टेक्नोलॅाजी : खुल जा चिप चिप / जयप्रकाश चौकसे
टेक्नोलॉजी : खुल जा चिप चिप
प्रकाशन तिथि : 11 जनवरी 2011
मनुष्य के सारे क्रियाकलाप सैटेलाइट कैमरों की पकड़ में हैं। इतना ही नहीं, हमारे अवचेतन में भी ताक-झांक के प्रयास हो रहे हैं। आज टेक्नोलॉजी अर्थात 'खुल जा सिम सिम' या 'खुल जा चिप चिप' है। गुफा से पत्थर का द्वार खिसक गया है और सारे खजाने आपके सामने हैं।
निर्माता टूटू शर्मा के लिए सुधीर मिश्रा ने नील नितिन मुकेश के साथ अपनी असफल फिल्म 'जॉनी गद्दार' की अगली कड़ी 'तेरा क्या होगा जॉनी' बनाई, जिसके प्रदर्शन की तारीख इतनी बार बदली गई है कि अब वह उद्योग में मजाक बन गई है। कुछ माह पूर्व इस फिल्म को किसी व्यक्ति ने यू-ट्यूब पर दिखा दिया, जहां से अवैध वीडियो भी बना लिए गए हैं। गौरतलब बात यह है कि शूटिंग के बाद फिल्म का संपादन, पाश्र्व संगीत, ध्वनि पुन:मुद्रण में समय और पैसा लगता है। पहले यह सारा काम फिल्म के पॉजिटिव पर बड़ी मशीनों द्वारा किया जाता था, परंतु टेक्नोलॉजी के नए आविष्कारों के बाद सारा काम कम्प्यूटर पर करने के बाद फिल्म के मूल नेगेटिव से प्रदर्शन के लिए 35 एमएम का प्रिंट बनाया जाता है। इस कार्य को करने वाला कोई भी एक कर्मचारी पेन ड्राइव जैसी छोटी सी चीज के माध्यम से पूरी फिल्म बाहर ले जा सकता है। पहले भव्य मशीनों पर काम के समय यह संभव नहीं था।
जहां एक ओर टेक्नोलॉजी ने काम सरल और तेज कर दिया है, वहीं उसकी चोरी को भी आसान कर दिया है। अब सृजन उसके कर्ता की जागीर नहीं रह गया है। कम्प्यूटर की एक आधा इंच से कम की चिप में दुनिया का इतिहास समाया होता है। अब नकल और उसकी असंख्य प्रतियां पलक झपकते ही बन सकती हैं। पुराने अखबारों को संभालकर रखने के लिए जगह और मेहनत लगती थी, अब माइक्रो फिल्म पर सारी सामग्री सदियों तक संभाली जा सकती है। भारत के राडिया टेप या अमेरिका के विकीलीक्स कितने आसान हो गए हैं। अब किसी के लिए भी निजता की रक्षा संभव नहीं है। मनुष्य के सारे क्रियाकलाप सैटेलाइट कैमरों की पकड़ में हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य के अवचेतन में भी ताक-झांक के प्रयास हो रहे हैं। आज टेक्नोलॉजी अर्थात 'खुल जा सिम सिम' या 'खुल जा चिप चिप' है। गुफा से पत्थर का द्वार खिसक गया है, सारे खजाने आपके सामने हैं।
वर्जीनिया वुल्फ ने लिखा था कि दिसंबर 1910 में मनुष्य बदल गया और वह सचमुच बदला था परंतु 2010 और उसके बाद मनुष्य की विचार प्रक्रिया में इतनी तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं कि तमाम पुरानी संस्थाएं, परंपराएं और मान्यताएं आज की हकीकत को समझने में विफल हो रही हैं। पुरानी उदात्त संस्कृति के यशोगान में अलमस्त हुए लोगों ने अपने कान, आंख और दिमाग बंद कर दिए हैं और आज के शंखनाद को अनसुना कर रहे हैं। मनुष्य शास्त्र रचता है, शास्त्र मनुष्य नहीं रचते। समाजशास्त्री हेमचंद पहारे का विचार है कि टेक्नोलॉजी ने ऑल्टरनेटिव रियलिटी को इतना मनोहारी बनाया है कि यथार्थ से संपर्क टूट जाता है।
इस बात का मोटा उदाहरण यह है कि कम्प्यूटरजनित ध्वनियों के उपयोग से संगीत रचा जा रहा है, जो असली वाद्य यंत्रों से निकली ध्वनियों से लेशमात्र ही कमतर है परंतु आप उससे संतुष्ट हो जाते हैं। इस तरह टेक्नोलॉजी आपको संपूर्ण गुणवत्ता से थोड़े से नीचे के पायदान वाले माल से संतुष्ट करती है और इसी कारण आज असल वाद्ययंत्र बजाने वाले विरल हो गए हैं। टेक्नोलॉजी ने तमाम क्लासिज्म को अवाम की पहुंच में पंहुचा दिया है। यह शास्त्रीय कला का गणतंत्रीकरण है। आज कंप्यूटर विशेषज्ञ लता मंगेशकर के हजारों गीतों से शब्दों को लेकर लताजी का नया गाना बना सकता है, जिसे लताजी ने कभी गाया नहीं है। टेक्नोलॉजी के इस विस्फोटक युग में भी मनुष्य ही केंद्र है, परंतु सारे आविष्कारों पर बाजार की ताकत का कब्जा है जिस कारण मनुष्य की भूख, गरीबी और अभाव नहीं मिटते। आज के ज्ञान की यह अजीब औघड़ता है कि वह अभावों को नहीं मिटा पाता।
भारतीय सिनेमा और टेलीविजन उन पुरातन विचारों और संस्थाओं की तरह हैं जो आज के यथार्थ को नीं पकड़ पा रहे हैं। आधुनिकतम कैमरे खरीदने से कुछ नहीं होगा, तमाम विचार बासे और सड़ांध भरे हैं। सिनेमा मायथोलॉजी का ही एक्सटेंशन बना हुआ है या स्वयं द्वारा बनाई मायथोलॉजी में ही डूबा रहता है। सुपरमैन फिल्में टेक्नोलॉजी का वह स्वरूप हैं जिन्हें अनाड़ी इस्तेमाल करते हैं। असल फिल्मकार आम आदमी के नायक स्वरूप पर फिल्म बनाता है।