टूटा हुआ कोना / योगेश गुप्त

Gadya Kosh से
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सुबोध काम पर से आकर चुपचाप पलंग पर लेट गया।

कमरे में अँधेरा है। सुबोध ने बत्ती नहीं जलाई है। बाहर के कमरे में बत्ती जल रही है। उसका थोड़ा-सा प्रकाश, घूम-फिरकर, आकर पलंग पर गिर रहा है। अँधेरा थोड़ा उजाला हो गया है। शाम का वक्त है।

शारदा काम में लगी है। बाहर का छोटा-सा कमरा रसोई भी है और कमरा भी। शारदा खाना बना रही है। उसके चारों तरफ थाली, लोटा, तेल घी, कड़छी चम्मच, नमक-मिर्च और चार-पांच छोटे-बड़े बच्चे बिखरे पड़े हैं-जिन्हें वह खुद ही बिखेर देती है, खुद ही संगवा लेती है।

बच्चे उसे परेशान कर रहे हैं।

'पीछे हट, टिंचू!' , 'नमक कहाँ गया?' ' लो, घी उलट दिया, "तुम लोग मुझे पागल बनाकर छोड़ोंगे।"

"पापा से पूछकर आओ, खाना कितनी देर में खाएंगे?"

"पापा चुप लेटे हैं, मां!"

यह मकान सड़क के किनारे है। इसकी एक खिड़की सड़क की तरफ खुलती है। सुबोध अक्सर उस खिड़की के पास खड़ा हो जाता है। शाम को काम पर से आने के बाद उसका यह नियम-सा ही है। वहाँ से उसे सड़क पर आती-जाती लाल-नीली बसें, साइकिलें, आदमी-बच्चे-औरतें, दीखते हैं। ठीक सामने ही एक पार्क बना है। पार्क के चारो तरफ लोहे की मजबूत फैंसेज लगी है। पार्क साढ़े छः बजे खुलता है। लोग खुलने का इंतजार कर करते हैं। फिर इक्ट्ठा घुसते हैं और छितरा कर इधर-उधर बैठ जाते हैं। गलियों में हवा नहीं होती या खुश्क होती है तो पार्क में नम होती है, अच्छा लगता है।

सुबोध कभी उस पार्क में नहीं जाता। वह देर से आता है और बहुत थका-मांदा। उसने कभी बाहर खड़े होकर पार्क के खुलने का इंतजार नहीं किया। छुट्टी के दिन भी वह नहीं जाता। उस दिन वह दिन भर पलंग में लेटा रहता है, आलस्य से आक्रांत, उसमें मग्न। शारदा लाख कोशिश करती है कि एक दिन वह उठकर नहा-धो ले, धुले-कपड़े पहन ले और साथ घूमने चले, पर आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ।

आज सुबोध चुपचाप आकर पलंग पर लेट गया है।

शारदा बार-बार बच्चों से कह रही है, "पूछकर आओ पापा, खाना कितनी देर में खाएंगे।"

बच्चे अंदर जाकर सुबोध को पीले अंधेरे में से देखते हैं और वापस आकर खबर देते हैं, ' मां, पापा चुप लेटे हैं। "

शारदा चाहती है कि अंदर जाकर सुबोध से पूछे कि क्या बात है। पर वह सोचती है कि ज़्यादा थक गए होंगे। उधर उठकर जाना भी मुश्किल है। ये जो चारों तरफ बैठे है। ये अधिकांश चीजों को निपटा देंगे। इन सबका इस तरह निपटना शुभ नहीं है और कोई भी सुविधा नहीं बनेगी।

शाम से इस घर में अँधेरा छा जाता है। दीवरों का पीलापन छुप जाता है। पर छोटे-छोटे, मैले-मैले बल्व जलते ही वही पीलापन दुगुना-तिगुना होकर उझक आता है। मकान के और हिस्सों से शोर न आए इसलिए सुबोध हमेशा चारों तरफ से खिड़की-दरवाजे बंद कर लेता है। सड़क की तरफ खुलने वाली खिड़की भी बंद हो होती है। सब घूमने चले जाते हैं। सुबोध उदास पलंग पर लेटा होता है। शारदा लौटकर आकर पूछती है, "उदास लेटे हो।"

"नहीं तो।"

"तुम्हें तो आलस्य ही बहुत रहता है। शाम को घूमने चला करो।"

"कल चलेंगे।"

कल भी वह इसी तरह लेट जाता है। वह घूमने कभी नहीं चलते। सुबोध ज्यादातर चुप रहता है। अपने-आप में डूबा। दफ्तर में भी और घर पर भी। वह जो भी करता है, चुपचाप करता है। कभी दुःख की चीत्कार, कभी खुशी की किलकारी, कभी सम्भोग की सीत्कार, उसके मुंह से किसीने नहीं सुनी। वह क्यों चुप रहता है, किसी को नहीं मालूम। सिर्फ़ इतना मालूम है कि कुछ दिन हुए वह इस शहर में आया था और चुपचाप रहने लगा था और रह रहा है...

वह रोज सवेरे इसी पलंग से उठकर काम पर चल जाता है और शाम को आकर खिड़की के किनारे खड़े रहने लगा था और रह रहा है।

वह रोज सवेरे इसी पलंग से उठकर काम पर चला जाता है और शाम को आकर, खिड़की के किनारे खड़े होकर, बाहर पार्क में देखता रहता है, चुपचाप।

पर आज वह सीधा आकर पलंग पर लेट गया है।

आज उसने पानी का एक गिलास भी नहीं मांगा।

वह रोज ऐसा करता है।

उस दिन आकर उसने पानी का पूरा गिलास एक सांस में पिया और जाकर खिड़की के एक किनारे खड़ा हो गया।

पार्क में बहुत चहल-पहल थी। चारों तरफ छोटे-छोटे बच्चे-आँख मिचौनी खेल रहे थे। एकदम पास-पास, कितने ही जोड़े जाने क्या बातें कर रहे थे। गर्मी दिनभर सख्त पड़ी थी। शाम तक खूब तपिश थी। पर उस समय कुछ ठण्डी हवा चल रही थी। पार्क की घास में कहीं-कहीं पानी छुपा था। कच्ची मिट्टी की सौंधी खुश्बू उठ रही थी। पार्क के बीसियों बिजली के खम्बों के नीचे छोटे-छोटे रोशनी के दायरे बने थे।

उसने देखा कि एक आदमी गेट से दायीं तरफ के सातवें दायरे के बीचोबीच आकर खड़ा हो गया है। चारों तरफ की भीड़-भाड़ से एकदम अलग।

रोशनी के हलके में काफी मच्छर थे। पर वह आदमी वहीं खड़ा रहा।

उस आदमी ने कमीज और पाजामा पहन रखा था। वह काफी हट्टा-कट्टा था।

उसके बाल खिचड़ी हो चुके थे। वह बार-बार कंधे उचकाता था और उसने अपने दाएं पैर को जरा-सा आगे कर रखा था।

सुबोध लगातार उसकी तरफ टकटकी लगाए देखता रहा।

फिर वह आदमी उस रोशनी के दायरे में लुढ़ककर ढेर हो गया। पहले तो कोई कुछ समझा नहीं, फिर उसके चारों तरफ भीड़ लग गई. सब अलग-अलग बैठे लोग एक जगह इकट्ठा हो गए.

शारदा भागती-भागती आयी और जाने क्या-क्या कहने लगी।

सुबोध खिड़की पर से हट गया। पलंग पर लेट गया। बत्ती बुझवा दी और दीवार की तरफ मुंह कर लिया।

सुबोध चुपचाप लेटा रहा। पत्नी की किसी बात का उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसके उठने-बैठने से मोटी खुरदरी दरी के ऊपर बिछी चादर में सिलटें पड़ गई थीं, उन्हें उसने हाथ से संूत-सूंत कर निकाला। तकिए को जरा-सा टेढ़ा किया। सिर को और ऊंचा करने के लिए उसने अपनी बांह तकिए के नीचे जमा ली और आँख मंूदे लेटा रहा।

शारदा ने कहा, "एक आदमी पार्क में खड़े-खड़े ढरे हो गया।"

सुबोध ने आंखें नहीं खोली।

शारदा ने फिर कहा, "कितना हट्टा-कट्टा आदमी था।"

सुबोध ने फिर भी कुछ नहीं कहा।

शारदा डरी हुई थी। उसने दोनों कमरों की बत्ती जला ली। अपनी खाट को सुबोध के पलंग के पास कर लिया और चुपचाप लेट गई. बच्चे सब सो चुके थे।

सुबोध ने आंखें खोली।

शारदा अब ज्यादातर खिड़की बंद ही रखती है।

शाम को आते ही सुबोध खिड़की के पास आता है। खिड़की खोलता है, उसक किनारे खड़े होकर नीचे पार्क, सड़क और पार्क के गेट के दायीं तरफ से सातवें खम्बे को देखने लगता है।

पर आज वह सीधा आकर पलंग पर लेट गया और तब से चुप लेटा है

खिड़की उसने खुद बंद की है।

पत्नी ने खाना बना दिया है। बर्तन-भांडे निपटा लिये हैं। वह नहा भी ली है। टिंचू को कई बार वह सुबोध को देखने भेज चुकी है। सुबोध चुप लेटा है। कमरे में अँधेरा है। बाहर के कमरे की रोशनी घूम-फिरकर सुबोध के पलंग पर गिर रही है। चारों तरफ की दीवारों का पीलापन और सुबोध का दीवार की तरफ मुंह किए एकदम सपाट सीधे लेटना अंधेरे को और गाढ़ा कर रहा है।

शारदा डरती-डरती कमरे में जाती है, पूछती है, "खाना देर से खाओगे?"

"हां।"

"तो हम घूम आएं?"

सुबोध चुप ही रहा था या शायद 'हूँ' की। शारदा ने उसे सहमति समझा। वह उठी, बच्चों को लिया और पार्क में चली गई.

सुबोध जिस पलंग पर लेटा है वह बहुत पुराना है। एक तरफ की मसहरी के डंडे निकल चुके हैं। चूलें एकदम ढीली हैं। निवाड़ से बुना चौखटा किसी वक्त भी अपनी धुरी से खिसककर नीचे गिर सक़ता है। लेटा हुआ आदमी न उभर सकता है, न डूब सकता है। ट्रंक, बिस्तरे, मेज, कुर्सी, कपड़े-लत्ते, बर्तन और... उसने एक अर्से से कुछ नहीं खरीदा। नयी चीज की चमक से वह नावाकिफ हो चुका है। वह यह समझ ही नहीं पाता कि कुछ नया भी हो सकता है। शारदा कहती है, 'वह नयी साड़ी लाई हैं।' सुबोध बेमानी मुस्करा देता है।

उस पलंग की सुबोध ने कभी मरम्मत नहीं कराई.

उसे लगता है, पलंग नया होकर अपरिचित हो जाएगा।

सुबोध उसी पलंग पर लेटा है। सब घूमने गए हैं। सुबोध टकटकी लगाए दीवार पर पीली रोशनी के बने चतुर्भुजों को देख रहा है। उनकी चारों भुजाएं असमान हैं। उनमें से एक का एक कोना कटा है। कोना न जाने कैसे कट गया? चारों तरफ देखकर वह सोचने की कोशिश कर रहा है। यह कोना न जाने कैसे कट गया? कुछ पता नहीं चलता। चलो कट गया। कई चतुर्भज हैं, एक पंचभुज सही है। यह सबसे अलग लगता है। सब में मिला रहता तो अच्छा रहता। क्यों किसी का ध्यान किसी पर अटके. सामान्य ही नहीं होना चाहिए? सही तो है। यही सही है। उसने पलंग पर से ज़रा खिसकर ऊपर लगे स्विच से बाहर के कमरे में भी अँधेरा कर दिया। अब ठीक है। अब बिल्कुल ठीक है। अँधेरा ठीक है।

अंधेरे में कुछ नहीं दीखता। यह स्थिति बिल्कुल ठीक है।

परछाइयां अंदर से उठ रही हैं और अंधेरे में खो रही हैं।

शारदा आ गई है।

शारदा सो गई है।

सुबोध ने खाना नहीं खाया है।

बच्चे बीच-बीच में कुनमुना रहे हैं।

सुबोध पलंग से उठता है। चीं की आवाज होती है। पत्नी हल्की-सी करवट लेती है। पर सुबोध ध्यान नहीं दे पा रहा है। वह सबको पार करता हुआ पहला कमरा पार कर लेता है। फिर दूसरा कमरा आता है। नंगे पैर फर्श किचमिचा-सा लगता है। पर सुबोध चल रहा है। अंधेरे में भी वह रास्ता जान सकता है। दरवाजा आया तो उसने चटखनी खोली और किवाड़ों को उसी तरह खुले छोड़ वह बाहर निकल आया। वह सीढि़यों से उतर रहा है। सीढि़यों से वह उतर गया। एक छोटी-सी दहलीज। वह भी गई. फिर एक सड़क। सड़क सुनसान। कुछ लोग चारपाई डाले सोते हुए. कुछ जानवर गहरी नींद में डूबे। चारों तरफ गहरा अंधेरा। बीच में खम्बों पर लटके रोशन चमगादड़।

सुबोध चल रहा है।

एक मोड़ आया। गली खत्म। फिर मेन रोड। सुबोध ने उसे भी क्रॉस किया। दूर कहीं से ठक्-ठक् की आवाज आ रही है।

पार्क का मेन-गेट आ गया।

हवा बिल्कुल बंद है। रात का तीसरा पहर। चारों तरफ अँधेरा ही अंधेरा। चमगादड़ अंधेरे को पीला कर रहे हैं।

पार्क में कोई नहीं है। सुबोध ने तीन सीढि़यां पार कीं और दायीं तरफ मुड़ गया।

चारों तरफ सुनसान है। बल्बों के नीचे मच्छर तक नहीं हैं।

सुबोध दायीं तरफ चल रहा है। एकदम लोहे से बने आदमी की तरह।

अचानक वह एक खम्भे के नीचे रोशनी के एक दायरे के बीचोंबीच खड़ा हो जाता है।

वह दायीं तरफ से सातवां खम्भा है!