टूटना / राजेन्द्र यादव

Gadya Kosh से
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भूमि गोडसे ने जिस दिन गांधी जी की हत्या की, उसके तीसरे रोज के एक छोटे-से समाचार ने देर तक-या कहूं आज तक-मेरा ध्यान बांधे रखा-जिला के...कस्बे के दारोगा अताउल्ला खां ने गोली मारकर आत्महत्या कर ली। उसका खयाल था कि गांधी जी को सजा देने का यह हक सिर्फ उसे ही था। कहते हैं कि डेढ़ वर्ष बाद ही दारोगा को रिटायर होना था...

‘‘श्री एन. किशोर वर्मा, जनरल मैनेजर, बिजारिया इंडस्ट्रीज-ग्रुप लिमिटेड, टेन्थ-फ्लोर...’’

च्स्सी-च्स्सी...पता एकदम सही था। पलटकर देखा, लिफाफा जहां चिपका था, वहां मैला हो गया था। हाथ में पेपर-नाइफ लिए ही ऊपर रोशनी की तरफ उठाया, किधर से फाड़ा जाए कि खत न फटे। अंदर कहीं जगह खाली नहीं थी। कुछ तय करे न करे कि टेलीफोन बजा और कोई चीज करेंट की तरह तड़पकर खून में दौरा लगा गई। पते के ऊपर लाल स्याही से लिखे ‘पर्सनल’ पर निगाहें टिकाए, हाथ का पेपर-नाइफ उस पर आड़ा रख दिया। वह खुद भी जब पान-सनी जीभ से लिफाफे का गोंद गीला किया करता था तो चिपकाने पर लाल धारी उभर आती थी; हालांकि लीना को कभी भी उसकी यह हरकत...। लीना का बाप कहता, ‘गंवार!...’

वही टेलीफोन है क्या...?

ऑपरेटर ने बताया कि दिल्ली की ट्रंक-लाइन मिल गई है। अनजाने ही एक दराज जरा-सी खोलकर जूता टिकाया और रिवॉल्विंग चेयर पर पीछे झोंक लेकर, ‘हैलो, गुडमार्निंग मिस्टर बर्टन...’ के साथ जब बातें कीं, तो दिल धड़-धड़ कर रहा था। घबराहट को तो यह सोचकर जीत लिया कि हुंह, ऐसी आखिर क्या बात है! बड़े-बड़े गवर्नर-वॉयसरायों से दीक्षित जब ऐसे रौब से बातें कर सकता था, तो वह क्यों नहीं कर सकता? मान लिया, जॉर्ज मैक्फेरी-बर्टन इन-कॉरपोरेशन, बोस्टन का गवर्निंग-डायरेक्टर छोटा-मोटा आदमी नहीं होता; लेकिन खा तो नहीं जाएगा। यों इस समय उसकी बात का दुहरा महत्त्व है। बारह करोड़ रुपये का प्लांट बैठेगा-साझे में। पिछले साल सेठ जी अमरीका गए थे, तभी इस साझे की बात का बीज पड़ा था। लेकिन इस बार हो सकता है, उसे बर्टन के साथ ही जाना पड़े-अपनी कंपनी की ओर से या...या...। उसके सामने फिर एक बहुत बड़ा चांस आ गया है।

ऊपर से वह किसी तरह ‘या-याः,...राइट-राइट,...बट यू सी मिस्टर बर्टन...’ के साथ अपनी बात करता रहा; लेकिन टाई की नॉट टटोलती उसकी उंगलियां कांपती रहीं। छह मिनट बाद जब उसने ‘सो काइंड ऑफ यू’ कहकर लाइन काटी, तो माथे पर भाप जम आई थी; लेकिन चेहरे पर संतोष था। ‘च्स्सी! च्स्सी!’ पीछे कुरसी की पीठ पर लटके कोट की जेब से रूमाल निकालकर मुंह पर फेरा...एक घूंट पानी पिया। दीक्षित साहब अपने को लाख खुदा लगाते रहें, इस आदमी से बातें करें, तो नानी याद आ जाए।

पिछले हफ्ते बर्टन कलकत्ता आए थे। ‘लीग ऑफ कॉमर्स’ की मीटिंगें, दुनिया भर के कॉकटेल्स, डिनर्स का इंतजाम उसने ही तो किया था। बीच-बीच में व्यावसायिक बातें भी होती रहीं। उस खुर्राट, तेज और अनुभवी व्यवसायी के सामने उसी धैर्य और स्तर से टिके रहना सचमुच कम कौशल और कान्फिडेंस की बात नहीं थी, हर क्षण नर्वस हो जाने का खतरा रहता। यह सही है कि सारे आदेश सेठों के थे और वह उनका नौकर था; लेकिन एकाध-मीटिंग पार्टी में उपस्थित हो जाने के अलावा उन्होंने किया ही क्या? और मोटे-मोटे नफे-नुकसान ‘ले, लो, बेच दो’ के अलावा उन्हें पता क्या कि आज की व्यावसायिक दुनिया है कहां, कैसी है? नीम की मोटी दातुन रोंथते हुए, ‘विश्वामित्र’ पढ़ लेना और बात है और शिष्टाचार की बारीकियों, उठने-बैठने के तौर-तरीकों को समझना दूसरी बात...देसी आदमी शायद आपके पैसों के रौब में आ भी जाए; लेकिन ऐसा व्यक्ति आपके पैसे को क्या गिनेगा, जो सात समुंदर पार से आपके यहां आकर करोड़ों रुपये लगा रहा है? किशोर जानता है, अगर यह साझा हो गया तो कहीं इसमें उसका बहुत बड़ा हाथ होगा और हो सकता है उस नई फर्म में उसे ही सबसे महत्त्वपूर्ण पद संभालना हो...बर्टन के साथ मामला न भी पटे, तो भी सेठ जी को उससे ज्यादा योग्य और विश्वस्त आदमी कहां मिलेगा? और मान लो अगर...अगर?...

उसका मन एक नए सपने से थरथरा उठा। जब वह बर्टन को फैक्टरी की साइट दिखाने ले गया था, तो बहुत-सी बात करने का मौका मिला था-व्यक्तिगत और व्यावसायिक दोनों। ‘सम ऑफ अवर कैलीग्ज रिपीटेडली एडवाइज्ड अस, हॅल, नॉट टु हैव ऐनी सच अंडर्टेकिंग-आई मीन-इन-कोलेबोरेशन विद इंडियन बिजनेस फोक। दे आर नॉट सपोज्ड टु बी फेयर-माइंडेड...’ बर्टन ने हंसते हुए कहा था, ‘‘स्पैशली योर हॅल ऑफ मारवारीज...हम लोग मशीनें भेज सकते हैं, इंजीनियर्स और आर्कीटेक्ट भेज सकते हैं, उन्हें बिजनेस-ऐथिक्स तो नहीं सिखा सकते; सारा एटीट्यूड तो नहीं बदल सकते। पैसा हम भी कमाते हैं और इनसे चौगुना कमाते हैं, बट नॉट दैट फिल्दी वे। पैसा कमाना बहुत बड़ी कला है; लेकिन खर्च करना उससे बड़ी कला...वी हायर ए मैन ऑर फायर ए मैन-करेक्ट, बट वी पे द प्राइस इन ईदर केसेज। खर्च करने के नाम पर ये लोग सिर्फ घूस-रिश्वत देना जानते हैं। क्योंकि मैंटली दे आर स्टिल पैटी ट्रेडर्स एंड ग्रॉसर्स...डिवॉइड ऑफ कल्चर ऑर एज्यूकेशन...(इसका अपने-आप उसके मन में अनुवाद हुआ ‘डंडीमार’) इंडस्ट्री और इंडस्ट्रियल कल्चर क्या होता है, इसका अभी इन्हें क...ख...ग भी नहीं आता। हम तो चाहते हैं, इन्हें कुछ दिनों अपने यहां रखकर, कुछ इंटेलिजेंट किस्म के लोगों को आधुनिक व्यवसाय के तरीके और व्यापार-व्यवस्था सिखाएं। आप लोगों की सरकारी नीति आड़े आती है; वरना हमें तो किसी भी सहयोग की जरूरत नहीं हैं...फिर भी मैं व्यक्तिगत रूप से चाहता हूं कि तुम एक बार आकर हम लोगों के काम का आइडिया तो लो...

बर्टन ने ये सारी बातें उसे बहुत विश्वास में लेकर, मजाक का पुट मिलाकर, दोस्ती का वास्ता देते हुए टुकड़ों-टुकड़ों में कही थी; लेकिन किशोर को सारा रवैया पसंद नहीं आया था-जैसे साला दान कर रहा हो। इस तरह की भीतरी और बाहरी प्रतिक्रियाओं के बावजूद वह उनके पीछे छिपे आशय को भी समझ रहा था। फिर जब बर्टन ने कहा, ‘‘हमें टॉप-रिस्पौंसिबल पोस्ट्स के लिए ऐसे आदमियों की जरूरत पड़ेगी, जो काम के हमारे तौर-तरीके को भी जानते हों...गाईज लाइक यू (तुम्हारे जैसे नौजवान)...’’ तब तो कुछ समझने को नहीं ही रह गया...

इसलिए जब उसने दिल्ली के फोन के बाद ही ऑपरेटर से ‘एटलस ट्रेवेल्स’ मांगकर सुबह की फ्लाइट से जैसे भी हो, दिल्ली का टिकट मांगा, तो कहीं कुछ कचोट रहा था; कुछ गलत कर रहा है...और उसी कचोट को दबाने के लिए उसने फोन पर सेक्रेटरी को आदेश दिया, ‘‘रामन, किसी को फौरन एटलस भेज दो। फोन पर बात हो गई है। किसी नाम में हो, सुबह की फ्लाइट से एक टिकट...ऊपर से जो लगे, लगा देना।’’


दीक्षित की ऐसी-कम-तैसी...उसने परम तृप्ति के भाव से गहरी सांस फेंककर शरीर ढीला छोड़ दिया। सामने के दांतों की संधि से जीभ की नोंक अड़ाकर हवा खींची-च्स्सी-च्स्सी! साथ ही खयाल आया, उसकी इस हरकत को किसी ने देख-सुन तो नहीं लिया? चैंबर में कोई नहीं था, पीछे से आती एयर-कंडीशनर की बेमालूम-सी आवाज थी, टीक-प्लाईमढ़ी दीवारों वाली छत के जालीदार कटाव में जलते नियॉन ट्यूब्स थे और मेज पर रखे तीन टेलीफोन, टेबल-लैंप, कलेंडर, ट्रे-सभी बहुत साफ थे...इस बार उसने और भी जोर से ‘च्स्सी-च्स्सी’ किया और बच्चों जैसी अपनी शैतानी पर मुसकरा पड़ा। इस मुसकराहट के साथ ही भीतर की कचोट घुल गई-कुछ नहीं जो, जार्ज मैक्फैरी बर्टन इन-कारपोरेशन की नौकरी इस सटोरिये की नौकरी से हर हालत में अच्छी रहेगी...यहां क्या है? जब तक सेठ के हाथों में नाचो, तब तक ठीक है। जहां जरा भी अपना कुछ दिखाना चाहो, वहीं...और दूसरी कंपनियों के जनरल-मैनेजरों के मुकाबले पैसे बहुत कम...किसी को बताओ, तो शर्म आए...ये एयरकंडीशंड चैंबर, सेक्रेटरी, दो बैरे, फर्निश्ड-फ्लैट, ड्राइवर, गाड़ी और दो सौ आदमियों का स्टॉफ तो जो भी यहां होता, उसे ही मिलता...मुझे तो वही ढाई हजार और साल में बीसेक हजार ऊपर से देते हैं...लेकिन बर्टन में इससे दुगुना मिलेगा, तभी जाने की बात सोची जाएगी, नहीं तो...मगर इतना ही मिले, तब भी चले जाना चाहिए। बहुत बड़ी बात तो यह कि बर्टन साला हमेशा यहीं हिंदुस्तान में थोड़े ही बैठा रहेगा सेठ की तरह सिर पर...फिर अमेरिकन फर्म की बात ही अलग है...

और इस तरह का धर्म-संकट उसे हर बार नौकरी बदलते हुए आया है; लेकिन हर बार कचोट पहले से कम तीखी होती गई है...नहीं, वह किसी को धोखा नहीं दे रहा...उसे तो सिर्फ एक आदमी को दिखा देना है...ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता और अब वह किसी भी अवसर को छोड़ना एफोर्ड नहीं कर सकता। उसकी आंखों में लंबे जहाज की तरह सरकती शानदार गाड़ी तैरती चली गई...(‘लाईफ’ और ‘टाइम’ में उसने कई बार उन्हें छांटा है)...जिस लेटेस्ट-मॉडल की अमेरिकन गाड़ी में बैठकर किशोर घूमा करेगा, वह सेठ रामजीदास बिजारिया को दो साल बाद मिल पाएगी...

उत्तेजना की झुरझुरी जब उससे नहीं सही गई, तो वह कुर्सी को अपने पीछे घूमता छोड़कर, झटके से उठकर खड़ा हो गया...फॉर टॉप-रिस्पौंसिबल पोस्ट...गाई लायक यू...गाई लायक यू...मन हुआ कि जूते की एड़ी पर एक चकफेरी लगा जाए और सीटी बजाने लगे...लेकिन तभी उसे किसी का ध्यान आ गया, जो उत्तेजना के ऐसे आवेश को कभी भी यों नहीं प्रकट होने दे सकता था। वह पीछेवाली वैनीशियन-चिक खींचकर शीशे के पार देखता रहा...दस मंजिल की ऊंचाई से हर चीज का खिलौने जैसा लगना अब उसे चकित नहीं करता...पतली दरार जैसी सड़कों में काली-भूरी गाड़ियां कीड़े-मकोड़ों की तरह लगती हैं...सड़क पर राइटर्स-बिल्डिंग चाहे जितनी ऊंची हो; लेकिन यहां से जमीन से जरा-सी ही उठी लगती है, जिसकी बजरी-बिछी चौड़ी छत पर हजारों गमलों को दर्जनों मजदूर इधर-से-उधर रख रहे हैं, पूरा बगीचा लगा रखा है...बर्टन वाला मामला हो जाए तो छह-सात हजार आदमी तो अपनी कंपनी में भी होंगे...उसके नीचे।...तब वह अपने बंगले में खूब बड़ा बगीचा लगाएगा और नियम से बागवानी किया करेगा...साला पेट निकलने लगा है, इसे कम करना होगा-गाई लायक यू-उस जैसे टॉप आदमी की पर्सनेलिटी स्मार्ट होनी चाहिए...और उसकी उंगली अचानक नाक के नीचे वाले मस्से पर चली गई...वह उसे टटोलता रहा...बहुत बार कटवा दिया है, हर बार बढ़ जाता है, डॉक्टर बनर्जी कहते हैं, हर्ज क्या है! उसे क्या पता कि चेहरे पर यह कैसा लगता है...लाड़ में आकर लीना इसे दो उंगलियों में दबाकर पूछती थी, ‘इसमें दर्द नहीं होता? तुम्हारी पर्सनेलिटी में बस यही...’

अचानक उसे ‘पर्सनल’ वाले लिफाफे का खयाल हो आया। मेज से उसे उठाकर वह फिर वहीं आ खड़ा हुआ। नाइफ वहीं छूट गया था, इसलिए जेब से गुच्छा निकाल एक पतली-सी चाबी ले होशियारी से खोला, खत निकाला और फटा लिफाफा मसलकर बाहर फेंक दिया। चार तह किया हुआ मोटा-सा कागज था और बिना किसी संबोधन के अंग्रेजी में एक लाइन घसीट दी गई थी, ‘‘कां’ट वी फारगेट द पास्ट!’’ नीचे ‘लीना किशोर’ और खत के एकदम नीचे, ‘डिपार्टमेंट ऑफ इंगलिश, सेंट मेरी गर्ल्स कॉलेज’ और तब शहर का नाम। उसने निहायत निरुद्विग्न रहकर समझा-क्या हम अतीत को भूल नहीं सकते? कागज को उलटा-पलटा और कुछ नहीं...वह यों ही चुपचाप बाहर देखता, खोया-खोया खड़ा रहा...आठ साल में यह पहला पत्र है।

पीछे खट्-खट् हुई। मेज पर बहुत-से टाइप किए हुए कागज पेपर-वेट से दबाकर रामन लौट रहा था। किशोर को घूमते देख रुका। किशोर ने मेज के पास आकर खड़े होकर ताजे टाइप किए हुए अक्षरों पर निगाहें टिकाए पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘रोजर्स-नील वाले कागज हैं, लंच के पहले मांगे हैं।’’ रामन ने बताया, तब तक किशोर ने खुद भी पढ़ लिया था। रोजर्स एंड नील, सोलिसिटर्स से लंच से पहले एपॉइंटमेंट था। फैरो-एलॉय वालों ने अभी तक रुपया नहीं दिया। झंझट था, हजार रुपये रोज इंटरेस्ट कौन दे? बैंक बिजारिया-इंडस्ट्रीज से मांगता था; लेकिन जब ऐलॉयवालों ने पेमेंट ही नहीं किया, तो इंटरेस्ट भी उन्हीं के जिम्मे जाएगा...सारी चीजें उसके दिमाग में झटके से आ गईं, ‘‘ओ...हां, मेरे तो दिमाग से ही उतर गया था...!’’ और वह कागजों को गौर से देखता रामन द्वारा घुमाकर सीधी की गई कुरसी पर बैठ गया। घड़ी देखी, एक घंटा है। सारे कागज इसी बीच तैयार हो जाने हैं...

‘‘क्या?’’ जैसे ही रामन ने नीचे पड़ा कागज उठाकर बहुत धीरे-से मेज पर रखा, किशोर चौंककर पूछ बैठा। असल में वह भूल ही गया था कि रामन अभी तक वहीं है। कागज पर निगाह गई-अरे, लीनावाला खत है! शायद खिसककर नीचे गिर गया था। रामन ने पढ़ तो नहीं लिया? फौरन बोला, ‘‘तुम चलो...रोजर्स नील के यहां शिपिंग-क्लेम वाले कागजों का भी खयाल रखना...’’ और जब रामन ने दरवाजा खोला, तो कुछ सोचते हुए धीरे से कहा, ‘‘और सुनो...’’ फिर कई सेकंड याद करता रहा कि उसे रामन से क्या बात कहनी थी, ‘‘हां, वो एटलस में भेज दिया किसी को?’’

‘‘जी...’’

बिना रामन का जवाब सुने, मोटे फ्रेम का चश्मा नाक पर चढ़ाकर, हाथ में खुला कलम लिए वह टाइप किए हुए अक्षरों को गौर से पढ़-पढ़कर दस्तखत करने लगा था...अब जानती है न, कि मुझे चार-साढ़े हजार महीना पड़ता है...कां’ट वी फॉरगेट द पास्ट...अब तो भूलने की बात आएगी ही...

ट्रं-ट्रं-टेलीफोन बजा, उसने बिना उधर देखे ही हाथ बढ़ाकर टटोलते हुए चोंगा उठाया, ‘‘किशोर...’’

‘‘साढ़े पांच पर आ रहे हो न...?’’ क्राउन इंश्योरेंस का गर्ग था।

‘‘कहां?’’ किशोर सचमुच भूल गया था।

‘‘प्रिंसेस, और कहां...!’’ गर्ग झुंझला उठा, ‘‘अजीब आदमी हो...’’

‘‘यार, आज तो बहुत ही फंसा हूं...’’

‘‘तेरा हमेशा यही रोना होता है।’’ गर्ग झुंझला उठा, ‘‘अच्छा यार तू जनरल मैनेजर हुआ!...हमने मिसेज लालचंदानी को भी बुला लिया है...’’

‘‘आइ एम अंडर-स्टाफ्ड, जानता है मारवाड़ी कंसर्न है यह। क्या करूं, अपनी चिट्ठियां तक देखने की फुरसत नहीं मिलती।’’ उसे लीना के खत का ध्यान आ गया, ‘‘अच्छा, यू डोंट माइंड, मैं जरा लेट हो जाऊंगा...’’

‘‘ओऽ यस,’’ गर्ग खुश हो गया, ‘‘तुझसे यार, एक सलाह करनी थी। मिसेज लालचंदानी की बहन वाला ही चक्कर है। तुझसे कहा था अपने दफ्तर में रख ले-ऑपरेटर-कम-रिसेप्सनिस्ट...’’

‘‘मुझे और पिटवा! सचमुच की लड़की की बात दूर है, जानता है यहां लड़की की तसवीर तक नहीं लगती। फिर...जैसी बड़ी बहन है, वैसी ही छोटी भी होगी।’’ उसने मजाक तो कर दिया; लेकिन खयाल आया, मान लो ऑपरेटर टेप कर रहा हो? जनरल मैनेजर साहब...उसे इस गर्ग का तू-तू करके बात करना भी पसंद नहीं है। लेकिन आज कुछ कह भी नहीं सकता। पुराना दोस्त है, जब उसे कुल जमा छह सौ रुपये मिलते थे तब का! इसलिए वह खुद गर्ग से बहुत ही इज्जत से बात करता है; लेकिन कमबख्त हिंट ही नहीं लेता...कहीं दीक्षित साहब के सामने...। अचानक फोन पर उसकी आवाज कड़ी और सख्त हो गई, और वह सामने वाले कागजों को पढ़ता हुआ ‘हां, हूं’ के संक्षिप्त उत्तर देता रहा। गर्ग को लालचंदानी को लेकर कहीं जाना था, इसलिए किशोर की गाड़ी की जरूरत थी, दो घंटे के लिए। उसे खयाल भी नहीं कि कब उसने कहा, ‘‘यह सब तो शाम को सुनेंगे; लेकिन आई कां’ट बिलीव...मुझे विश्वास नहीं होता कि उस जैसी जिद्दी औरत ऐसा लिखेगी...’’

‘‘कौन? कौन?’’ गर्ग चौंककर बोला, ‘‘कौन ऐसा लिखेगी?’’

अचानक किशोर ने जीभ काट ली।...फौरन बोला, ‘‘सॉरी, यह एक साहब यहां बैठे हैं। उनकी बात का जवाब दे रहा था। अच्छा, तो शाम को मिल रहे हैं...’’ और उसने झट फोन रख दिया। गजब हो गया न...! क्या बात मुंह से निकल गई...? एकदम सामने बैठे साहब की बात न सूझती तो? यही प्रत्युत्पन्नमति ही तो उसे यहां ले आ सकी है...कोई दूसरा होता तो हाथ-पांव फूल जाते...च्स्सी! च्स्सी! उसने दराज खोलकर पाइप निकाला, कागजों पर निगाहें टिकाए-टिकाए ही तंबाकू-भरी और दांतों में दबाकर जलाने लगा...यह पाइप उसे बर्टन ने दिया था। तभी बैरे ने आकर धीरे-से एक चिट सामने रख दी...

‘‘भेज दो।’’ बैरा चला गया, तो खयाल आया कि जनरल मैनेजर को एकदम किसी को नहीं बुलाना चाहिए-लगेगा, भीतर खाली बैठा था। चिट पर नाम के आगे ‘जयंत’ और बिजनेस के सामने ‘बाई एपॉइंटमेंट’ लिखा था। इसका तो उसे खयाल ही नहीं कि आज का समय दिया था। चिट रखी, तो रामन का पेपरवेट से दबाया गया ख़त सामने था, ‘‘कांट वी फॉरगेट द पास्ट?’’ जल्दी से मोड़कर पीछे लटके कोट की जेब में डाल लिया-हर बार सामने पड़ जाता है...

‘‘गुड-मार्निंग, सर...’’ डरते-डरते-से एक नवयुवक ने इस तरह प्रवेश किया, मानो खेल शुरू हो जाने के बाद किसी ने सिनेमा-हॉल में कदम रखा हो, टटोलते हुए। पाइप बुझ गया था, उस पर जली माचिस छुआए तीन-चार बार सांस खींचते-खींचते किशोर ने धीरे-से हिलाकर नमस्कार की स्वीकृति दी और एक हाथ से बैठने का इशारा किया।

‘‘जी, वो फर्नीचर वाले कोटेशंस लाया हूं,’’ सिर झुकाकर ब्रीफकेस से कागज निकालते-निकालते जयंत बोला। वह ऑफिस के फर्नीचर के डिजाइन, नक्शे और दाम बताता रहा। गेहुआं दुबला-सा नवयुवक, हैंडलूम की टाई, टेरिलीन की आसमानी कमीज, काली पतलून। पाइप के कश लगाता हुआ किशोर कभी उसके पीलापन लिए हुए संवारे बालों को देखता और कभी दाहिने हाथ में पड़ी लोहे की अंगूठी को, जिसमें नग की जगह स्फिंक्स का चेहरा बना हुआ था। परसों किशोर को जयंत अपनी पत्नी के साथ न्यू-मार्केट में मिल गया था। भरे शरीर की सुंदर हंसमुख युवती थी। जयंत के हाथ में पैकेट थे और माला के पास पर्स। परिचय हुआ। उसे जयंत का साफ-सुथरा, शिष्ट तौर-तरीका शुरू से ही पंसद है। माला के परिचय के बाद ही लगा, जैसे जयंत से उसे स्नेह भी हो। पता नहीं, कैसे उसे भ्रम हो गया कि माला को बैडमिंटन खेलना पसंद है, और उसे क्रीम खाने का शौक है।

जयंत के बढ़े हुए हाथ से कागज लेकर लापरवाही से पूछा, ‘‘हाउ इज योर मिसेज?’’

‘‘फाइन, थैंक्यू!’’ जयंत ने पिन-कुशन से पिन खींचकर दो कागज पिन किए और सामने सरका दिए, ‘‘एक स्कूल में पढ़ाती हैं-म्यूजिक।’’

‘‘क्यों, मॉडर्न-रिनोवेटर्स तुम्हें ठीक पैसे नहीं देते क्या?’’ उसे खुद आश्चर्य हुआ कि वह यह सब क्यों पूछ रहा है।

‘‘लेकिन ऑफिस-टु-ऑफिस चक्कर लगाने का काम उसे पसंद नहीं है।’’ अचानक जयंत की आंखों में एक चमक आई, ‘‘आपके यहां कभी कोई जगह हो तो...’’ किशोर को एकदम काम और समय का एक साथ ही खयाल आया। दस्तखत करने से पहले कोने में कुछ लिखता हुआ बोला, ‘‘जरूर।’’ फिर सोचने लगा, बर्टनवाली कंपनी में जयंत को लिया जा सकता है। उसे जयंत पसंद भी है। जरूरत तो पड़ेगा ही...‘‘आइ लाइक यू, तुम्हारी मिसेज बहुत अच्छा गाती हैं क्या?’’ जाने क्यों, उसके मन में आया कि कभी जयंत की पत्नी को एक बहुत खूबसूरत रॉ-सिल्क की साड़ी भेंट देगा।

‘‘जी हां...’’ जयंत ने गद्गद् होकर कहा, ‘‘आपको एक बार हम लोग बुलाएंगे। दो-एक बार रेडियो पर भी प्रोग्राम हुआ है...’’

‘‘डजं’ट शी हेट यू?’’ जब तक वह सचेत हुआ, वाक्य उसके मुंह से निकल चुका था...उसने जल्दी-से बुझे पाइप से दो-एक कश खींचकर कहा, ‘‘आइ मीन, योर वर्क...तुम ये फर्नीचर और दूसरी चीजों के एस्टीमेट देते फिरते हो; उन्हें बुरा तो लगता ही होगा?’’

‘‘जी...जी, मैंने बताया न, बहुत पंसद तो नहीं है। बात यह है जी, उसके घर वाले जरा-से अच्छे खाते-पीते लोग हैं, सो उसे कहीं मेरे काम से संकोच होता है।’’ लेकिन जयंत का चेहरा देखकर ही किशोर को लग गया कि बात संभली नहीं है। उसे आश्चर्य और अफसोस होता रहा कि कैसे वह बात उसके मुंह से निकल गई? क्या हो गया उसे? जयंत की बातों के जवाब में ‘हां-हूं’ करके उसने जल्दी से दस्तखत किए, फिर झटके-से बैरे की घंटी बजाकर उठते हुए बोला, ‘‘माफ, करना जयंत, इस वक्त जल्दी में हूं। मुझे लंच से पहले ही रोजर्स-नील के यहां जाना है।’’ और बिना उत्तर की राह देखे दोनों कंधों पर कोट चढ़ाते हुए बैरे को आदेश दिया, ‘‘खिलावन, रामन से कह दो, कागज लेकर नीचे गाड़ी में चलेगा। जयंत, तुम दत्ता बाबू से मिलकर उन्हें ही सारी बातें समझा जाना।’’ पाइप ऐश-ट्रे में झाड़कर कोट की जेब में रखा, तो तह-किए कागज से हाथ का स्पर्श हुआ...कां’ट वी फॉरगेट द पास्ट?...डजंट योर वाइफ हेट यू, आइ मीन योर वर्क? बीवी तुमसे, मेरा मतलब तुम्हारे काम से घृणा नहीं करती? गाई लायक यू...बड़े बाबू के चैंबर तक आते-आते यही वाक्य उसके कानों में गूंजते रहे...बड़े बाबू, यानी रामजीदास के भाई कन्हैयालाल बिजारिया, मैनेजिंग डाइरेक्टर...


रामन ड्राइवर के पास बैठा था। पीछे वह अकेला बैठा-बैठा पाइप पीता रहा। चौराहे की लाल रोशनी ने जब रोका, तो अचानक कुछ याद आ गया हो, इस तरह कहा, ‘‘रामन, मैक्फैरी बर्टनवाली फाइल आते ही एकदम तैयार कर देनी है। शाम को लोकल-डाइरेक्टर्स की मीटिंग है। घर पर बोल देना, शायद कुछ देर हो जाए...और हां, क्राउनवाले गर्ग साहब को मना कर देना कि मैं शायद आ नहीं पाऊगा।’’ फिर ड्राइवर को आदेश दिया, ‘‘गाड़ी पांच बजे गर्ग साहब को चाहिए। सात-साढ़े सात तक यहीं आ जाना, हमें थोड़ा रुकना होगा!’’ वह जानता है मिसेज गर्ग, यानी निर्मला भाभी ऐसी महिला हैं, जिन्हें देखकर श्रद्धा होती है-हताशा के अनेक क्षणों में उन्होंने ही किशोर को बिखरने और टूटने से बचाया है...लेकिन जाने क्या चीज है, जो उसके भीतर संतुष्ट होती है और वह जो यों गर्ग को लालचंदानी के साथ घूमने को गाड़ी दे देता है, उसे इसमें कुछ भी अनुचित नहीं लगता...लेकिन आज मानो विशेष तृप्ति हुई...उसने रामन से मजाक करना चाहा-इस उल्टे-सीधे टाइम से तो तुम्हारी पत्नी खासी बोर हो जाती होगी; हो सकता है उस बेचारी ने आज कोई प्रोग्राम बना रखा हो...वह जेब से डायरी निकालकर कुछ देखता रहा, ‘तुम्हारी पत्नी को देर से जाने पर शक नहीं होता?’ उसे लगा, जैसे उसने यह वाक्य मजाक में रामन से कह दिया हो...लेकिन कहा नहीं था; सिर्फ सोचकर रह गया था; क्योंकि प्रतीक्षा के बाद भी रामन की ओर से कोई जवाब नहीं आया। ऐसा मजाक तो वह कभी कर ही नहीं सकता। तंबाकू भरने के लिए पाउच को दोनों जेबों में देखा तो लगा, सुबह से जिस चीज को वह टाले जा रहा है, वह जूते की कील की तरह और बाहर निकल आई है, अधिक गहराई में छेदती है...

क्लब के पोर्च से जब किशोर की वैंगर्ड घूमकर बाहर निकली, तो ह्वाइट-लेबिल के पांच-छह पैग नसों में तैर रहे थे। सड़क तनी हुई डोरी की तरह हवा से थरथराती लगती थी। लेक के बीच से गुजरते हुए एक अंधेरी-सी जगह में अचानक गाड़ी ठिठक गई। स्टेयरिंग को दोनों हाथों से पकड़े देर तक वह यों ही शून्य-सा देखता रहा, फिर झटके-से चाबी खींची, बाहर आया और फटाक् से दरवाजा बंद करके एक बेंच पर आ बैठा। लगातार कोई चीज कानों में सन-सन गूंज रही थी-ठीक वैसी ही आवाज, जैसी रेल की सुनसान पटरियों के किनारे खड़े टेलीग्राफ के खंभों में गूंजती है। वह महसूस करता रहा-सुबह से ही एक सवाल उसके आसपास मंडरा रहा है, लीना ने आठ साल बाद उसे क्यों लिखा?...सुबह जब उसे लीना का खत मिला था, आयासपूर्वक उसने कुछ नहीं सोचा था-कुछ भी नहीं। एक तल्ख मुस्कान से सिर्फ उस लाइन को पढ़ लिया था, ‘क्यों हम लोग अतीत को भुला नहीं सकते?’ अतीत?...कौन-सा अतीत? अतीत को अपने साथ रखना अब उसका अभ्यास नहीं रह गया है, इसलिए कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। बस, मन में एक बात आई थी कि आज मैं किसी लायक हो गया हूं-इसलिए न? आठ साल बाद किस अतीत को भूलने की बात लीना करती है? इन पिछले आठ वर्षों वाला अतीत या वह, जो इनसे पहले बीता था? और इसी तरह की कोई चीज लगातार कहीं घुमड़ रही है, इसे वह जरूर महसूस करता रहा। इस समय लगा, घुमड़ते हुए उस निराकार ने प्रायः स्पष्ट प्रश्न का एक रूप ले लिया है। आखिर उसने क्यों लिखा? उस जिद्दी, दंभी उद्धत, स्वाभिमानिनी औरत ने कितनी मुश्किल से अपने को यह पत्र लिखने के लिए तैयार किया होगा, यह सिर्फ किशोर ही महसूस कर सकता है। हो सकता है इन पिछले आठ वर्षों में रात-दिन लगातार वह अपने-आपको इस बात के लिए ही तैयार करती रही हो-इस एक लाइन को लिखने के लिए। और क्या इस एक लाइन को कुछ यों-ही-से ढंग से लिखकर वह कहीं अपना ही पलड़ा तो भारी रखना नहीं चाहती?...लेकिन उसका पहल करके, पत्र लिखने के धरातल तक ‘उतर’ आना ही क्या...और क्या वह स्वयं इसी की आशंका-भरी प्रत्याशा नहीं कर रहा था?


ऐसा नहीं कि खुद किशोर के मन में हर दिन कम-से-कम एक बार यह बात न आती हो कि बहुत हुआ, अब वह लीना को लिख दे; लेकिन हर रोज किसी ने उसका हाथ पकड़ लिया-या कहो, जिसने उसका हाथ पकड़ा हुआ था, उसकी शक्ति का वह प्रतिरोध करता रहा ‘ओल्ड-मैन एंड द सी’ फिल्म का एक दृश्य इन आठ वर्षों में हजारों ही बार उसके सामने आया...शराबखाने में ‘बूढ़ा’ मेज पर कोहनी टिकाए किसी से पंजा लड़ा रहा है-पंजा नहीं, दोनों ने एक-दूसरे की हथेली को अपनी पकड़ में ले रखा है और दोनों ताकत आजमा रहे हैं कि कब, कौन, किसके हाथ को मोड़कर मेज पर झुका दे। ताकत से अधिक यह खेल धैर्य का है। एक सीमा पर आकर शक्ति रुक जाती है और धैर्यपूर्वक दूसरे की हिम्मत टूट जाने की प्रतीक्षा चलती रहती है। कभी-कभी उसे लगता है, दूसरा हाथ लीना का है, लेकिन अक्सर प्रतिरोध के रूप जिसका हाथ वह महसूस करता रहा है, उस व्यक्ति का सिर्फ नाम सामने है; चेहरा आज स्पष्ट याद नहीं आता। अनेक चेहरों में वह इतना घुल-मिल गया है कि लगता है, उस तरह का कोई चेहरा कभी था ही नहीं। और यह संघर्ष निरंतर उस निराकार चेहरे वाले व्यक्ति से चल रहा है। दांत भींचे, सांस रोके दोनों प्रतीक्षा कर रहे हैं कि पहले किसकी नसें ढीली पड़ती हैं...

लीना से वह आठ वर्षों से नहीं मिला और अब तो इस स्थिति को स्वीकार कर चुका है कि आगे मिलने की आवश्यकता भी नहीं है। लेकिन ताकत आजमाती पसीने से पसीजी एक सख्त हथेली का स्पर्श एक पल को भी उसकी चेतना से ओझल नहीं हुआ। सुबह शायद उसे खुशी ही हुई थी-एक निर्दय खुशी कि ‘खट्’ की आवाज के साथ उसने लीना के हाथ को मेज पर झुके हुए पाया है...फिर लगा, वह हाथ लीना का नहीं, एक दूसरा सख्त हाथ है।

सुबह की निष्करुण, क्रूर प्रसन्नता का सुख सांझ तक धीरे-धीरे अनजाने ही एक अजीब अवसाद में बदलता चला गया था और वह अचेतन की एक आवेगमयी इच्छा से लड़ता रहा कि सुबह दिल्ली न जाकर, प्लेन से सीधे लीना के पास जाए और उस हारी-थकी, जर्जर, पराजिता को बांहों से उठा ले, ‘लीना, मेरी लीना, मुझे माफ कर दो!’ कैसी हो गई होगी इन आठ वर्षों में लीना? जब वे अलग हुए थे, तो वह छब्बीस की थी, आज चौंतीस की होगी। काले केशों में सफेद धारियां उभर आई होंगी, चेहरे पर उम्र का पकाव झलकने लगा होगा और शरीर फैल या सूखकर वह नहीं रह गया होगा, जिसे वह ‘अंग-अंग सांचे में ढला’ कहा करता था। नहीं, अब उस हारी-थकी, टूटी प्रौढ़ा का सामना करने का साहस भी तो किशोर में नहीं है। अपराध आरोपती निगाहों से वह कैसे दो-चार हो सकेगा? सचमुच, बेचारी कहीं बहुत मजबूर ही हो उठी होगी; वरना कैसे उसे यह पत्र लिख पाती?


देर तक आंसू किशोर के गालों पर ढुलकते रहे। लेक के पार किनारे-किनारे रेल गुजर रही थी और उसकी रोशनियां पानी के भीतर सुनहरी कातर-जैसी सरकती जा रही थीं। क्या वे लोग सच में ही दुर्भाग्य बनकर एक-दूसरे की जिंदगी में आए थे?

...लेकिन सौभाग्य किसे कहते हैं, इसे जिंदगी में पहली बार किशोर ने उसी दिन जाना था, जिस दिन लीना का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, ‘लीना, तुम एक बार अपने मुंह से कह दो...कहो लीना! देखो, मेरे पास तुम्हें देने को एक प्यार-भरे दिल के सिवा कुछ भी नहीं है...’ मुंह से लीना ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘सब कुछ शब्दों में कहकर ही बताया जाता है, किशोर!’ किशोर को विश्वास नहीं हुआ था। लगा, जैसे संसार की हर चीज अवास्तविक, अन-रीयल हो उठी हो। यूनिवर्सिटी के लड़के सुना-सुनाकर आपस में कहते, ‘इसे कहते हैं छप्पर फाड़कर देना! जिंदगी साले की ट्यूशनें करते, फ्रीशिप और स्कॉलरशिप के लिए इस मेंबर से उस मेंबर के यहां चक्कर लगाते बीती और आज देख लो, क्या अकड़कर असिस्टेंट-कमिश्नर का दामाद होने जा रहा है!’

‘लेकिन बेटे, हाथी बांध तो रहे हो, उसे खिलाओगे क्या?’

‘हाथी नहीं, हथिनी! सफेद हथिनी! जो इतना बड़ा जानवर देगा, वह दो-चार गन्ने के खेत भी देगा ही। असिस्टेंट-कमिश्नर इनकम-टैक्स कहते किसे हैं, कुछ पता है?’

‘यानी किशोर साहब वहां खेत पर जाकर ही मढ़ैया डाल देंगे?’

‘खेत पर? और वो जो कमिश्नर साहब के तीन-तीन बुलडॉग बैठे हैं सो...

मानो-लिजा के भाई। जमाई जी की वो खातिर करेंगे कि सीधे घर आकर ही...’

‘और जो है सो है, पर यार, फांसा खूब! नोट्स तैयार करके पढ़ने के पार्टनर, ये फायदे हैं, समझे कुछ? तुम जिंदगी-भर बैठे-बैठे लाल स्याही से किताबों पर निशान लगाते रहना, कोई छमिया पूछने नहीं आएगी। घोटूराम का सिर कड़ाही में और पांचों उंगलियां घी में! कॉलेज-लाइफ एंजॉय करनी है, तो आदमी को चाहिए, एक खूबसूरत-सी कॉपी में नोट्स तैयार करके अलग रख ले।’

‘मगर डार्लिंग, यह हुआ कैसे? बाप साले की आंखें हैं कि बटन? उसे टिपता नहीं है कि जो चुगद सारे दिन ट्यूशन करे, न जिसके सिर पर छत हो और न तले फर्श, वह क्या खिलाएगा बिटिया को?’

‘तिरिया-हठ मि-लॉर्ड, तिरिया-हठ! लौंडिया बिना खाए-पिए सत्याग्रह किए पड़ी रहे, तो बोलो, बाप बेचारा क्या करे?’

‘अरे जनाब, करे क्यों नहीं? मर्द बच्चा हो, तो हंटरों से वो ठुकाई करे कि सारा रोमांस फाख्ता हो जाए। और इन मजनूं साहब को तो यों चुटकियों में उड़ा दे...कटवाके बहा दे रातोंरात! क्या मजाल, जो किसी को सुराग लग जाए जरा भी! हिम्मत होनी चाहिए मिस्टर, हिम्मत!’

‘हिम्मत तो भाईजान, किशोर की माननी पड़ेगी।’

‘नॉनसेंस! उनकी तो आज भी हिम्मत उस बाउंड्री में घुसने की नहीं होती। वो तो हमारी मोना-लिजा ही सब कर रही हैं...’

‘हाय मोना, तेरी यह दुर्दशा!’

इन फिकरों और कहकहों के बीच किशोर भले ही अपने को हीरो के रूप में देखने लगा हो; लेकिन यह सच है कि लीना की दृढ़ता और साहस के आगे कहीं वह अपने को बहुत छोटा और नमित महसूस करता था। और इसमें भी झूठ नहीं कि शादी हो चुकने के बाद वाले दिन तक असिस्टेंट-कमिश्नर दीक्षित के बंगले के फाटक का ‘बिवेयर ऑफ डॉग’ के ऊपरवाला कुंडा खोलते उसका दिल धड़-धड़ करने लगता था। अल्सेशियन कुत्तों के डर से नहीं, लीना के भाइयों के डर से भी नहीं, बल्कि दीक्षित साहब की नजरों के डर से। खून को जमा देने वाली उन ठंडी निगाहों के सामने पड़कर वापस आ सकने लायक शक्ति भी उसमें रह जाएगी या नहीं? आज तो लगता है, जो कुछ उन दिनों हुआ, किशोर उन सबका मात्र तटस्थ-दर्शक था। शादी दीक्षित साहब के यहां नहीं; हुई थी कोर्ट में। इसके पहले और बाद ट्रैजेडी और फार्स दो नाटक हुए थे-यानी शादी से पहले मार डालने, उस लफंगे को कहीं का न रखने और पांच दिन भूखे रहने, कमरे में बंद करके सड़ने देने का नाटक हुआ, जिसके अंतिम अंक में एक दिन किशोर ने लीना को अलस्सुबह अपनी कोठरी के दरवाजे पर खड़े पाया-बदहवास, खाली हाथ। ‘अपने घर रहने आई हूं। कितनी मुश्किल हुई है निकलने में कि बस! अब कोई हमारा क्या कर सकता है? कानूनन हम लोग पति-पत्नी हैं।’ फिर किस तरह ‘भाड़ में जाओ’ के अंदाज में सब दिखावा करना पड़ा, किस तरह मसूरी के एक होटल में डबल-बेड रूम का इंतजाम करके उन्होंने दो ट्रेन-टिकट किशोर को दिए और स्टेशन पर जब अपनी ‘बेटी को विदा’ किया, तो सख्ती के मुखौटे का मोम पिघल आया था। उनकी आंखों में नमी तैर आई; लेकिन एक तनाव बना रहा और उदासीनता का अभिनय करता किशोर गर्दन अकड़ाए अपने और दूसरों को विश्वास दिलाता रहा-वर्ग की दीवारें आखिर मनुष्यों की भावनाओं को कितने दिनों और कुचलेंगी? आदमी ही तो है, जो इतिहास को बनाता और बदलता है। प्रतिष्ठा-धन की, जाति की, पोजीशन की प्रतिष्ठा-हम लोगों के भाग्य की निर्णायक क्यों हो? लेकिन ये सारे घिसे-पिटे वाक्य वातावरण में व्याप्त अपमान के डंक से उसे अछूता नहीं रख पाते थे।

पापा ने कुछ नहीं दिया-देने की बात भी नहीं थी और किशोर उसकी उम्मीद भी नहीं कर रहा था; लेकिन स्टेशन पर यह मौन आश्वासन भी टूट गया। प्लेटफार्म की घड़ी के पास जब हरी झंडी हिली, तो उन्होंने लीना के हाथ में एक बंद लिफाफा रख दिया।, ‘इसे बाद में देखना!’ गाड़ी चली, तो किशोर को लगा कि दीक्षित साहब न तो उससे हाथ मिलाना चाहते हैं, न आंखें। वे यों ही खोए-खोए-से सख्त चेहरा किए एक ओर खड़े रहे और उससे नहीं; लीना से उखड़े-उखड़े बोलते रहे। स्टेट एक्सप्रेस का डिब्बा एक हाथ से दूसरे हाथ की यात्रा में मानसिक उत्तेजना प्रकट करता रहा। गाड़ी चली, लिफाफा खुला-लीना के नाम पांच हजार का एकाउंटपेयी चेक था। पहली चीज किशोर के दिमाग में टकराई, ‘सिर्फ पांच हजार!’ फिर लगा, यह पांच हजार रुपयों का नहीं, पांच हजार अविश्वासों का चेक है, जिस आदमी के साथ तुम जा रही हो, उसके साथ कभी भूखी मरने लगो, तो इन रुपयों से काम चला लेना। किशोर का चेहरा पढ़कर लीना समझाती रही, ‘पापा बेहद कट्टर सिद्धांतवादी आदमी हैं। वे कहते हैं कि झूठे दिखावे और रुपये की बरबाद से क्या फायदा? जो रुपया देना है, वह सीधे ही क्यों न दे दिया जाए? बजाय इसके कि वे हमें कोई उलटी-सीधी चीज दे-देते और हमें पसंद न आती, क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं है कि हम अपनी जरूरत की चीज खरीद लें?’ वह कुछ नहीं बोला। अपने जुकाम को बार-बार रूमाल में साफ कर-करके रखते और स्टेट-एक्सप्रेस का टिन हाथ में लेकर बातें करते दीक्षित साहब की आकृति ही उसके सामने घूमती रही। ग्यारह-बारह साल हो गए, उस आकृति की रेखाएं अब अलग-अलग लोगों के चेहरों में समा गई हैं और उसे ज्यों-का-त्यों याद कर लेना भी उसके लिए संभव नहीं रह गया है। लेकिन उस दिन वाला प्रभाव आज भी दिमाग से नहीं जाता। मुंह की ओर बढ़ता सिगरेटवाला हाथ और सांवले होंठों का उसे पकड़ने के लिए उदग्र हो आना-बाई-फोकल चश्मे से बाज जैसी तेज आंखों का झांकना-सुप्रीम कान्फिडेंस और हर चीज को आर-पार भेदकर उसको जाने-बैठे होने का दंभ-सब मिलाकर एक ऊंचाई पर खड़े, हिकारत से नीचे देखते व्यक्ति की ललकारती भंगिमा मन-ही-मन दांत भींचकर किशोर ने सोचा, ‘साला शक्ल से ही टोडी बच्चा लगता है। हमारी सरकार ने इन लोगों को रिटायर क्यों नहीं किया?’ फिर एक दूसरा शब्द दिमाग में आया, ‘ब्यूरोक्रैट्स!’

हवा ठंडी थी। खाना खाकर दोनों बाहर निकले थे और कुलड़ी माल पार करके रिक्शा-स्टैंड के सामने ही दीवार पर, जरा एक ओर हटकर बैठ गए थे। अंधेरे में जगमगाती बत्तियों की आड़ी-तिरछी मालाएं टूट-टूटकर नीचे ऊबड़-खाबड़ अंधेरे में चली गई थीं...किं-क्रेग के गुच्छे के बाद, बस, कहीं-कहीं बत्तियां सड़क का आभास देती थीं। नीचे बहुत दूर हल्के उजास को देखकर लगता था, वहां देहरादून है।

‘‘कभी-कभी मैं सोचता हूं लीना’’, तीन दिनों में घुमड़ती बात को किशोर शब्द देने की कोशिश कर रहा था, ‘‘कहीं हम लोगों से कुछ गलत तो नहीं हो गया...’’ लाइब्रेरी-चौकवाले मंडप को देखता रहा। लीना की इस सारी दृढ़ता ने उसे डरा दिया था। जो लड़की अपने दबंग बाप की फिक्र न करे, वह सचमुच डरने लायक ही है। काले शॉल को एक बार खोलकर सारे कंधे ढंकते हुए लीना सामने देखती बोली, ‘‘देखो किशोर, मैं बच्ची नहीं हूं। मैं जल्दी निर्णय नहीं लेती, और जब एक बार निर्णय ले लेती हूं, तो उस पर टिकने की कोशिश करती हूं। पापा को भी जानती हूं और तुम्हें भी समझती हूं। सब जानते-बूझते हुए, पूरे होश-हवास में भी तुम्हारे साथ कोर्ट गई थी। और सच कहूं, मैं इसे भी पापा की मेहरबानी ही समझती हूं-उन्होंने इतना किया। मैं तो तुम्हारे यहां जब पहुंची थी तो इस सबका मोह छोड़कर पहुंची थी। जानती थी, यह सब नहीं होगा...’’

‘‘नहीं होता तो ज्यादा अच्छा था।’’ गहरी सांस लेकर उसने धीरे से कहा। लीना के स्वर की यह दृढ़-निर्णयात्मकता उसे अपने-आपकी विरोधी लगती है। और अचानक उसे दीक्षित साहब की वह मुद्रा याद हो आई, जो उसे महसूस कराती थी-मानो वह जमीन पर रेंगनेवाला कीड़ा हो।

‘‘खैर, जो हुआ, सो हुआ; पापा को माफ कर दो। देखो, उनका सोचने का, दुनिया को देखने-सुनने का, चलने-चलाने का अपना एक तरीका है। शायद अब वे बदल भी नहीं सकते। कम-से-कम तुम उनका इसी बात का लिहाज कर दो कि मैं उनकी इकलौती लड़की हूं-भाइयों में सबसे बड़ी। मेरी शादी वे सचमुच शौक से ही करना चाहते थे...’’ लीना का गला भर्रा आया, ‘‘यही जरा-सी अटक इस समय आ गई है; वरना हम जानते हैं, पापा के मन में तुम्हारे लिए कितनी इज्जत है। बहुत बार उन्होंने कहा है-किशोर ईमानदार और मेहनती लड़का है। उसे देखता हूं, तो मुझे अपने दिन याद आ जाते हैं।’’ और वह विस्तार से बताती रही, ‘‘पापा खुद सेल्फमेड आदमी हैं। चाचा-ताऊओं ने तो हरी झंडी दिखा दी थी। खुद पढ़े, छोटे भाई-बहनों को पढ़ाया। भाइयों को नौकरी दिलाई, बहनों की शादी की। आज जो कुछ हैं, सिर्फ अपने बूते पर हैं। आपके संघर्ष को वे नहीं समझेंगे, तो कौन समझेगा? इसलिए जानते हैं, अभाव क्या होता है। शायद यही वजह है कि हम लोगों की किसी इच्छा को कभी अधूरा नहीं रखा। आधी रात को उठकर अगर हम लोगों ने कहा-पापा, ट्राइसिकिल लेंगे, तो आदमी दुकान खुलवाकर ट्राइसिकिल लाया है।’’ कहते थे-’‘मेरी इच्छाएं अगर अधूरी रह गई हैं, तो मैं अपने बच्चों का मन क्यों मारू?’’

लीना का यह बहाव किशोर को किनारे पर अनभीगा खड़े छोड़ जाता है, ‘‘और तुम आई भी हो तो एक ऐसे आदमी के साथ, जिसने खुद कभी जिंदगी में नहीं जाना कि इच्छाएं पूरी होना किसे कहते हैं! भैया को अस्सी-सौ रुपये मिलते हैं। बच्चे हैं, बे-पढ़ी भाभी हैं-जिन्होंने मुझे मां की तरह पाला है। मां-बाप का प्यार मैंने तो सिर्फ भैया में ही पाया है। इसलिए कभी-कभी सोचता हूं कि दोस्ती तक हम लोगों के संबंध ठीक थे; लेकिन आगे...’’

‘‘फिर वही बात! देखो, कोई भी लड़की जब ऐसे निर्णय ले लेती है किशोर, तो खूब आगा-पीछा सोच लेती है। मुझे सभी तरह की जिंदगी जीने की आदत है।’’ उसने किशोर का हाथ अपने हाथ में ले लिया, ‘‘आज तो तुम्हारी लेक्चरशिप पक्की है न, इसलिए एक आधार है। यह न भी होती, तब भी मैंने आने का निर्णय कर ही लिया था। अब हम दोनों के दुःख-सुख अलग कहां रह गए हैं? अरे, मैं तो कहती हूं, इस साल मैं फाइनल किए लेती हूं; फिर निश्चिंत होकर पी-एच. डी. कर डालो। ये ट्यूशन और नोट्स तो तुम बंद ही कर दो। मैं भी कोई छोटी-मोटी नौकरी ले लूंगी।’’ फिर बहुत ही लाड़ और सांत्वना से उसके कंधे पर बांह रखकर बोली, ‘‘छोटी-सी जिंदगी है, यों ही बीत जाएगी!...’’

आज भी याद है, किशोर को लगा था कि लीना के मुंह से अपनी बात नहीं, फिल्में और रूमानी किताबें बोल रही थीं। घड़ी देखकर जब वे लोग उठे, तो लीना ने उसे इस तरह दिलासा दिया, जैसे बच्चे को समझा रही हो, ‘‘देखो, हम लोग ट्रेन में सफर करते हैं। बहुत तकलीफें, असुविधाएं, अपमान और बदमजगी होती हैं, लेकिन यात्रा पूरी करने के बाद कोई भी उन्हें याद नहीं रखता। पापा ने गलत किया या सही, अब तो हमारी जिंदगी अपनी और स्वतंत्र जिंदगी है। पापा उसमें कहां आते हैं?’’

हां, पापा उसमें कहां आते हैं! न होगा, तो आगे उनसे कोई संबंध नहीं रखेंगे। उस दिन सुनसान माल पर किशोर ने लीना को कमर से अपने पास खींच लिया, ‘‘तुम बहुत समझदार हो लीना, पता नहीं मुझे क्या हो जाता है कभी-कभी! ये छोटी-छोटी बातें महत्त्वपूर्ण लगने लगती हैं। इसी तरह भटकाव में मुझे सहारा देती रहना...’’ मन में सोचा, लीना जिस वर्ग और जिन लोगों में रहती है, निर्णय-दृढ़ता और स्पष्ट-चिंतन उन लोगों की बहुत बड़ी विशेषता है, क्योंकि परिस्थितियों पर उनका नियंत्रण होता है...।


छोटी-छोटी बातों के महत्त्वपूर्ण लगने का सिलसिला शुरू कहां हुआ था-यह तो स्पष्ट याद नहीं; लेकिन वह खत्म वहां नहीं हुआ-खत्म हुआ किशोर और लीना को अलग कराके...एक नए सिलसिले की शुरुआत करके...आज लीना आ आशय उसी अतीत से है क्या...? उसने पाइप निकाल लिया, सुलगाया और सिरे से पकड़कर पीता रहा...।

कुछ घटनाएं अभी भी भुलाए नहीं भूलतीं...और आज भी किसी लड़की को टेनिस खेलते देखकर, किसी पार्टी में, होटल में छुरी-कांटे उठाते-रखते याद आ जाती हैं...दीक्षित साहब की ओर से शादी का डिनर था-उनके लॉन में ही। छुरी-कांटे से दोस्तों के साथ कॉलेज-कैंटीन या किसी के घर एट-होम पार्टी खा चुका था। लेकिन खास सुविधाजनक न होते हुए भी खाने में दिक्कत नहीं हुई। खाना समाप्त करके छुरी-कांटे का क्रॉस बनाकर खाली प्लेट में रख दिया, और चुपचाप होंठों पर फरमाइशी मुसकान लाकर मेहमानों की चुहल पर हंसने का प्रयास करने लगा...वे सब अपनी ही बातों में व्यस्त थे और शायद किसी को अहसास नहीं था कि जिसकी शादी की पार्टी वे लोग खा रहे हैं, वह व्यक्ति भी वहां उपस्थित है। पास बैठी लीना ने बहुत धीरे से पूछा, ‘अरे आप, खा चुके क्या?’ लापरवाही से उसने ‘हां’ कहा और दीक्षित साहब का तह किए नेपकिन को होंठों से छुलाना देखता रहा। तभी औरों की निगाह बचाकर लीना ने धीरे-से उसकी प्लेट के छुरी-कांटे के क्रॉस को बिगाड़कर उन्हें दो समानांतर रेखाओं की तरह रख दिया। उसने भी देखा, खाना खत्म करने वाले समानांतर ही रखते हैं और उसकी जानकारी गलत थी। थोड़ी देर वह उधर से ध्यान हटाए रहा; मगर बाद में जाने क्या हुआ कि फिर से उन्हें क्रॉस की शक्ल दे दी! मेज के नीचे लीना ने धीरे-से उसका पांव छुआ, तो उद्धत भाव से बोला, अभी ‘एक कटलेट और लूंगा...।’

तब से वह लीना के साथ खाते समय, खाना खत्म करके छुरी-कांटे को क्रॉस की स्थिति में ही रखता...

फिर उसका गट्-गट् पानी पीना, चप्-चप् खाना, और ‘हरि ओइम्’ की लंबी डकार के साथ तृप्ति का संतोष प्रकट करना-लीना को पंसद नहीं है-यह जानते हुए भी वह उसे चिढ़ाने के लिए यही करते हुए खाता। उसे लगता, इसमें लीना की व्यक्तिगत नापसंदगी उतनी नहीं है, जितनी हिकारत की यह भावना कि ‘तुम्हें सभ्य समाज में उठने-बैठने का मौका नहीं मिला, इसलिए शायद यह नहीं जानते कि यह अशिष्टता है।’ कोई चीज स्वादिष्ट लगती, तो जल्दी-जल्दी लंबी सड़ाकेदार आवाज के साथ मुंह भर लेता, और झूम-झूमकर गुनगुनाते हुए उसका स्वाद लेता और लीना की आंखों में पढ़ता-‘शायद पहली ही बार खा रहे हो, न?’ हालांकि यह भी समझ लेता कि उसके ऐसा करते समय जान-बूझकर लीना दूसरी और मुंह करके रसोई में झांकने लगी है।

लीना को धोबी की धुली, साफ-सफेद इस्तिरी की हुई साड़ी पहनकर सोने का शौक था, और उसका आग्रह रहता कि वह भी धोबी का धुला कुरता-पाजामा पहनकर सोए। लेकिन किशोर किसी भी तरह अपने मन को तैयार न कर पाता। जिस तरह के कपड़ों को वह दो-दो, तीन-तीन पहनता, और बाहर से लौटकर जिन्हें खूंटी या किवाड़ पर लटका देता रहा है कि अगले दिन पहनने लायक रहें, उन्हें पहने ही कैसे बिस्तर में घुस जाए? दो घंटे उन पर क्या इसीलिए बेचारे धोबी ने मेहनत की थी (अक्सर ही लीना इस्तिरी ठीक न होने पर आधे कपड़े धोबी को लौटा देती थी) कि उन्हें पहनते ही बिस्तर पर लेटकर बराबर कर देना है? लोटे में अंगारे भरकर रात को देर तक अपने हाथ के धुले कपड़ों पर इस्तिरी करना उसे अभी तक याद है, इसलिए इस्तिरी करने के परिश्रम को भी जानता है। वह उस कुरते-पाजामे को यों ही सिरहाने रखा छोड़कर कहीं से कोई गंदे कपड़े निकाल लेता-क्या है, कहीं कोने में न पड़े रहे, शरीर पर ही रहे-सोना ही तो है! लीना चिढ़ाती, ‘तुम्हें गंदे कपड़े पहनने का खास शौक है।’ उसे लगता, जैसे कह रही हो-साफ कपड़े पहनने की आदत नहीं है न?


इंटरव्यू के लिए जाना था। लीना ने उसकी अटैची-बिस्तर तैयार किए। अपनी बेंत की चौकोर टोकरी में दो प्लास्टिक की प्लेटें, गिलास, तौलिया, नेपकिन, केले, संतरे इत्यादि रख दिए। गुसलखाने से निकलकर गीले बालों को झटके-से काढ़ते, छींटे उड़ाते हुए किशोर ने पूछा, ‘‘अरे भई, ये सब क्या है?’’ लीना व्यस्त भाव से सामान लगाती रही, ‘‘कुछ नहीं, रास्ते की तैयारी है। पापा की तैयारी मैं ही करती थी।’’ किशोर ने मुलायम स्वर में कहा, ‘‘क्यों ये सब बेकार मेहनत कर रही हो? रास्ते में मेरा मन ही नहीं होता कुछ खाने-पीने को। फिर थर्ड-क्लास में आदमी खुद ही बैठ जाए; इतना काफी है। ये ताम-झाम जितना कम हो, उतना अच्छा है। बेकार टूट-टाट जाए।’’ फिर जब कंघी अंदर रखकर लौटा, तो असली बात कही, ‘‘इसके लिए एक कुली अलग से करना होगा। अटैची-बिस्तर का क्या है-लिए और हाथ में लटका लिए!’’ लीना का हाथ रुक गया। उसने गौर से किशोर को देखा और उसके आगे बाई-फोकल चश्मे से झांकती दीक्षित साहब की आंखें आ गईं...


लीना को शौक था, घर में अच्छे परदे हों; और उसे लगता, पुरानी साड़ियों के परदे क्या बुरे हैं? घर में नए टी-सेट की जरूरत थी। भेंट में मिले टी-सेट दीक्षित साहब के साथ ही-उस शहर में छूट गए थे और वह वहां जाना नहीं चाहता था। तय हुआ; शाम को साथ चलेंगे। लेकिन वह खुद ही कॉलेज से बाजार चला गया, और जब आया तो सेकंड-ग्रेंड का टी-सेट साइकल की डोल्वी में था। किसी बेमालूम-सी चटख या टेढ़ेपन को कौन गौर से देखता है? चीज तो आधे दामों में आ गई। लीना ने देखा, तो नाक-भौं सिकोड़ ली, ‘‘क्या उठा लाए!’’ अगले दिन वह खुद जाकर नया सेट उठा लाई। बोली, ‘‘तुम्हारे पैसे नहीं खर्च किए हैं। अपने पैसों से लाई हूं...’’ अपने पैसों को लेकर उसके मुंह तक कोई बात आई थी-तभी कोई आ गया।

यह सब तो चला बिना बोले; लेकिन एक दिन जब रेस्तरां से निकले, तो बोलने का लिहाज भी टूट गया। शायद उसे इतना बुरा न लगता; लेकिन साथ में था किशोर का एक सहकारी-अंग्रेजी-विभाग का मेहता। लीना का फाइनल था, इसलिए मदद करने अक्सर मेहता आ जाता था। शाम को प्रातः साथ ही प्रोग्राम बनता। कम-से-कम चाय साथ ही पीते थे। जब तक किशोर पैसे निकाले कि मेहता ने झटके से पर्स निकालकर दस का नोट थाली में फेंक दिया। टिप के चार आने छोड़े और बाहर आते हुए बोला, ‘‘मैं समझता हूं, इन बेचारों को जरूर कुछ-न-कुछ छोड़ना चाहिए। ये होटलवाले इन्हें देते ही क्या हैं? सारा गुजारा तो टिप्स पर ही चलता है इनका...’’

‘‘हमारे ये टिप देने में सबसे ज्यादा तकलीफ पाते हैं’’ लीना हंसकर बोली, ‘‘बहुत दिल कड़ा करके छोड़ा, तो एक आना छोड़ दिया!’’

‘‘हम पूछते हैं, यों पैसा फेंकने से फायदा?’’ उसने बचाव पक्ष की दलील दी, ‘‘एक तो दो पैसे की चीज के चार आने दो-फिर यह टैक्स! मैं कहता हूं कि यह टिपबाजी विदेशों में इतना बड़ा सिरदर्द हो गया है कि लोग परेशान हैं। दरवाजा खाला है, टिप दीजिए; लिफ्ट से आए हैं, टिप दीजिए; टैक्सी का भाड़ा दिया है, टिप दीजिए; होटल के बैरे ने आपकी डाक लाकर दी है, टिप चाहिए! टिप न हुई, साली मुसीबत हो गई! हमें तो इस सबको डिस्करेज करना चाहिए। भई, चीजों के दाम आप दो पैसे और बढ़ा दीजिए-लेकिन टिप के नाम पर यह जेबकतराई तो बंद कीजिए...मैं तो इसके एकदम खिलाफ हूं...।’’ वह लीना से बहस के अंदाज में बोलता रहा।

‘‘खैर, अच्छा या बुरा; सभ्य-समाज का एक तरीका बन गया है।’’ लीना ने बताया।

‘‘अच्छा सभ्य-समाज है! एक पूरे वर्ग को बख्शीश और टिप्स पर पालना गुलामी है।’’ किशोर को गुस्सा आ गया।

‘‘ऐसा न करें, तो ये लोग भी तो ठीक-से सर्व नहीं करते-कोई सुनेगा ही नहीं...’’

‘‘यानी जिसके पास टिप देने को फालतू पैसे न हों, उसे यहां आने का हक नहीं है...? उसे न खाने-पीने का हक है, न अच्छी जगह उठने-बैठने का!’’ उसकी बात में कड़वाहट आ गई, ‘‘बिल के पैसे हों न हों, लेकिन टिप जरूर हो!’’

‘‘इसे पर्सनल क्यों बनाते हो, किशोर?’’ लीना ने निर्णय के ढंग पर कहा, ‘‘बहरहाल, आपकी बात ठीक भी हो, फिर भी मैंने देखा है कि पैसा आपसे छूटता नहीं है।’’ लीना ने मेहता के बढ़े हुए हाथ से पान लेकर मुंह भर लिया।

किशोर की आंखों के आगे ‘बिवेयर ऑफ डॉग’ का फाटक घूम गया, बोला, ‘‘लीना जी, मुझे मिलते हैं दो सौ रुपये-सो भी आज। और आपको रहने की आदत है उस माहौल में, जहां हजार रुपये तनखा और डेढ़ हजार की ऊपरी आमदनी होती है-वे लोग पांच रुपये के बिल पर एक रुपया टिप दे सकते हैं...’’


उस दिन लीना की आंखों में आंसू आ गए थे, और घर आकर तो वह फूट-फूटकर रोने लगी-रात-भर रोती रही और किशोर डरे बच्चे की तरह माफी मांगता रहा।

अक्सर उसे दया भी आती थी। लीना सब्जी काटती या झाडू लगाती, सफाई करती, कपड़े धोती तो किशोर का मन एक अजीब करुणा से भर-भरकर आता। बेचारी लाड़-प्यार, नाज-नखरों से पली लड़की कहां आ गई है। तब वह आगे-आगे सारे काम कर देता। वह कपड़े भीगे छोड़कर आती तो धोकर सुखा देता; वह ब्रश करती, तब तक खुद स्टोव जलाकर चाय बना देता। वह खाना बनाती तो नहाने से पहले कमरे झाड़ देता। लीना किताबें खोले पढ़ रही होती, और वह चुपके से बरतन मल डालता। हालांकि यह चीज उसे और भी चुभती कि लीना जान गई है; फिर भी न जानने का बहाना करके बैठी पढ़ रही है। लेकिन देखकर अनदेखा करना मुश्किल हो जाता तो लड़ती, और वह कहता, ‘‘देखो लीना, मुझे तो यह सब करने की आदत है। शुरू से किया है। भाभी बीमार या बाहर होती थीं, तो सभी कुछ करता था! लेकिन तुमने तो रसोई में झांककर भी नहीं देखा होगा।’’ उसका गला रुंध जाता, ‘‘तुम क्या सोचती होगी लीना। कहां...’’ लीना गहरी सांस लेकर झिड़क देती।

जब वह सज-संवरकर बाहर निकलती तो किशोर उसे देखता रह जाता-हेयर-स्टाइल, मैचिंग-सेंस, हर चीज का चुनाव और स्तर-सभी में कुछ ऐसी नफासत और आभिजात्य रहता कि लगता जैसे वह किशोर से बहुत दूर चली गई है-अप्राप्य और दुर्लभ हो उठी है। उसे अपना-आप बहुत ही छोटा अकिंचन महसूस होने लगता-वह खुद ही मानो अनधिकारी, गैर और अजनबी बनकर उसे ठगा-सा देखता रह जाता। उस क्षण उसे लीना के सौंदर्य और सौंदर्य-बोध पर गर्व-मिश्रित संतोष जरूर होता; लेकिन पीछे कहीं रीढ़ के भीतर आशंकित भय सुरसुराया करता-सचमुच वह लीना के लायक नहीं है? कहां वह, और कहां लीना! जरूर लीना भी तो अपने-आपको और उसे देखकर कभी-कभी सोचती ही होगी कि वह कहीं गलत कर बैठी है, जाने कैसे उसे यह विश्वास हो गया था कि अब लीना को उसके साथ आने का अफसोस होने लगा है; इधर वह अधिक सुस्त और उदास रहने लगी है...कहां इस समय वह किसी शानदान गाड़ी में बैठी घूमने जा रही होती और कहां अब बार-बार धूप में रूमाल से गले-कनपटियों का पसीना पोंछती, धूल-धक्कड़ में, रिक्शे में लदी, पहिए से साड़ी बचाती चली जा रही है...साथ लगे इस बुद्धू, चुगद, घुन्ने, मनहूस और कंजूस (या गरीब) को देखकर क्या हर क्षण धड़कते दिल से यही नहीं मनाती होगी कि हाय राम, इस वक्त कोई जान-पहचान का न मिल जाए! हालांकि वह खुद भी बहुत खयाल रखती थी कि जब किशोर उसके साथ हो, तो सबसे अच्छे कपड़ों में हो...मगर उसके पास अच्छे कपड़े थे कहां...?


‘‘देखो, कल एक जहाज क्रैश हो गया...आए. ए. सी. का विस्काउंट था...’’ अखबार पढ़ते-पढ़ते उसने मेहता और लीना को सुनाया। अक्सर जब वे तीनों बैठते, तो किशोर को लगता, जैसे उसके पास बात करने को कोई विषय ही नहीं है। अपनी इस कमजोरी को छिपाने के लिए वह कुछ उठाकर पढ़ने लगता-हालांकि एकाध बार लीना ने बताया भी कि यह बदतमीजी है।

‘‘क्या था?’’ लीना स्टोव के पास थी, जैसे कम सुनती हो, इस तरह कान पर जोर देकर पूछा। वैसे भी स्टोव की आवाज रसोई में गूंज रही थी। उसने डरते-डरते मेहता को देखा कि कहीं सुन तो नहीं लिया।

‘‘इंडियन एयर-लाइंस का विस्काउंट था’’, किशोर ने दोहराया। वह और मेहता आंगन में मूढ़ों पर बैठे थे। लीना रसोई में, पास ही, चाय बना रही थी।

‘‘विस्काउंट नहीं, प्रोफेसर साहब, वाइकाउंट बोलो!’’ लीना ने हंसकर कहा, तो फिर वही बाई-फोकल शीशे और तुच्छता का अहसास करती दो उपेक्षा-भरी आंखें उसे तिलमिलाता छोड़ गईं।

‘‘अरे हां-हां, आप कॉन्वेंट में पढ़ी हैं। जरा स्पेलिंग तो देखो।’’ किशोर जिद करता रहा।

‘‘मेहता साहब, जरा इन्हें बताइए’’, वह वहीं से बोली।

मेहता अचकचा उठा। क्षमा मांगने के लहजे में कहा, ‘‘प्रोफेसर साहब, है तो वाइकाउंट ही...।’’

‘‘अरे इन अंग्रेजी शब्दों का कोई एक उच्चारण है?’’ किशोर भड़क उठा, ‘‘अंग्रेज और अमेरिकनों की बात छोड़ दीजिए। इंग्लैंड में खुद हजारों शब्दों के उच्चारण तय नहीं हैं। एक अंग्रेज बोलता है, डिरैक्शन, दूसरा कहेगा डायरैक्शन! एक कहेगा ऑफिन; दूसरा बोलेगा-ऑफ्टिन! लिखा है ल्यूटिनेंट, स्कीइंग-पढ़ रहे हैं, लैफ्टिनेंट, शीइंग! स्पैलिंग है-जी-ए-ओ-एल-बोला जा रहा है जेल!...आइ हेट दिस लैंग्वेज, जो सिर्फ कॉन्वेंट के बच्चों की बपौती हो, यानी गरीब आदमी की पहुंच से बाहर हो-द लैंग्वेज ऑफ इंपीरियेलिस्ट्स एंड ब्यूरोक्रैट्स!’’ और इस शब्द के याद आते ही उसे लगा, जैसे वह मेहता और लीना को नहीं, इन दोनों के पीछे कहीं छिपे खड़े दीक्षित साहब को यह सब सुना रहा है। ‘‘साले हमारी जबान को कहेंगे वर्नाक्युलर...! जानते हैं, वर्नाक्युलर माने क्या होता है? वर्नाक्युलर मीन्स द लैंग्वेज ऑफ रोमन स्लेव्ज...जन्म-जन्मांतर के गुलामों की जबान...’’

उसके गुस्से पर लीना जोर से हंस पड़ी, ‘‘लेकिन इस पर इतना गुस्सा होने की क्या जरूरत है? अपनी गलती मान लीजिए न, और नाराज होकर भी वही भाषा बोल रहे हैं, जिस पर नाराज हैं!’’ वह हत्थी टिकाकर हंसती रही।

‘‘शटाप्!’’ जाने उसे क्या हुआ कि जोर से उसने अखबार जमीन पर पटका और झटके-से उठ खड़ा हुआ, ‘‘ठीक है, हम कॉन्वेंट में नहीं पढ़ें हैं। हमारे उच्चारण खराब सही; लेकिन इसी कॉन्वेंट ने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है...’’ और वह मेहता को स्तब्ध छोड़कर बाहर चला आया-जाते हुए कह आया, ‘‘मैं गरीब आदमी हूं लीना, लेकिन मेरी अपनी इज्जत है!’’

बाद में अपनी उत्तेजना पर उसे अफसोस होता रहा...तीन-चार दिनों के तनाव, रोने-धोने के बाद उसने खुद लीना से माफी मांगी कि गलती उसकी थी, न मालूम उसे क्या हो गया था...

क्या हो गया था नहीं; क्या होता चला जा रहा था-समझ में नहीं आता था। उसे जैसे लीना से, उसके सामने पड़ने से डर लगने लगा था। लीना की एक खास तरह की दृढ़ या जिद्दी मुद्रा है, जिसके सामने वह नर्वस हो जाता है, और या तो कुछ ऊल-जलूल कह बैठता है या उससे ऐसा ही कुछ हो जाता है। उसे हमेशा खतरा रहता है कि न मालूम किसी मजाक या गंभीरता में वह क्या कुछ कह दे और लीना का चेहरा, सांवले गंभीर चेहरे में बदल जाए और वहां बाई-फोकल चश्मा उभर उठे...


वह अपनी थीसिस के सिलसिले में रोज सांझ को यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी जाता था, और लीना इम्तहानों की तैयारी करती थी। प्रीवियस में अट्ठावन प्रतिशत नंबर थे और अगर इस बार तैयारी ठीक हो जाए तो कमी पूरा करके फर्स्ट क्लास लाया जा सकता था। इसलिए नियमित रूप से मेहता की मोटर-साइकिल दरवाजे पर पांच बजे आ खड़ी होती थी। तीनों साथ चाय पीते। उस क्षण लीना सबसे अधिक प्रसन्न रहती। वैसे प्रायः यह उसकी शिकायत रहती थी कि न तो हम किसी के यहां जाते हैं, न किसी को चाय पर बुलाते हैं। तब उसे खयाल हुआ था कि सचमुच उसका परिचय कितने कम लोगों से है-ऐसे लोगों से जिनके साथ संपर्क रखने में लीना को प्रसन्नता हो। इसलिए वह अक्सर ही चुप रहता और खयाल रखता कि कहीं चाय से सुड़-सुड़ की आवाज न हो, या वह दांतों के पीछे जीभ लगाकर अपनी प्रिय ‘च्स्सी! च्स्सी!’ न कर बैठे। खाने के बाद एक दिन वह परम तृप्त भाव से यों ही दांतों से जीभ लगाकर सांस खींच रहा था, जिससे आवाज होती थी। लीना खा रही थी। अचानक बोली, ‘‘फॉर गॉड्स सेक, यह मत करो-मुझे उलटी हो जाएगी...।’’ और तब से जब भी वह ऐसी आवाज निकालता कि लीना का यह वाक्य उसकी ‘च्स्सी! च्स्सी’ को बीच से ही रोक देता...वह और मेहता कपड़ों की बातें करते, फिल्मों की बातें करते, दिल्ली और बंबई के होटलों की बातें करते-ड्राइविंग और पार्टियों के दिलचस्प किस्से सुनाते, ‘‘मिसेज किशोर, आपने ‘रेस ऑफ रांचीपुर’ देखा है?...भुवाल संन्यासी वाले किस्से पर बेस किया है...।’’ और वह फिल्मों की कहानियां सुनाने लगता। लीना उत्सुक-मुग्धता से सुनती रहती या कभी लीना सुनाती, ‘‘मुझे क्रीम खाने का शौक जरा ज्यादा ही था, फ्रूट-क्रीम, क्रीमी-जैली, आइसक्रीम...पता नहीं, एक दिन पापा को क्या सूझा...दस सेर क्रीम उठा लाए...।’’

‘‘दस सेर!’’ मेहता अथाह आश्चर्य दिखाता, ‘‘माई गॉड!’’

‘‘हां-हां दस सेर!’’ लीना उत्साह से बताती, ‘‘कहते थे-जी भरकर खा लो। एक बार खूब नीयत भर लो, तो नॉर्मल हो जाओगे। यह पापा का सिद्धांत था।’’-या-‘‘उन दिनों दो घोड़ों की बोस्की, चार घोड़ों की बोस्की आती थी-और पापा ने घर-भर की चादरें उसी सिल्क की बनवा दी थी...’’

‘‘वह तो बड़ा कीमती सिल्क हुआ करता था!’’ मेहता प्रशंसा से कहता।

‘‘रुपये की तो पापा ने कभी चिंता ही नहीं की। मखमल के परदे, दो-दो हजार के गलीचे हैं उनके पास। आप सोचिए, उन दिनों के दो हजार...!’’ उस समय वह किशोर की उपस्थिति भूल जाती! ‘‘फर्स्ट क्लास से नीचे कभी सफर नहीं किया। और पापा सिगार पीते हैं-आप सोचिए, अंग्रेज कलक्टर कहा करते थे-‘मिस्टर दीक्षित, आपके यहां जो सिगार मिलता है-वह हमें इंग्लैंड में नसीब नहीं है।’...घर के हर आदमी पर एक बैरा आज भी है। पांच-दस रुपयों का तो हिसाब ही नहीं मांगते...।’’

‘कमाल है!’ के भाव से मेहता सुनता रहा। वह खुद अच्छे परिवार का था और तनखा के अलावा सौ-दो सौ घर से मंगाकर खर्च कर देता था। वह तो यहां सिर्फ इंतजार का वक्त काट रहा था, वस्तुतः उसे तो आगे पढ़ने के लिए इंग्लैंड जाना था। साफ-सुथरा स्मार्ट-सा नौजवान, मुलायम घने बिना तेल के बालों का गुच्छा सामने झुका रहता और कभी ‘बो’ या कभी टाई में वह सचमुच प्रभावशाली लगता था। अपने मस्से पर उंगली रखे अक्सर किशोर देखता। सांझ को प्रायः वह सफेद पैंट-कमीज में आता। आंगन में ही नैट लगाकर बैडमिंटन कोर्ट गाढ़ लिया जाता-और घंटा-डेढ़ घंटा दोनों खेलते। ‘मेरे यहां बेकार पड़ा था’, कहकर उसने बल्ले और शटल-कॉक्स का पूरा डिब्बा लाकर रख दिया था-तब पढ़ाई होती थी। एक बार उसके आते ही लीना ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया, ‘‘इन्हें मिलता ही क्या है...?’’


और इस सबमें किशोर सचमुच, अपने को फालतू ही पाता था। न उसे किसी ने दस सेर क्रीम लाकर दी थी, और न बोस्की की बेड-शीट्स उसने देखी थी-उसके पास कमीज-कुरते तक सिल्क के नहीं रहे पहले। उसे लगता-अगर मेहता लीना का क्लासफैलो होता, तो?...वह ये सारी बातें सुनता और दांत पीसता-शेखी...शेखी...यह वर्ग सिर्फ शेखी पर जिंदा रहता है। एक की बात सुनकर प्रतीक्षा करता है, देखें, अब दूसरा पक्ष कौन-सी शेखी इसके जवाब में खोजकर लाता है। मेहता के सधे हुए खेलने के ढंग और साड़ी का पल्ला कमर में खोंसकर बार-बार जूड़ा खोलकर देखते हुए लीना का व्यस्त-भाव से खेलना देखता, तो कचोट तीखी हो जाती-कहीं कुछ गलत हो गया है। फिर किताब उठाकर चुपचाप बाहर चल देता और ‘आईने-अकबरी’ के अनुवाद में पढ़ने की कोशिश करता कि अकबर के प्रिय खेल क्या-क्या थे। उसे बार-बार वे दिन याद आते रहते, जब बी. ए. में वह लीना को हिस्ट्री का पेपर तैयार कराता था और लीना मुग्ध-भाव से जरा से होंठ खोलकर उसे एकटक सुनती रहती थी...मन होता था-बात आधी छोड़कर उन होंठो को धीरे से चूम ले...कॉलेज की मोनालिजा फतहपुर सीकरी में खड़ी नूरजहां बन जाती...। मेहता के मुंह से ब्रैडले को भी तो ठीक उसी तरह सुनती होगी-और मेहता तो किशोर से हर हालत में आगे है...औरत का मन एक बार अगर आ सकता है, तो...! खुद उसके पीछे भी तो वह पागल ही हो उठी थी। कभी भूल सकता है, वह लीना के चेहरे के उस भाव को, जब मेहता ने कहा था, ‘मिसेज किशोर, आपकी अंग्रेजी तो सचमुच कमाल की है-मन होता है, घंटों सुनता रहूं...कुछ भी कहिए साहब, कॉन्वेंट की बात ही और है! जो उन स्कूलों में एक बार पढ़ लेता है, जिंदगी-भर उसकी छाप बनी रहती है...।’ और तब एक सख्त चेहरा, सांवले होंठों में दबा स्टेट-एक्सप्रेस से निकलता धुआं किशोर के मन-मस्तिष्क पर छा गया। किशोर डरता था और किसी भी तरह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था-‘गैट् आउट ऑफ माई हाउस, यू स्काउंड्रल!’


लीना का जन्म-दिन था। वह बैठा-बैठा कांच के गिलास में ब्लेड घिस रहा था। लीना नहा-धोकर साड़ी लपेटे निकली थी। गीले बालों को सिर पर पार्वती की तरह बांध लिया था। भीगी साड़ी को डोरी पर फैलाती हुई बोली, ‘‘अभी प्रोफेसर मेहता पासपोर्ट के सिलसिले में दिल्ली गए थे। कहते थे, एक डॉक्टर है, जो शर्तिया मस्सा दूर कर देता है...।’’

‘‘बीस बार तो दूर करा लिया, यार! लोग कहते हैं, घोड़े का बाल बांधो-फिर नहीं होता; लेकिन हर बार आ जाता है। इसलिए मूंछें रखनी पड़ती हैं...’’ वह अफसोस से बोला।

‘‘एक बार दिखा लेने में क्या हर्ज है?’’ लीना ने स्नेह से कहा, ‘‘जब वे खुद जाकर डॉक्टर से मिले हैं, इतनी परेशानी उठाई है, तो एक बार भी करके देखो...और पता है, हमारे लिए जन्मदिन पर क्या लाए हैं?’’

‘‘क्या?’’ उसने हाथ रोककर उत्सुक प्रश्न-मुद्रा से उधर देखा।

लीना अंदर से एक डिब्बा उठा लाई। ब्रांज शेड की रॉ-सिल्क साड़ी थी। लीना बता रही थी, ‘‘दिल्ली में आजकल क्रेज है रॉ-सिल्क...।’’

किशोर की हिम्मत छूकर कपड़ा देखने की नहीं पड़ रही थी। सूखे गले से शब्द ठेलकर कहा, ‘‘यह तो बड़ी कीमती होगी। सौ-सवा सौ से कम क्या होगा दाम...!’’

‘‘दाम तो नहीं बताए, लेकिन हां, इससे कम की क्या होगी! एक ब्लाउज-पीस भी है।’’ उत्साह और आह्लाद से लीना ने साड़ी के नीचे रखे ब्लाउज-पीस को खींच लिया, ‘‘हमारे पास तो सच, अच्छी साड़ी भी नहीं रह गई कोई। वही शादी के वक्त की चार-छह पड़ी हैं।’’

‘‘बस?’’ किशोर ने भोलेपन से पूछा, ‘‘साड़ी-ब्लाउज ही दिए हैं? और कपड़े नहीं दिए?’’

लीना जैसी खड़ी थी, वैसी ही रह गई। बड़ी मुश्किल से सिर्फ इतना ही पूछा, ‘‘क्या मतलब?’’

किशोर ने कोई जवाब नहीं दिया और डिब्बा एक ओर खिसकाकर ब्लेड घिसने लगा। तभी उसके कंधों को छूकर करीब-करीब चीखती आवाज में लीना ने पूछा, ‘‘मैं पूछती हूं, मतलब बताओ?’’

झटके से किशोर ने उधर मुंह घुमाया और दुगुनी ऊंची आवाज में पूछा, ‘‘मारोगी मुझे? लो मारो...नहीं बताता मतलब? कर लो, जो तुम्हारा मन हो। मुझे भी बाप का चपरासी समझ लिया है, जो घुड़कियों में आ जाएगा?...अंधा हूं? मुझे दिखाई नहीं देता?...हुंह, मुझे मिलता ही क्या है...’’

लीना का स्वर गिर गया। वह न चीखी, न चिल्लाई। बहुत सख्त आवाज में बोली, ‘‘देखो किशोर, आज से, बल्कि इसी क्षण से हम लोग साथ नहीं रहेंगे। मैं भी सोच रही थी कि अब तुमसे बात कर ही ली जाए। न तुम अंधे हो, न बहरे। तुम सिर्फ इन्फीरियॉरिटी-कांप्लैक्स के मारे हुए हो। इसलिए तुम्हें मेरी हर बात वह नहीं लगती, जो होती है। उसके पीछे और-और बातें दीखती हैं। मैं समझती थी कि मैनर्स, बातचीत, उठने-बैठने के तौर-तरीके और व्यवहार ऐसी चीजें हैं, जिन्हें बहुत जल्दी बदला जा सकता है। सीखा और भुलाया जा सकता है। लेकिन इस कांप्लैक्स का कोई इलाज ही नहीं...तुम्हें मेरे हंसने-बोलने- चालने-सबमें शेखी और दिखावा लगता है...’’

‘‘हां-हां, मैं जाहिल हूं, बेवकूफ हूं!’’ झटके से किशोर उठा और पूरी ताकत से कांच के गिलास को जमीन पर पटककर बकता रहा, ‘‘लाट साहब की बच्ची कहती है-हमें इन्फीरियॉरिटी-कांप्लैक्स है!...हममें बातचीत, उठने-बैठने के मैनर्स नहीं हैं!...हम कंजूस और बदजबान हैं...बड़े बाप की बेटी और मिठबोली तो आप हैं! या तो जो मन में आए, सो करने दो; या ये सब सुनो...जिंदगी तबाह करके रख दी...भाई-भाभी के पास नहीं गए। मां-बाप की तरह उन्होंने लिखाया-पढ़ाया और शादी के बाद उन्हें धेले की मदद नहीं कर सके...अपने लिए एक रूमाल नहीं लिया। कुछ बचे, तो लें...दिन-रात कॉलेज में मेहनत करो, थीसिस के बहाने ट्यूशन करने जाओ...और यहां दिल में भरी है...कोठी-बंगला, नौकर-चाकर...बाप की नवाबी!’’

‘‘देखो किशोर, पापा को...’’

‘‘बीस बार कहूंगा। रोक, तू मुझे रोक। नकलची बंदर कहीं के! साले अंग्रेजों की नकल कर-करके, उनके जूते चाट-चाटकर आज साहब बन गए हैं...हा-हा-हा, साहब! दस सेर क्रीम लाए थे...बोस्की की चादरें...दो-दो हजार के गलीचे...।’’

पता नहीं क्या-क्या बकता-झकता वह बाहर चला गया और सारे दिन अपने-आपसे बातें करता सड़कों पर भटकता रहा। दिन छिपे के बाद जब डरता-डरता आया, तो दरवाज़े पर ताला था और लीना चली गई थी...


वह ‘पास्ट’-अतीत आठ साल पहले का है। दूसरा अतीत है आठ साल का यह काल-यानी अगले साल उसके खुद कलकत्ता चले आने के बाद बीता हुआ समय। उसका एक विद्यार्थी बहुत बड़ी जगह घर-जमाई बनकर आया था, और उसने किशोर को चार सौ का स्टार्ट दिया था...वह इस अतीत का प्रारंभ है।

‘सारा खेल रुपये का है, और अब रुपया कमाना है’, उसने निश्चय किया और भूत की तरह रुपये के पीछे लग गया-भूल गया, कहीं कोई लीना है; कहीं कोई दीक्षित साहब हैं और कहीं कोई अतीत है। एक नौकरी पर पांव टिकाकर दूसरी का सौदा होता रहा...पहला तल्ला...दूसरा तल्ला और एक दिन लिफ्ट उसे दसवें तल्ले के इस चैम्बर में ले आई, जिसके दरवाजे पर लिखा था, ‘जनरल मैनेजर...’


मगर नहीं, संपर्क लीना और दीक्षित साहब से न रहा हो, और उसने दो साल पता न लगाया हो कि लीना कहां है-भूला वह दोनों में से एक को भी नहीं था। आज तो उसे लगता है, लीना नाम का एक परदा था-जिसके हटते ही उसने अपने-आपको दीक्षित साहब के रू-ब-रू खड़े पाया। परदा कहना भी गलत होगा, वह सिर्फ एक मेज का तख्ता थी और उस पर कोहनियां टिकाकर वह और दीक्षित साहब पंजा लड़ा रहे थे-अपनी-अपनी शक्ति आजमा रहे थे। जिस दिन उसने जाना कि लीना ने लेक्चरशिप ले ली है, उस दिन उसे सचमुच बहुत संतोष हुआ। ‘च्स्सी-च्स्सी!’ की अभिव्यक्ति के साथ उसने महसूस किया कि अपराध का बोझ उसकी छाती से दूर हो गया है। दूसरे तरीकों से उसने यह संदेश भी भिजवा दिया कि लीना चाहे, तो किसी के साथ-चाहे, मेहता के साथ ही-सैटल हो जाए, उसे कोई आपत्ति नहीं होगी। वह चाहेगी, तो कानूनन भी भरसक सब कुछ करने को तैयार है; उसे लीना से कोई शिकायत, कोई द्वेष नहीं है। बाद में सुना, मेहता इंग्लैंड से ही किसी को ले आया है...

बहरहाल, इस निश्चय के साथ ही उसे लगा कि वह लीना को भुला सकने में सफल हो गया है। सभी से गलत निर्णय हो जाते हैं-पूरे होश-हवास में सारा आगा-पीछा सोचने के बावजूद! हम लोग एक-दूसरे के लायक नहीं थे। यों अक्सर ही उठते-बैठते, खाते-पीते लीना के साथ वाले दिनों की तस्वीरें दिमाग में कौंधती थीं-और आज यह आंक सकना उसके लिए असंभव हो गया है कि कितनी घटनाएं और बातें वास्तव में हुई थीं और कितनी उसकी अपनी कल्पना की उपज हैं। उनकी असलियत में उसे खुद भी विश्वास नहीं है और उसने यह तो मान ही लिया है कि उन दिनों जिस अस्वाभाविक मानसिक तनाव और दबाव से वह गुजर रहा था, उसके रहते हुए बातों को सही परिप्रेक्ष्य में ले सकना, सचमुच उसके लिए असंभव था। साथ ही वह इस बात को अच्छी तरह जानता था कि लीना मर जाएगी, आत्महत्या कर लेगी; लेकिन न तो किसी के साथ सैटल होगी, न उसके सामने झकेगी...झुकना, पछताना, समझौता करना उसके खून में ही नहीं है। एक तो वह खुद इतनी निर्णय-दृढ़ और फिर उसके अफसरी-वर्ग के संस्कार; जो व्यक्ति को तोड़ देते हैं, बिखराकर चूर-चूर कर देते हैं; लेकिन झुकने नहीं देते...उसकी रग-रग में सिगरेटों से काले-पड़े होंठ और बाईफोकल चश्मे से झांकती काली खुर्राट आंखें तैरती हैं...

किसी ने बताया था कि दीक्षित साहब हार्टफेल हो जाने से चल बसे हैं। न उसे अफसोस हुआ, न खुशी। वे रहें, न रहें-उसकी दुनिया में कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, वह प्रतीक्षा जरूर कहीं मन में उन दिनों करता रहा कि उनकी मृत्यु की सूचना तो कम-से-कम उसे मिलेगी ही। लेकिन कोई सूचना नहीं दी गई। स्टेट्समैन के पर्सनल कॉलम ने उनके न रहने की सूचना को जरूर पक्का कर दिया। लीना ने मसूरी में हैकमैंस के सामने चलते हुए कहा था (उसे अभी भी वह जगह याद है), ‘हमारी अपनी स्वतंत्र जिंदगी है। पापा उसमें कहां आते हैं!’ लेकिन वह एक झूठ था-बहुत बड़ा और यंत्रणादायक झूठ...क्योंकि जिस दिन उन्होंने लीना को स्टेशन पर विदा किया था, पांच हजार के साथ बंद लिफाफे में बैठकर वे खुद किशोर की जिंदगी में भी घुस आए थे, और अनचाहे मेहमान की तरह उसके अस्तित्व पर हावी हो गए थे-जिनसे सात जन्म में वह जाने को नहीं कह सकता था और जिनकी उपस्थिति उसकी नस-नस को तड़काए दे रही थी...

हां, जिस दिन लीना नाम का परदा बीच से हटा, या उसने जाना कि लीना सिर्फ मेज का तख्ता थी और वे दोनों उस पर अपनी-अपनी कुहनियां टिकाए शक्ति आजमा रहे थे; उसी दिन महसूस किया कि उसकी असली लड़ाई दीक्षित साहब से है...

वह मैनेजर हुआ, तो पहली बात उसके मन में उभरी-दीक्षित साहब अब तो कमिश्नर होकर रिटायर हो गए होंगे। इनकम-टैक्स के मामलों में तो उनका कोई जवाब ही नहीं है। सरकारी आदमी रहे हैं-बीस ताल्लुकात होंगे और सारी भीतरी पोलें उन्हें पता होंगी...सेठ से कहकर क्यों न उन्हें यहां बुलवा लिया जाए? उसके नीचे काम करेंगे और चैंबर में आने से पहले खट्-खट् करके कहा करेंगे, ‘मे आई कम इन सर?’ वह बैठा-बैठा उनकी फाइल के कागजों पर दस्तखत करता रहेगा और वे अदब से एक ओर खड़े रहेंगे। वह भारी आवाज में कहेगा, ‘मिस्टर दीक्षित, आपने वह ‘जुपीटर-प्लाईवुड’ का एनुअल स्टेटमेंट तैयार नहीं कराया? उसे परसों जाना है। उसकी ही वजह से नए परमिट बहुत डिले हो रहे हैं...।’ और कल्पना में मेज के पास खड़े दीक्षित साहब से यह सब कहकर उसे आत्मिक प्रसन्नता हुई। तभी शंका हुई-उसके सामने वह यह सब कुछ कह पाएगा? उस समय न उसका स्वर हकलाएगा, न जबान लड़खड़ाएगी? असंभव! वे बाज जैसी तेज निगाहें-वह चेहरे की अभेद्य भावहीनता...उस सबका सामना वह कभी भी नहीं कर पाएगा...यहां आकर वे जिंदगी-भर कोई काम न करें-वह उनके सामने कभी भी जबान नहीं खोल सकेगा। चौथी-पांचवी क्लास में जिन सिमियन साहब से उसने केन खाए हैं, उन्हें आज भी चाहे सवा-सौ रुपये ही मिलते हों; उनके सामने उसकी आंख नहीं उठ सकती। वह भय अब उसकी प्रकृति बन गया है।

उसे याद है-चुपके-से पीछे वाले बरामदे के पास वाली खिड़की के नीचे वह साइकिल खड़ी करता और बिना जूतों की आवाज किए लीना को पढ़ाने चला जाता। बाहर निकलता, तब तक दीक्षित साहब आ गए होते-या तो बीच वाले कमरे में चाय पी रहे होते या बाहर अलसेशियन कुत्ते को लिए लॉन में चहलकदमी कर रहे होते, माली को तरह-तरह के आदेश दे रहे होते। चोर की तरह वह बरामदा उतरता-कहीं निगाह न पड़ जाए, उसे बुला न लें! साइकिल लेकर ऐसा हड़बड़ाता हुआ निकलता, मानो वे भी पीछे-पीछे आ रहे हों। बाहर सड़क पर आकर खुली सांस लेता और सिर इस तरह झटकता, जैसे पानी की दमघोंट सतह के नीचे दबा जा रहा हो...वे देख लेते तो बुला भी लेते, ‘किशोर बेटे, कैसे हो? लो, चाय पी लो...।’ उनके सामने रहना कितना कष्टकर अनुभव था! वे बहुत ही कम बोलते थे, सिगार को होंठों में घुमाकर पपोलते हुए कुछ सोचते रहते, बार-बार माचिस जलाते रहते-लेकिन वे दो क्षण उसके लिए हजार इम्तहानों में बैठने से ज्यादा दुस्सह हो उठते। ‘जी ठीक हूं।’ कहने में उसे चक्कर आ जाता, हकलाहट बढ़ जाती और पिंडलियों तक पसीना तैर आता। दीक्षित साहब ने कभी उससे कुछ नहीं कहा-आज लगता है, कुछ न कहना उनका बहुत रिजर्व रहना नहीं; उसे बात करने लायक न समझना था। उनका अफसरी दबदबा, बाहर का रौब और घर का-लीना तक का भय कुछ इस तरह उसकी चेतना पर छा गया था कि वह मजबूर हो उठता था...

दूसरों द्वारा सौंपा गया भय व्यक्तियों के लिए कितना घातक और प्राणांतक हो सकता है, यह बात तर्क से चाहे समझ में न आती हो; लेकिन खुद किशोर जानता है, उसकी सारी शक्तियां इन आठ वर्षों में सिर्फ उसी भय से लड़ने में लगी रही हैं...नौकरियां बदलना, सांसारिक दृष्टि में सफल होते चले जाना तो सिर्फ उस भय के सामने बार-बार पराजित होकर नये-नये हथियारों से लड़ने जैसा रहा है...ईसप के मेंढक की तरह वह मानो इन एक-से-एक ऊंची जगहों पर खड़े होकर हर बार अपने-आपसे सवाल करता-क्या बैल इतना बड़ा था? क्या अभी भी वह दीक्षित साहब से डरता है? क्या अभी भी वह उनसे छोटा है? तब उसे खयाल आता कि वे तो जाने कब के गुजर चुके हैं...

बड़ी-बड़ी पार्टियों में वह कुशलता से छुरी-कांटों का इस्तेमाल करता, कीमती शराबें पीता, कोई पुर-मजाक बात कहना, रेस्तराओं में पांच-पांच, दस-दस रुपयों की टिप छोड़ता, बेयरों-चपरासियों के सलाम लेता तो कहीं बाईफोकल चश्मे से झांकती दो आंखें-आंखें नहीं, आंखों का निराकार अहसास होता और उन्हें वह चुनौती देकर दिखाता रहता-तुमने कभी पंद्रह रुपये की टिप छोड़ी है? मन की गहराई में उसे लगता ही नहीं था कि वे नहीं हैं! और ऐसे मौकों पर वह ठीक वही मुद्रा धारण करने की कोशिश करता, जो उसके हिसाब से दीक्षित साहब ऐसे मौकों पर धारण कर सकते थे-वही सचेत लापरवाही...हजामत बनाते समय घंटों वह अपने चेहरे को अलग-अलग कोणों से देखता-किधर से वह दीक्षित साहब जैसा रौबीला लगता है...उसने चेहरा अधिक रौबीला करने के लिए मोटे फ्रेम का चश्मा भी ले लिया था, जिसे वह झटके-से उतारता और लगाता था...

हॉल-एंडर्सन से हजार रुपये का नया सूट बनकर आया, तो पहनने से पहले उसने मन-ही-मन कहा, ‘तुमने देखा भी है ऐसा सूट?’ पहना, तो मुंह से निकला, ‘आंखें फटी रह जाएंगी!’ लकदक वर्दी में जब ड्राइवर अदब से लपककर कार का दरवाजा खोलता, तो वह किसी से निश्शब्द कहता, ‘अभी तक उसी हिलमैन को धकेलते होंगे!’ किसी कर्मचारी की गलती पर उसे माफ करने को मन होता, तभी ध्यान आता, ‘वे’ उस समय क्या रवैया दिखाते? और तभी भारी सख्त आवाज उसके गले से निकलती, ‘नो-नो, मिस्टर सेन! मैं पूछता हूं, ऐसा हुआ ही क्यों? आप जानते हैं, मैं गलती किसी भी हालत में बरदाश्त नहीं कर सकता...’ उसे लगता, कहीं इस बात को ‘वह’ भी सुन रहा है और आवाज की सख्ती बढ़ जाती...किसी बहुत जरूरी काम से कोई छुट्टी मांगता तो एप्लीकेशन स्वीकार करते-करते उसे सिगरेट वाले होंठों का खयाल हो आता और हाथ रुक जाता...

शुरू से ही एक अजीब विद्वेष-भरी घृणा भर गई थी उसे, नौकरी चाहने वालों के प्रति-ऐसे प्रार्थना-पत्र वह बिना पढ़े फाड़ देता और कोई सामने ही पड़ जाए, तो बेमुरव्वती से कह देता, ‘भूखे मर रहे हो, तो यहां क्या करने को रुके हो? अपने घर क्यों नहीं जाते? कोई जरूरी है कि कलकत्ता रहकर नौकरी ही करो? कलक्टर के दामाद हो, जो थोड़े में काम नहीं चलता? मैंने कहा न, यहां कोई जगह नहीं है। नहीं सुना...?’ और बात पूरी होने से पहले ही बाहर खड़े बैरे के सिर पर घंटी घनघना उठती...‘वह’ होता, तो ठीक यही व्यवहार करता-मैं तो चुप हूं ‘उसने’ तो इतनी देर में धक्के देकर निकलवा दिया होता। उसे फुरसत कहां थी इतना सब बकवास सुनने की...? इंटरव्यू में जान-बूझकर आड़े-टेढ़े प्रश्न पूछकर प्रार्थी को नर्वस कर देने में उसे अद्भुत क्रूर-संतोष मिलता...ऐसे लोगों को तो बरदाश्त कर सकना ही उसके लिए मुश्किल था, जो हकलाते हैं; बात ठीक से नहीं कर पाते; पसीने-पसीने हो जाते हैं, मसले हुए बिना इस्तिरी के, सस्ते-से कपड़े पहनकर आते हैं, और वाइकाउंट को विस्काउंट बोलते हैं-वहां उसे वर्षों पहले का किशोर दिखाई देता है-और अब वह उसे बिल्कुल-बिल्कुल नहीं देखना चाहता...ऐसे किशोरों को धरती पर रहने का कोई हक नहीं है! ऐसी परीक्षा में असफल हर प्रार्थी उसे फिजूल-फालतू कूड़े की तरह लगता था।

सिगरेट पीते-पीते अचानक उसे ख्याल आता-अक्सर ‘वह’ जब बहुत चिंतामग्न होता तो आधी पी हुई सिगरेट को ही ऐश-ट्रे में डाल देता था। झट उसका हाथ दो कश पी हुई सिगरेट को ऐश-ट्रे में मरोड़ देता। धुंधला-सा खयाल आता-ये बारह पैसे कभी बहुत कीमती थे। कभी किसी जगह दो-चार सौ रुपये देने की बात आती और उसे ध्यान आता कि ‘उसे’ रुपये की चिंता नहीं थी, वह तो झटके-से रुपये लिखकर दस्तखत कर देता-वह ‘उससे’ किस बात में कम है? अक्सर जब वह खड़े होकर बातें करता तो सिगरेट का टिन ठीक उसी तरह उसके हाथों से खेलता, जैसे लीना को विदा करते समय ‘उसे’ करते देखा था। स्टेट-एक्सप्रेस के सिवा कोई सिगरेट जबान पर चढ़ती ही नहीं थी...जब उसने पहले-पहल कंधे उचकाकर इनकार करना सीखा था, तो अक्सर उसे दो बातें साथ याद आती थीं-जिस फिल्म में या व्यक्ति को उसने इस तरह कंधे उचकाकर इनकार करते देखा था, उसकी कैसी खूबसूरत नकल की है; दूसरी यह कि ‘तुम’ तो अभी भी सिर हिलाकर इनकार करते होगे-सोलहवीं सदी का तरीका! कीमती रेशम का ड्रैसिंग-गाउन पहनकर सिगार होंठों में घुमा-घुमाकर पपोलते हुए, जब वह विचारमग्न बालकनी में खड़ा होता, तो कई क्षण उसे भ्रम हो जाता, मानो ‘वह’ खुद दरवाजे पर ही ठिठका खड़ा है, ड्राइंगरूम में प्रतीक्षा कर रहा है और यह घूमनेवाला व्यक्ति स्वयं नहीं-दीक्षित है! लगता, कैसे आत्मविश्वास और रौब से वह चहलकदमी कर रहा है-जैसे एरिस्टोक्रेसी उसके खून की बूंद-बूंद में घुल गई है-ऐसी शान से भला ‘वह’ क्या खाकर घूमेगा!...कभी किसी कमजोर क्षण में अपने-आपसे एक सवाल करता-उसे दीक्षित का भूत तो नहीं आता?...शायद इसे ही ‘भूत आना’ कहते हैं? फिर अपने को झिड़क देता, क्या भूत...वूत...

‘तुम्हारे बाप ने भी कभी यह जहाज देखा है?’ बोइंग प्लेन में कदम रखते ही पहला वाक्य मन में आया...किसी दुकान के सामने से गुजरते हुए कभी किसी चीज को खरीदने की जरूरत महसूस होती, दो-एक कदम उधर बढ़ाता भी-तभी ध्यान आता-‘वह’ इस दुकान में कदम रखना अपनी बेइज्जती समझता-और वह उल्टे पांव लौट आता। ड्राइवर को नोट देकर भेजता।...किसी भी व्यक्ति को देखकर पहला प्रश्न मन में उठता-जैसे वह आदमी की कीमत उसको मिलने वाले पैसे से लगाता। ज्यादा पैसे मिलने वाले के प्रति अपने लापरवाह व्यवहार का उसे सचमुच अफसोस होता।

सिनेमाओं में, मैगजीनों में, आसपास की दुनिया में, वह ध्यान से देखता-सुनता कि ऊंची पोस्ट और पोजीशन वाले लोग कैसे बोलते हैं, कैसे हंसते हैं, किस समय उनके चेहर पर क्या भाव रहता है, कैसे खड़े होते हैं और काम तथा आराम के समय उनके क्या-क्या पोज रहते हैं। और जब उन्हें निर्व्याज सरलता से नकल कर लेता, तो सुनाता, ‘सुना साहब बहादुर, ये नए अफसरों के उठने-बैठने, बोलने-चालने के ढंग हैं!’ नीचे वाले कहते, ‘बॉस बड़ा सख्त है!’ तो मन में कोई कह उठता-‘देखा, इसे कहते हैं अफसरी! उस गांव में तुम राजा बन बैठे हो। यहां आओ, तो आटे दाल का भाव पता चले!’ फिर संतोष से उसका चेहरा खिल उठता, ‘द रिस्पैक्ट आई कमांड वॉज यट एन अनरीयलाइज्ड ड्रीम फार यू...’1

जब कभी वह घबरा जाता या परेशानियों से बेचैन हो उठता और उसके घुटने जवाब दे जाते, तब वह ‘उसके’ उस सुप्रीम कान्फिडेंस का ध्यान करता, और सचमुच ही मन में एक उत्साह और शक्ति भर उठती। चेतना में कभी प्रसन्न-सुख का विस्मय-क्षण भी आता-कैसी अजीब बात है! मैं ‘उसी के’ हथियारों से उससे लड़ रहा हूं, सफलतापूर्वक लड़ रहा हूं...

इस प्रकार एक अनवरत, अघोषित युद्ध था, जो हर पल अस्तित्व के रेशे-रेशे में चल रहा था; और उसकी उपस्थिति ही उसकी जीवनी-शक्ति का पर्याय बन गई थी, जो घोड़े पर चढ़े उद्धत सवार की तरह एड़ें मारती थीं, कोंचती थी-और यह सब उसके लिए सांस लेने जैसा स्वाभाविक हो उठा था...


लेक से उठकर किशोर गाड़ी के पास आया, तो उसका सिर घूम रहा था...अन्यमनस्क भाव से दरवाजे के हैंडिल वाली चाबी का सूराख टटोलता रहा...फिर इंजन स्टार्ट करके देर तक यों ही बैठा बाहर देखता रहा...अत्यंत तटस्थ, निर्वेद...जैसे ऊंचाई पर खड़े होकर नीचे घाटी में पड़े घायल, पस्त सिपाही को देखकर मन में करुणा उमड़ आई थी। उसकी आखें फिर सजल हो आईं-दो दुर्द्धर्ष शक्तियों के बीच लीना, एक निरीह लड़की लीना-पिस गई!

‘क्या हम अतीत को भुला नहीं सकते?’ किशोर को लगा यह लीना ने माफी नहीं मांगी-पहली बार दीक्षित साहब के वास्तव में मर जाने की खबर दी है...तो सच में ही ताकत आजमाता दूसरा हाथ लीना का नहीं था? लीना तो सिर्फ मेज का एक तख्ता थी-वह दूसरा हाथ ‘उसका’ था...बेचारा! उसे पहली बार लगा-महाराणा प्रताप के टूट जाने की खबर से अकबर को कैसा लगा होगा...एक वीर प्रतिद्वंद्वी की पराजय पर कैसा लगा है...

फ्लैट पर आकर उसने सबसे पहले रामन को फोन किया, ‘‘रामन, सुबह बर्टन को फोन करना है दिल्ली...मैं शायद नहीं जा पाऊंगा। तबियत अच्छी नहीं है...फिर बातें तो सारी अंतिम रूप से बड़े बाबू को ही तय करनी हैं-मैं सुबह उनसे बातें कर लूंगा...’’

फिर मानो अपने को जैसे-तैसे उठाकर उसने पलंग पर डाल दिया। फेफड़ों में गहरी सांस लेकर धीरे-धीरे छोड़ी, तो महसूस हुआ, वह बहुत-बहुत थक गया है...तीस-पैंतीस की उम्र तक आदमी में उत्साह होता है और हर नई जगह उसे ललकारकर बुलाती है...चालीस-बयालीस तक थकान शक्तियों को चूस डालती है...ऐसे ढीले तन और मन से अब जिंदगी का ढर्रा बदलना...नए सिरे से नई जिम्मेदारियों को ओढ़ना...और फिर आखिर उसे अब जरूरत भी क्या है? ‘वह’ अब रह ही कहां गया, जो...


 1. मेरा जो रौब है, वह तुम्हें सपने में भी नसीब नहीं था।