टुकड़ा टुकड़ा यादें / महावीर उत्तरांचली
वह अब भरी दुनिया में अकेली थी। ऐसा नहीं कि उसका कोई सगे वाला जीवित न था। उसके दो बेटे थे और एक बेटी. बड़ा बेटा बहू द्वारा कानाफूसी करने पर कबका उनसे अलग हो चुका था और छोटा बेटा ग़लत संगतों में पड़कर तबाह-ओ-बरबाद। उसका जीना, न जीना एक समान था। कब घर आता और कब निकल जाता? इसका पता शायद उसे भी न रहता! कई बार नशे की लत के चलते कई-कई दिनों तक वह घर से दूर रहता। बेटी तो फिर पराया धन थी और पिछले चार-पांच सालों में वह कभी-कभार ही मायके आई थी। पहले-पहल तो वह खूब आई मगर बाद में वर्ष बीतने पर माँ के प्रति मिलने का उसका उत्साह भी कम हो गया।
घर की दरो-दीवारें न जाने कब से रंग-रोगन की मांग कर रही थीं। कई जगह पपड़ियाँ जम गई थी तो कई जगहों से पलस्तर भी झड़ गया था और ईंटें बाहर को झाँक रही थी। भद्दी दीवारें मॉर्डन आर्ट का बेहद ख़ूबसूरत नमूना लग रही थी। अतः देखने वाला सहजता से अनुमान लगा सकता था कि इस घर में रहने वालों की आर्थिक स्थिति कितनी जर्जर होगी। घर सिलाप की अजीब-सी दुर्गन्ध से भरा हुआ जैसे किसी ऐतिहासिक इमारत के खण्डहर में विचरते वक़्त महसूस होती है। फर्नीचर के नाम पर टूटी-फूटी दो चारपाइयाँ। जिनके निवार जगह-जगह टूटे हुए तथा नाड़े व अन्य रस्सी से बड़े ही भद्दे ढंग से बांधकर गांठे हुए थे। लकड़ी की दो पुरानी कुर्सियाँ व एक मेज़। जैसी की पुलिस स्टेशनों में नज़र आती है। मेज़ के तीन पाए सुरक्षित थे। चौथे पाए के स्थान पर एक टीन का पीपा था। जिसके ऊपर सही से तालमेल बिठाने के लिए एक-दो किलो का डालडे का डिब्बा और पत्थर सुव्यवस्थित ढंग से रखा गया था। इसके अलावा एक लोहे की आलमारी थी जो जगह-जगह से जंग खाई हुए थी। फर्नीचर और घर की इस दुर्दशा के लिए शायद उसका छोटा लड़का ही काफी हद तक ज़िम्मेदार था। घर का सामान धीरे-धीरे उसके नशे की भेंट चढ़ गया था। केवल खाने-पीने के कुछ टूटे-फूटे बर्तनों या रोज़मर्रा के इस्तेमाल की कुछ वस्तुओं को छोड़कर। इसके अलावा आलमारी के भीतर वह बुढ़िया जितना रख पाई थी। बचा रह गया था। जब कभी तन्हाई में कमरे का दरवाज़ा बंद करके वह आलमारी के कपाट खोलती थी तो यादें घेर लेती थी आलमारी खोलते वक़्त वह कमरे का दरवाज़ा शायद इसलिए ही बंद करती थी कि कहीं कल्लन की नज़र इस सामान पर पड़ गई तो यह सामान भी ग़ायब न हो जाएँ। आलमारी को छूते ही पुरानी यादें तैर गईं।
"सुमित्रा, कुछ पैसे जमा किये हो तो दे दो भई. गुरुबख़्श विलायत जा रहा है। उसका सब सामान बिक चुका है बस एक आलमारी ही बिकने को बाक़ी है।" यकायक उसके कानों में पति का स्वर गूंजा।
"कितने दे दूँ?"
"रुपये सौ एक दे दो... पचास मेरे पास हैं।"
"डेढ़ सौ रूपये में महंगी नहीं है क्या?"
"पूरे सात सौ पैंसठ रूपये में उसने शोरूम से दो साल पहले आलमारी ख़रीदी थी। हमे तो कौड़ियों के दाम मिल रही है। वह तो कह रहा था फ्री में ले जाओ मगर मुझे अच्छा नहीं लगा। आख़िर पैसा तो उसका भी लगा है।"
आज लगभग पच्चीस वर्ष हो गए हैं आलमारी को ख़रीदे। कितना कुछ बदल गया है इन पच्चीस वर्षों में। अब न तो उसके पति ही ज़िंदा हैं और न ही उनका वह दोस्त गुरुबख़्श। जिससे उन्होंने आलमारी ख़रीदी थी। बेचारा सारा सामान बेचकर जिस विमान से विलायत जा रहा था। किसी तकनीकी ख़राबी के चलते वह जहाज़ आकाश में ही फट गया। परिणामस्वरुप उसके कई टुकड़े अरब सागर में जा गिरे थे। सुमित्रा ने मन में विचारते हुए एक ठण्डी आह भरी। यकायक पागलों की तरह दरवाज़ा पीटने का स्वर वातावरण में गूंजा। फटाफट आलमारी बंद कर उसमे ताला करने के बाद सुमित्रा ने चाबी, साड़ी के पल्लू से बांध ली।
"क्या रे कल्लन, दरवाज़ा तोड़ ही डालेगा क्या?" दरवाज़ा खोलते ही सुमित्रा उस पर बरस पड़ी, "नाशपीटे हज़ार दफ़ा कहा है इस तरह दरवाज़ा न पीटा कर।"
"बुढ़िया छाती पर रखके ले जाएगी सब।" कल्लन नशे में बिफरते हुए बोला, "हमसे छिपाके आलमारी खोली जाती है रोज़! कितना धन रखा है इस लोहे के पिटारे में? कल को आग तो हम ही लगाएंगे तेरी लाश पर।"
"क्या आग लगाएगा रे कल्लन बेटा? जब हम मरेंगे तो तू कहीं नशे में धुत पड़ा होगा। ख़बर भी न होगी तुझे। पड़े-पड़े सड़ जाएगी माँ की लाश।"
कल्लन सुने के अनसुना करके नशे की हालत में लड़खड़ाता हुआ अपने कक्ष में चला गया तो सुमित्रा को कल्लन के भविष्य की चिंता सताने लगी।
'क्या होगा इस लड़के का? कल को कैसे खायेगा? हमेशा से ऐसा तो न था ये। ग़लती हमारी ही है, जो इसे बिगड़ जाने दिया।' अपने आप से ही बतियाते हुए सुमित्रा ने अतीत की वे कड़ियाँ जोड़ी, जो कल्लन को इन वर्तमान परिस्थितियों में पहुँचाने के लिए ख़तावार थीं।
"सुमित्रा, मैंने कितनी बार कहा है, तुम लड़के का पक्ष न लिया करो। लड़का हाथ से निकलता जा रहा है!" कानों में उनका स्वर गूंजा।
"क्यों क्या हुआ जी?"
"आज स्कूल गया तो पता लगा कल्लन महाराज कई दिनों से स्कूल नहीं जा रहे हैं। अपने आवारा दोस्तों के साथ सारा दिन मटरगस्ती किया करते हैं। सिनेमा देखते हैं। पिछले महीने से फ़ीस भी नहीं भरी है।"
"देखो जी बच्चा है प्यार से समझाओगे तो समझ जायेगा।"
"आज हमको मत रोकना सुमित्रा। आज हम कल्लन के प्राण निकाल कर ही छोड़ेंगे।"
उस रोज़ कल्लन को इतना पीटा गया। यदि सुमित्रा बीच में न पड़ती तो शायद कल्लन के प्राण ही चले जाते।
"अब मार ही डालियेगा क्या?" कल्लन को अपने पल्लू में छिपाते हुए सुमित्रा बोली।
"ज़रूरत पड़ी तो जान से भी मार डालेंगे।" उनके स्वर में आक्रोश था।
"मार ही डालना है तो पैदा क्यों किया था?" सुमित्रा ने पति के क्रोध को कुछ शांत करने की गरज से कहा।
"ऐसी औलाद से तो हम बेऔलाद अच्छे।" डण्डा ज़मीन पर पटक कर वे दूसरे कक्ष में जाकर रोने लगे। उस रोज़ उन्होंने भोजन भी नहीं छुआ।
उस रोज़ दर्द से रातभर सिसकता रहा था कल्लन। रातभर समझती रही थी सुमित्रा, "वैसे दिल के बुरे नहीं हैं तुम्हारे बाबुजी. काहे गुस्सा दिलाते हो उन्हें? क्यों नहीं कहना मानकर अपने बड़े भाई की तरह सही ढंग से पढाई करते।" आदि-आदि।
मगर मार खाने के कुछ दिन बाद फिर वही हाल। बाप ने भी हार मानकर पल्ला झाड़ लिया। पिटाई ने उसे ढीठ बना दिया और आवारा दोस्तों ने नशेड़ी।
आज पैंतीस-छत्तीस की उम्र में ही कल्लन साठ साल का बूढ़ा दिखाई देने लगा था। बिखरे हुए लंबे बाल। जिनमे आधे से ज़ियादा सफ़ेद थे। बढ़ी हुई दाढ़ी। नशे में लाल धंसी हुई आँखें। अस्त-व्यस्त बदबूदार मैले और फटे हुए कपडे। जिन्हें सुमित्रा ही सीती और धोती थी। लाख कहने और समझने पर ही वह कपडे बदलता था।
"अम्मा जी." कहकर वह कक्ष में दाख़िल हुआ।
"कौन राघव?" सुमित्रा ने देखा, "आज बूढी माई की याद कैसे आई भइया?"
"वो अम्मा जी." शेष शब्द संकोचवश राघव के मुख में ही रह गये थे।
"कहो-कहो!"
"हमने नया मकान ले लिया है। कल हवन है।"
"यहाँ ज़हर खाने तक को पैसे न हैं और तुमने नया मकान भी ले लिया।" हृदय में घुली कडुवाहट को होंठों पर लाते हुए सुमित्रा बोली।
"देखो अम्माजी हम फालतू बहस करने नहीं आये हैं। सीमा ने कहा था कि हवन के मौक़े पर बड़े बुजुर्गों का होना शुभ होता है। उनका आशीर्वाद ज़रूरी है। सो हम चले आये।"
"अब बड़े-बजुर्गों की याद आ रही है। उस वक्त कहाँ मर गई थी यह बहुरिया? जब कानाफूसी करके तुमको इस घर से दूर ले गई थी रे राघव!" सुमित्रा के सब्र का पैमाना छलक पड़ा।
"मुझे लगता है मैंने यहाँ आकर ग़लती की?" राघव वापस चल दिया।
"हाँ-हाँ हमसे मिलना भी अब ग़लती हो गया है। हमने ग़लतियाँ ही तो की हैं आज तक।" सुमित्रा राघव की तरफ़ पीठ करके बड़बड़ाने लगी, "पहली ग़लती तुझे जन्म दे के की। दूसरी ग़लती तुझे अपना पेट काटकर पढा-लिखा के की। तीसरी ग़लती तेरी शादी करके की। चौथी ग़लती..." वह वापिस राघव की ओर पलटी तो देखा कक्ष में कोई नहीं था। राघव कबका जा चुका था। कक्ष में शेष रह गया था, शून्य का कवच। जो पुनः उसके मस्तिष्क को जकड़ने लगा था।
ये वही राघव है जो छह-सात बरस पहले घर छोड़ के चला गया था। आख़िरी बार तब आया था। जब दूसरे बच्चे का नामकरण संस्कार था। आज से लगभग पांच बरस पहले। उस रोज़ भी वह न्यौता देने ही आया था। यादों की खुली खिड़की से सुमित्रा फिर अतीत के दिनों में झाँकने लगी।
"अम्माजी कल मुन्ने का नामकरण है। आपको ज़रूर आना है।" राघव ने बैठते हुए कहा। उसके हाथ में पानी का गिलास था।
"मिल गई फुरसत हमें न्यौता देने की!"
"क्या मतलब?"
"मुहल्ले भर को पहले ही सब ख़बर है और हमें आज बताया जा रहा है!"
"अम्मा आपको तो लड़ने का बहाना चाहिए. आपकी इसी आदत से तंग आकर हमने ये मकान छोड़ा।"
"वाह बेटा वाह! खूब चल रहा है बहू के कहने पर और क्या-क्या सिखाया है तुम्हें बहुरानी ने।"
"माँ तुम भी सीमा के पीछे हाथ धोकर पड गई हो! छोटी-छोटी बातों को लेकर।"
"दो दिन न हुए उस कलमुंही को आये। जन्म देने वाली माँ को लड़ाकू बता रहे हो। शाबास इसलिए पैदा किया था तुमको! हे कल्लन के बापू, हमको भी अपने पास बुला लो।"
"देखो माँ! नामकरण में आना हो तो आ जाना वरना!" कहकर राघव उस दिन जो गया फिर आज ही आया था! पूरे पाँच साल बाद। इन पांच सालों में एक बार भी बूढ़ी माँ की याद न आई.
बाहर गली में कुत्तों का भौंकना सुनकर सुमित्रा की तन्द्रा टूटी. वह वर्तमान में आ खड़ी हुई. बाहर जाकर देखा तो कबाड़ी वाला दिखाई दिया। जिसे देखकर कुत्ते भौंक रहे थे। कुछेक बच्चे भी खेलते हुए दिख पड रहे थे। पड़ोस में ही तीन-चार औरतें गप्पें लड़ा रही थीं।
"कबाड़ी वाला ख़ाली बोतल, टीन-टपर, रद्दी SSS।" ऊँचे स्वर में कबाड़ी ने इन पंक्तियों को दोहराया। बग़ल में पड़ा एक ईंट का टुकड़ा उठाकर उसने कुत्तों के झुंड के मध्य फेंक दिया। कुत्ते तितर-बितर हो कर भागे। पीछे-पीछे रेहड़ी पर साग-सब्ज़ी लिए कोई दूसरा भी गली में घुस आया। अब दूर से आती उसकी आवाज़ गली में गूंजने लगी थी, "ताज़ा सब्ज़ी ले लो। घिया-गोभी, टिण्डा-टमाटर, आलू-प्याज़ ले लो।"
"आओ न सुमित्रा बहन। सारा दिन घर में बैठी रहती हो! कभी हमारे साथ भी बैठा करो।" गप्पें हांकती हुई एक पड़ोसन बोली।
"क्या करूँ कहीं भी उठने-बैठने की इच्छा नहीं होती!" कहकर सुमित्रा उन औरतों के बीच जा बैठी।
"राघव किसलिए आया था? कुछ उखड़ा-सा लग रहा था। हमने दुआ-सलाम की तो कोई जवाब नहीं दिया उसने! बड़ी जल्दी में था शायद।"
"नया मकान लिया है! कल हवन करवा रहा है। मुझे बुलाने आया था।" सुमित्रा ने भारी मन से कहा।
"ये तो ख़ुशी की बात है! कब लिया नया मकान राघव ने।"
"कौन-सा यहाँ रोज़ आता है वो, जो मैं उसके बारे में कुछ बता पाऊँ!" सुमित्रा की बात में हल्का चिड़चिड़ापन और राघव के प्रति क्रोध छलक रहा था, "जैसे वह तुम्हारे लिए अजनबी. वैसे ही वह मेरे लिए अजनबी. पूरे पांच-छह बरस बाद आया था।"
"हाय राम, क्या ज़माना आ गया है? सगा बेटा भी माँ की सुध-बुध नहीं लेता!" पड़ोसन ने ऐसा कहा तो सुमित्रा की रुलाई छूट पड़ी। वातावरण में दुःख और वेदना की लहर दौड़ गई.
"क्या करूँ जानकी बहन, मेरे तो भाग ही फूटे हैं! दुनिया-जहाँ में अकेली रह गई हूँ। सबसे अलग-थलग पड गई हूँ।"
"क्या हम नहीं जानते तुम्हारा दर्द, सुमित्रा बहन! जब तक भाईसाहब ज़िन्दा थे क्या रौनक रहती थी?" जानकी ने सुमित्रा की दुखती रग पर हाथ रखते हुए कहा, "और आज देखो, मरघट का-सा सन्नाटा छाया रहता है।"
"क्या जाओगी राघव के यहाँ हवन में?" दूसरी बोली।
"मैं तो उन लोगों के लिए मर चुकी हूँ।"
"फिर भी माँ होने के नाते तुम्हें जाना चाहिए."
"देखूंगी। तबीयत ठीक रही तो।" कहकर सुमित्रा ने बात टाल दी।
"अच्छा प्रिया भी नहीं आती-जाती यहाँ?" तीसरी बोली।
"जब बेटे ही पराये हो गए तो बेटी का आना-जाना क्या?"
"कितने बच्चे हैं उसके?"
"दो बेटियाँ हैं उसकी। सुना है फिर पैर भारी है उसका।"
"अच्छा।" जानकी ने कहा, "कोई सन्देश आया था क्या?"
"हाँ दो हफ़्ते पहले जमाई जी आये थे तो बेटी का हाल-चाल मालूम चला।"
"चलो इस बार लड़का हो जाये बेचारी का।"
"क्या होगा बहन बेटा पैदा करके भी।" सुमित्रा के स्वर में कड़वाहट थी, "हमें ही देख लो संतान का कितना सुख मिल रहा है। दो बेटे हैं। एक शादी होते ही बहू के साथ निकल गया तो दूसरा ऐसा बिगड़ा की पक्का नशेड़ी हो गया। कमाना तो दूर उल्टा घर के बर्तन भांडे भी बेच दिए हैं उसने। बोझ बन गया है मुझ पर। कल को मैं गुज़र गई तो भूखों मरेगा।"
"अपनी-अपनी क़िस्मत है। हमारे बच्चे तो अभी ठीक रहते हैं पर आगे चलके पता नहीं?" जानकी ने कहा।
"ऐ बुढ़िया कहाँ मर गई. बुढ़िया।" घर के भीतर से कल्लन का तेज़ स्वर सुनाई पड़ा।
"कैसे पुकार रहा है?" जानकी ने कहा।
"शायद नशा टूट गया है और भूख लग आई है कमबख्त को।" सुमित्रा ने उठते हुए कहा।
"बताओ, माँ कहकर नहीं पुकार सकता क्या?" जानकी बोली।
"क्या कहे बहन, अपने कर्म हैं। शायद पिछले जन्म का कुछ भुगतना रह गया है।" चलते-चलते सुमित्रा बोली और घर में प्रविष्ट हो गई.
"बुढ़िया, कहाँ मर गई थी? कबसे गला फाड़े चिल्ला रहा हूँ।" भीतर खड़ा कल्लन माँ को देखते ही बरस पड़ा, "सारा दिन गप्पों में गुज़ार देती है! खाना क्या तेरा बाप बनाएगा? मुझे ज़ोरों की भूख लगी है।"
"बेटा तुम्हारी नौकर नहीं हूँ मैं, समझे। आँखें किसी और को दिखाना।" सुमित्रा ने भी रौद्र रूप धारण कर लिया, "मुझे ही नोचकर खा ले तो चैन पड़ जायेगा। बहुत कमाकर लाया है न बेटा, जो पकाती फिरूँ! अभी ज़िन्दा हूँ तो खा रहे हो। कल को मर जाऊंगी तो खाना अपनी हड्डियाँ।"
"ज़्यादा मत बोल बुढ़िया, खाना पका।" कल्लन ने रौब झाड़ते हुए कहा।
"खिचड़ी पकी हुई है। पीपे के अंदर पतीले में रखी है।"
"खाना भी अब हमारी नज़रों से छुपा कर रखा जाने लगा है!"
"अच्छा तेरी नज़रों के सामने रख दूँ ताकि घर में दो-चार बर्तन जो बचे हैं, तेरे नशे की भेंट चढ़ जाएँ।"
"बुढ़िया, फालतू बकवास मतकर। चुपचाप खाना मेरे कमरे में भिजवा दे।" कहकर कल्लन बरामदे में लगे लकड़ी के जीने से छत पर टीन की चादर से बनाये अपने कमरे में घुस गया। सामान के नाम पर एक टूटी हुई चटाई. जिसके तिनके अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए जूझ रहे थे। दीवार पर टंगे मैले-कुचैले कपडे ही थे।
ज़ीना चढ़कर कल्लन को खाना दे चुकने के बाद, सुमित्रा पतीले में ही खाना खाने लगी। कुछ पुरानी यादें पुनः तैरने लगीं। वह खाते-खाते खिलखिलाने लगती। खाना खाते हुए उसे पति के स्वर सुनाई देने लगे।
"सुमित्रा हज़ार दफ़ा कहा है। पतीले में मत खाया करो।"
"क्या फ़र्क़ पड़ता है जी?"
"कोई देख लेगा तो क्या कहेगा? कैसे गंवार और असभ्य लोग हैं?"
"ये असभ्य क्या होता है?"
"तुम्हारी ही तरह होते हैं। जिन्हें खाने की तमीज़ नहीं कि खाना थाली में खाया जाता है, न कि पतीली-कढ़ाई में।"
सुमित्रा तेज़-तेज़ हंसने लगी। उसे पति के साथ नोक-झोक अच्छी लगती थी।
"क्या पागल हो गई है बुढ़िया? ऊपरी मंज़िल पर भी तेरे ठहाके गूंज रहे हैं! दो मिनट चैन से खाने भी नहीं देती किसी को!" खाना खा चुकने के बाद ज़ीना उतरते हुए कल्लन चींखा और ख़ाली थाली और गिलास सुमित्रा के सामने फेंक दिए.
"कुछ नहीं, तुम्हारे बाबूजी की याद आ गई." सुमित्रा यादों के खुशनुमा खुमार में मुस्कुराते हुए बोली।
"नाम मत लो उस बूढ़े का। उसी की वजह से हम इस नरक में पड़े हैं।" कल्लन के सामने पिता का चेहरा घूम गया, "अच्छा हुआ मर गया, नहीं तो अब तक हम उसका गला घोट देते।"
"ये जो दो दाने अन्न के पेट में जा रहे हैं। उन्हीं की पेंशन की बदौलत खा रहे हो। उन्होंने तो जितना हो सका तेरा भला ही किया। ये नरक तो तूने अपने वास्ते खुद ही चुना है।"
"क्या खाक भला किया है? हर वक़्त मारते रहते थे। पूरे जल्लाद थे जल्लाद!"
"तुम्हारे भले के लिए ही पीटा था उन्होंने। अच्छे से पढ़-लिख जाते तो आज ये हाल न होता तुम्हारा।"
"राघव ने कौन-सा तीर मार लिया?"
"कुछ भी है अपना पेट तो पाल रहा है। उसके बाल-बच्चे भूखे तो नहीं मर रहे।" सुमित्रा ने पानी पीते हुए कहा, "अब तो नया मकान भी ले लिया है उसने। चार पैसे बचा ही रहा है।"
"बकवास मत कर। कुछ और खिचड़ी बची है तो दे दे।"
"ले पतीले में ही खा ले।" कहकर सुमित्रा ने पतीला कल्लन के सम्मुख रख दिया। कल्लन किसी जन्म-जन्म के भूखे की तरह दोनों हाथों से खिचड़ी मुंह में ठूसने लगा।
"मैं बाहर जा रहा हूँ।" पेट भर खा चुकने के बाद डकार लेते हुए कल्लन बोला।
जब कल्लन चला गया तो सुमित्रा ने दरवाज़ा बंद करके पुनः आलमारी के कपाट खोले। इस बार जेवरों पर उसकी दृष्टि गई तो कुछ सुहानी यादें और ताज़ा हो उठीं।
"क्या सुमित्रा बार-बार जेवरों को निहारते तुम्हारा मन नहीं अघाता?" पति का स्वर सुमित्रा के कानों में गूंजा।
"ये जेवर मेरी अपनी बहुओं के लिए हैं। जब राघव और कल्लन की शादी होगी तो उनकी बहुएँ पहनेगी।"
"बहुएँ जब पहनेंगी तो पहनेगी। फ़िलहाल इन सारे जेवरों को एक बार फिर से तो पहनकर दिखाओ. सुहागरात के दिन ग़ज़ब की सुन्दर लग रहीं थी तुम इन जेवरों में।"
"छोड़ो जी, इतने वर्षों बाद।"
"एक बार फिर से मेरे लिए न पहनोगी।"
"अच्छा!" कहकर वह पुनः दुल्हन के लिबास में सजने लगी और जब पति के सम्मुख पहुंची तो।
"आह! क्या नाम दूँ तुम्हें सुमित्रा?" बे रोमांटिक होकर बोले, "साक्षात् महाकवि कालिदास की प्रेरणा 'शकुन्तला' लग रही हो तुम! या फिर तुम्हें स्वर्ग से उतरी, रम्भा, उर्वशी, मेनका जैसी किसी परी के नाम से अलंकृत करूँ।" वे संस्कृत के भी प्रकाण्ड विद्वान थे। अक्सर सुमित्रा को ऐसी उपमाएं दिया करते थे, लेकिन ठेठ देहाती सुमित्रा के सिर से सारी बातें निकल जाती थी। उसे इतना ही पता रहता था कि वे उसे अपनी कल्पनाओं में ज़मीन से उठाकर फलक पर बैठा रहे हैं।
"हटो जी, मुझको ऐसे न छेड़ो, लाज आती है।" अक्सर परियों से अपनी उपमाएँ सुनकर सुमित्रा शरमा जाती थी।
"अब भी लाज आती है!" वे नशीली आँखों से एकटक हो कर सुमित्रा को देखते।
"धत!" सुमित्रा ने घूंघट में अपना मुखड़ा छिपा लेती।
"सुमित्रा तुमने दो प्यारे-प्यारे लड़के तो दे दिए. अब एक नटखट-सी गुड़िया भी दे दो हमें।" अपनी इच्छा का इज़हार करते हुए उन्होंने घूंघट हटाते हुए कहा।
घूंघट हटते ही सुमित्रा ने दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा लिया। जैसे कि वह सचमुच नई नवेली दुल्हन हो।
"क्या हुआ?"
"हाय दैया री! लाज लागत है। पहले बत्ती बंद करो।" बत्ती का स्विच ऑफ़ होते ही वह पुनः वास्तविकता में लौट आई.
अजीब-सी अनुभूति के साथ वह गहनों को हाथ से स्पर्श करने लगी। यकायक उसके हाथ रुक गए. जब बाली के जोड़े में से एक बाली गुम देखकर उसे वह घटना याद हो आई जो राघव के घर छोड़ने का कारण बनी थी। आये दिन छोटी-मोती नोक-झोंक तो होती ही रहती थी मगर उस दिन।
"बहू ये क्या? कान में सिर्फ़ एक बाली?"
"माँ जी दूसरी बाली गुम हो गई है।"
"हाय राम! दो दिन गहने डाले नहीं हुए और खोने भी शुरू कर दिए... मैंने इतने वर्षों से सम्भल के रखे थे।"
"जान-बूझकर तो नहीं खोये माँ जी."
"बहू तू इतनी नासमझ तो नहीं, जो जान-बूझकर खोयेगी! मुझसे उलझने के तुझे नए-नए बहाने जो सूझते हैं।"
"माँ!" राघव ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा, "कह तो रही है जान-बूझकर नहीं खोया। फिर क्यों बहस कर रही हो?"
"अच्छा मैं बहस कर रही हूँ। वाह बेटा बहू को डाँटने की बजाए उल्टा मुझे दोष दे रहा है।"
"मैं तंग आ चुका हूँ रोज़-रोज़ की किचकिच से।"
"तो ठीक है तुम लोग अपना जुगाड़ कहीं और कर लो, मगर घर ख़ाली करने से पहले मेरे गहने आज, अभी और इसी वक़्त मुझे दे दो।"
"हाँ!" बहू ने मुंह फुलाते हुए कहा, "वैसे भी ये दो कौड़ी के गहने पहनना किसे पसन्द है।"
"तुम्हारे लिए तो मैं भी दो कौड़ी की हूँ। जब जन्मा हुआ ही पराया हो गया तो तुझसे क्या?"
गुस्से में माँ द्वारा कहे गए दो वचन भी सहन न कर सके राघव और उसके बाल-बच्चे। दो दिन में ही नए मकान में शिफ्ट कर गए थे वे। मोहमाया के सब बंधन त्यागकर। सुमित्रा का मन वितृष्णा से भर उठा। वह आलमारी के कपाट बंद करना चाहती थी कि उसके हाथ से टकरा कर कोई चीज़ फ़र्श पर जा गिरी। उसने देखा तो दवा की शीशी थी। जो फ़र्श पर गिरकर चूर-चूर हो गई थी।
ये शीशी पिछले दस वर्षों से आलमारी में पड़ी थी। दिल के दौरे के लिए आख़िरी बार इस्तेमाल की गई थी उसके पति द्वारा। काफी तड़पे थे उसके पति दूसरे हार्ट अटैक के वक़्त। बड़ी मुश्किल से सुमित्रा ने राघव व कल्लन को आवाज़ देकर बुलाया था। सुमित्रा तो अपनी बेटी प्रिया के साथ बस रोये जा रही थी।
"क्या हुआ माँ?" राघव ने पूछा मगर पलंग पर बाबूजी को तड़पता देख, सारी कहानी वह समझ गया था।
"कल्लन फटाफट आलमारी में से दवा की शीशी ले आओ." राघव ने चिल्लाकर कहा ही था।
"स्वामी!" कल्लन ने आलमारी के कपाट खोले ही थे कि माँ की हृदय विदारक चींख ने उसे दहला दिया। कल्लन ने मुड़ कर देखा तो बाबूजी का मृत शरीर पलंग पर शांत पड़ा था और रोना-धोना मच गया।
काँच के टुकड़े सुमित्रा ने बड़े सलीके से संभाल के उठाये। हर टुकड़े में उसे अपने पति की शक्ल दिखाई दी। मुस्कराते हुए जैसे वह हमेशा रहते थे।
रात काफ़ी चढ़ चुकी थी। सुमित्रा अपनी स्मृति में बालपन से अब तक के समस्त चित्रों को देखने लगी। न जाने उसे कब आँख लग गई? सोते समय आज उसके चेहरे पर अजीब-सा संतोष था।
अगले दिन मुहल्ले में कोहराम मचा हुआ था। पूरे मुहल्ले भर के लोग बुढ़िया के घर के आगे जमा थे। ख़ून से लथपथ उसका शव खाट पर पड़ा था। ऐसा प्रतीत होता था, जैसे देर रात गहरी निंद्रा में उसका किसी ने तेज़ धारदार हथियार से गला रेत दिया हो। कारण शायद चोरी था क्योंकि आलमारी के कपाट खुले हुए थे और उसमें से सारा क़ीमती सामान ग़याब था। सभी को अन्देशा था कि ये काम नशेड़ी कल्लन का ही हो सकता है क्योंकि उसका कहीं अता-पता नहीं था।