टेढ़ी उँगली और घी / जयनन्दन
बिल्टूराम बोबोंगा पर पूरे शहर की निगाहें टिक गई थीं।
एक दबा, कुचला, बदसूरत और जंगली आदमी देश का कर्णधार बनने का ख्व़ाब देख रहा था। झारखंड मुक्ति संघ नामक एक ऐसी पार्टी का लोकसभा टिकट उसने प्राप्त कर लिया था जिसका तीन-तीन राष्ट्रीय पार्टियों, राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और सीपीआई से चुनावी तालमेल था। मतलब चार पार्टियों का वह संयुक्त उम्मीदवार बन गया और इस आधार पर ऐसा माना जाने लगा कि उसका जीतना तय है। डॉ रेशमी मलिक सुनकर ठगी रह गई। बाप की जगह बेटे-पोते, बीवी-बहू या मुजरिमों-माफ़ियाओं, फ़िल्म-खेल के चुके हुए सितारों या धन पशुओं के एकाधिकार वाले प्रजातंत्र में एक अदना आदमी को पार्टी का टिकट! उसे स्कूल का वह मंज़र याद आ गया।
बिल्टू कक्षा में सबसे पिछली बेंच पर बैठा करता था। काला-कलूटा, नाक पकौड़े की तरह फुला हुआ और बेढब। पढ़ाई में सबसे फिसड्डी यानी मेरिट लिस्ट का आख़िरी लड़का। कुछ सहपाठी उसे जंगली कहकर मज़ाक उड़ाते थे। नाम, शक्ल और अक्ल देखकर कोई नहीं कह सकता था कि यह लड़का कभी किसी काम के लायक बन पाएगा या इस लड़के से किसी को प्यार हो सकता है या फिर यह लड़का किसी से प्यार करने की जुर्रत कर सकता है।
लेकिन उसने प्यार किया, जी-जान से किया और उस लड़की रेशमी मलिक से किया जो कक्षा की खूबसूरत और ज़हीन लड़कियों में से एक मानी जाती थी।
उसने कोई एकांत कोना ढूँढकर अपना प्रणय निवेदन करते हुए कहा था, “रेशमी, मैं बदसूरत हूँ, पढ़ने में बोका हूँ, छोटी जाति का हूँ, गरीब हूँ, एक अच्छा नाम तक नहीं है मेरा, इसका यह मतलब नहीं कि मुझे प्यार करने का हक नहीं है। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, अब यह तुम्हारी मरज़ी कि तुम मुझसे प्यार करो या न करो।”
रेशमी हिकारत से उसका हुलिया देखते हुए उसकी हिमाकत पर पहले तो अचंभित हुई, फिर उसे बुरी तरह दुरदुराकर मुँह मोड़ लिया।
कक्षा में प्राय: सभी जानते थे कि रेशमी की दोस्ती प्रेरित चौधरी से है। प्रेरित कक्षा का अव्वल छात्र था, सुंदर था और अच्छे घर-खानदान से ताल्लुक रखता था। उसकी क्रियाओं से रेशमी के प्रति सान्निध्य और स्नेह की तरंगें हमेशा निसृत होती रहती थीं। रेशमी तब यही समझती थी कि कमसिन उम्र का यह अल्हड़ आकर्षण स्कूल तक ही सीमित रह जाएगा। स्कूल के बाद फिर पता नहीं कौन कहाँ रहेगा अ़लग-अलग गंतव्य अपनी-अपनी दिशाओं में बुला लेंगे तो फिर कौन किसको याद रखेगा। मगर ऐसा नहीं हुआ।
रेशमी डॉक्टरी पढ़ने चली गई फिर भी उसका पता जुगाड़ करके बिल्टू और प्रेरित उसे पत्र लिखते रहे। उसने बिल्टू को तो जवाब कभी नहीं दिया, हाँ प्रेरित को कभी-कभी लिख दिया करती। फ़ोन पर भी कभी बात कर लेती। प्रेरित इंजीनियरिंग करने चला गया। बिल्टू किसी तरह दसवीं पास करने के बाद, पढ़ाई-लिखाई छोड़कर शहर में ही जम गया।
रेशमी छुटि्टयों में जब शहर आती तो बिल्टू पता नहीं किस सूत्र से अवगत हो लेता और फूलों का गुलदस्ता लेकर उससे मिलने चला आता। रेशमी को उसकी दीवानगी हैरत में डाल देती। एकदम बेमुरव्वत होकर बार-बार दुत्कारना-फटकारना उसे एक अमानवीय श्रेणी की कार्रवाई लगती। आख़िर सहृदयता का जवाब कोई हर बार निष्ठुरता से कब तक दे सकता है? वह उससे दो-चार मिनट बोल-बतियाकर उसका हालचाल पूछ लेने की शालीनता दिखाने लगी।
कुछ छुटि्टयों के माह और अवधि लगभग समान होने से प्रेरित से भी मुलाकात का संयोग बैठ जाता। दोनों इकठ्ठे काफ़ी बातें और तफ़रीह करते। उन्हें एक-दूसरे से कभी ऊब नहीं होती। ऐसा लगने लगा था कि दोनों उस परिणति की ओर बढ़ रहे हैं जो प्रेम की शीर्ष मंज़िल बन जाती है। प्रेरित के लिए यह तय था कि इंजीनियरिंग पूरा करने के बाद वह किसी अच्छी कंपनी में नौकरी कर लेगा। रेशमी का लक्ष्य शहर में ही आई क्लिनिक खोलकर प्रैक्टिस करने का था। उसके पिता भी एक डॉक्टर थे। अत: वह उनकी विरासत को कायम रखना चाहती थी।
वह सायास चाहती थी कि बिल्टू के बारे में पूरी तरह बेख़बर और अनजान बनकर रहे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता और उसके भीतर बरबस एक इच्छा झाँक उठती कि आख़िर वह क्या कर रहा है, उसका कैसा चल रहा है? हर मामले में निरीह, तुच्छ, पीड़ित और शापित-सा दिखनेवाला वह आदमी आख़िर अपने जीवन की नैया कैसे खे पा रहा है? पता चला कि वह काफ़ी मज़े में है। अंग्रेज़ी शराब की एक दुकान खोल ली है और एक ढाबा चला लिया है। ऊपर से मकान और सड़क बनाने की कॉन्ट्रैक्टरी भी शुरू कर दी है।
एक बार प्रेरित ने उसे जानकारी दी, शायद नज़रों में गिराने की मंशा से, कि किसी ठेकेदारी को लेकर शहर के एक क्रिमिनल ग्रुप से बिल्टू की भिडंत हो गई और गोली-बारी तक चल गई। दो गोलियाँ आकर उसकी जाँघ में लग गई, जिसके इलाज के लिए वह एक नर्सिंग होम में भर्ती है। सुनकर रेशमी में खिन्नता आने की जगह एक दया-भाव उभर आया। उसका मन करने लगा कि उसे देखने के लिए प्रेरित से साथ चलने का अनुरोध करे। लेकिन वह जानती थी कि प्रेरित उससे घृणा करता है और उसे गोली लगने से इसे कोई अफ़सोस नहीं है। शायद रेशमी पर ज़बर्दस्ती अपनी निकटता थोपने के उसके दुस्साहस को लेकर उसमें एक स्थायी चिढ़ घर कर गई थी। रेशमी समझ सकती थी कि प्रेरित की अत्यधिक चाहत ही इसकी वजह है। उसके लिए यह असह्य था कि उसके सिवा कोई और उस पर फ़िदा होने का प्रदर्शन करे।
रेशमी को लगा कि उसमें चाहे लाख बुराई या ऐब हो, इतना शिष्टाचार तो लाज़िमी है कि उसे जाकर एक बार देख लिया जाए। प्रेरित की आनाकानी के बावजूद वह उसे देखने चली गई। आज पहली बार उसके हाथों में उसके लिए गुलदस्ता था। वह आदमी तो न जाने कितनी बार उसे गुलदस्ता भेंट कर चुका था। उस पर नज़र पड़ते ही बिल्टू की जैसे बाँछें खिल गई और उसके चेहरे पर ढेर सारी कृतज्ञता के भाव उभर आए। उसका हृदय भर आया, “तुम आ गई तो यह कहने का मन करता है कि गोली खाना महँगा नहीं पड़ा। इस शर्त पर तो मैं और भी कितनी गोलियाँ खा लूँ। देखना, अब मेरे ज़ख्म सचमुच बहुत जल्दी भर जाएँगे।”
यह पहला मौका था जब उसकी दीवानगी ने ज़रा-सा छू लिया उसे। कुछ देर वह उसे अपलक निहारती रही, जैसे परख रही हो कि क्या वाकई यह आदमी उतना बदसूरत है, जितना वह समझती है? उसे बड़ा ताज्जुब हुआ कि कक्षा में पढ़नेवाले पंद्रह बीस लड़के वहाँ मौजूद हैं। क्या यह आदमी सबका इतना प्रिय और हितैषी है? पता चला वे सारे लड़के उसके नेतृत्व में एक स्वयं सहायता समूह बनाकर कॉन्ट्रैक्टरी कर रहे हैं और अपनी अच्छी आजीविका चला रहे हैं। उन सभी लड़कों की आँखों में बिल्टू के प्रति गहरी चिंता और कुछ भी कर गुज़रने का संकल्प समाया था। रेशमी ने सहानुभूति जताते हुए कहा, “क्यों करते हो ऐसा काम, जिसमें खून-ख़राबा और मार-काट मचती हो।” बिल्टू पर एक संजीदगी उतर आई। कहा उसने, “आख़िर क्या करें हम? हम वे मामूली और भीड़ में शामिल बेसिफ़ारिश लोग हैं जिनके लिए शराफ़त का कोई काम नहीं है इस देश में। जो काम है उससे जीवन जिया नहीं बल्कि ठेला जा सकता है। हमें अपनी शक्ल और अक्ल के अनुसार पेशा का चुनाव करना पड़ा है। तुमसे ज़्यादा भला कौन समझ सकता है कि मेरी डरावनी शक्ल और फटेहाल हैसियत का आदमी एक विलेन या बदमाश ही बन सकता है, हीरो नहीं।”
रेशमी ने महसूस किया कि बिल्टू की यह बेबाक उक्ति सीधे उसके मर्म के भीतर प्रवेश कर गई। सचमुच इस देश में ऐसे लाखों औसत लाचार युवकों की सुधि लेने वाला कोई नहीं है न कोई मुकम्मल योजना न कोई सही दिशा? जब खुद से ही रास्ता चुनना है तो कौन नहीं चाहता ज़्यादा से ज़्यादा आसान और मलाईदार रास्ता!
उसने आगे कहा, “हम इस तरह की जोख़िम उठाए बिना समाज में और अपने पेशे में टिके नहीं रह सकते, रेशमी। हमारे सामने बेरोज़गारों की बेहिसाब बड़ी फौज है और उनमें इतनी कठिन आपाधापी है कि हर कोई एक-दूसरे को गिराने के लिए तत्पर है। तुम ऐसा मत समझो कि हमें ख़तरों से खेलने का शौक हो गया है। हमने सिक्युरिटी एजेंसी में काम करके देखा सप्ताह के सातों दिन आठ घंटे हाथ बाँधे खड़े रहो, तनख्वाह डेढ़ हज़ार रुपये। हमने अख़बार में रिपोर्टरी करके देखी च़ौबीस घंटे इधर-उधर भागते रहो। तनख्वाह डेढ़ हज़ार रुपये। हमने स्मॉल इंडस्ट्री में काम करके देखा। पसीने और कालिख से लिथड़कर ख़तरों से खेलते रहो तनख्वाह डेढ़ हज़ार रुपये। हमने कुरियर सर्विस में जाकर साइकिल से या पैदल दर-दर भटककर चिठि्ठयाँ बाँटीं। तनख्वाह डेढ़ हज़ार रुपये। सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी तक देने के लिए कोई तैयार नहीं। हमें ऐसा महसूस होने लगा जैसे पूरे देश में मुनाफ़ाखोरों और सरमायेदारों ने मिलकर तय कर लिया है कि भूख से लड़ते सर्वहारों को आधा पेट भरने से ज़्यादा का हक कतई नहीं देना है।”
इतने कठोर सच से रेशमी का जैसे पहली बार वास्ता पड़ रहा था। उसकी देह में एक सिहरन दौड़ गई। आख़िर यह देश गरीबी और अमीरी के बीच आसमान-ज़मीन के ऐसे फ़ासले को लेकर कब तक शांत और चैन से चल सकेगा?
अनायास बिल्टू में रेशमी की रुचि बढ़ गई थी। अब वह जब भी छुटि्टयों में आती, मन में उससे मिलने का एक अव्यक्त इंतज़ार-सा बना रहता। उसका लाया गुलदस्ता अब वह अनमनेपन से नहीं तनिक गर्मजोशी से लेने लगी। जो मुलाकात दो-चार मिनटों में सिमट जाया करती थी, अब वह ज़रा लंबी खिंचने लगी।
प्रेरित ने उसके बदले अंदाज़ को ताड़ लिया। जिसका ज़िक्र आते ही उबकाई आने लगती थी, उसकी चर्चा अब किसी स्वादिष्ट व्यंजन की तरह होने का राज़ भला छिपा कैसे रह सकता था। कभी-कभी तो वह इस तरह कह जाती थी जैसे पूर्व के हेय-दृष्टिवाले सलूक पर अफ़सोस जता रही हो। उसने एक दिन स्थानीय अख़बार दिखाते हुए कहा, “देखो ज़रा बिल्टू का जलवा। आजकल वह अख़बार की सुर्खियों में आने लगा है। उसने झारखंड मुक्ति संघ ज्वाइन कर लिया है और उस मंच से बहुत सारे सामाजिक काम करने लगा है।”
प्रेरित जैसे कु़़ढ गया, “इसमें नया क्या है रेशमी? गल़त और अवैध काम करनेवाले तत्त्व तो राजनीतिक पार्टियों को अपना आश्रय बनाकर रखते ही हैं। अपनी काली करतूत को ढँकने के लिए सामाजिक काम का लेबल तो मुँह पर चिपकाना ही पड़ता है।”
रेशमी ने उसके पक्ष में कोई दलील रखना उचित नहीं समझा। वह समझ गई कि बिल्टू के बारे में कुछ भी अच्छा सुनना अब भी इसके लिए नाकाबिले बर्दाश्त है। रेशमी की चुप्पी को प्रेरित ने खुद से असहमति समझी। उसने फिर कहा, “देखना, किसी दिन यह आदमी मारा जाएगा। शहर में इसकी दबंगता के बहुत किस्से सुनाई पड़ने लगे हैं।”
रेशमी जानती थी कि प्रेरित का कहना पूरी तरह निराधार नहीं है। बेशक वह शहर में सबका हितैषी ही बनकर नहीं था, कुछ के लिए खौफ़ और एक सख्त अवरोधक के रूप में भी वह जाना जाने लगा था। ऐसा नहीं कि रेशमी उसकी तरफ़दार बन गई थी। हाँ, उसमें उसके हर विकास की ख़बर रखने की एक उत्सुकता ज़रूर जग गई थी।
उसके मन में कभी-कभी यह द्वंद्व झाँक उठता कि अगर बिल्टू जो कर रहा है, वो सब छोड़ दे तो आख़िर वह क्या करे? उसने पूछ लिया प्रेरित से। प्रेरित इस सवाल में निहित एक मौन समर्थन से जैसे भन्ना उठा। उसने कहा, “करने के लिए इस देश में सिर्फ गुंडागर्दी और रंगदारी ही नहीं है। दुनिया में ज़्यादातर लोग सज्जनता और ईमानदारी के धंधे करके ही अपनी जीविका चलाते हैं। लेकिन कोई रातोंरात लाखों के ऐश्वर्य का किला खड़ा कर लेना चाहे तो उसके लिए गल़त और अवैध होना या फिर आततायी और बर्बर होना ही एकमात्र शार्टकट रास्ता हो सकता है।” रेशमी को लगा कि अपने दुराग्रह के कारण प्रेरित सच्चाई की खामखाह अनदेखी कर रहा है। वह अपने को रोक न सकी, “बिल्टू बर्बर और आततायी नहीं है प्रेरित। वह साहसी है, निडर है। किसी भी जुल्म और आतंक से टकरा जाने का उसमें माद्दा है। अपने हक के लिए मर मिटने की उसमें दिलेरी है। ऐसा नहीं कि किसी बेकसूर या भले आदमी को यों ही परेशान या तंग करता है। हाँ, जो चीज़ें समाज में बाहुबल, सीनाजोरी और टेढ़ी उँगली से हासिल करने का चलन है, उसमें वह भी अपना ज़ोर लगा देता है। अब भला रोड या बिल्डिंग बनाने का ठेका किसी साधु को तो नहीं मिल सकता?”
आपसी वाद-विवाद बीच में असहनीय खटास की स्थिति उत्पन्न न कर दे इसलिए प्रेरित ने खुद को संयमित कर लेना ही उचित समझा।
अगली छुटि्टयों में वह आई तो बिल्टू के पहले उससे मिलने पड़ोस की एक बुजुर्ग महिला आ गई। उसने अत्यंत दयनीय और विनीत भंगिमा बनाकर कहा, “बेटी, मैं महीनों से तुम्हारी राह तक रही थी। तुम जानती हो कि मैं एक अकेली औरत हूँ और मेरे दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। टाइगर फोर्ट नामक बिल्डर ने मेरी ज़मीन पर कब्जे के लिए पूरा जाल फैला दिया है और वह हमें डरा-धमका कर ज़बर्दस्ती करने पर उतारू है। हमने मदद के लिए कई कथित पराक्रमियों और पुलिस अधिकारियों से गुहार लगाई, मगर सबने उस बिल्डर का नाम सुनते ही अपने हाथ खड़े कर लिए। तुम चाहो तो हमें उससे मुक्ति मिल सकती है, अन्यथा हम बर्बाद हो जाएँगे।”
“मेरे चाहने से आपको मुक्ति मिल जाएगी, कैसे? मैं समझी नहीं?” हैरत में पड़ते हुए कहा रेशमी ने। “मैंने कई बार देखा है, बिल्टूराम बोबोंगा तुम्हारे घर आता है, उससे तुम्हारी दोस्ती है। वही एक आदमी है जो मुझे मुसीबत से छुटकारा दिला सकता है।”
रेशमी को सब कुछ समझ में आ गया। बिल्टू के एक नये चेहरे से वह परिचित हो रही थी। तो उसकी अब यह हस्ती हो गई! उसने बड़े आदर से आश्वासन दिया, “आँटी, अगर मेरे कहने से आपका काम हो जाएगा, तो आप निश्चिंत होकर घर जाइए, मैं बिल्टू को ज़रूर कहूँगी और उम्मीद है वह मेरा कहा नहीं टालेगा।”
ठीक ऐसा ही हुआ। बिल्टू ने चुटकी बजाते ही उसकी मुसीबत दूर कर दी। रेशमी ने कहा तो उसी वक्त उसने अपने मोबाइल पर बिल्डर टाइगर फोर्ट से संपर्क कर लिया। उसके रौब और धाक भरे संबोधन सुनकर वह उसका मुँह देखती रह गई। सबसे पीछे बेंच पर बैठनेवाला और कक्षा का सबसे चुप रहनेवाला दब्बू लड़का क्या इस तरह रूपांतरित हो सकता है? बिल्टू अब आता था तो उसके पीछे दो-तीन सुमो और क्वालिस गाड़ियाँ होती थीं। खुद वह बोलेरो में होता था और उसके साथ कई लोग होते थे। अत: उसका आना एक ख़बर बन जाती थी। आसपास के लोग हसरत से देखने लगते थे। रेशमी को पहले उसके इस तरह तामझाम के साथ आने पर झेंप होती थी, अब जरा फ़ख्र जैसा होने लगा था।
अगले दिन कृतज्ञता से भरी वह महिला हाथ जोड़े उसके सामने खड़ी हो गई। रेशमी सोचने लगी कि क्या आज की बेमुरव्वत हो रही फिज़ा में अपने ऊपर एक ऐसे आदमी की छतरी का तना होना अनिवार्य बन गया है?
प्रेरित को जब उसने इस घटना की जानकारी दी तो कसैला हो गया उसका मुँह। वह इसकी आलोचना करते हुए कहने लगा, “ऊपरी तौर पर लगता है कि आसानी से काम हो गया, लेकिन इसका दूरगामी असर सुखद नहीं हो सकता। ठूँठ पेड़ की छाया धूप हो या चाँदनी, बेमानी और एक छलावा है।”
प्रेरित के इस वक्तव्य में जहाँ एक सच्चाई की ध्वनि थी वहीं यह हिदायत भी थी कि ऐसे आदमी से जितना दूर रहा जाए, उतना अच्छा है। रेशमी को इससे इंकार नहीं था कि बिल्टू का प्रभाव क्षेत्र चाहे जितना बड़ा हो गया हो, मगर छवि तो उसकी एक बुरे और दागदार आदमी की ही है। रेशमी इसका पूरा ख़याल रखना चाहती थी कि बिल्टू के कारण प्रेरित से लगाव में कोई फीकापन न आए। मगर यह कौन जानता था कि प्रेरित का यह मंतव्य खुद उसे ही कसौटी पर खड़ा करके डाँवाडोल कर देगा!
प्रेरित के पिता का एक जमा-जमाया स्कूल उनके पार्टनर द्वारा कब्ज़ा कर लिया गया। उसके पिता मुंशी सुखधर चौधरी एक शिक्षक थे। रिटायर होने के बाद उन्होंने समाजसेवक कहे जानेवाले एक व्यक्ति रामधनी शर्मा के साथ मिलकर एक विद्यालय की स्थापना की। इसमें उन्होंने अपने सारे संसाधन और अपनी सारी जमापूंजी लगा दी। सारी वांछित सुविधाएँ जुटाकर स्कूल को सी बी एस ई से संबद्धता दिलाने में सफल रहे। शैक्षणिक गुणवत्ता से कोई समझौता न करना पड़े, इसे ध्यान में रखकर अन्यत्र काम कर रहे उच्च शिक्षा प्राप्त अपनी एक बेटी और दामाद को भी बुलाकर स्कूल में लगा दिया। स्कूल की अच्छी साख बन गई और खूब चल निकला। प्रतिष्ठा और आय का एक अजस्र स्रोत बन गया। उत्कृष्ट पढ़ाई की दृष्टि से सभ्रांत नागरिकों में इसके क्रेज़ का ग्राफ़ सबसे ऊपर हो गया। इसमें नामाँकन के लिए जाँच-परीक्षा के रूप में एक कड़ी कसौटी तय करनी पड़ी। रामधनी शर्मा की नीयत ख़राब होने लगी। आमदनी, हैसियत और कद्र का बँटवारा उसे खटकने लगा। ज़मीन उसकी दी हुई थी, इसलिए उसे लगा कि इस पर सौ प्रतिशत स्वामित्व उसका ही होना चाहिए।
उसका एक बेटा गोनू शर्मा नालायक निकलकर सीधे-सीधे अपराध और तमाम तरह के दुष्कृत्यों व काले कारनामों का हिस्ट्रीशीटर बन गया था और उसे ज़्यादातर समय जेल में ही बिताना होता था। खूँटा मज़बूत और सिर पर तने चंदोवा को अभेद्य जानकर रामधनी ने मुंशी जी को स्कूल से बेदखल कर देने का हिटलरी फ़ैसला कर लिया। जानता था कि मुंशी शरीफ़ आदमी है, कुछ कर नहीं पाएगा। मुंशी के साथ उनकी बेटी और दामाद को भी उसने निष्कासित कर दिया। मुंशी जैसे अचानक सड़क पर आ गए। सपरिवार मिलकर खून-पसीने से उसे सींचा था और अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर उसमें वांछित फूल खिलाए थे। स्कूल से बेदखली का अर्थ पूरी तरह उनकी बर्बादी था। उन्होंने न्याय के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। मुकदमा चलने लगा। एक साल द़ो साल प़ूरे परिवार की स्थिति बिगड़ती गई।
रेशमी देख रही थी कि प्रेरित का सुखी-संपन्न परिवार तकलीफ़ों और परेशानियों में घिरता जा रहा है। उसकी माली हालत खस्ता होती चली जा रही है। एक बार तो यों जान पड़ा कि उसकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी बाधित हो जाएगी। हालात बता रहे थे कि अदालत में टलती और बढ़ती हुई तारीखें जब फ़ैसले तक पहुँचेंगी तब तक बहुत कुछ ख़त्म हो चुका होगा।
रेशमी बार-बार इशारा कर रही थी कि इस मामले में बिल्टूराम बोबोंगा का हस्तक्षेप काफ़ी लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। अंतत: एक दिन प्रेरित ने अपने मन की तहें खोलते हुए कहा, “पहले तो मेरे पिता किसी ऐसे आदमी की सहायता स्वीकार नहीं करेंगे जो आतंक और ज़ोर-ज़बर्दस्ती का पर्याय है। दूसरी बात यह कि बिल्टू मेरी मदद करेगा भी नहीं। क्योंकि वह अच्छी तरह जानता है कि मैं शुरू से ही उससे नफ़रत करता रहा हूँ। वह तुम पर अपनी चाहत थोपता है, इस मामले में तो वह मुझे अपनी राह का काँटा समझता होगा। क्या पता वह मदद करने की जगह मेरी और जड़ खोदने लग जाए। जो भी हो, फिलहाल हमारी अंतरात्मा उसकी शरण में जाने की इज़ाज़त नहीं देती। हम लोगों के धैर्य अभी ख़त्म नहीं हुए हैं। इंसाफ़ और सच्चाई पर अब भी हमारा भरोसा कायम है। हम कुछ दिन और इंतज़ार करना चाहते हैं।”
“जैसा तुम उचित समझो। मेरा मकसद तुम पर अपना विचार लादना नहीं है। हाँ, इतना मैं अवश्य कहना चाहूँगी कि अगर पानी सिर से इतना ऊपर हो जाए कि नैतिकता, उसूल, जान-जहान आदि सब कुछ के डूब जाने का ख़तरा बन जाए तो तिनके का सहारा समझ बिल्टू को एक बार आज़मा लेना कोई ऐसा पाप नहीं होगा कि परलोक में नर्क भोगने की नौबत आ जाए। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम्हें मदद करने में वह ज़रा भी कोताही नहीं करेगा। तुमसे वह किसी तरह का बैरभाव रखता है, ऐसा मैंने कभी महसूस नहीं किया। अगर रखता भी होगा तो मैं अपनी तरफ़ से उससे विशेष निवेदन करूँगी।”
खुद्दारी, ईमानदारी और इंसाफ़पसंदगी की कीमत चुकाने की एक हद थी, जिसे एक न एक दिन पार तो होना ही था। वही हुआ। शहर से उजाड़ देने और मिटा डालने की धमकियाँ क्रमश: तेज़ होने लगीं और तारीख दर तारीख की टलती अदालती कार्रवाइयों में गवाह और जिरह के पक्ष कमज़ोर होते गए। प्रेरित ने जैसे हार मानते हुए कहा, “अब तुम अगर वाकई हमारा कुछ उद्धार करवा सकती हो रेशमी, तो करवा दो। पिताजी बुरी तरह टूट गए हैं और मुझे भी सत्य-मार्ग की दलदल में अंदर तक धँसते जाने के सिवा कोई उम्मीद नहीं दिखती।”
रेशमी को सुनकर ज़रा भी ताज्जुब नहीं हुआ। मानो उसे पहले से पता था कि अंत में यही होना है। उसने प्रेरित के लिए बिल्टू के सामने जैसे अपना आँचल फैला दिया, “उसे उबार लो बिल्टू। उसका पूरा परिवार भय, अपमान, पीड़ा और दरिद्रता की गर्त में घुट-घुटकर जी रहा है। तुम्हीं अब संकटमोचक बन सकते हो।”
बिल्टू ने ताज्जुब करते हुए कहा, “रेशमी, एक अर्से से वह इतनी परेशानियों में रहा, फिर पहले ही मुझे क्यों इसकी जानकारी नहीं दी? तुम्हारा वह सबसे घनिष्ठ दोस्त है, उस पर जुल्म होता रहा और तुम चुप्पी साधे रही? ख़ैर, मैं देखता हूँ अब।”
सकुचाते हुए कहा रेशमी ने, “दरअसल, वह चाहता था कि कानून और सच्चाई के रास्ते से चलकर ही इस मुसीबत से निजात पाएँ।”
“मैं समझ गया। हर आदमी यही चाहता है शांति, इंसाफ़ और ईमानदारी की डगर पर चलना। मगर ऐसा हो नहीं पाता तभी टेढ़ा और ख़तरनाक रास्ता चुनने के लिए आदमी को मजबूर होना पड़ता है। कभी मैंने भी ऐसा ही चाहा था, रेशमी। प्रेरित को दिलासा देना कि अब उसके लिए घी टेढ़ी उँगली से ही निकलेगा। उसे हम बचाएँगे रेशमी, हर हाल में बचाएँगे, इसलिए कि उससे तुम प्रेम करती हो। तुम्हारी खुशी के लिए मैं कुछ कर सकूँ, ऐसा मौका मेरे लिए पहली बार आया है।”
रेशमी अचंभित रह गई। यह आदमी, जो एक बुरा आदमी माना जाता है, प्रेरित की इसलिए मदद करना चाहता है कि उसे रेशमी प्रेम करती है। मगर एक प्रेरित है, जो अच्छा आदमी है, बिल्टू से इसलिए मदद या एहसान लेने से कतराता रहा क्योंकि वह रेशमी से प्यार का इज़हार करता आ रहा है। यहाँ प्रेम में गहराई और सच्चाई होने की सुई ज़्यादा किसकी ओर झुकती है? रेशमी के भीतर जैसे निर्णय का कोई मज़बूत स्तंभ हिल गया। लगा कि बिल्टूराम बोबोंगा अब कहीं से भी बदसूरत नहीं रहा।
बिल्टू ने पूरी गंभीरता और शिद्दत से इस काम को अपने हाथ में लिया और एक चमत्कार करने की तरह थोड़े ही समय में सब कुछ ठीक-ठाक कर दिया। मुंशी जी की पुरानी हैसियत फिर से बहाल हो गई।
बिल्टू ने अपनी ओर से ज़रा-सी भी आहट लगने नहीं दी कि उसे इस काम में क्या-क्या पापड़ बेलने पड़े। प्रेरित ने ही एक दिन इसे खुलासा किया। बिल्टू के प्रति उसके चेहरे पर ज़मीं पूर्वाग्रह और हिकारत की सारी कड़वाहटें काफ़ूर हो गई थीं। अब वह एक एहसान और उसके करिश्माई तेज से मानो अभिभूत था। उसने जो बताया, वह कहानी इस तरह थी - रामधनी शर्मा किसी भी तरह मानने के लिए तैयार नहीं था। पहले तो जेल में बंद गोनू के गैंगवालों ने फुफकार दिखाई कि वे लोग भी किसी से कम नहीं हैं। कोई बाहरी आदमी टाँग अड़ाएगा तो खून की नदी बहेगी, लेकिन स्कूल में मुंशी को घुसने नहीं दिया जाएगा।
बिल्टू ने भी ताल ठोक ली, “ठीक है, जब खून की नदी ही बहनी है तो बहे, लेकिन किसी भी सूरत में मैं मुंशी जी के बिना स्कूल चलने नहीं दूँगा। इतना डिस्टर्ब कर दूँगा कि सारे माँ-बाप अपने बच्चों को यहाँ भेजना बंद कर देंगे।”
बिल्टू के फ़ौलादी और आक्रामक तेवर देखकर रामधनी शर्मा भीतर से हिल गया। सेर को सवासेर मिल जाने का उसे अंदाज़ हो गया। उसे स्कूल से बरसते धन और सम्मान के उपभोग का चस्का लग गया था। उसने बिल्टू को पैसे से पटा लेने का मन बनाया और कहा, “दो लाख चार लाख, जितना चाहे ले लो और इस मामले में दखल देना छोड़ दो।”
बिल्टू ने कहा, “मैं पैसे के लिए काम ज़रूर करता हूँ, लेकिन यह काम मैं एक ऐसी चीज़ के लिए कर रहा हूँ, जिसके सामने पैसा कोई मोल नहीं रखता।”
रामधनी शर्मा ने कहा, “इस काम के बदले आख़िर तुम्हें क्या मिलनेवाला है। जो मिलने वाला है उससे मैं ज़्यादा देने को तैयार हूँ।”
“इस काम के बदले मुझे जो मिलने वाला है, उससे ज़्यादा तो मुझे ईश्वर भी नहीं दे सकता त़ुम क्या दोगे?” बिल्टू का जवाब था।
रामधनी समझ गया। यह आदमी ज़रा सनकी और जुनूनी है। इसकी सख्त तस्वीर के भीतर ज़रूर कोई बड़ा मकसद काम कर रहा है, वरना पैसे के लिए कुछ भी कर गुज़रनेवाला आदमी इतना मज़बूत नहीं हो सकता।
रामधनी ने जब अपने सूत्रों से गहरी छानबीन शुरू की तो बिल्टू का एक सहपाठी और अब उसके एक विश्वसनीय साथी ने तथ्य से अवगत करा दिया, “बिल्टू भाई प्यार करता है रेशमी से और रेशमी प्यार करती है प्रेरित से। अत: यह तय है कि प्रेरित-परिवार को इस मुसीबत से निकालने के लिए वह कुछ भी कर गुज़रेगा क़ुछ भी।”
सुनकर रामधनी शर्मा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसके लिए यकीन करना मुश्किल था कि जिस आदमी के लिए यह बात कही जा रही है वह एक बदशक्ल, डरावना और लिजलिजा-सा दिखनेवाला आदमी है। अगर यह सच है तो प्रेरित के लिए कुछ भी कर गुज़रेगा। इस बात में उसे कोई शक नहीं रह गया। उसका बेटा अगर जेल से बाहर रहता तो मुकाबला किया भी जा सकता था। फ़िलहाल उसने झुक जाने में ही अपनी खैऱ समझी। अगर हिसाब-किताब चुकाना होगा तो बाद में देखा जाएगा।
रेशमी देख रही थी कि जिन आँखों में बिल्टूराम बोबोंगा के लिए ढेर सारी घृणा और कटुता समाई रहती थी, आज उनमें बेपनाह सद्भावनायें तैर रही हैं। प्रेरित एकदम उसका कायल हो उठा था। रेशमी की कल्पना-दृष्टि में अचानक एक तराजू उभर आया, जिसके एक पलड़े पर प्रेरित और दूसरे पर बिल्टू तुलने लगा। वह देखना चाहती थी कि प्रेरित वज़नदार दिखे, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा था। प्रेरित ने जैसे उसके मन को पढ़ते हुए कहा, “बिल्टू ने सचमुच साबित कर दिया है रेशमी कि वह तुमसे मेरी तुलना में सच्चा और ज़्यादा प्यार करता है।”
रेशमी ने कोई टिप्पणी नहीं की।
डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी हो गई तो रेशमी ने पूर्व निर्णय के अनुसार अपने शहर में ही बतौर एक नेत्र विशेषज्ञ आई क्लिनिक खोल ली। उसके डॉक्टर पिता काफ़ी बूढ़े हो गए थे। अत: उन्हीं की क्लिनिक को उसने अपने लायक बना लिया। प्रेरित नौकरी की राह पर चल पड़ा था, मगर कहीं एक जगह स्थिर नहीं था। बड़े ओहदे तथा मोटी तनख्वाह की तलाश में उसे बार-बार कंपनी बदलनी पड़ रही थी।
रेशमी की प्रेरित से मुलाकात में काफ़ी कमी आ गई, जबकि बिल्टू से मुलाकात में तेज़ी आ गई। बिल्टू अक्सर क्लिनिक में आ जाता। पेशेंट नहीं होते तो देर तक अड्डा मार देता। अब दोनों के बीच बोरियत या ऊब की जमी बर्फ सदा के लिए पिघलकर आत्मीयता और सौहार्द्र की सरिता में रूपांतरित हो गई थी।
रेशमी अनुभव करती कि बिल्टू अपने काम, अपने ग्रुप और तमाम तरह के ख़तरे और जोख़िम के बारे में बातें करता तो उन्हें सुनना अच्छा लगता। राजनीति में प्रवेश और उसकी एक-एक सीढ़ी पर अपनी चढ़ाई के बारे में भी वह बताने लगा था। सीढ़ियों की चढ़ाई में कई तरह के सामाजिक कार्य शामिल हो गए थे। झोपड़पटि्टयों में कंबल बाँटना बंद कारखाने के मज़दूरों में राशन बाँटना, गऱीब बच्चों में किताबें बाँटना। बिजली-पानी के लिए हाहाकार वाले इलाके में लोगों के आँदोलन में भाग लेना आदि-आदि।
एक बार उसने एक गऱीब बस्ती में नेत्र शिविर लगाने की योजना बनाई और उसमें चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध कराने का दायित्व रेशमी पर डाल दिया। रेशमी अब उसके ऐसे जनहित कार्यक्रम के लिए इंकार नहीं कर सकती थी।
पहले नेत्र शिविर में वह गई तो वहाँ की व्यवस्था देखकर आह्लादित हो उठी। एक विशाल तना हुआ तंबू और उसमें जाँच करवाने के लिए उपस्थित सैकड़ों साधनहीन लोग और वहाँ सेवा देने के लिए दर्जनों कार्यकर्ता। सबके लिए कंबल, चश्मा और भोजन की नि:शुल्क व्यवस्था। बिल्टू ने इतना-इतना इंतज़ाम अपने बलबूते अकेले कर लिया था। उसकी विस्तार पाई सामर्थ्य और उस सामर्थ्य का भलाई में रूपांतरण उसके उजले पक्ष का एक नया परिचय था। इस शिविर की सफलता के बाद बिल्टू हर साल ऐसे शिविर का आयोजन करने लगा। जिनके लिए दुनिया धुँधली या बिल्कुल अँधेरी होनेवाली थी, ऐसे सैकड़ों लोगों को उसकी पहल से नयी रोशनी मिल गई।
प्रेरित से धीरे-धीरे संपर्क कम होते-होते जैसे पूरी तरह ख़त्म हो गया था। रेशमी हैरान थी कि हर दूसरे-तीसरे दिन फ़ोन करनेवाला उतावला और बेकरार आदमी इस तरह उदासीन और निरपेक्ष कैसे रह सकता है? कहीं उसने यह तो नहीं मान लिया कि रेशमी की चाहत बिल्टू की तरफ़ शिफ्ट हो गई, अत: नज़दीकी मिटाकर बीच की रागात्मकता और त्रिकोण की दुविधा को ख़त्म कर दे? रेशमी जैसे उदास हो गई। उसे बड़ा दुख हुआ कि जिस आदमी के मन-प्राण में बरसों-बरस प्यार करने और निभाने की बेइंतहा तड़प बसी थी, उसने अपने को इस तरह काट लिया। निश्चय ही ऐसा करने के लिए उसे अपने सीने पर एक भारी पत्थर रखना पड़ा होगा। जबकि सच्चाई यह थी कि रेशमी ने अपने मन में उसके आसन की ऊँचाई को ज़रा-सा भी कम नहीं किया था। बिल्टू ने उसकी उदासी को पढ़ते-पढ़ते आख़िर इसका भेद एक दिन खुलवा ही लिया। रेशमी को लगा कि वस्तुस्थिति जानकर बिल्टू का मन भारी हो जाएगा, लेकिन उसने ऐसा कुछ भी ज़ाहिर होने नहीं दिया और बड़े हौसले के साथ कहा, “मुझे तुम उसका पता दे दो, वह जहाँ भी होगा मैं उसे पकड़कर ले आऊँगा। वह तुम्हें इस तरह सता रहा है, यह जायज़ नहीं है।”
रेशमी उसका मुँह देखने लगी थी। उसका नवीनतम पता और फ़ोन नंबर अब उसके पास था ही कहाँ जो वह देती। मुंशी जी से माँग लाने में एक ज़िद आड़े आ जाती। एक दिन अचानक प्रेरित उसके सामने आकर खड़ा हो गया। रेशमी को लगा जैसे स्वप्न देख रही हो।
वह काफ़ी दुबला और कांतिहीन-सा हो गया था। वह समझ गई कि शायद विरह में घुट-घुट और तड़प-तड़प कर काफ़ी एकतरफ़ा एकांत यातना झेली गई है।
रेशमी ने उसकी ठंडी और सूखी हथेलियों को अपने हाथों में भर लिया और उलाहना भरे स्वरों में कहने लगी, “क्यों खुद पर जुल्म करते रहे? तुमने कैसे समझ लिया कि तुम्हारे सज़ा भोगने से मुझे खुशी मिलने लगेगी?”
“मुझे माफ़ कर दो रेशमी, मैं वाकई नहीं जानता था कि कक्षा का और साथ ही समाज का भी सबसे फिसड्डी और आख़िरी पंक्ति का लड़का बिल्टू राम बोबोंगा अब हैसियत से ही नहीं बल्कि दिल और दिमाग से भी अगली पंक्ति का इंसान बन गया है। मैं हैरान हूँ कि उसके मन में मेरे लिए रंचमात्र ईर्ष्या नहीं है।” श्रद्धा से परिपूर्ण प्रेरित की आवाज़ में एक अलौकिक मिठास उतर आई थी। रेशमी अभिभूत-सी हो उठी, “तो तुम्हें यहाँ लेकर बिल्टू आया है?”
“बिल्कुल। अन्यथा मैंने तो अब यही तय कर लिया था कि मेरे बनिस्वत बिल्टू की अब तुमसे ज़्यादा नज़दीकी है, ज़्यादा निभती है।”
प्रेरित ने ऐसा कहा तो क्षण भर के लिए रेशमी सचमुच डगमगा गई। यह अजीब स्थिति थी कि बिल्टू प्रेरित को उसके समीप ला रहा था और प्रेरित बिल्टू को उसके समीप मान रहा था। दोनों की इन नि:स्वार्थ क्रियाओं से यह फ़ैसला करना जैसे एक बार फिर से मुश्किल हो गया था कि वह वाकई किसके ज़्यादा करीब है।
पार्टी का टिकट अब तक बिल्टू को मिल गया था। रेशमी ने इसकी जानकारी देते हुए कहा, “वह सचमुच अब मामूली आदमी नहीं रहा। हमें कभी यकीन नहीं आया था कि टिकट लेने की आपाधापी में वह बाज़ी मार लेगा। हम यही सोचते थे कि ऐसे-ऐसे पार्टी वर्करों का नसीब झंडा ढोना और जय-जयकार करना भर ही होता है। चूंकि हमें अब यही देखने को मिल रहा है कि कोई भी पार्टी अब आम या मामूली आदमी को टिकट नहीं देती। पहले से जो जमा हुआ पदासीन है, वह मरता है या बू़ढ़ा हो जाता है तो टिकट उसकी बीवी या बेटे को दे दिया जाता है, जिसे हमारी महान जनता अक्सर सहानुभूति वोट देकर विजयी बना देती है। कहने वाले ठीक ही कहते हैं कि महान जनता के पूर्वजों के खून में ही विदेशी आक्रांताओं ने वंशवाद के विषाणु इंजेक्ट कर दिए थे। अपवादस्वरूप अगर किसी छोटे आदमी को टिकट मिल जाता है तो उसे हराने के लिए अन्य पार्टियाँ हज़ारों अवरोध उसके रास्ते में बिछा देती हैं।” “लेकिन अपना यह बिल्टू देखना सारे अवरोधों को पार कर लेगा, रेशमी।” “बिल्टू अगर वाकई ऐसा कर सका तो हम इसे एक नये युग की शुरुआत मानेंगे।”
बिल्टू का प्रचार अभियान तेज़ी से चल निकला। पोस्टर, बैनर, भाषण, रैली आदि सभी मोर्चों पर वह किसी से पीछे नहीं दिख रहा था। उसके पीछे उसके सहपाठियों, कार्यकर्ताओं, शुभचिंतकोंे और समर्थकों की एक बड़ी फौज थी। दूसरे दल के उम्मीदवार, जो बड़ी जाति के खानदानी रईस लोग थे, ने भी अपनी पूरी शक्ति और तिकड़म झोंक दी थी। उनमें त्रिशूल छाप का उम्मीदवार दीनानाथ सबसे भारी लग रहा था और उसने चुनाव को एक दलित के खिलाफ़ सवर्ण की प्रतिष्ठा का सवाल बना दिया था। पता चला कि दीनानाथ ने अपनी पहुँच का उपयोग करते हुए अपनी मदद के लिए जेल में बंद कुछ अपराधियों की ज़मानत करवा ली थी। रामधनी शर्मा का बेटा गोनू भी दीनानाथ द्वारा भिड़ायी किसी बड़ी सिफ़ारिश से बाहर आ गया था और बिल्टू के खिलाफ़ काम करने लगा था। बिल्टू को किसी की परवाह नहीं थी और वह किसी से भी किसी मामले में उन्नीस नहीं था। जातीय आधार पर भी दलितों और आदिवासियों की संख्या यहाँ किसी से कम नहीं थी।
एक दिन रेशमी आई क्लिनिक के पास चुनाव प्रचारवाली गाड़ियों का एक लंबा काफ़िला आकर रुका। दर्जनों गाड़ियाँ, दर्जनों कार्यकर्ता। पूरा बाज़ार उस काफ़िले को हसरत भरी आँखों से देख रहा था कि क्या एक दलित, पीड़ित, शोषित और उपेक्षित आदमी का रुतबा भी इतना बड़ा हो सकता है! बिल्टू उतरकर रेशमी के पास आ गया। रेशमी उसकी तैयारी देखकर हर्ष-विभोर हो गई। कहा, “आज एकदम विजेता की तरह लग रहे हो।” “विजेता हुआ नहीं हूँ, होने के लिए वोट माँगने निकला हूँ। सोचा आज बोहनी तुमसे ही करता चलूँ। तुम्हारा वोट चाहिए मुझे।” “मेरे वोट पर तो तुमने अपना नाम बहुत पहले ही लिख दिया है, बिल्टू।” “अगर यह सच है तो मुझे जीतने से कोई रोक नहीं सकता, रेशमी। चलता हूँ। आज अपनी उन बस्तियों में जाना है जहाँ अब तक विकास का कोई काम नहीं हुआ। जहाँ लोग कीड़े-मकोड़े की तरह छोटे-छोटे दड़बों, खोलियों और झोपड़ियों में रहते हैं। वे मेरी जाति, मेरे रंग और मेरी औकात के लोग हैं। उनकी बुझी आशाओं को हम एक बार फिर से जगाना चाहते हैं।” “मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ है, बिल्टू। अपना पूरा खयाल रखना।” “आज कितने दिनों बाद जैसे एक बार फिर से तुम्हारे चेहरे खिले हुए दिख रहे हैं। उम्मीद है प्रेरित तुम्हें सताने का काम अब कभी नहीं करेगा।”
बिल्टू ने जैसे मनोयोग से उसे पढ़ते हुए कहा और हाथ हिलाते हुए निकल गया। रेशमी आभार जताने के लिए बस सोचती रह गई।
प्राय: लोगों का ऐसा मानना था कि हवा बिल्टू के पक्ष में बह रही है। रेशमी को भी विश्वास हो चला था कि चुनावी रेस में वह निश्चय ही सबसे आगे निकल जाएगा। उसकी जीत के लिए मन ही मन एक अनवरत प्रार्थना चल रही थी। प्रेरित से अब बातचीत का विषय चुनाव और बिल्टू पर ही केंद्रित हो गया था। उसकी जीत से वह इतना जुड़ गई थी कि सपने भी आते तो उसमें विजय पताका फहराते हुए बिल्टू ही दिखाई पड़ता। रेशमी के लिए यह अत्यधिक रोमाँचकारी था कि एक ऐसे समय में जब मामूली आदमी को दबाए रखने के हज़ारों षड़यंत्र चल रहे हों, एक लांछित-अवांछित आदमी लोकतंत्र की सीढ़ी चढ़कर शासन और सरकार के सबसे बड़े प्राचीर में पहुँच जाएगा।
मतदान में दो दिन रह गए थे। उसकी धड़कनें काफ़ी बढ़ गई थीं। शाम को चुनाव प्रचार ख़त्म होनेवाला था। रेशमी जानती थी कि फुर्सत मिलते ही बिल्टू सबसे पहले यहीं आकर चैन की साँस लेगा। वह प्रतीक्षा कर रही थी। जिस बिल्टू को वह कभी निर्ममता से दुत्कारकर देती थी, जिसके सामने आ जाने से उसका मूड बिगड़ जाता था, आज उससे मिलने की तलब मानो चरम पर थी। क्लिनिक की खिड़की से वह सड़क पर गुज़रती गाड़ियों में उसकी बोलेरो को पहचानने की कोशिश कर रही थी। इसी बीच प्रेरित भागता हुआ दिखाई पड़ गया। रेशमी देखते ही समझ गई कि उसके चेहरे की उड़ी रंगत में किसी अशुभ की छाया कंपकंपा रही है। आशंका सच साबित हुई। उसने बताया, “गोनू शर्मा ने बिल्टू की गोली मारकर हत्या कर दी।
रेशमी को लगा जैसे कोई भूचाल आ गया और छत टूटकर उसके सिर पर गिर पड़ी। उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। तो आख़िरकार कक्षा का सबसे बदसूरत, सबसे दबा हुआ, सबसे छोटा, सबसे दीन-हीन और सबसे भोंदू लड़का, जो अपना सूरतेहाल बदलकर बड़ा और अगली पंक्ति का आदमी बनने चला था, बन नहीं सका। दीनानाथ ने उसे मरवाकर अपने सामंती राजमार्ग पर एकाधिकार को फिर से सुरक्षित कर लिया और गोनू ने मारकर अपना बदला ले लिया। गोनू से उसकी अदावत रेशमी के कारण ही थी। मतलब उसके फना होने में सियासत ही नहीं मोहब्बत भी एक वजह थी।
बिल्टू की मार्फत वह दुनिया को बदलते हुए देखने की उम्मीद में एक रोमांच से भरी रहती थी। आज वह पूरे यकीन से कह सकती थी कि दरअसल वह प्रेरित से ज़्यादा बिल्टू को ही प्यार करती रही। अब उसके बिना उसके चेहरे पर खुशी शायद कभी नहीं लौटेगी।