टीस / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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सरजू गाँव का सबसे मेहनती और कुशल कुम्हार था। मिट्टी के घड़े बनाना और बेचना ही उसका पेशा था। सुन्दर कलाकारी करना, घड़ों को सुन्दर आकार देना और फिर उन्हें बेच देना उसका पुश्तैनी काम था। वह घंटों बिना रुके मिट्टी छानता था, फिर सानता था और फिर चाक पर कई घड़े बनाता जाता था। सरजू को चाक पर घड़े बनाते समय गाने का बहुत शौक था। उसका कंठ बहुत मधुर था। चाक पर हाथ और गले में सुर, दोनों की जब संगत बैठती तो उसके घड़े बहुत ही सुन्दर बनते। यूं तो वह अपने इस काम से बहुत खुश था, लेकिन कहते हैं न इनसानी फ़ितरत ही ऊब जाने की होती है। सरजू को भी ऊब जाने का रोग था।

वह अपने इस घड़े बनाने के काम से अक्सर उकता जाता तो पास के खेतों में चला जाता और बागवानी करने लगता। उसके बड़े भाइयों ने वक़्त की नब्ज पहचान कर अपने-अपने हिस्सों की जमीनें ऊंचे दामों पर बेच दी थी। उन्होंने मोटा मुनाफा कमाया और शहर चले गए, लेकिन सरजू ने अपने लिए थोड़ी-सी ज़मीन बचाकर रखी थी। उसकी पत्नी हमेशा उसे इस ज़मीन के लिए ताना देती थी कि इसे बेचकर वह पक्का घर बनवा ले, लेकिन सरजू उस ज़मीन को बेचना नहीं चाहता था। वह ज़मीन का टुकड़ा उसे प्राणों से भी ज़्यादा प्यारा था। उसने उस ज़मीन पर बड़ी मेहनत से सुन्दर फूल वाले पौधे लगाये थे। जब भी मिट्टी के घड़े बनाकर उसका मन उचट जाता, वह खेत में अपने सुन्दर-सुन्दर पौधों को देखने चला आता।

वह हर बरस बड़ी तन्मयता से बीज बोता और फूलों के खिलने का इंतज़ार करता। इंतज़ार उसे बेहद पसंद था। अक्सर बरसात बहुत इंतज़ार के बाद आती, तब कहीं जाकर उसकी फूलों की क्यारियाँ महकतीं थी। वह जब अपने खेत को फूलों से भरा हुआ देखता तो ख़ुशी से पागल हो जाता। उसे फूलों को तोडऩा सख्त नापसंद था, वह उन्हें बस प्रेम से छूता और उनकी सुगंध से मदहोश होता। उसे फूलों का मुरझाना भी पसंद नहीं था, ठीक इसी तरह लोगों का बिछडऩा भी उसे बिलकुल नहीं भाता था। वह उन्हें बिछड़ते हुए नहीं देख सकता था, इसलिए अपनी जि़न्दगी में वह अपने प्रिय लोगों से चाहकर भी कभी नहीं मिला।

मौसम बदलने के साथ जब उसके खेत के फूल मुरझाने लगते तो वह गहरे दुख में डूब जाता। वह उन फूलों के मुरझाने से पहले ही भाग आता और फिर कई दिनों तक झोपड़ी से बाहर नहीं निकलता। ऐसे समय में वह ख़ुद को घड़े बनाने में व्यस्त कर देता या पास की बस्ती में जाकर लोगों से मिलता-जुलता, ख़ूब हंसी-ठट्ठा करता। अपने दुख को भुलाने की उसके पास यही दवा थी।

ये सिलसिला कई बरसों तक चलता रहा। एक दिन वह फूलों के खिलने-मुरझाने और लोगों के मिलने-बिछडऩे के खेल से भी उकता गया और उसने तय किया इस बरस हंसी, मुस्कान, प्रेम और ख़ुशी के बीज नहीं बोयेगा। उसे मुरझाने वाले पौधों से अब नफ़रत हो चली थी। अक्सर वह ईश्वर से शिकायत करता कि फूल खिलकर मुरझा क्यों जाते हैं और इसी तरह लोग मिलकर बिछड़ क्यों जाते हैं?

उसके मन में हमेशा कोई न कोई टीस (रह-रहकर उठने वाली हूक) पलती रहती थी। अपनी मन की इस टीस, इस कसक, इस दर्द को वह कैसे संभाले, वह समझ नहीं पाता था। उस दिन वह ख़ुद से ही बात कर रहा था।

"कब तक ये मुरझाने वाले फूलों की खेती करोगे सरजू?"

"कब तक यूं ही मिल-मिलकर लोगों से बिछड़ते रहोगे तुम?"

"हर मुरझाने वाला फूल और हर जाने वाला रिश्ता तुम्हारे मन में एक कसक, एक दर्द, एक टीस छोड़ जाता है, तुम्हारा मन टीसों के तारों से ही बुना गया है शायद।"

"आज से ये फूलों की खेती बंद।"

"फिर क्या करोगे? घड़े बनाओगे?"

"नहीं, आज से टीसों के बीज रोपे जायेंगे।"

"टीसों के बीज?"

"हाँ, टीस को बो दूंगा मैं धरती पर, ऐसे दर्द की फ़सल जो कभी नहीं मुरझाएगी।"

और उस दिन सरजू ने फूलों की खेती से उकताकर टीस के बीज बोये। उसने कई तरह की टीसें बोईं। अपने चारों तरफ़ उसने कंटीली टीस उगाई। यादों, वादों, कसमों, इच्छाओं के बीजों को काली भुरभुरी मिट्टी में गहरे दबा दिया और बादलों का इंतज़ार करने लगा।

रुत फिर बदली, आसमान में बादल मंडराए, लेकिन उसके खेत पर इस बरस कोई बादल नहीं आये (उसकी ख़ुशी पर हमेशा श्रापों का साया मंडराता था) न जाने बादलों का उससे क्या बैर था। इस बरस एक भी बादल उसके खेत में नहीं बरसा। उसके बीज यूं ही धरती के भीतर दुख से मरने लगे।

हारकर उसने अपने आंसुओं से उन टीसों को सींचना शुरू कर दिया, जल्दी ही उन बीजों से कोमल अंकुर फूटे और जल्दी ही वे कंटीली झाडिय़ों में तब्दील होने लगे। उन्हें संवारते हुए उसके हाथ रोज़ छलनी होते, उनसे लहू बहता, हाथों के साथ-साथ उसकी आत्मा भी छलनी होती जाती। वह अब रोज़ एक नयी टीस बोता, उसे पालता-पोसता और उन टीसों के बीच सो जाता।

अब वह फूलों की खेती नहीं करता, सुगंधों का व्यापार नहीं करता। अब वह सिर्फ़ अवसाद की ज़मीन पर कांटों का कारोबार करता है। वह खुश था बहुत कि कांटे कभी मुरझाते नहीं, उनके रंग फीके नहीं पड़ते, उनकी सुगंध नहीं उड़ती, वे हमेशा उसका साथ निभाते, उगते हुए भी और चुभते हुए भी। उसकी टीस टूटकर तलवों में चुभती और सालों सुरक्षित रहती।

देखो-देखो आज फिर उसने एक वादा तोड़ा, एक प्यारा रिश्ता खो दिया, कुछ सच्चे अहसास कुचल डाले एक प्रेम की कोंपल नोच डाली और ठीक उसी जगह एक टीस बो दी। अब फिर वह इंतज़ार में बैठा है टीस के फलने के, फूलने के... । कभी-कभी वह इस इंतज़ार से उकताकर फिर से घड़े बनाने लगता। उसके बनाये हर घड़े पर उसकी टीस उभरती, वह उन टीसों से ख़ूब बातें करता, गीत गाता। अब उसके मन के खेत में (मन समझते हैं न आप?) अनगिनत टीसें फलने-फूलने लगी हैं और न जाने कैसे उन टीसों के प्रतिबिम्ब उसके बनाये घड़ों पर उभर आये हैं। उसके बनाये घड़ों के बाज़ार में बहुत ऊंचे दाम लगाये जायेंगे।