टूरिंग टॉकीज का लोप होना / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :05 जुलाई 2016
हमारे कथा चित्र अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में दिखाए जाते हैं, परंतु उन्हें महत्वपूर्ण नहीं माना जाता। अन्य देशों में फिल्म क्षेत्र में अभूतपूर्व काम हो रहा है। हमारे देश के एक प्रांत के बराबर जमीन वाले कोरिया में विलक्षण फिल्में बन रही हैं और हम अपनी आदत के अनुरूप उनसे 'प्रेरणा' लेकर अपना कचरा बना रहे हैं। प्राय: संकट काल में विलक्षण सृजन होता है, परंतु हमारे यहां विरोधाभास और विसंगतियों के बावजूद हम पलायनवादी फिल्में ही रच रहे हैं। कथा फिल्मों के पिछड़ जाने के इस दौर में हमारे यहां कुछ उच्च श्रेणी के वृत्त चित्र रचे जा रहे हैं और उन्हें विदेशों में पुरस्कार से भी नवाज़ा जा रहा है। 'इंडिया टुडे' में सुहानी सिंह ने इन पुरस्कार जीतने वाले वृत्त चित्रों पर बखूबी लिखा है।
चंद्रशेखर रेड्डी ने मेघालय की कोयला खान में नेपाल से आए ग्यारह वर्षीय बालक के बारे में 'फायर फ्लाइज़ इन द एबिस' नामक वृत्त चित्र बनाया है। इतनी कम उम्र के बालक से आक्रामक परिस्थितियों में जानलेवा काम कराना अमानवीय है। भारत के कई शहरों में कम उम्र के बच्चों से घरों में बेहिसाब काम कराया जाता है और ये शोषण अमानवीय स्तर तक जा पहुंचता है।
फिल्म प्रदर्शन के प्रारंभिक चरण में ही टूरिंग टॉकीज का व्यवसाय प्रारंभ हो चुका था और इतिहास प्रेरित काल्पनिक फिल्में बनाने में प्रवीणता अर्जित करने वाले सोहराब मोदी फिल्म निर्माण में आने के पूर्व गांवों और कस्बों में टूरिंग टॉकीज का व्यवसाय चलाते थे। इस तथ्य का वर्णन, इस 'सिनेमा ट्रेवलर्स' नामक वृत्त चित्र में नहीं है, परंतु टूरिंग टॉकीज व्यवसाय पर गहरा शोध करके यह वृत्त चित्र बनाया गया है। गांव-कस्बों में एक तम्बू लगाकर उसमें फिल्में दिखाई जाती रहीं और इस व्यवसाय में कोई टिकिट खिड़की की आवश्यकता नहीं रहती, दर्शक नगद पैसे देकर तंबू में प्रवेश करता है।
दिल्ली के जामिया मिलिया शिक्षा संस्थान से प्रशिक्षित होकर तैंतीस वर्षीय शिर्ले अब्राहम और उनके हमउम्र अमित मधेशिया ने 'सिनेमा ट्रेवलर्स' नामक शोध परक विश्वसनीय वृत्त चित्र बनाया है। ज्ञातव्य है कि कुछ वर्ष पूर्व ही शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर ने पूना फिल्म संस्था के क्यूरेटर नायर साहब पर 'सेल्युलाइड मैन' नामक प्रशंसनीय वृत्त चित्र बनाया था, जिसे विदेशों में पुरस्कृत किया गया। यह इत्तफाक भी काबिले गौर है कि शिवेंद्र डूंगरपुर फिल्म निर्माण से जुड़ी पुरानी चीजें मुंबई के तारदेव स्थित अपने संग्रहालय के लिए खरीदते हैं और वर्षों के परिश्रम का ही नतीजा है कि उनके संग्रहालय में ऐतिहासिक महत्व की चीज़ें हैं और ठीक इसी तरह इस वृत्त चित्र के बनाने वाले शिर्ले अब्राहम और अमित मधेशिया ने भी ऐसा ही संग्रहालय बनाया है। भारत की फिल्म संस्कृति की रक्षा इस तरह के संग्रहालयों में हो रही है। आम भारतीयों में किसी तरह के म्यूज़ियम के प्रति उत्साह की कमी है, वे महज वर्तमान के लापरवाह तमाशबीन मात्र हैं। इंदौर के सुमन चौरसिया ने पुराने फिल्म रिकॉर्ड्स का संग्रह बड़े परिश्रम से किया है। यह संभव है कि जीवन की क्षणभंगुरता को जानकर भी नकारकर हम वर्तमान के आनंद क्षण में स्वयं को पूरी तरह गर्त कर देते हैं। हमारी अनेक रुचियां और प्रवृत्तियां हमें अध्यात्मवादी नहीं वरन् भौतिकवादी व्यक्ति ही सिद्ध करती हैं, परंतु सीना ठोककर अध्यात्मवादी होने का स्वांग हम इस शिद्दत से जीते हैं कि स्वयं अपने बनाए भ्रम में यकीन करने लगते हैं।
कान अंतरराष्ट्रीय महोत्सव में यह प्रयास खूब सराहा गया है और इसकी तुलना इसी विधा की श्रेष्ठ रचना 'सिनेमा पैराडिसो' से की जा रही है। शहर दर शहर भ्रमण करने वाली सर्कस की तरह ही टूरिंग टॉकीज का महत्व रहा है, परंतु दोनों ही विधाएं मरणासन्न-सी हैं। हम लोग कथा सुनाने वाले और श्रोताओं के अनंत देश हैं, परंतु इतिहास बोध या उसके प्रति किसी प्रकार का उत्साह हमारे मन में नहीं है और अपने इतिहास की अवहेलना या अनदेखी करने वालों का कोई भविष्य नहीं होता। टूर के इतिहास की बातें छोड़िए, कुछ दशक पूर्व के नेहरू तक को इतिहास से वंचित करने की चेष्टा हो रही है। ऋषिकपूर की सेवा में निवेदन है कि भाखड़ा नंगल, भिलाई स्टीलऔर एटॉमिक एनर्जी संस्था के नाम भी नेहरू पर नहीं हैं।
गुजश्ता आधी सदी से सिनेमाघर के मालिकों पर यह जजिया कर लगाया जाता रहा है कि उन्हें फिल्म्स डिवीजन के वृत्त चित्र दिखाने और उसके लिए डिवीजन को राशि देना अनिवार्य है। सिनेमा मालिकों से हजारों करोड़ रुपए ऐंठे गए हैं। बटमार और ठगों की किंवदंतियां हैं और जबलपुर के चंद्रकांत राय ने ठगों पर गहरा शोध किया है। सरकार द्वारा की गई ठगी की कोई जांच संभव नहीं है। कुछ कर विधिवत घोषणा करके लगाए जाते हैं कुछ की ठगी ऐसी होती है कि ठगे जाने वाले को भी ज्ञान नहीं होता। धर्म के नाम पर सताए और लूटे जाने के बाद भी आम आदमी कहां सत्य को जान पाता है। वह सहर्ष अपनी रजामंदी से लुट रहा है। याद आता है 'चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़, तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर'। हम चित्रकूट को भारत समझ लें।