टूटा हुआ विश्वास / मुकेश मानस
नीलांचल एक्सप्रेस अपने निर्धरित समय से दस मिनट देर से छूटी। हालांकि बीस वर्ष के अब तक के जीवन में यह मेरी पहली रेलयात्रा थी और वह भी अकेले, फिर भी मुझे कोई खास असुविधा नहीं हुई और आखिर किताबी ज्ञान कहीं न कहीं तो काम आता है।
मैं अपनी आरक्षित सीट पर बैठ गया। सामने की सीट पर अभी कोई नहीं आया था। मैंने अपना सारा समान सीट के नीचे खिसका दिया और फेयोदोर दोस्तोयवस्की¸ का बौड़म¸ खोलकर पढ़ने लगा, लगभग पाँच मिनट पढ़ा और बोर भी हो गया। खिड़की में से झाँककर बाहर देखने लगा। रेलगाड़ी धीरे-धीरे रेंगने लगी। धीरे-धीरे गति बढ़ती गई और स्टेशन पर खड़ी भीड़ एवं उसके मिले जुले स्वर पीछे रह गये। खिड़की में अब बड़ी-बड़ी इमारतों, भीड़-भाड़ वाली सड़कों और कभी-कभी दिल्ली को घुन लगाते झुग्गी-झोपड़ियों के जंगलों के चित्र उभरने लगे।
“एक्सक्यूज मी”
मेरा दिमाग जो एक अर्थवेत्ता होकर दिल्ली की आर्थिक असमानताओं की व्याख्या कर रहा था। अचानक रुकगया। मैंने खिड़की में से आँखें निकालीं। सामने खड़ा था, बिल्कुल मेरे जैसा दुबला पतला भारत का युवा। स्वच्छंदता और हिप्पीवाद के बीच संघर्षशील आदर्शवाद में बचकाना-सा विश्वास रखने वाले एक अमेरिकन ब्याय की तरह उसके बाल उसकी आँखों पर धरे बंगाली चश्मे पर गिर रहे थे। वह एकटक मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखे जा रहा था, फिर उसने सीट की तरफ इशारा किया। मुझे फौरन अपनी भूल का पता चला। मैंने जल्दी से अपनी टाँगें उसकी सीट पर से खींच लीं। उसने झटपट अपना सूटकेस सीट के नीचे सरकाया और रूमाल से सीट झाड़-पोंछकर बैठ गया।
“मेरा नाम सुशांत है।¸ उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया” मैंने बिना हिचकिचाए उसका हाथ थाम लिया।
“और मैं मुकेश”
“बहुत सुन्दर नाम है।¸ उसने कहा। यह नाम मुझे अच्छा लगता है। जानते हो क्यों?”
“नहीं” मैंने गर्दन हिलाई।
“मेरा एक दोस्त है, मेरी जान है, मेरा सब कुछ है। उसका नाम भी मुकेश है। इसलिए...!! अच्छा यह बताओ कहाँ तक जा रहे हो?”
“बाँकुड़ा” मैंने उसने अपनी मंजिल बता दी।
“बाँकुड़ा...!!!” यह सुनकर एकदम उछल-सा पड़ा।
“वाह तब तो मजा आ गया” - वह हँसे जा रहा था।
“वो कैसे?” मैं एकदम भोला बन गया।
“क्योंकि मैं भी बाँकुड़ा जा रहा हूँ।” उसने बड़ी मासूमियत से कहा।
सचमुच हँसने की बात थी, जिन्दगी की पहली रेलयात्रा और उसमें भी मुकाम तक एक हमसफर मिला।
“अच्छा मुकेश क्या पहली बार बाँकुड़ा जा रहे हो?”
“हाँ, बिल्कुल पहली बार। मगर तुम्हें कैसे मालूम पड़ा?” मैं हैरान था।
“यह राज की बात है।” उसने हाथ हिलाते हुए बड़े नाटकीय ढंग से कहा।
“तुम बाँकुड़ा क्यों जा रहे हो?” ऐसे ही पूछ लिया मैंने उससे।
“मैं - मेरा तो सब कुछ वहीं है। मेरा घर, मेरे खेत, माता-पिता सब कुछ। यहाँ दिल्ली में अपने चाचा के पास रहकर अभी एम.बी.बी.एस. किया है। मेरा जीवन लक्ष्य पूरा हुआ। अब अपने गाँव और गाँववालों की सेवा करूँगा।” वह बहुत भावुक-सा लगा, मगर उसने जो कुछ कहा एक दृढ़ निश्चय-सा लगा।
“तुमने मेरे बारे में पूछा, अब अपने बारे में भी कुछ बताओ।” उसने पूछा।
“मैं बाँकुड़ा एक सामाजिक संस्था की ओर से, वहाँ के संथाल आदिवासियों की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जिन्दगी को देखने समझने जा रहा हूँ।” मुझे वह कुछ प्रभावित-सा लगा।
“दोस्त यह तो बहुत ही अच्छा काम है। संथाल लोगों के रहन-सहन और खान-पान के विषय में मैं भी तुम्हें काफी कुछ बता सकता हूँ।”
वह कुछ बताता इससे पहले ही डिब्बे के दूसरे छोर से एक शोर उठा। हम दोनों उधर देखने लगे। झगड़ा शायद सीट के लिए हो रहा था, अचानक ही रेल भी धीमी होकर रुक गई। सुशांत ने खिड़की में से बाहर नजर फैंकी – “शायद सिगनल नहीं मिल रहा है।”
“अब कौन सा स्टेशन आयेगा।” मैंने पूछा।
“अलीगढ़।”
थोड़ी देर बाद गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी थी। यात्रियों की अलविदा-सलाम, सामान की उठा-पटक, बच्चों की चिल्ल-पौं, वालों का चिल्लाकर कड़क चाय¸ आदि सब कुछ दिल्ली के स्टेशन जैसा ही था रत्ती भर भी फर्क नहीं।
“मुकेश, मैं कुछ खाने के लिए लाता हूँ। सीट पर किसी को बैठने मत देना।” वह चला गया। मैंने नीचे से उसका सूटकेस निकाला और सीट पर रख दिया और मैं भीड़ को देखने लगा। इंजन ने सीटी बजाई, गाड़ी चल दी, जब काफी देर तक सुशांत नहीं आया तो मैं चिन्तित हो उठा।
“लो भाई बस यही पसंद आए।” उसने केलों का गुच्छा मुझे पकड़ाया। हम दोनों खाने में मगन हो गए। इसी बीच एक सज्जन हमारी सीट के पास खड़े हो गए। मैंने नजर उचकाकर देखा बीमार से लगे वह मुझको और...
“भैया मैं बीमार हूँ, ज्यादा देर तक खड़ा नहीं हो सकता हूँ, गया तक जाना है।” उसकी आवाज कंपकंपा रही थी।
मैंने उन्हें बिठा लिया और आदर सहित दो केले भी दिये। थोड़ी देर बाद उन सज्जन ने अपनी पीठ में दर्द बताया। मैंने अपनी पूरी सीट उन्हें दे दी। वह लेट गए। सुशांत अपनी ऊपर की बर्थ पर चला गया था। मैं खड़ा था और सुशांत मुझे डाँट रहा था – “यार अब तू जो चाहे समझ। मगर एक बात गारंटिड है कि यह आदमी बीमार नहीं है, बल्कि नाटक कर रहा है। ऐसे लोग अक्सर सामान चुराने वाले भी होते हैं। पिछली बार मैंने ऐसे ही एक बीमार से दिखने वाले को अपनी जगह देकर अपने दो बैगों की चोरी भी करवाई है। पूरे सफर वह मेरे साथ बैठा रहा। फिर जब वह मेरा सामान लेकर जाने लगा तो किसी ने उस पर शक भी नहीं किया।”
एक बार लगा सुशांत सही था। मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ। पर दूसरे ही पल मन में मानवता भर गई।
“ठीक है यार। मैं जानता हूँ कि तुम्हें यात्राओं का मुझसे अच्छा अनुभव है। मुझे शुरू में इतनी आत्मीयता नहीं दिखानी चाहिए थी, पर इंसानियत भी कोई चीज है। और दुनिया में सभी एक जैसे तो नहीं होते ना। मेरा विश्वास है वह मेरी मानवता का बदला इस तरह नहीं देगा, देखना।” मेरे भीतर का इंसान जाग उठा था।
“ठीक है जैसी तेरी मरजी।” कहकर सुशांत चुप हो गया। उसने फिर कोई और तर्क नहीं किया। गया से पहले जितने भी स्टेशन आये। हमने उस बीमार व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ खरीदा - कभी चाय, कभी केले इत्यादि। हम खूब थक गये थे। दोनों दोस्त अपना सामान नीचे छोड़कर उफपर के बर्थ पर सिकुड़े-सिकुड़े लेट गये। बतियाते-बतियाते हमें नींद आ गई। आधी रात के करीब नींद खुली। मैंने नीचे देखा। वह शायद उतर चुका था। मैं नीचे उतरा, अपनी सीट पर बैठकर ज्यों ही मैंने नीचे हाथ इधर-उधर घुमाकर बैग ढूँढ़ा, घबरा गया। सीट के नीचे देखा, हम दोनों का सामान नदारद था। सुशांत को जगाया, वह गंभीर हो गया।
“अब तुम ही बताओ? आखिर कब तक तुम ऐसी मानवता में विश्वास रख सकोगे।”
वह रूआँसा हो गया।
मैं खामोश खड़ा था। एक टूटा हुआ विश्वास लिये...।
रचनाकाल : 1990