टेंशन / कृष्ण बिहारी

Gadya Kosh से
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उम्र अट्ठाईस साल, नाम सिल्विया, नागरिकता भारतीय, गोवन, कद पाँच फिट पाँच इंच, रंग गेहुआँ, शरीर सुगठित, पहनावा टाइट जींस और आधी बाँहों की टी–शर्ट या फिर ऑफिस आउट–फिट, छोटी स्कर्ट और उस पर नितम्बों के नीचे तक आता टॉप, जूते पिण्डलियों तक, चाल में ठसक भी फुर्ती भी, आदत खिलन्दड़ी, रूप मोहक, जिस्म चंचल मगर चेहरे पर सादगी भरी मासूमियत। दो वर्षीय एक बेटे की माँ, मेरी स्टूडेंट है। एक डच कम्पनी में बॉस की सेक्रेटरी है और कम्पनी का सारा बोझ अपने जवान कन्धों पर लिए है। ओपेन यूनिवर्सिटी से बी.ए. कर रही है बी.ए. करना उसकी मजबूरी हैं इस जॉब को बदलना चाहती है और अच्छी नौकरी के लिए एक अदद डिग्री जो बहुत जरूरी है वह उसके पास नहीं है।

जबकि हकीकत तो यह है कि आज के युग में सिर्फ डिग्री ही काफी नहीं। डिग्री के ऊपर डिग्री और फिर उसके ऊपर डिग्री। इसके अलावा अनुभव और उसके बाद भी सिफारिश चाहिए। वह भी तगड़ी। फिलहाल, मैं उसके भविष्य की योजनाओं में नहीं जाना चाहता और सीधे इस कहानी पर आना चाहता हूँ। मुझे डॉक्टर गुप्ता ने फोन पर बताया कि एक लड़की है जिसे हिन्दी पढ़ाना है। वह खुद बात करेगी। लड़की अच्छी है। मेरा मोबाइल नम्बर उन्होंने उसे कुछ देर पहले दिया है। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि पढ़ा दूँगा। यह कहाँ मालूम था कि वह लड़की नहीं बल्कि एक बेटे की माँ है। यूँ, अगर मालूम हो भी जाता तो भी मैं उसे पढ़ा देता। इससे पहले भी मैंने कई महिलाओं को पढ़ाया है । लेकिन यह ट्यूशन तो मुझे पहले दिन ही अजीब लगी।

सिल्विया का फोन आया, “सर, डॉक्टर गुप्ता ने आपके बारे में बताया...क्या आप मुझे मेरे ऑफ़िस में मिल सकते हैं...?”

“ऑफ़िस में…?” मैं चौंका।

“हाँ... ऑफ़िस में... उन्होंने नहीं बताया कि मैं ऑफ़िस में काम करती हूँ...?”

“नहीं... ऐसी तो कोई बात नहीं हुई उनसे...”

“आप मेरे ऑफ़िस आ जाइए... यहीं बात हो सकेगी...”

“पता बताओ...”

“हमदान रोड, यूसुफ टॉवर... फ्लैट नम्बर 501... कब तक आएँगे...?”

“कब आऊँ...?”

“जब आ सकें...” सिल्विया ने कहा ।

“मैं शाम पाँच तक आऊँ तो...?”

“दैट्स नाइस... उसी वक्त मेरा ऑफ़िस बन्द होता है...”

“ओक्के... वेट आफ़्टर फ़ाइव...”

“येस सर... नो प्रॉब्लम...”

उसके साथ का पूरा संवाद अँग्रेज़ी में हुआ था। अगर वह हिन्दी बोल ही पाती तो उसे ट्यूशन की कोई खास ज़रूरत नहीं होती। वह बहुत सरल लगी। मगर उसकी सरलता भी एक पहेली जैसी ही अबूझ भी दिखी। मैंने डॉक्टर गुप्ता से भी उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं पूछा था। शाम को लगभग पाँच बीस पर मैंने उसकी कम्पनी ऑफ़िस की कॉल बेल दबाई। वह अकेली ही वहाँ थी।

दरवाजा खोलते ही बोली, “गुड इव्निंग सर, क्या लेंगे... चाय... कॉफी––या पेप्सी... कोला...।”

“चाय... सुलेमानी... ।” मैंने कहा।

“नीबू के साथ... ।”

“दैट्’स नाइस...” मैंने उसके ऑफ़िस को एक नज़र देखते हुए कहा। उसने दो–चार पलों में ही मुझे अपना ऑफ़िस दिखाकर यह बता दिया कि पाँच कमरों के उस फ्लैट में कौन कहाँ बैठता है और फिर मुझे बैठने की जगह बताकर किचन में घुस गई। जब तक वह किचन में थी तब तक मैं उसके ऑफ़िस का जायजा लेता रहा और उसके बारे में भी। उस शाम वह स्कर्ट में थी और उसके ज़िन्दा पाँव बखूबी बोल रहे थे। मुझे लगा कि इस आवाज़ से बचना चाहिए। बचने में ही भलाई है। वर्ना दो बच्चों का बाप और अथकचरी गृहस्थी। बेमौत मारा जाऊँगा।

वह अपने और मेरे लिए चाय टेबल पर रखते हुए बोली, “सर, आपसे पहले तीन लेडी टीचर्स को इंटरव्यू कर चुकी हूँ... लेकिन... वे मुझे नहीं पढ़ा सकतीं...।”

“क्यों...?”

“लेडी इंसट्रक्टर से ड्राइविंग सीखना और एक वक्त के बाद किसी लेडी टीचर से पढ़ना दोनों ही वक्त बर्बाद करना है... लेडी इंसट्रक्टर में कलेजा नहीं होता और हाउस वाइ्फ़ टीचर्स में सबजेक्ट की पकड़ उम्र के साथ खोती चली जाती है... मैंने उनसे पूछा... एप्लिेकेशन ग्रॉमर क्या है...? मुझे एक नॉवेल... एक ड्रामा... एसे... चार आधुनिक कवियों की एक-एक कविता और तीन मेडिविल कविताएँ पढ़नी हैं... वे चुपचाप चली गईं... लेकिन जिस तरह से आप आए... आपकी एंट्री... उसने मुझे इम्पे्रस किया और... मैं कह सकती हूँ कि डॉक्टर गुप्ता ने सही रिकमेंड किया है... मुझे आप जैसा ही टीचर चाहिए...।”

टेबल के दूसरी और बैठी सिल्विया मुझे उस वक्त वह बॉस नजर आ रही थी जो अपने इंपलाई को एक्सप्लॉइट करना जानता है। उसने मुझे प्रभावित भी किया हालाँकि, उसके ज़िन्दा पाँव मुझे नहीं दिख रहे थे जो कि टेबल के नीचे छिप गए थे। मैंने मन–ही–मन सोचा कि ऐसे में उन्हें छिपना ही चाहिए था।

“सर, वीक में दो दिन थर्सडे... एंड फ्राइडे... मैंने परमिशन ले ली है... आप यहीं... ऑफ़िस में मुझे पढ़ा दीजिए... घर पर मुश्किल है... बच्चा छोटा है... पढ़ने नहीं देगा...”

उस वक्त उसके ऑफ़िस में सिवाय सन्नाटे के कोई नहीं था...

मैंने चाय खत्म भी नहीं की थी कि उसने ऐश ट्रे मेज पर रखते हुए कहा, “आप सिगरेट पीते हैं... आपके होंठ बोलते हैं... आप यहाँ सिगरेट पी सकते हैं...”

मैंने सिगरेट सुलगा ली और धुआँ भीतर तक उतारते हुए पूछा, “तुम भी पीती हो सिगरेट...?”

“कभी–कभी... बहुत कम... चार–छह महीनों में एक–दो बार... ”

“इस वक्त पी सकती हो... मुझे कोई आपत्ति नहीं...”

“नो सर... आप मेरे टीचर हैं और मैं इंडियन हूँ...।” उसके उत्तर से मुझे झटका लगा और शायद यह भी समझ में आ गया कि मेरी हद क्या होनी चाहिए या कि मुझे किसी गलतफ़हमी या जबरदस्ती की ओढ़ ली गई ख़ुशफ़हमी में नहीं होना चाहिए ।

वैसे भी लड़कियों और महिलाओं को पढ़ाने के रिश्ते में मेरे उनके बीच हमेशा एक अलंघ्य दूरी रही है। इस रिश्ते के बीच जो मोहब्बत की खुशबू है, उसके एसेंस का नाम ही इज़्ज़त है।

सिल्विया के साथ पहली मुलाक़ात में और उसे पढ़ाते रहने के बावजूद मैंने उसे कोई ऐसा मौक़ा नहीं दिया कि वह मुझसे स्वतन्त्रता ले सके। सच्चाई यह भी कि उसने कभी मुझे भी स्वतन्त्रता दी नहीं। डॉक्टर गुप्ता ने जो कहा था कि वह एक अच्छी लड़की है, वह बहुत सही और निर्णायक राय थी, जबकि अपने हिस्से की स्वतन्त्रता वह एक शिष्ट तरीके से हासिल कर लेती थी।

हर तीन-चार दिन के बाद वह कोई न कोई उपहार टेबल पर रखे मिलती और कहती, “सर, यह आपके लिए...” मैं उपहार की ओर से निरपेक्ष रहता। वापसी में अपनी कार में छोटे से पैकेट को खोलता। उसमे कोई मामूली सी चीज़ होती। कभी सजावटी ऐशट्रे, कभी कफ़ लिंक्स तो कभी टाई। उपहार देते समय उसके चेहरे पर ख़ुशी मिश्रित चमक होती थी, जो मैं अपनी समझ से एक सामान्य शब्द ’थैंकयू’ कह कर उसके चेहरे को भावहीन और सपाट कर देता। मैं यह समझने में असमर्थ था कि मेरे थैंकयू कहने के बाद उसका चेहरा कुछ पलों के लिए ख़ामोश क्यों हो जाता है।

ऐसा कई बार हुआ मगर इतना होने के बावजूद उसने हर तीसरे–चौथे दिन उपहार देना नहीं बंद किया। आख़िर एक दिन सिल्विया ने जब मुझे गिफ़्ट पैकेट दिया और मैंने उसे टेबल पर निरपेक्ष भाव से रखा तो उसने पूछ लिया, “सर, आप पैकेट खोलकर देखते भी नहीं कि मैंने क्या दिया है ? आपको अच्छा नहीं लगता क्या सर ?” उसके प्रश्न से मैं सन्न रह गया। मुझे कोई उत्तर भी नहीं सूझा तो उसने कहा ,”सर, जब कोई गिफ़्ट दे तो उसे तुरन्त देखना चाहिए और उपहार देने वाले की भरपूर प्रशंसा करनी चाहिए। सर, इससे उपहार देने वाले का दिल दुगनी खुशी से झूम उठता है...”

सिल्विया ने जो कहा वह और भी ख़ामोश करने वाला था लेकिन मुझे कुछ तो कहना था और जो सच था वही मैंने उससे कहा, “सिल्विया, मैं जिस कल्चर में बड़ा हुआ उसमें गिफ़्ट वगैरह देने की परम्परा नहीं थी और अब जब बच्चों के जन्मदिन पार्टी आदि पर उन्हें कोई पारिवारिक मित्र गिफ़्ट देता भी है तो हम लोग बच्चों को पहले से बताए रहते हैं कि गिफ़्ट पैकेट लोगों के जाने के बाद ही खोलना...तो, जो तुमने मुझसे पूछा कि क्या मैं ख़ुश नहीं होता तो शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे गिफ़्ट पाकर ख़ुशी न होती हो, मगर उसे प्रकट करना हमें शिष्टाचार के ख़िलाफ़ ही सिखाया गया...आज पहली बार मैंने जाना कि गिफ़्ट को तुरंत देखना चाहिए और उसकी प्रशंसा करनी चाहिए।” मेरे सच बोलने से उसकी खुशी चेहरे पर थी। मैंने पैकेट खोला तो मुझे खूबसूरत इलेक्ट्रोनिक लाइटर दिखा।

“यह तो बहुत खूबसूरत है... थैंक यू सिल्विया...।”

“आपकी आवश्यकता भी लेकिन सर, हेवी स्मोकिंग इज हार्म्फ़ुल...।”

“येस, आई नो...।”

उस दिन ऐसी ही हल्की-फुलकी बातें हुईं। उसने कॉफी बनाई। ए सी कमरे में प्यालों से उठती भाप हमारे बीच तैरती रही और तैरते रहे जीवन की आपा-धापी के वे पल जो हर गृहस्थी के जंजाल मगर निहायत ज़रूरी होते हैं।

उस दिन वापसी में मेरी कार की गति के साथ-साथ एक स्टूडेंट का सिखाया पाठ भी था जिसके नए अर्थ खुले थे। मुझे यह भी लगा कि ज़िंदगी के विश्वविद्यालय में चेहरे पढ़ना भी एक हिस्सा होना चाहिए जिसमें व्यावहारिक कृत्रिमता की कोई जगह न हो तो ज्यादा अच्छा। परदादारी से भी रिश्ते नीरस होकर सूख जाते हैं। मैं उसे सप्ताह में दो दिन पढ़ाने जाता था। उसके साथ का समय अच्छा गुज़रता था। यूं भी कह सकता हूँ कि एक घंटा बीत जाने का पता नहीं चलता था। वह पढ़ते-पढ़ते कभी भी अचानक रिलैक्स हो जाती और फिर कुछ पल बातों में टहल आते। जनवरी का आख़िरी हफ़्ता था। मौसम में खनक उतर आई थी। उसे पढ़ाते हुए लगभग तीन माह हो रहे थे। घर परिवार के बीच मेरे दिन भी व्यस्तता में बीत रहे थे। मैं बेटे को उसके ट्यूशन टीचर के घर छोड़ते हुए सिल्विया को पढ़ाने जाता और वापसी में बेटे को पिक करता। उन दिनों की यह निश्चित दिनचर्या थी। ऐसे में ही एक शाम बेटे ने ट्यूशन जाने के लिए कार में बैठते ही कहा, “पापा, आज टीचर को पैसे देने हैं, कल उन्होंने ग्रुप को याद दिलाया था।“

“तुम्हें कल ही बताना था, मैं इंतजाम कर लेता... अब बता रहे हो ...कल कुछ करूंगा।“ इतना कहकर मैं चुप तो हो गया पर भीतर कुछ घुमड़ने लगा। कुछ भी कर लो मगर घर की आवश्यकताएँ कभी कम नहीं होतीं, बस उनकी प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। बेटे को उसके टीचर के घर के सामने ड्रॉप करके मैं सिल्विया को पढ़ाने पहुंचा।

उसकी परीक्षा का टाइमटेबल जारी हो गया था जिसके हिसाब से मार्च के अंतिम सप्ताह में उसे इम्तहान देना था। उसकी तैयारी भी ठीक चल रही थी। उसे कुछ काम देकर मैं चुप सा था कि उसने पूछ लिया, “क्या बात है सर, आप कुछ परेशान लग रहे हैं...।”

अचानक पूछे गए उसके इस सवाल से मैं अचकचाया ज़रूर लेकिन सामान्य दिखने की भरपूर कोशिश की, “नहीं, कोई बात नहीं ...”

“नहीं सर, फेस इज द इंडेक्स ऑफ माइंड...कुछ चल रहा है आपके भीतर... मुझे बताएं सर... आई मे शॉर्ट आउट योर प्रोब्लेम... प्लीज़, बताएं ...” मन में बेटे की ट्यूशन फीस को लेकर जो उलझन थी,मैंने उसे बिना लाग-लपेट के बता दी।

“ह्वाट सर ... यह भी कोई प्रोब्लेम है...” उसने अपने पर्स से पाँच-पाँच सौ दिरहम के दो नोट निकाले और मेरी ओर बढ़ाया, “अब रिलैक्स ...”

“ये ज़्यादा हैं…”

“रख लें सर... अभी महीने के आख़िरी हफ्ते में चार दिन बाक़ी हैं ...”


मेरे पास कहने को कुछ था नहीं। मैं केवल सोच सकता था कि एक युवती जो मेरी स्टूडेंट है वह सोच और संवेदना के स्तर पर क्या इतनी सांद्र हो सकती है कि वह अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति को सहज सहानुभूति दे सके। मैंने उसके पैसे रख लिए थे। तात्कालिक समस्या का निदान हो गया था।

जनवरी का महीना बीता। तीन चौथाई से अधिक उसका सेलेबस मैंने पूरा करा दिया था। अब मैं उसे केवल यह सिखा रहा था कि यदि किसी पाठ से संबन्धित पूछा गया प्रश्न उसे उत्तर लिखने की असुविधा में डाल दे तो वह उसे छोड़ कर न आए बल्कि एक ऐसा उत्तर लिखे जो हर प्रश्न का जवाब हो सके। एक किस्म से यह पाठ समरी जैसी बात तैयार करनी थी।


बमुश्किल अब कुछ गिनती के ही दिन मुझे सिल्विया को पढ़ाना था। यूं भी हफ़्ते में दो दिन ही उसे पढ़ाता था। कुल मिलाकर चौबीस-पचीस दिन ही हम एक-दूसरे के आमने-सामने हुए थे। अब हमारे इस संबंध को अगले कुछ दिनों में एक अंजाम पर पहुँचना था। मगर ज़िंदगी रिश्तों को सपाट तो कभी जीती नहीं। वह अपने भीतर कितने तूफान छिपाए रखती है उसका पता किसी को तब तक चलने नहीं देती जब तक वह आकर गुज़र न जाये। आदमी सिर झुका ले तो तूफान गुज़र जाने के बाद सही सलामत उठ खड़ा होता है, न झुके तो टूट जाता है। सिल्विया को लेकर मेरे मन में किसी किस्म की कोई कमज़ोरी नहीं थी। किसी किस्म के वाहियात ख़याल नहीं थे। मगर मौक़े-कुमौक़े कभी न कभी ऐसी बात हो जाती है जब ज़िंदगी में रिश्ते झटके देते हैं। फरवरी की एक शाम जब मैं उसे पढ़ाने पहुँचा तो वह अति उत्साह में डूबी मिली। पहनावा, वही आफ़िस आउट फिट। उसके हाथों में कलर्ड पेपर में रैप किया हुआ गिफ़्ट पैकेट था, “सर, यू आर माय वेलेंटाइन...” मैं चौंका और तब मुझे अखबारों में पिछले कुछ दिनों से चले आ रहे विज्ञापन फड़क उठे, जिसमें वेलेंटाइन डे को लेकर दुनिया भर के आकर्षक ऑफ़र पढ़ने को मिल रहे थे। यह प्रेमियों के मिलनोत्सव का एक दिन मुक़र्रर मान लिया गया था जिसमें हमारी पीढ़ी कहीं से भी फ़िट नहीं बैठती थी। नब्बे के शुरुआती दशक में पश्चिमी और विकसित दुनिया भले ही वेलेंटाइन डे मनाने लगी हो, भारत में तो शायद ही किसी ने वेलेंटाइन डे का नाम सुना हो। वह ज़माना तो प्रेम के इजहार को भी सात परदों में छिपाए रखने का था।

क्या यह लड़की मुझसे प्रेम करने लगी है? और अगर यह खूबसूरत युवती जिसमें व्यावहारिकता के अलावा जबरदस्त जिस्मानी कशिश है, उसके इस प्रेम निवेदन को अस्वीकार करना मेरे लिए मुश्किल नहीं होगा? एक नहीं कई पल मानसिक झंझावात में निकल गए लेकिन इस बीच मैंने उसके गिफ़्ट पैकेट को खोला। वह ब्रांडेड सन ग्लासेज थे। मैंने उसकी प्रशंसा की, थैंक यू कहा। उसे अच्छा लगा। वह अपने स्वभाव के हिसाब से सहज थी।जिस तरह पहले भी गिफ़्ट देकर वह बिलकुल सामान्य रहा करती थी वैसे ही उन पलों में भी थी। आंदोलन की हिलोर तो मेरे भीतर थी।


“सर, आपकी वाइफ़ जानती हैं कि आप मुझे... यानी कि एक जवान लड़की को पढ़ाते हैं...?” उसने बड़ी सहजता से पूछा और उसके इस प्रश्न से मैं अप्रत्याशित रूप से चौंका कि वेलेंटाइन डे सेलीब्रेट करती इस लड़की के मन में मेरी पत्नी का ख़याल क्यों आया।

“जानती हैं...”

“कुछ पूछती नहीं...?”

“इसमें पूछने को क्या है... वह भी जान गई है कि इस देश में बिना अतिरिक्त काम किए घर के खर्चे चलने को नहीं... खर्चे भी तो कम नहीं हैं, तो फिर ट्यूशन ही एक अध्यापक के लिए अनचाहा बोझ या मजबूरी या फिर ओवरटाइम समझ लो... करना पड़ता है... वह भी समझौते करना जानती होगी...”

“लेकिन सर, मैं बुरी लड़की तो नहीं...”

“यह किसने कहा...?”

“बट सर... इट हैपेंस... आपकी वाइफ़ भी कुछ–न–कुछ हमारे बारे में सोच सकती हैं ...”

“किसी के सोचने पर कभी कोई रोक लगी है क्या...?”


वह चुप हो गई थी। कभी-कभी संवाद किसी ऐसे मोड़ पर चुप्पी अख़तियार कर लेते हैं जिसे खत्म करना तुरंत संभव नहीं होता। हर तरह से सुंदर और आकर्षक युवती जिसमें भरपूर कशिश थी और जो अपने मुक्त व्यवहार से प्रिय लगने लगी थी उसका सवाल स्त्री मनोविज्ञान की वह पहेली था जिसे बूझने की असफल कोशिश अनादि काल से चली आ रही है। शक की बिना पर दुनिया तबाह होती रही है। कुछ बातें दुनिया में कभी नहीं बदलतीं। उसका बेबाकी से ऐसा पूछना कहीं से यह संकेत भी था कि वह स्टूडेंट से इतर एक स्त्री होती जा रही है जो अपने मिलने-जुलने वाले पुरुषों के बीच किसी अपने की तलाश कर रही है मगर मेरा ऐसा सोचना कहीं कुछ ज़्यादा ही प्रेमिल भाव लिए था। अब तक बहुत–सी बातें जो पढ़ाई के दौरान पाठ्यक्रम से इतर होती थीं वे अँग्रेज़ी में हुई थीं।


मैंने उसे कई बार कहा कि हमेशा हिन्दी में बोले और हिन्दी में ही मुझे सुने। लेकिन जब बात होती तो सम्प्रेषण की भाषा अँग्रेज़ी हो जाती। उसे मैंने मोहन राकेश का ड्रामा ‘आषाढ़ का एक दिन’, प्रेमचन्द का उपन्यास ‘निर्मला’, अज्ञेय, निराला और अन्य कवियों की रचनाएँ पढ़ाईं। मेडविल कवियों में संत कवियों की एक-एक रचना थी। व्याकरण में एप्लीकेशन समझाया। वह मुझसे जो कुछ आफ़िस में पढ़ती थी, उसे घर जाकर अपने बच्चे और भूखे पति को सुलाकर पढ़ती–दुहराती और लिखती थी। यह तो उसे करना था। वह मेहनत करती थी। कैसे करती थी, इसका पता मुझे नहीं था। उसी ने एक बार बताया कि उसे घर का सारा काम करना होता है। एंजी को तो जैसे घर से कुछ मतलब ही नहीं। एंजी उसके पति का नाम था, जो एक यूरोपियन कम्पनी में काम करता था और म्यूजिक का दीवाना था। ऑफिस के काम के बाद उसकी दीवानगी उसे म्यूजिकल कार्यक्रमों में उलझा लेती थी। सिल्विया के अनुसार वह जानबूझकर घर की जिम्मेदारियों से भागता था। एक बेटा भी है। उसकी ज़रूरतें हैं। इन सबसे वह कोई मतलब नहीं रखता था। बच्चे की बेबी सिटिंग, उसकी देख–रेख और उसकी अस्वस्थता आदि के मामले के अलावा घर में कब क्या चाहिए, यह सब सिल्विया के जिम्मे था। अगर वह न देखे तो घर बिखर जाए। यह सब तब था, जबकि उनका यह प्रेम–विवाह था। उसकी इस मजबूरी को मैं लगभग न के बराबर जानता था। मैं उसे सप्ताह में केवल दो–दिन पढ़ाता। पढ़ाता क्या, बस उसके लिए घर पर नोट्स बनाता। उसे टाइप करके दे देता और एक बार उसके सामने पढ़ देता। उसके बाद वह स्वयं मेहनत करती और जमकर करती। उसे इस बात का दुख था कि पढ़ने की उम्र में वह पारिवारिक कारणों से पढ़ नहीं पाई। एंजी से शादी करने के बाद जब उसे लगा कि जिससे प्रेम–विवाह किया है उसके साथ भी कोई सामाजिक सुरक्षा की गारंटी नहीं है तो नौकरी की बात दिमाग से आई और जब नौकरी शुरू की तो लगा कि ज़िन्दगी में आगे जाने के लिए और डिग्रियों की आवश्यकता है। उसने आगे पढ़ने का मन बना लिया। एंजी उस पर तंज करता रहता था कि वह कोशिश करके देख ले, मगर उससे यह सब हो नहीं पाएगा। एंजी की चुनौती को उसने स्वीकार कर लिया था और ओपेन यूनिवर्सिटी से पढ़ने लगी थी। भाषाओं के मामले में फ्रेंच और हिन्दी का ऑप्शन था तो उसने हिन्दी इसलिए ले ली कि वह टूटी–फूटी बोल लेती थी और समझ लेती थी।


उसकी परीक्षाओं की तारीखें आ गई थीं। उसका सारा ध्यान पढ़ाई पर था। मैंने स्वयं महसूस किया कि वह जी–तोड़ मेहनत कर रही है। उसके टॉपिक्स पर नोट्स बनाकर उसे ई मेल कर देता और नेक्स्ट टर्न पर नोट्स के बारे में जो कुछ उससे पूछता वह उसे उसी तरह प्रस्तुत कर देती, जिस तरह मैंने उसे लिखकर दिया होता। मुझे यकीन हो चला था कि हर हाल में वह पास तो हो ही जाएगी। लेकिन जब मैं परीक्षाओं से पहले एक दिन उसे पढ़ाने उसके ऑफिस में पहुँचा तो सब कुछ अजीब लगा। न तो उसकी चाल में ठसक थी और न फुर्ती। वह बहुत उदास लगी। मैं जो नोट्स ले गया था उसे बताता रहा मगर वह कहीं और किसी और दुनिया में थी। मैंने ही उसे झकझोरा, “कहाँ हो तुम...?”

“...” वह चुप ही रही।

उसकी नाक सूजी हुई थी। या तो वह रो चुकी थी या फिर उसे सर्दी लगी थी। उसने अपने पास ही टिश्यू पेपर रखा हुआ था। बार–बार वह एक पेपर निकालती और नाक पोंछकर उसे मेज के नीचे बास्केट में डाल देती।

“बात क्या है... तुम परेशान दिखती हो...?”

“सर... मैं परेशान हूँ... आप जान गए... मगर मेरे एंजी को यह पता नहीं कि मैं परेशान हूँ... मेरे नए बॉस ने नाक में दम कर रखा है... मैं यह नौकरी अब और अधिक दिनों तक नहीं कर सकती... यह आदमी पैंसठ साल का फॉरगेटफुल बूढ़ा हालैण्ड से बुलवाया गया है... इसे कुछ याद नहीं रहता... मैं इसकी मीटिंग्स के सारे पेपर तैयार करके फ़ाइल में लगाकर इसे देती हूँ... यह उसे ले जाना तक भूल जाता है और फिर वहाँ से मुझे फ़ोन पर डाँटता है... यह फैक्स करो... वह फैक्स करो... 4,00,000 डॉलर की एक डील थी... डिफ़ेंस का आइटम था... इसकी वजह से तय हुई डील हाथ से निकल गई... चार चेक खो चुका... वो तो मैं सब रिकार्ड रखती हूँ वर्ना यह आदमी तो... सर... मैं इस कम्पनी में चार साल से हूँ... अरबाब (मालिक) का यकीन मुझ पर है... पर पता नहीं क्यों उसने इस आदमी को काम पर रखा... इसके पहले बॉस ब्रिटिश था... पूरा ऑर्गनाइज्ड ढंग से काम करता था... हर कोई उससे खुश था... पर्सनल रीजन से वह छोड़कर गया। मगर यह आदमी तो... तीन बार एक्सीडेंट कर चुका... इसके पास ड्रॉइविंग लाइसेंस नहीं है... फिर भी कार चला रहा है... कितना पैसा लगा इसे बचाने में... मैं बोल रही हूँ कि अपना डच लाइसेंस लाओ और उसे दिखाकर टेस्ट दो और पास होने के बाद यहाँ कार चलाओ लेकिन... यह सुनता ही नहीं... अब कह रहा है कि तीन दिन में उसकी बीवी का वीजा लगवाकर बुलवाऊँ... पीआरओ कोशिश कर रहा है... मगर आजकल कोशिश से कुछ होता है... पैसा लगता है... यह समझता ही नहीं... कम्पनी को चूना लगा रहा है... अपने सारे पर्सनल खर्चे कम्पनी के खाते में डाल रहा है ... यह कम्पनी को बरबाद कर डालेगा... अरबाब स्विटजरलैंड गया हुआ है... आज मैंने तंग आकर उसे फोन किया तो बोला, रिलैक्स... आने के बाद देखूँगा... क्या देखेगा... यह आदमी तब तक जाने कितना तंग कर चुका होगा... सर 60 सिगरेट पीता है... तीन पैकेट मार्लबोरो... पूरा ऑफिस गन्धाता रहता है... यह खर्च भी कम्पनी के खाते में है... अब इसकी बीवी को बुलवाना है... वीजा... टिकिट... घर तो पूरा फ़र्निश दिया ही है... पता नहीं बुढ़िया के साथ क्या करेगा... उधर एंजी को न मेरी फिकर है न बच्चे की और न घर की... मैं कहती हूँ कि शाम को आफ़िस से सीधे टैक्सी लेकर घर आओ ... थोड़ा बच्चे को देखो ... मुझे काम में मदद करो... मगर वह पैदल आता है... वॉक करते हुए... हेल्थ कॉन्शस हो गया है... उसे हेल्थ की पड़ी है और मैं बीमार हो रही हूँ... सर... मैं डॉक्टर गुप्ता के पास गई थी... बीपी बढ़ा हुआ है... 160/100... मैं क्या पढूँ... एंजी सही होता तो मुझे नौकरी करने की भी क्या ज़रूरत थी... मगर... मुझे तो पता तक नहीं कि वह अपनी सैलरी का क्या करता है... मैं समझती थी कि बचाता होगा... मगर उसके अकाउंट में तो कुछ भी नहीं है... मुझे अपने लिए नहीं तो अपने बच्चे के लिए नौकरी करनी ही होगी... यहाँ नहीं तो किसी और कम्पनी में ही सही... लेकिन मैं अब जान गई हूँ कि बिना नौकरी किए मेरा और बच्चे का जीवन दूभर हो जाएगा... सर आप कितना काम करते हैं... फ़ोन... बिजली... पानी... बच्चों की फ़ीस... उन्हें ट्यूशन छोड़ना... ले जाना... उनके और सौ काम... फिर नौकरी और ऊपर से ट्यूशन... इतना टेंशन... लेकिन... आप घर के बारे में सोचते ही रहते हैं... कैसे... सर... ?”

“जैसे तुम सोच रही हो...”

“तभी तो टेंशन है, सर...”

“अब रिलैक्सड हो लो...”

“पढ़ाइए सर... यही ज़िन्दगी है... ”

मुझे लगा कि बहुत कुछ बोलकर उसका दिल कुछ हलका हो गया था। टेंशन तो शायद तब भी था मगर उसका दबाव ज़रूर कम हो गया था। या शायद यह कि अपने परेशानियाँ बताकर उसने मुझे अपने टेंशन्स याद दिला दिए थे... तय समय पर उसकी परीक्षाएँ हो गईं। परिणाम भी अनुकूल रहा। उसने फ़ोन पर सूचना दी और मिलने की इच्छा जताई, “सर, फ्राईडे को लंच पर घर आएँ... एंजी बहुत खुश है ... वह भी आपसे मिलना चाहता है ...मेरे बेटे को भी आपकी ब्लेसिंग्स चाहिए”

“ओके ... आऊँगा ... यू आर माय वेलेंटाइन ...” मैंने सोचा कि टेंशन्स तो हर घर में होते हैं मगर उनके बीच भी उनसे दूर होने के कुछ पल निकल ही आते हैं।