौयायिक बैठे हों, वहाँ वैयाकरण, जहाँ वैयाकरण वहाँ नैयायिक वहाँ नैयायिक, जहाँ दोनों न हों, वहाँ दोनों और जहाँ दोनों हो वहाँ कुछ भी नहीं बनना उन्हें आता है, काल्डवेल, सार्त्र और कर्कगार्ड का उगिलदान बनना उन्हें आता है और सबसे अधिक आता है उन्हें नए बन-पखेरुओं को लासे पर फँसाना और सजल तरल चमकीली मीनाक्षियों पर वंशी लगाना। उनके कमरों में नवीनतम कलाकृतियॉं मिलेंगी, उनकी फाइलों में नई शोषित तरुणाइयों की कसकती पत्रावलियाँ मिलेंगी और मिलेंगी बनपंछियों को सजीली पंखावलियाँ। आज जब जुगों बाद लिखने की मुझे सुधि आई है, तो हिंदी के नई खेवा के वे कर्णधार भी सुधि आए हैं, जो इस जुआघर के सभिक (दादा) बने बैठे हैं, नई बाजी जो कोई भी जीते, उसका श्रेय और मोटा हिस्सा उन्हें कृष्णार्पण न हो, तो नए खिलाडी़ को अर्धचंद्र मिल जाता है। और जो एक बार ठगा जाकर बाहर फरियाद करता है, उसकी और भी दुर्गति होती है, वह 'पलिहर' (रबी की तैयारी वाला खेत) का 'अकेलवा' बानर बन जाता है। ऐसी इन महापुरुषों की माया का पुण्य प्रताप है कि कल का शोषित आज शोषक रह कर ही जी सकता है और इसलिए साहित्य में बटलोईमारों की दिन-अनुदिन बढ़ती होती जा रही है। जिस बिचारे ने जतन से आँच सहकर बटलोई में रसोई पकाकर प्रेमपूर्वक परसा उसका कोई नामलेवा भी नहीं रहता और खा-पी बटलोई भी उठा ले जाने वालों की तूती बोलती रहती है।
सो, मैं लिखते-लिखते सोचता हूँ कि मुझ जैसे 'कानन-जोगू' को इन हवेलियों की छाँह न लगे, इसी मे मेरा हित है। मुझे टेक्स्ट बुक में जाने का सुयश और सौभाग्य न प्राप्त हो, मुझे अमचुर, सिरका, चटनी और अमावट बन कर दूसरों की थाली में परिषेवित होने का सुअवसर भी न प्राप्त हो, मुझे चिंता नहीं। मैं तो बस यही माँगता हूँ की खेती के प्रसार की आँधी में बची हुई बस्ती से दूर इस उजाड़ बगिया के इस अकेले आम को टिकोरा लगते समय दो तृप्ति और चाह भरी आँखे मिलती रहें, और तब मेरे लिए रैन भी विहान है और तपता हुआ जेठ या घहराता हुआ भादों या गलता हुआ माघ भी चैती बहार हैं, क्योंकि मंजरी तो केवल हिमवात में बसंती बयार की नई उष्णता की आशा है, पर टिकोरा बसंत की सफलता है। यह नए वर्ष का उदय है और मधुमास का चरम उत्कर्ष। इसमें नवलक्ष्मी की परिपूर्णता होने के साथ नूतनता का अभिनंदन है, पर इसलिए यह निहारने की वस्तु है, हथियाने की नहीं।
- बसंत 2009, प्रयाग