टुकड़े-टुकड़े शालिग्राम / देवेंद्र
नवंबर 1990 की कोई एक तारीख थी। हादसे के गुजर जाने के बावजूद शहर में अब भी दहशत थी। आम दिनों के हिसाब से शहर में तो सन्नाटा था लेकिन चाय-पान की दुकानों पर लोग बैठे हुए थे। वे लोग कर्फ्यू के बारे में ही बात कर रहे थे। जैसे श्मशानों से लौटते हुए लोग रास्ता काटने के लिए कोई बात करते रहते हैं।
शालिग्राम तिवारी जब चौराहे से गुजर रहे थे तो उन्हें लगा कि अभी ऑफिस जाने की कोई जल्दी नहीं है। उन्होंने साइकिल एक ओर सड़क के किनारे खड़ी कर दी और चाय की दुकान में घुस गए। वहाँ बैठे हुए सारे लोग बाबी के बारे में बात कर रहे थे।
हुआ यह था कि बाबी की सड़ी हुई लाश नई सड़क के एक कुएँ से तीन दिन बाद बरामद हुई थी। बाबी हिंदू थी और दंगा हिंदू-मुसलमानों के बीच हुआ था। इसलिए सबका अनुमान था कि उस रात मुसलमानों की जो भीड़ अल्लाहो-अकबर का नारा लगाते हुए लूटपाट और आगजनी कर रही थी, उसी भीड़ ने बाबी की हत्या करके लाश कुएँ में फेंक दी थी।
इसी घटना के बाद शहर में तनाव ज्यादा बढ़ गया था। एक जुलूस, जिसकी अगवानी भूतपूर्व जनसंघी विधायक कर रहा था, उसने हत्यारों को पकड़ने के लिए दशाश्वमेध थाने का घेराव किया। लौटते हुए उसी भीड़ ने गोदौलिया पर एक मुसलमान लड़के को मार डाला था। वह लड़का घर से ताजा और बढ़िया पनीर खरीदने आया था। उसका कसूर यह था कि वह भीड़ का नजारा लेने के लिए निश्चिंत भाव से सड़क पर खड़ा हो गया। जबकि पनीर वाले दुकानदार तक ने उसी समय अपनी दुकान बंद कर दी थी।
जब भीड़ में से एक आदमी ने उसकी टोपी और तहमत की ओर इशारा करके कहा कि “यह साला कटुआ है” तब वह लड़का जोर से हँस पड़ा और उस आदमी को चिढ़ाने के मूड में कहा, “चुप बे साले।”
फिर शहर में दंगा हो गया।
दंगे से पहले पुलिस ने इस संबंध में कुछ और जानकारी इकट्ठी कर ली थी। वह यह कि बाबी की उम्र पंद्रह साल थी। इसके पहले जब वह ग्यारह साल की थी तभी हैजे के कारण उसके माँ-बाप दोनों मर गए थे। एक भाई था जो साइकिल की दुकान पर नौकर था। वह अक्सर रात को देर से आया करता था। मुहल्ले वालों ने यह भी बताया कि दिन भर घर में भूखे-प्यासे और अकेले होने के कारण बाबी कम उम्र में ही दूसरे धंधे भी करने लगी थी। उसके यहाँ तरह-तरह के छोकरे आया करते थे। गली के नुक्कड़ पर जिन कांस्टेबुलों की ड्यूटी लगा करती थी, वे सब भी देर तक उसके कमरे में पड़े रहते थे। भाई तो वैसे भी देर रात को आता था, तिस पर भी जब वह नहीं मिलती तो वह उसे बुरी तरह मारता रहता था। राम अवध सिंह मेयर का लड़का भी बाबी के घर आया करता था। जब उनको यह बात मालूम हुई तो एक दिन उन्होंने सरे-आम कहा कि इस गंदगी को मुहल्ले से हटाना है।
अब सच्चाई चाहे जो हो, हत्या के मामले में पुलिस एक तरफ देखती है, पुलिस किसी निष्कर्ष तक पहुँचती उसके पहले ही दंगा हो गया। सच्चाई तीन दिन तक नई सड़क के कुएँ में पड़ी रहने के बाद जब बरामद हुई तभी से सारे शहर में सड़ रही थी।
शालिग्राम तिवारी जब चाय की दुकान में पहुँचे तब वहाँ बैठे हुए सारे लोग उसी लाश का पोस्टमार्टम कर रहे थे। शालिग्राम तिवारी भी उस बातचीत में शामिल हो गए। उन्होंने बताया, “जिस तरह बाबी के दोनों स्तन काट लिए गए थे उससे जाहिर है कि हत्या मुसलमानों ने की है। करने को तो हिंदू भी हत्या कर सकता है। गला दबाकर या गोली मारकर। लेकिन बोटी-बोटी काटकर तो सिर्फ मुसलमान ही हत्या कर सकता है। उनमें दया नहीं होती। बचपन से ही मुर्गा-मुर्गी काटते हैं। खून से खेलना आदत है। इसलिए निश्चित ही मुसलमानों ने हत्या की है।”
दुकानदार बीच-बीच में चाय बनाना रोककर इन सबकी बातों में शामिल हो जाया करता था। उसने बताया, “साहब, एक बात और है - बाबी के साथ बलात्कार नहीं हुआ था। अगर हिंदुओं ने हत्या की होती तो बलात्कार जरूर करते।”
सब लोग हँस पड़े “तुम्हें परम ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ?”
शालिग्राम तिवारी ने दुकानदार को डाँटा तो वह प्रमाण जुटाने लगा, “देवली, पारसबीघा, बेलछी! कहीं भी देख लीजिए। हिंदुओं ने हत्या के पहले बलात्कार जरूर किया है। लेकिन मुसलमानों ने ऐसा कहीं किया हो तो बताइए। इस्लाम में काफिरों के लिए हत्या है और हिंदुओं में औरत के लिए बलात्कार।”
दुकानदार के इस मौलिक सत्य को सुनकर वहाँ बैठा हुआ एक पत्रकार काफी आनंद ले रहा था। उसने पास ही बैठे भोलाबाबू से पूछा, “भोलाबाबू, आपकी क्या राय है?”
भोलाबाबू का नाम सुनते ही शालिग्राम ने घृणा से मुँह बिदकाया और अखबार पढ़ने लगे। भोलाबाबू ने कहा, “सबका अपना-अपना सच होता है। जैसे शालिग्राम तिवारी का वैसे इसका भी...”
वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाए थे कि शालिग्राम जी बीच में ही बोल पड़े, “दुनिया में सबका वजूद है, लेकिन कम्यूनिस्टों का कोई वजूद नहीं। भोलानाथ हिंदुओं और मुसलमानों पर क्या बोलेंगे? पहले रूस और चीन को देखें। चाऊशेस्कू को देखें जहाँ कम्युनिस्ट थे वहाँ तो खत्म हो रहे हैं। ये भारत में साम्यवाद लाएँगे। और ये भोलाबाबू क्या कहेंगे? उनका लड़का तो खुद कारसेवक बना घूम रहा है।”
मुस्कराते हुए भोलाबाबू ने समझाने की कोशिश की, “शालिग्राम जी, आहिस्ते बोलो! बात मुसलमानों और दंगों के बारे में हो रही थी। तुम्हारे घर के बारे में नहीं, जो मेरे लड़के की बात उठा लाए और हमारा लड़का कारसेवक हो जाएगा तो क्या हम अपनी बात बोलना छोड़ देंगे।”
दुकान में बैठे हुए सारे लोग मजा लेने लगे थे। पत्रकार ने चढ़ाया, “शालिग्राम जी, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं।”
दुकानदार ने अंतिम रूप से भट्ठी बुझा दी, और आकर शालिग्राम जी के बगल में बैठ गया, यह बात सबको मालूम थी कि शालिग्राम जी जल्दी ही आपा खो देंगे।
दूसरी ओर थे भोलाबाबू, कभी कम्यूनिस्ट। फिर मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट फिर नक्सलाइट और अब कुछ नहीं। सुबह जगने के साथ ही झोला लटका लेते और रात को शहर के सो जाने तक घूमते रहते। बारहों महीने सुबह शाम इसी दुकान में बैठकर बहस करते हुए मिल जाते हैं। इसी दुकान में शालिग्राम जी से अक्सर उनकी मुलाकात होती रहती है। दोनों एक दूसरे से बखूबी परिचित हैं। आपस में उधार का लेन-देन भी हो जाया करता है लेकिन शहर में पंद्रह दिन तक लगातार दंगे हुए थे। शालिग्राम जी ने किसी मुसलमान की खोपड़ी नहीं तोड़ी थी। मुसलमानों ने तीन-तीन मंदिरों में बम फेंके। और शालिग्राम जी किसी मस्जिद की एक ईंट भी नहीं सरका सके थे। उनका पौरुष पंद्रह दिनों से घर में बीवी और बाहर पुलिस द्वारा उत्पीड़ित हो रहा था। मौका पाकर इस दुकान में वे सारे तटबंध तोड़ डालना चाहते थे। वे बेकाबू हो गए, “अरे भोलाबाबू, तुम रामचंद्रजी को इसलिए गाली दे लेते हो क्योंकि ये हिंदुओं के देवता हैं। धर्म को नहीं मानते हो तो किसी मस्जिद के बारे में कुछ कहकर दिखा दो। सलमान रुश्दी ने इंग्लैंड में किताब लिखी। और ये मुसलमान साले यहाँ दंगा करते हैं। भारत में हो तो कुछ भी बोल लेते हो। अगर पाकिस्तान में मार्क्सवाद बोलो तो सारी धर्म-निरपेक्षता गाँड़ में घुस जाएगी।”
“क्यों नहीं मुसलमानों से कहते कि नसबंदी करा लें।”
शालिग्राम जी के मुँह से झाग निकल रहा था, “अल्पसंख्यकों और तुष्टीकरण के चक्कर में एक पाकिस्तान फिर बनकर रहेगा और भोला! तुम लोग इसके जिम्मेदार होगे। आजादी की लड़ाई में तुम लोगों ने गद्दारी की थी। तुम लोगों ने पाकिस्तान बनवाया। कम्यूनिस्टों का इतिहास गद्दारी से भरा है। खुद का लड़का तो कारसेवक बना घूमता है और ये कम्यूनिस्ट बने हैं। पहले अपने घर को सुधारो तब देश को कम्यूनिस्ट बनाना।”
शालिग्राम जी के घायल शब्द नुकीले पत्थरों की तरह अनवरत सनसना रहे थे। कुछ भी न सुनने के लिए तैयार, वे सिर्फ बोले जा रहे थे। भोलाबाबू को लगा कि माहौल मारपीट का बनता जा रहा है। सुर्ती ठोंकते हुए उन्होंने मुस्कराकर कहा, “तो शालिग्राम जी कौन हमारी बीवी हमारे अफसर के साथ सो रही है जो घर को सुधारूँ।”
शालिग्राम जी की बीवी के बारे में कुछ ऐसी ही अफवाह थी। वहाँ बैठे हुए सारे लोग जोर से हँस पड़े। पत्रकार ने चुटकी लेते हुए कहा, “भोलाबाबू किसी के घर की बात यहाँ न करें।”
अंगरक्षकों की भारी भीड़ से घिरे शालिग्राम जी अचानक अकेले और निरीह से हो गए। जैसे किसी ने उनकी जाँघिया सरका दिया हो।
अब बहस दुकान के दायरे से बाहर सड़क पर ही संभव थी। और वहाँ सड़क पर उनकी साइकिल कब से अकेले पड़ी-पड़ी झुँझला रही थी। वे ऑफिस के लिए चल पड़े। उन्हें लग रहा था कि आसपास खड़े सारे लोग उनकी बीवी के बारे में ही बात कर रहे हैं। ये जोर-जोर से पैडिल मार रहे थे और सोच रहे थे। ये बहुत कुछ सोच रहे थे। सोचते-सोचते वे वहाँ जा पहुँचे जहाँ वे शहर के, देश के और दुनिया के सबसे बड़े आदमी हैं। सबसे शक्तिशाली। वे चौराहे वाली उसी दुकान में भोलाबाबू को लातों-जूतों पीट रहे थे। तभी अचानक उनकी साइकिल एक बकरी से टकरा गई। वे गिर पड़े। चरवाहे ने भद्दी सी गाली दी।
इस तरह शालिग्राम जी एक घंटे लेट ऑफिस में पहुँचे। उनके बगल वाली कुर्सी पर बैठने वाले क्लर्क रामभरोसे ने बताया कि आज साहब सुबह से तुम्हें तीन बार पूछ चुके हैं।
थोड़ी देर बाद जब रामभरोसे फाइल लेकर साहब के यहाँ गया तो वहाँ अफसर शालिग्राम को बुरी तरह डाँट रहा था। शायद कोई टी.ए. बिल का फर्जी मामला था। शालिग्राम ने कुछ जरूरी कागजों के बीच रखकर टी.ए. बिल पर दस्तखत करा लिए थे। साहब की भवें तनी थीं, “जनम की भिखमंगी जात! साले चोर कहीं के! ऑफिस में भी 'बभनई' करने से बाज नहीं आएँगे।”
गुस्से से लाल-पीला होता हुआ वह पेपरवेट को बार-बार मेज पर पटक रहा था। दुबके हुए से शालिग्राम जी थरथर काँप रहे थे। रामभरोसे ने देखा और साहब के सामने हँसी रोकने के लिए मुँह को हाथों से दबाता बाहर भाग आया।
शालिग्राम जी जब बाहर आए तो उन्हें लगा कि देह का सारा खून किसी ने निचोड़ लिया है। ऑफिस वाले उनकी ओर देखकर खिसखिस हँस रहे थे। वे धम्म से कुर्सी पर गिर पड़े। रामभरोसे ने अपनी कुर्सी उनके करीब खिसका ली और कहने लगा, “शालिग्राम जी आप ब्राह्मण हैं, आपको इस तरह जलील किया?”
शालिग्राम जी चुप थे। वे दुखी थे और डरे हुए थे।
दोपहर को लंच-टाइम में शालिग्राम जी नीचे कैंटीन में गए। इस समय वे एकदम अकेले थे और उनसे चला नहीं जा रहा था। शर्माजी उन्हीं की यूनिट में क्लर्क हैं। शालिग्राम जी को देखकर वे उनके करीब चले आए। कैंटीन के नौकर से चाय के लिए बोलकर उन्होंने पूछा, “शालिग्राम जी बात क्या थी। इसी ऑफिस में सारे फर्जी बिल पास होते हैं। हम पूछते हैं, अगर यह अफसर इतना ईमानदार है तो इसने तीन-तीन प्लाट कहाँ से खरीदे? एक टी.ए. बिल में साले की ऐसी-तैसी हो गई?”
शालिग्राम जी जानते थे कि अगर अफसर के खिलाफ उन्होंने शर्मा से कुछ भी कहा तो यह जाकर चुगली कर देगा। मामला आर्थिक घोटाले का है। सो, सस्पेंड होने में देर नहीं लगेगी। वे खामोश ही रहना चाहते थे, लेकिन मन का दर्द उबल पड़ा, “चमार...! शर्माजी, यह साला नियुक्ति के समय हमारा जूनियर था। चमार होने की वजह से आज साहब बन गया है। हम ब्राह्मण हैं इसलिए क्लर्क पर नियुक्ति लेकर क्लर्क पर रिटायर होंगे। ये साले आरक्षण की औलाद! सारे नेता वोट के चक्कर में आरक्षण बढ़ाते जा रहे हैं। और इनका मन बढ़ता जा रहा है। जब नीच लोग आगे जाते हैं तो देश की दुर्दशा होती है। हमारे लड़के फर्स्ट क्लास पास होकर बेकार होते जा रहे हैं। लेकिन इन सालों को नौकरी मिलती है। अगर हमारा बाप भी चमार होता तो हम भी आज तीन-तीन प्लाट खरीदते।”
शर्माजी ने दिलासा दिया, “चलिए यूनियन वालों के कानों में यह बात डाल दें, वरना क्या भरोसा? यह अफसर आपसे ऐसे ही चिढ़ा रहता है। पता नहीं क्या करे!”
यूनियन का नाम सुनते ही शालिग्राम जी भड़क उठे, “देखिए साहब, यूनियन का नाम तो मुझसे लीजिए मत। यूनियन है राजपूत गुंडों का जमावड़ा। अगर किसी राजपूत का मामला होता तो बावेला मचाते। लेकिन मेरे लिए कहेंगे कि फँसने दो। शालिग्राम तिवारी तो ब्राह्मण है।”
“और शर्माजी ब्राह्मण... आप भी तो ब्राह्मण ही हैं। लेकिन आप इस अफसर से मेरी चुगली करेंगे। मैं जानता हूँ आप यही करेंगे। आप यूनियन के उन राजपूतों से मेरी चुगली करेंगे। आप ऐसा इसलिए करेंगे क्योंकि आप ब्राह्मण हैं। यही ब्राह्मणों की दुर्गति का कारण है। अगर एक राजपूत आगे जाता है तो दस राजपूतों को आगे बढ़ाता है। यही हाल कायस्थों और भूमिहारों का है। और ये चमार तो सरकारी दामाद हैं। लेकिन एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण को नीचे ढकेलता है। इसलिए कि वह अकेले श्रेष्ठ बना रहना चाहता है। नतीजा देखिए! सारी ब्राह्मण जाति रसातल में जा रही है। शालिग्राम तिवारी! यानी मैं! मुझे अपनी चिंता नहीं है कि एक चमार ने मुझे जलील किया है। एक दिन सारे देश पर चमार राज करेंगे। यह देश सोने की चिड़िया था। दूध की नदियाँ बहती थीं, लेकिन किसके बल पर? चाणक्य जैसों के कारण और अब..., यह देश चमटोल बनेगा।”
शालिग्राम जी की आवाज जैसे कुएँ के बीच डूबती जा रही थी, “पहली बार! पहली बार! पहली बार मैंने टी.ए. बिल पास कराया था। अब वह चमार साला चाहे सस्पेंड कर दे। यहीं निर्मल सिंह दिन भर कुर्ता झाड़कर यूनियन की राजनीति करता है। पान चुभलाता है। इसी ऑफिस में क्या-क्या नहीं करता है। क्या मजाल कोई अफसर उससे चूँ कर दे।”
इसी बीच निर्मल सिंह आठ-दस लोगों के साथ कैंटीन में घुसा। शालिग्राम जी पर जब उसकी नजर पड़ी तो मजाक उड़ाने के लापरवाह अंदाज में पूछा, “क्यों तिवारी, चुप्पे-चुप्पे टी.ए. बिल पास करते हो। कम से कम हम लोगों को तो बता दिया करो। तब तो यूनियन की माँ-बहन करते हो। अब अफसर सस्पेंड करने जा रहा है।”
सस्पेंड होने की बात सुनकर शालिग्राम जी भीतर तक काँप गए। यानी बात यहाँ तक बढ़ चुकी है। वे अचानक गिड़गिड़ाने लगे, “निर्मल बाबू, आपसे किसने कहा है? आप लोग कुछ करिए न! मेरी बीवी है। बच्चे हैं। भाई साहब, यह सिर्फ टी.ए. बिल का मामला नहीं है। यह चमार आज हमें मारेगा। कल राजपूतों को मारेगा। जब क्लर्क था तभी से राजपूतों ब्राह्मणों से चिढ़ता है। ऑफिस में क्या पहली बार कोई टी.ए. बिल पास कराया गया है?”
शालिग्राम जी का यह पक्ष एकदम सही था। ऐसे मामले ऑफिसों के लिए कोई मायने नहीं रखते। हुआ यह कि शाम तक उन्हें आइंदा ऐसा न करने के लिए का नोटिस थमा दिया गया। शालिग्राम जी ने माथे का पसीना पोंछा। अपनी टूटी साइकिल से अकेले ही घर की ओर चल पड़े। रास्ते में एक जगह साइकिल की दुकान में नौकर से लड़ाई हो गई। नौकर दोनों पहियों में हवा भरने की चवन्नी माँग रहा था। शालिग्राम जी पंद्रह नए पैसे से ज्यादा नहीं दे रहे थे। आगे लंका की फलों वाली दुकान पर उनके दो परिचित मौसम्मी का रस पी रहे थे। उन्होंने साइकिल खड़ी की और हालचाल पूछने उनके पास चले गए। तब तक गिलास खाली हो चुके थे। वे बगल वाली दुकान से पान खाकर लौट आए।
अस्सी चौराहे पर भोलाबाबू सुनील तिवारी से बे-तरह उलझ कर बहस कर रहे थे। शालिग्राम जी ने भोलाबाबू को देखा तो चुपचाप निकल जाने की सोचा, लेकिन सुनील तिवारी से उन्हें कुछ बात करनी थी। असल बात यह थी कि वे इतनी जल्दी अभी घर नहीं जाना चाहते थे। उन्होंने साइकिल को खंभे से टिकाया और आकर चुपचाप बगल में खड़े हो गए। सुनील तिवारी कह रहे थे, “देखिए, मैं भी मार्क्स को मानता हूँ, बल्कि मार्क्स की यह बात बिल्कुल सही है कि धर्म अफीम है और इस्लाम नहीं। भोलाबाबू आप अंतर करें! राम का संबंध धर्म से ज्यादा राष्ट्र और संस्कृति से है। आप देखें, चीन और रूस में इस्लाम आज कम्यूनिज्म के लिए खतरा बन चुका है। इसलिए कि इस्लाम की जड़ता ने मुसलमानों को निरंकुश और मिथ्याभिमानी बना दिया है।”
भोलाबाबू का कहना था कि यह राम, धर्म अथवा संस्कृति का मामला ही नहीं है। यह सवर्ण हिंदू उग्रवाद और लुंपन तत्वों के सामाजिक हस्तक्षेप का मामला है। मंडल आयोग का घाव अयोध्या में चीत्कार कर रहा है। तमाम बलात्कारी, गंजेड़ी, शराबी कारसेवक बने घूम रहे हैं।
भोलाबाबू ने अफसोस जाहिर किया, “आपकी कलम में ताकत थी आप प्रबुद्ध पत्रकार थे। लेकिन अब सारे हिंदी पत्रकार सांप्रदायिक हिंदुओं के पक्ष में खड़े हो गए हैं। आप मार्क्सवाद...”
सुनील तिवारी बीच में ही बोल पड़ा, “हमें छोड़िए, आप खुद कितने मार्क्सवादी हैं? सी.पी.आई. को गाली देते हैं। सी.पी.एम. को गाली देते हैं। नक्सलाइट बने फिरते थे। उसमें भी तेरह फाँक हो गया। आप खुद में पार्टी बने घूमते हैं। आप लोग अपने को देखिए। गोर्बाचेव आप से ज्यादा मार्क्सवादी हैं। स्तालिन को गाली दे रहे हैं। मार्क्स को खुरच-खुरच कर मिटा रहे हैं। अमरीकन क्लबों में शराब पीकर गा रहे हैं - “गोर्बाचेव की कितनी साइज! नोबुल प्राइज! नोबुल प्राइज!!” जो मार्क्सवाद पूँजीवाद को मिटाने चला था उसे मार्क्सवादियों ने ही मिटा दिया।”
भोलाबाबू कुछ कहने से पहले सुर्ती थूकने नाली की ओर चले गए। तब शालिग्राम ने कहा, “आप भी तिवारी जी किस बेकार के आदमी से उलझ गए। खुद का लड़का तो कारसेवक बना घूम रहा है। और ये दुनिया को मार्क्सवाद पढ़ा रहे हैं।”
सुनील तिवारी ने कहा, “वो तो ठीक है। लेकिन भोलाबाबू अपने उसूल के पक्के हैं। अपने से अलग हर आदमी की कोई एक आस्था जरूर होनी चाहिए। भोलाबाबू चाहते हैं कि हिंदू मुसलमान आपस में न लड़ें। लेकिन जब लड़ाई हो रही है तो आपकी चाहत को कौन पूछता है? तब आपको सिर्फ अपना पक्ष चुनना पड़ता है।”
शालिग्राम ने बताया, “हमारे दफ्तर में एक चमार साला अफसर हो गया है। एक साल के भीतर उसने तीन-तीन प्लाट खरीद लिए हैं। अगर आप अपने अखबार में छापें तो मैं सबूत दूँगा। लेकिन देखिएगा, मेरा नाम लीक न होने पाए।”
भोलाबाबू लौट आए थे। उन्होंने कहा, “शालिग्राम जी, माफ करिएगा। सुबह बस ऐसे ही मजाक भर किया था। अब देखिए, तिवारी जी से मेरी कितनी बहस होती है। बहस की बातों को भूल जाना चाहिए।”
सुनील तिवारी ने पूछा, “क्यों, कोई बात हो गई है?”
शालिग्राम ने घृणा से कहा, “भोला मैं कुत्ते से बात कर सकता हूँ, तुमसे नहीं। झोला लादे सड़क पर घूमा करते हो। तुम्हारा वजूद क्या है?” और फुफकारते हुए अपनी साइकिल की ओर बढ़ गए।
रास्ते भर शालिग्राम जी यही सोचते रहे कि आज मैं किसका मुँह देखकर उठा था। सुबह दुकान में चाय भी अपने पैसे से पीनी पड़ी थी। न दुकान में जाता न भोला मिलता। ऑफिस में अलग बवाल हुआ। पान तक अपने पैसे से खाना पड़ा। वे बयालीस सालों की जिंदगी में से दुख, खर्च और तनाव से भरे इस एक दिन को काटकर निकाल देना चाहते थे। लेकिन क्या यह असंभव है? और इस तरह एक-एक दिन अलग करने लगे तो बयालीस साल सिमटकर सिर्फ बयालीस दिन रह जाएगा। वे भी बचपन के बयालीस दिन। जब कथा कहने जाते समय बाप के साथ वे भी हो लिया करते थे। गुरुजी के लड़के को भरपेट मिठाई मिलती थी। अब तो जमाना ही बदल गया। शालिग्राम जी दुखी हैं कि जमाना बदल रहा है। जब वे बरामदे में साइकिल खड़ी कर रहे थे तभी उन्होंने देखा कि 'हीरोहोंडा' पर बैठे हुए दो लड़के उनकी छत की ओर देखकर मुस्कराए जा रहे हैं। शालिग्राम जी ने तेजी से आँगन को पार किया और सीधे छत पर, पहुँच गए, वहाँ उनकी बेटी घुटने तक लटक रहे बालों को अपनी उँगलियों से सहला रही थी। शालिग्राम जी उसके पीछे खड़े थे और वह थी कि बे-परवाह सड़क की ओर ताके जा रही थी - “सनम के जुल्फों की छाँव देखो, घटा सड़क पर दम तोड़ती है।” शालिग्राम जी ने किचकिचाकर तीन-चार तमाचे बेटी को दे मारे। (हे ईश्वर, आदिकवि के प्रथम छंद का यह हृदय-विदारक दृश्य कब तक दुहराया जाता रहेगा!) लड़की की आँखों के सामने अचानक अँधेरा छा गया। जब वह होश में आई तो फुफकारकर रह गई।
आवाज सुनकर पत्नी नीचे से दौड़ी हुई आई। लड़की की ओर देखकर शालिग्राम जी से बोल पड़ी, “नीचे मेहमान आए हुए हैं। ऑफिस से आते ही क्या फालतू काम शुरू कर देते हो।”
मेहमानों का नाम सुनकर शालिग्राम जी चौंक पड़े, “मेहमान? कहाँ से?”
पत्नी ने बताया कि भैया भाभी को लेकर आए हैं। बी.एच.यू. अस्पताल में देखने के बाद डॉक्टरों ने भाभी को भर्ती कर लिया है। पथरी का आपरेशन होना है।
तब तक साले साहब ने आकर जीजाजी के पाँव छुए। शालिग्राम जी ने बुरा सा मुँह बनाया। बिना कोई जवाब दिए वे नीचे अपने कमरे में चले गए। कमरे में अँधेरा था। शालिग्राम जी भुनभुना रहे थे।, “साला... मालवीय जी ने अस्पताल क्या बनवा दिया, एक दिन भी चैन नहीं। किसी को जुकाम हो या पीलिया, भिखमंगों की तरह सब यहीं चले आते हैं। इन ससुराल वालों ने तो नाक में ही दम कर दिया है। महीने-महीने यहीं पड़े रहते हैं।” वे जोर से चीख पड़े। “हे भाई, सुनो। सुनो... असल तो बनारस में रहने की सोचना मत। और अगर रहना ही है तो बलिया में ससुराल मत करना। बलिया वाले बेटी नहीं देते हैं, दामाद को गिरवी रख लेते हैं।”
अपने भाई के पास खड़ी उनकी पत्नी यह सब सुनकर अजीब असमंजस और दुविधा की स्थिति में सन्न सी हो गई थी। मायके वालों का अस्पताल या गंगा स्नान के बहाने इस तरह यहाँ रोज-रोज पड़े रहना उन्हें भी अच्छा नहीं लगता था। लेकिन इस आदमी ने तो हद ही कर दी। वे स्थिति को सँभालने की गरज से पति के पास गईं। उन्हें देखते ही शालिग्राम जी भड़क उठे, “एक दिन मेरा गला दबा दो। और भाइयों के साथ यहीं सुख-चैन से रहो। सस्पेंड हो जाऊँ तो सब भीख माँगोगे।”
पत्नी समझ गई कि यह आदमी अब अपनी नौटंकी बंद नहीं करेगा। वे किचेन में चली गईं।
शालिग्राम जी शुरू थे। उन्होंने साले को बुलाकर पूछा, “क्यों, क्या हुआ है?”
साले के यह बताने पर कि पत्नी का आपरेशन होना है, शालिग्राम जी दहाड़ पड़े, “तुम लोगों को कोई तरीका मालूम है या नहीं? यह घर है या धर्मशाला? बीमार है तुम्हारी बीवी और तकलीफ मैं क्यों सहूँ? मेरे जवान बेटे-बेटियाँ हैं। दो कमरे हैं। मैं क्या सड़क पर सोऊँ? कान्यकुब्ज जिस पत्तल में खाता है, उसी में छेदता है। गलती हमारे बाप की थी तो जो सारे संसार में उसे कान्यकुब्ज ही मिले। तो भइया, तुम क्या हो, इससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं। तुम कल जाकर कोई धर्मशाला ले लो। मैंने देश भर का ठेका नहीं ले रखा है।”
स्थिति को बे-तरह बिगड़ते देख पत्नी ने भी मोर्चा सँभाला। छोटे वाले लड़के को जोर-जोर से पीटते हुए उन्होंने गंगा में डूब मरने की सार्वजनिक घोषणा करनी शुरू कर दी। इस तरह बहुत हो-हल्ले के बाद घर में शांति आई।
रात को भोजन कर लेने के बाद दाँत खोदते हुए शालिग्राम जी बच्चों के सोने का इंतजार करते रहे। फिर आहिस्ते से उठकर वे भीतर वाले कमरे में गए। उन्होंने पत्नी से एक गिलास पानी माँगा। पत्नी सो गई थी। शालिग्राम जी भी बगल में लेट गए।
- पत्नी सोई है, न सोने का बहाना कर रही है।
(नहीं! न सोई है, न सोने का बहाना कर रही है एक योद्धा अपने दुश्मन को अपने मैदान में ले जाकर सावधानी से घेर रहा है।)
शालिग्राम जी ने अपनी बाँहों की समूची कोमलता के साथ पत्नी के कंधे को सहलाया। पत्नी ने कंधे को लचकाकर समेट लिया और खिसककर किनारे की ओर चली गई। शालिग्राम जी ने करवट बदलते हुए अपने पैरों को उनके पैरों पर डाल दिया। अपनी उँगलियों को उनके ब्लाउज तक ले ही गए थे कि एक नागिन फुफकार उठी, “हट जा पापी! कोढ़ी कहीं के! अपनी माँ साथ सोए कि मेरी देह को हाथ लगाया।”
अरे, बाप रे! ऐसी भयानक कसम! शालिग्राम जी सन्न होकर कातर आँखों से उन्हें देख रहे थे। पत्नी दाँत पीसते हुए सारी मर्यादाओं को उनके मुँह पर थूक रही थी, “अरे, सरयूपारीण ब्राह्मण! अपनी शक्ल तो देख! बदबू से भरे तुम्हारे थोबड़े के लिए मैंने अपनी जवानी बिगाड़ ली। और तू मुझे कान्यकुब्ज बताता है। मैंने फाँसी लगाकर तुम्हें जेल में न डलवाया, तब कहना!”
काँपते हुए से शालिग्राम वहाँ से उठकर देर तक आँगन में टहलते रहे। बच्चे अपने कमरे में सो गए थे। पत्नी ने भी दरवाजा उढ़काकर लाइट बुझा दी। उन्हें लगा कि मेरे अलावा इस घर में सब सुखी और निश्चिंत हैं। इसी घर के लिए मैंने टी.ए. बिल पास कराया था। ब्रह्मज्ञानियों का एक शाश्वत सवाल उनके सामने तनकर खड़ा हो गया - अगर आज मैं सस्पेंड हो जाता तो?
उनके मन के सीलन भरे अँधेरे कोने में एक मरियल किस्म का पौराणिक ब्राह्मण वर्षों से दबा कुचला बैठा था। अचानक प्रकट हो गया और बोला, तो यही बीवी तुम्हें घर से निकाल देती। तुम दीन-हीन से पड़े होते। चेहरे पर मक्खियाँ भिनकती। तुम्हारी बीवी तुम्हें दुरदुराकर मायके चली जाती। आदमी की सृष्टि कर लेने के थोड़ी देर बाद ब्रह्मा को लगा कि उन्होंने एक सर्वजेता शक्ति की रचना कर दी है। उस शक्ति के प्रभाव को नष्ट करने के लिए ब्रह्मा ने तुरंत स्त्री की रचना की। तब से मनुष्य कुत्ते की माफिक उस स्त्री के पीछे भटक रहा है।”
शालिग्राम ने अपने भीतर के उस पौराणिक ब्राह्मण को प्रणाम किया, और बोले, “हाँ महाराज अगर मैं शादी न करता तो दुनिया का सबसे सुखी आदमी होता। लेकिन वासना के विकास से भरी उस अशुभ घड़ी का दंड यह है कि सारा शहर मुझे मक्खीचूस और चीकट कहता है। भोला जैसा नीच आदमी चौराहे पर सरे-आम मुझे जलील कर देता है। जवानी के समस्त सुखों को समेटकर वह जो एक स्त्री सो रही है, उसी की वजह से मैंने फर्जी टी.ए. बिल पास कराया था।”
जर्जर चेहरे पर जमी गर्द और राख को उँगलियों के नाखूनों से खुरचते हुए उस पौराणिक ब्राह्मण ने भयानक रूप से अट्टहास किया। “शालिग्राम, तुम्हारी स्त्री वेश्या है। वेश्या तो साथ सोने या न सोने के लिए आजाद होती है। वह अपनी देह का पैसा भी लेती है। लेकिन तुम्हारी पत्नी भोजन बनाती है। कपड़े फचीटती है। तुम्हारे बदबू करते मुँह को सहकर भी तुम्हारे साथ सोने से मना नहीं कर पाती। वेश्या से भी गई-बीती है। इस अवस्था में रहकर भी क्या समझते हो, वह तुम्हारे हित की बात सोचेगी? कितने मूर्ख हो शालिग्राम! जानवर भी नुकसान पहुँचाने वाले को प्यार नहीं कर पाता है। वह तो स्त्री है। इसलिए अवसर-बे-अवसर तुम्हें जलील करती है। अपनी वासनाओं के एकांत अँधेरे में ले जाकर तुम्हारे सबसे कोमल तंतुओं को रेतती है। तुम चीख भी नहीं सकते। हे गृहस्वामी! अपनी शक्ल देखो! सार्वजनिक रूप से अपनी पराजय, अपनी गुलामी को स्वीकार करने के साथ ही स्त्री ने पुरुष जाति के सर्वनाश की कसम खा ली है।”
शालिग्राम जी बदहवास से थरथर काँप रहे थे, “ऐसा न कहें महाराज! मैंने उसे सुरक्षा दी है।”
वह बूढ़ा अपाहिज ब्राह्मण जोर से ठठाकर हँसा, “झूठे, मक्कार! तूने उसे अपने लिए सुरक्षित कर रखा है।”
शालिग्राम जी ने घृणा से जमीन पर थूक दिया, “और हम जो दिन भर कोल्हू के बैल की तरह खटते रहते हैं, उसका क्या मूल्य है?”
“अपनी सत्ता और अपने अहंकार का सुख!” - वह ब्राह्मण धीरे से बुदबुदाया।
“तब मैं अपने अहंकार को प्रणाम करता हूँ!” - और शालिग्राम जी अपनी छत पर चले गए! टिमटिमाती बत्तियों के अजोर में सोया हुआ सारा शहर उनके पैरों के नीचे था। रामनगर से लेकर राजघाट तक बहती जा रही गंगा उनके पैरों के नीचे रेंग रही थी। ऊपर फैले हुए आकाश में चाँद था। चाँदनी थी। आकाश गंगा थी। उन्होंने सबको अपने पैरों के पास झुकते हुए महसूस किया। उनके होठों पर वैदिक गरिमा से भरी हुई मुस्कान चमक रही थी। उन्होंने अपने पैरों को चाँदनी और फिर चाँद की ओर बढ़ा दिया। ऐसे नहीं। थोड़ा ठहरकर उन्होंने सिर को जमीन से टिकाया और पैरों को आकाश की ओर उठा दिया। सारा ब्रह्मांड उनके पैरों के नीचे था।