टूटा वही तारा जिस पर निगाह थी हमारी / जयप्रकाश चौकसे

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टूटा वही तारा जिस पर निगाह थी हमारी
प्रकाशन तिथि :02 अगस्त 2017


कमल हासन और रजनीकांत एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे हैं और अब दोनों राजनीति के क्षेत्र में कूद रहे हैं। रजनीकांत के राजनीति प्रवेश की अटकलें बहुत पहले से लगाई जा रही हैं परंतु कमल हासन का नाम अभी आया है। यह संभव है कि रजनीकांत की काट के लिए कमल हासन को भी इस क्षेत्र में उतारा जा रहा है। इस मामले में भीतरी सतह पर आर्य बनाम द्रविड़ विवाद तक जा सकते हैं। रजनीकांत का जन्म तो महाराष्ट्रीयन परिवार में हुआ और बेंगलुरू में वे बस ड्राइवर थे। वे विविध तरीके से सिगरेट सुलगा सकते थे और इसी अदा को भुनाने के लिए उन्हें अभिनय का अवसर मिला। चरित्र भूमिकाओं और खलनायक का पात्र अभिनीत करते-करते अवाम में उनकी लोकप्रियता ने उन्हें नायक बना दिया। उनके प्रति बढ़ते हुए जुनून ने सामाजिक सौद्देश्यता की राह पकड़ी और शहर-दर-शहर, कस्बा-दर-कस्बा रजनीकांत फैन क्लबों की स्थापना हो गई। रजनीकांत ने भी एक महकमा बनाया, जो जरूरतमंद लोगों को आर्थिक सहायता देने लगा। इस तरह एक फिल्म सितारा सामाजिक लहर में तब्दील हो गया। वह जितनी अधिक सहायता देता उतनी अधिक उसकी लोकप्रियता बढ़ती गई। वे कितने कुशल अभिनेता हैं- इसकी कभी परख ही नहीं हुई। इसी तरह राजनीति में भी कुछ लोगों के नेतृत्व गुणों या कमियों की परख ही नहीं हो पा रही है। लोकप्रियता की लहर तीव्र गति की आंधी की तरह जीवन मूल्यों के भवन गिराते हुए चलती है। यह तो बरतानिया के मतदाताओं का कमाल है कि उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के नायक विंस्टन चर्चिल को युद्ध के पश्चात हुए चुनाव में यह कहकर हरा दिया गया कि युद्ध के समय उन जैसे नेता की आवश्यकता थी परंतु शांति के समय वे तेवर हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। एक जीवंत गणतंत्र स्वतंत्र रूप से सोचने वालों से बनता है। भारत में व्यवस्था के चरमराने का दोष केवल नेताओं को देने से काम नहीं चलेगा। अवाम भी कम दोषी नहीं है। मौजूदा राजनीति एक तरह से आधुनिकता के खिलाफ विद्रोह है। आधुनिकता निष्पक्ष तर्कसम्मत सोच का नाम है। इसे हाई हील की सैंडल पहनने या लिपस्टिक लगाने से नहीं जोड़ें। आज हर क्षेत्र में दकियानूसी को दोबारा स्थापित करने की चेष्टा की जा रही है और उस पर गजब यह है कि इसे धार्मिकता कहा जा रहा है। वर्तमान की सारी दुविधाएं और अन्याय हमारे सामूहिक अपराध बोध से जन्मे हैं। मौजूदा भारत मायथोलॉजी की तरह गढ़ा जा रहा है और फूहड़ फिल्म 'बाहुबली' की सफलता इसी तथ्य को रेखांकित कर रही है। इस तरह की विचार प्रक्रिया का कटप्पा ही अपने बाहुबली को मारेगा, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। बहरहाल, रजनीकांत की लोकप्रियता को 'बाहुबली' की सफलता ने गहरी चोट पहुंचाई है। अब वे अपनी फिल्म '2.0' को इस उद्‌देश्य से बना रहे हैं कि 'बाहुबली' की धुंध में अपनी मिटती हुई छवि को सहारा दे सकें गोयाकि वे धुंध से धुंध को मारने का प्रयास कर रहे हैं। इसके विपरीत कमल हासन ने हमेशा कुछ नया करते हुए अपने अभिनेता स्वरूप को सतत संवारने का प्रयास किया है। उन्होंने बौने का पात्र अभिनीत करके महानायक पद हासिल किया। ध्वनि के युग में एक ध्वनिविहीन मूक फिल्म का निर्माण किया। 'सदमा' में वे एक ईश्वरीय कमतरी से जूझ रही कन्या को सामान्य बनाते हैं और सामान्य होते ही वह उन्हें भूल जाती है। कमल हासन नई राह खोजते रहे और रजनीकांत ने अपनी पगडंडी को राजमार्ग बना दिया।

मौजूदा सत्ता अखिल भारतीय पहचान की खोज में अब 'दक्षिणोन्मुखी' होने का प्रयास कर रही है और रजनीकांत के सबल कंधों पर रखकर ही गोली चलाना चाहती है। कटप्पा अमित शाह प्रयास कर रहे हैं। एक सौ बत्तीस वर्षीय कांग्रेस ने समय-समय पर श्मशान में अलख जगाकर भूत-प्रेत पर काबू पाने का प्रयास किया परंतु वर्तमान में वह कोमा में चली गई है। इतिहास गवाह है कि कई बार कांग्रेस टूटकर दोबारा गढ़ी गई है, चाहे वह 1906 में तिलक प्रकरण हो या 1967 में कामराज प्लान हो। कांग्रेस में मौजूद युवा नेताओं को हिम्मत करके राहुल के बेहतर विकल्प की तरह उभरना होगा, भले ही इसके लिए दल में एक और विघटन हो जाए। बकौल जयपुर के सम्पत सरल, 'हाथों में कमल खिल रहा है' से बेहतर है पैर में लगे कांटे को निकाल फेंके। रजनीकांत अरजुन, देवदास अौर हेमलेट की तरह इस पचड़े में पड़े हैं कि 'करूं या न करूं,' शस्त्र उटाएं या युद्धक्षेत्र से भाग जाए। ऐसे में बेहतर यह हो कि रजनीकांत और कमल हासन मिलकर दल गठित करें। शहादत का उद्‌देश्य हमेशा महान होना चाहिए वरना मरकर भी चैन न मिला तो क्या कीजिएगा।

अदम का शेर है- 'अक्ल हर काम को जुल्म बना देती है/बेसबब सोचना, बेसूद पशीमां होना।'