टूटते विश्वास को सहारा चाहिए / जयप्रकाश चौकसे
टूटते विश्वास को सहारा चाहिए
प्रकाशन तिथि : 01 सितम्बर 2012
सहारा नामक विराट संस्था में अनगिनत आम आदमियों के जीवनभर की बचत लगी हुई है। यह संस्था अनेक क्षेत्रों में सक्रिय रही है तथा एक दौर में मुलायमसिंह यादव, अमर सिंह, अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय जैसी लोकप्रिय हस्तियां भी सहारा मंच को सुशोभित कर चुकी हैं। सहारा के सिनेमा विभाग और टेलीविजन ने भी कुछ फिल्मों में पूंजी निवेश किया है तथा विगत एक वर्ष से बोनी कपूर सहारा मनोरंजन कंपनी में उच्चस्तर पर पदासीन हैं। सहारा हिंदुस्तानी क्रिकेट टीम की स्पॉन्सर है और करोड़ों की राशि वहां देती रही है। विगत कुछ दिनों से अधिकांश क्रिकेट सितारे सहारा 'क्यू' नामक डिपार्टमेंटल स्टोर्स की विज्ञापन फिल्मों में भाग ले रहे हैं। इन विज्ञापन फिल्मों का संदेश शुद्ध है, परंतु प्रस्तुतीकरण पर कुछ विवाद उठा। देश में खाने-पीने की चीजों में मिलावट की समस्या अत्यंत गंभीर है क्योंकि राष्ट्र की सेहत का सवाल है। जब राष्ट्र में राजनीति रुग्ण हो चुकी है, तब अवाम के सेहतमंद बने रहने की आवश्यकता और भी अधिक है, क्योंकि सचमुच में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के आदर्श स्थापित करने वाले राष्ट्र के लिए अवाम को लंबा सफर तय करना है। उस यात्रा का १९४७ तो महज एक पड़ाव था। अभी यात्रा जारी है और हम जितना जैसे भी चल रहे हैं, मंजिल और दूर जाती नजर आ रही है। कई बार तो शंका होती है कि क्या हम रेगिस्तान में चल रहे हैं और पानी तथा हरियाली का नखलिस्तान महज एक भ्रम है?
बहरहाल, सहारा वालों का शुद्ध माल बेचने का इरादा नेक है, परंतु अगर वे अपनी विज्ञापन शृंखला में शुद्ध माल के स्रोत को भी प्रस्तुत करें तो योजना की सफलता निश्चित हो जाएगी। मसलन एम्वे कंपनी उन खेत-खलिहानों के दृश्य दिखाती है, जहां ऑर्गेनिक ढंग से उपजाई चीजों से उसके विटामिन उत्पाद बनते हैं। वे सारी जमीनें और उन पर चल रहे कार्य यथार्थ हैं, इसीलिए लोगों को कंपनी पर यकीन है। हम यह मानते हैं कि सहारा कंपनी के स्रोत भी यथार्थ हैं। बस उसके पते-ठिकाने की खोज-खबर हो जाए तो इत्मीनान की सांस आए कि वह दिन दूर नहीं जब भोजन करते समय हाथ नहीं कांपेंगे कि कहीं इसमें जहर तो नहीं! बच्चों को दूध पिलाते समय यकीन रहेगा कि इसमें कोई हानिकारक रसायन नहीं मिला है। ममता भी शुद्धता का प्रमाण मांगती है। क्या करें, राजनीतिक दलों और उनके विरोध करने वालों का रचा-रचाया खेल कुछ इतना व्यापक हो गया है कि आम आदमी के मन में चहुंओर शंका के बादल छाए हैं। हालात इतने बदतर हो गए हैं कि कहीं से आवाज आती है तो शंका होती है कि कहीं ये मौत तो नहीं है। सभ्यता के किसी भी दौर में जीवन इतने महीने और कच्चे धागे से नहीं बंधा था, जितना आज बंधा है। इस धागे से केवल कबीर ही चदरिया बुन पाते।
किफायत और बचत की प्रवृत्ति भारत की ताकत रही है। हाल ही में एक विदेशी सर्वेक्षण संस्था ने संकेत दिया कि विगत कुछ वर्षों में बचत की प्रवृत्ति शिथिल हो गई है। मौज-मस्ती के मंत्र वाले कालखंड में बाजार ने इतने प्रलोभन रच दिए हैं कि दिल है कि मानता नहीं। इस समय प्रचार और बाजार ने धरा पर कुछ स्वर्ग-सा भरम रचा है कि अप्सराएं अनवरत नृत्य कर रही हैं, इंद्रधनुष सरों के ऊपर चंवर डुला रहा है, छप्पन भोग सामने परोसे हुए हैं। गोयाकि कठोर और निर्मम यथार्थ से दूरी बढ़ा दी गई है। सारे समय आपको वैकल्पिक संसार में विचरण करने को कहा जा रहा है।
बहरहाल, असल मुद्दा तो आम आदमी की बचत और उसके निवेश का है। वह बहुत भोला है और शीघ्र ही विश्वास कर लेता है। राज कपूर की पचपन-साठ वर्ष पूर्व प्रदर्शित 'श्री ४२०' में सेठ सोनाचंद धर्मानंद इलाहाबाद से आए भोले आदमी को आगे करके तिब्बत गोल्ड कंपनी के शेयर बेचता है। खेल स्पष्ट है कि कौन तिब्बत जाकर पड़ताल करेगा। फिर सौ रुपए में घर का सपना बेचा जा रहा है। एक वृद्ध महिला अपने जीवनभर की बचत के ९५ रुपए जमा कराते हुए कहती है कि एक खिड़की कम लगा देना। एक युवा महिला कुछ धन के साथ अपना मंगलसूत्र भी जमा करा देती है। ये लोग इतने मासूम हैं कि सौ रुपए में मकान के झांसे में आ गए। याद आती हैं दुष्यंत कुमार की पंक्तियां कि 'न हो कमीज तो पैरों से पेट ढंक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।' बहरहाल, इस दौर में उत्पन्न सनकीपन चाहता है कि सहारा के विशुद्ध माल के स्रोत की जानकारी हो जाए।