टूटते रिश्तों के इलाज का भ्रम / जयप्रकाश चौकसे

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टूटते रिश्तों के इलाज का भ्रम
प्रकाशन तिथि : 05 फरवरी 2014


अब तो यह शोध का विषय है कि पश्चिम में किस विषय पर शोध नहीं हो रहा है। जानकारियों के फैलते दायरे अब सीमाहीन हो गए हैं। विज्ञान द्वारा जन्मी 'गटर गंगा' में तो जानकारियों की बाढ़ क्षण प्रति क्षण बढ़ती जा रही है। ताजा शोध यह है कि जिन दंपतियों के जीवन में किसी कारण दरार आ गई है, उनको सलाह दी गई है कि महीने में पांच रोमांटिक फिल्मों को देखने अथवा उनके बारे में बातचीत करने से दरार भर जाती है। टूटती शादियों के विशेषज्ञों से मिलने से बेहतर है कि रोमांटिक फिल्में देखी जाए और उन पर बातचीत की जाए। दरअसल इस सलाह के पीछे कारण यह है कि दंपति अधिक समय साथ गुजारे तो टूटते हुए रिश्ते की राख के नीचे छुपी प्रेम की चिंगारी विवाह के तंदूर को फिर दहका सकती है। यह भी संभव है कि यथार्थ जीवन की कड़वाहट से रूमानी फिल्म का वातावरण आपका ध्यान हटा सकता है। परदे पर नायक नायिका के अंतरंगता का प्रस्तुतीकरण टूटते रिश्ता को सहारा दे सकता है। यह भी संभव है कि पति-पत्नी फिल्म देखते समय सो जाए। नींद शरीर ही नहीं आत्मा का थकान ही है। यह शोध तीन वर्षों के अध्ययन के बाद सामने आया है। फिल्म देखते समय दर्शक का आत्मीय तादात्म्य पात्रों के साथ बन जाता है और यही बात एक दवा के रूप में इस्तेमाल की जा सकती है। गोयाकि अब फिल्म एक थेरेपी है और मन में समाये शून्य को समाप्त कर सकती है।

सृजन मित्रा दास ने इस शोध को निरस्त किया है और उनका कहना है कि मैरिज काउंसलिंग एक विज्ञान है तथा फिल्म का प्रभाव विज्ञान की किसी प्रयोगशाला में सफल नहीं होता। पति-पत्नी के बीच विशेषज्ञ की देख-रेख में की गई बातचीत कारगर सिद्ध हो सकती है परंतु फिल्मों में प्रस्तुत चौथा प्यार कोई औषधि नहीं हो सकता। रिश्तों में दरार गंभीर विषय है और रोमांटिक फिल्में सतही होती है। टाइटैनिक का संवाद कि 'क्या तुम मेरे लिए समुद्र में डूब सकते हो' कैसे टूटते रिश्ते को जोड़ सकता है। शरत बाबू के 'देवदास' की महिलाओं में लोकप्रियता के कई कारण हैं परंतु उनमें से एक यह भी है कि स्त्री को यह जानकर अच्छा लगता है कि उसके किसी असफल प्रेमी ने गम गलत करने के नाम पर स्वयं को शराब में डूबा दिया। यह उनके अहंकार को तुष्टि देता है। दरअसल बात शर्मसार करने की है कि आप किसी को शराबी बना रहे हैं और यह भी संभव है कि देवदासनुमा व्यक्ति शराब में गर्त होने के लिए बहाना खोज रहा था और पारो वह बहाना बन जाती है। उसे चंद्रमुखी का प्रेम क्यों नहीं नजर आता, उस तवायफ का अपना व्यवसाय बंद करने जैसे त्याग क्यों नहीं नजर आता। विमल राय की देवदास में राजिंदर सिंह बेदी ने कमाल का दृश्य लिखा है जिसमें चंद्रमुखी इस आशय की बात करती है कि उसके माध्यम से उसने पारो के प्रेम को समझा है और उन दोनों के विरह ने उसे स्वयं को समझने का अवसर दिया है। क्या चंद्रमुखी देवदास के माध्यम से पारो से प्रेम करने लगी है? शरत बाबू रिश्तों की भूल-भुलैया गढऩे में माहिर थे।

बहरहाल आज का युवा वर्ग रोम-कॉम फिल्में देखकर किसी से प्यार करने लगता है और कुछ दिनों बाद उसे अपनी पत्नी के दोष नजर आने लगते है या अब वह अपने को बेहतर समझने लगता है। यही कारण है कि आजकल तलाक की संख्या बढ़ रही है। यह भी आश्चर्य की बात है कि टेलीविजन के लिए काम करने वालों के बीच खूब प्रेम विवाह हो रहे हैं और अलगाव तथा तलाक भी हो रहे हैं जबकि फिल्मी नायक और नायिकाओं के विवाह नहीं हो रहे हैं। इस समय केवल रनवीर कपूर और कटरीना कैफ की ही संभावना दिखाई दे रही है। टेलीविजन संसार में कलाकार निरंतर संपर्क में रहते है क्योंकि प्रति सप्ताह पांच एपिसोड की शूटिंग करनी होती है। अधिक समय साथ-साथ बिताना इस बात की ग्यारंटी नहीं है कि दो कलाकार एक-दूसरे को बेहतर जानने लगे हैं। दरअसल किसी को जानने के लिए ज्यादा समय नहीं ज्यादा संवेदना की आवश्यकता होती है। सुभाष घई की 'ताल' के लिए आनंद बक्षी ने लिखा था 'मैं तुझको जान लूं, तू मुझको जान ले, दिल के पास आ दिल के रास्ते'। सच्चा प्रेम होना विरल है और उसमें मिलन या विरह का कोई अर्थ नहीं रह जाता। सच्चे प्रेमी शारीरिक रूप से एक दूसरे से दूर रहकर भी एक दूसरे से सच्चा प्रेम कर सकते हैं।

आज युवा वर्ग में 'प्रेम में डूब रहना' एक फैशन हो गया है जिसकी जड़ में एक बहुत गहरी बात है और वह भीतर का सूनापन और संवेदनहीनता की जड़ता है। यह बादलों से गुजरने की तरह है जिसमें आप बादलों की आद्रता को महसूस नहीं करते और ना ही उसमें छुपी बिजली को साधने की आप में कूवत है। सांसारिकता और उपभोगवाद ने ऐसे युवा बनाए हैं जो कुछ महसूस ही नहीं करते। कोई सात दशक पूर्व अल्वर्त कामों के 'आउट साइडर' उपन्यास में भावना शून्य पात्र पहली बार प्रस्तुत हुआ था। संभवत: इसी से प्रेरित था समरेश बसु का 'विविर'।

आज का संवेदनाहीन युवा बाजार और विज्ञापनों की शक्ति ने गढ़ा है और यह कामू के 'आउट साइडर' से अलग है जो संभवत: दूसरे विश्वयुद्ध की उपज था। आज के जीवन में वाचालता ने भी भावना शून्यता जन्मी है- यह दिन रात हर घड़ी का 'आइ लव यू' कहना मनुष्य को मशीन बना रहा है। प्रेम को माध्यम की आवश्यकता नहीं है, गालिब सही फरमा गए है 'ये लगाए न लगे, बनाए ना बने'। किसी भी रिश्ते की दरार किसी एक नुस्खे की मोहताज नहीं है, यह साधारणीकरण का मामला नहीं है, यह नितांत व्यक्तिगत और गोपनीय मामला है और उस संसार में तीसरा क्या, 'खुद का साया भी नहीं आने पाता है'। संगम में शैलेन्द्र कहते है 'ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम, एक दिल के दो अरमान है हम, यह धरती हैं इंसानों की और इंसान है हम'।