टूट कर जुड़ना / एक्वेरियम / ममता व्यास
जो जोड़ता था आकाश को हवाओं से, जो जोड़ता था मन को कल्पनाओं से, जो जोड़ता था पानी को मिट्टी से, जो जोड़ देता था सतह को तलहटी से।
जो कच्चे रिश्तों को पकाता है वक्त के अलाव में, जो टूट-टूट कर भी नहीं टूटता वह सिर्फ़ विश्वास है। जो जोड़ता रहा मगर खुद टूटता रहा, जो दरारें भरता रहा पर खुद भीतर से रिसता रहा।
जो आज भी आसमान को गिरने नहीं देता। जो आज भी धरती को रुकने नहीं देता। जो आज भी मन के दिए को बुझने नहीं देता वह विश्वास ही तो है। जो जोड़ता है वह भी विश्वास है और जो टूट रहा है वह भी विश्वास है। टूटने और जुडऩे के खेल में छिपी एक आस है। दरिया के बहुत पास ही प्यास है।
जो जोड़ता है सबको, वह भीतर से टूटता ज़रूर है। जो साथ है हरदम वह एक दिन छूटता ज़रूर है और जो छूटता है टूटता है ज़रूर । दिल के भीतर, देह के भीतर उसका छूट जाना और भीतर ही भीतर टूट जाना। कोई नहीं देख पाता, सुन पाता कि वह अब भी कहीं न कहीं कुछ न कुछ जोड़ ही रहा होगा। ...खुद के मन की मिट्टी से कोई कोना तोड़ रहा होगा। मन समझते हैं न आप?
(दीपक अरोड़ा को पढ़ते हुए)