टेम्स की सरगम / भाग 2 / संतोष श्रीवास्तव
चंडीदास का मकान उस इलाके में था जहाँ ज्यादातर अपने वेतन पर जीविका चलाने वाले परिवार रहते थे। लगभग सभी के किराए के मकान थे। कई मकान खस्ताहाल हो चुके थे। चंडीदास के घर में दीमक लग गई थी। दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों, चौखटों से बुरादा झरता रहता। बाबा फिक्रमंद थे पर मकान बदलकर दूसरा मकान लेना उनके बस की बात न थी। उनकी नाममात्र की पेंशन और चंडीदास के वेतन से मुश्किल से घर खिंच पाता। मुनमुन, गुनगुन की पढ़ाई का खर्च चंडीदास ट्यूशनों से पूरा करता। हालाँकि नंदलाल के साथ मिलकर चित्रकला और संगीत की क्लासेज खोलने की उसकी योजना अरसे से चल रही थी पर जगह का टोटा था। कई बार सोचा इस बात का जिक्र डायना से करे पर अब रिश्ते गुरू-शिष्य के तो रहे नहीं... अब वे प्रेम के जिस समंदर में आकंठ डूब चुके हैं उसमें अपनी दीनता दिखाना चंडीदास को अपमान लगता है।
चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन शिमला के जिन प्रोफेसर ऑल्टर ने किया था वे चंडीदास की कला से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दो पेंटिंग ऊँचे दामों में खरीद लीं। एक में डायना मणिपुरी पोशाक में थी, दूसरी में बाघा जतिन का कद्दावर शरीर बाघ को चाकू भोंक रहा था। बाघा जतिन के व्यक्तित्व ने ऑल्टर को मोह लिया था और वे इस बहादुर पुरुष के जीवन की संपूर्ण जानकारी पाने कलकत्ता आए। चंडीदास से मुलाकात की और चंडीदास के साथ ही डायना के घर गए। दोनों को साथ देखकर डायना विस्मय से भर उठी... चंडीदास ने ही सारी बात विस्तार से बताई।
“प्रोफेसर साहब आप शांतिनिकेतन जाइए। विश्वभारती से जुड़िए, किसी भी जानकारी के लिए आपको इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा।” चंडीदास ने कहा तो डायना ने भी जोशीले स्वर में इसका समर्थन करते हुए कहा-”अद्भुत साहित्य है... बांग्ला साहित्य... एक से बढ़कर एक लेखक, कवि, इतिहासकार... ऐसा लगता है जैसे सारा कुछ पढ़ने के लिए हमारी जिंदगी बहुत छोटी है।”
“लगता है आप काफी अध्ययन कर चुकी हैं।”
“हाँ मैंने जयदेव, बंकिमचंद्र, शरतचंद्र, टैगोर पढ़ लिए हैं और अब बंगाल के कवियों को पढूँगी।” डायना ने चाव से कहा।
बोनोमाली कॉफी और नमकीन, मिठाई आदि लाकर रख गया था। प्रो. ऑल्टर को बंगाली मिठाईयाँ बहुत पसंद आई थीं। उन्होंने बिना झिझक एक रसगुल्ला उठाकर मुँह में रख लिया।
“बंगाली मिष्टी प्रेमी होते हैं।” चंडीदास ने उन्हें झिझकने की मोहलत ही नहीं दी और एक रसगुल्ला खुद भी मुँह में रख लिया।
“बहुत जबरदस्त कलाप्रेमी भी, आप चित्रकारी की क्लासेज क्यों नहीं चलाते? हर कलाकार को अपनी कला ज्यादा से ज्यादा लोगों में बाँटनी चाहिए वरना उसकी कला उसी के साथ दफन हो जाती है।”
प्रो. ऑल्टर ने तो चंडीदास के मुँह की बात छीन ली थी। उसकी पलकें अपने इस स्वप्न के दरवाजे खुलते महसूस कर अनझिप-सी हो गईं।
“वाह, यह तो बहुत अच्छा आइडिया है। इस काम को कर ही डालना चाहिए।” डायना ने रोमांचित होते हुए कहा।
“यह तो मैं कब से सोच रहा हूँ... जगह की तलाश है।”
“तो जगह मिली समझिए चंडीदास... “
“सेनगुप्ता... “चंडीदास ने ऑल्टर के अधूरे वाक्य को पूरा किया।
“देखिए सेनगुप्ताजी... यहाँ कैमेक स्ट्रीट पर एक कमरे में मेरे एक परिचित मूर्तिकला सिखाते हैं। वे हफ्ते में तीन दिन ही क्लासेज लेते हैं बाकी के चार दिन आप लीजिए।”
“उन्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?”
“इसमें एतराज कैसा? जगह तो किराए की है। आधा आप देना आधा वो देंगे। दोनों के खर्चें में बचत होगी।”
ऑल्टर के प्रस्ताव को इंकार करने का सवाल ही नहीं था। डायना ने कॉफी के दूसरे दौर से इस शुरुआत को चियर्स किया।
चंडीदास जब ऑल्टर के साथ बंगले से बाहर निकला तो उसे लगा कि कोई भी मुलाकात, कोई भी घटना बिना ईश्वर की मर्जी के नहीं होती। ऑल्टर से अपनी प्रदर्शनी का उद्घाटन उसके स्वप्न को साकार करेगा, इसमें भी तो ईश्वर की ही मर्जी है। लिहाजा देर रात तक नंदलाल के साथ बैठकर क्लासेज की योजना बनने लगी। अपनी योजना के सभी मुद्दे दोनों ने डायना से भी डिस्कस किए। प्रबंधन की योग्यता डायना में जन्मजात थी क्योंकि उसके पिता एक सफल बिजनेसमेन थे। डायना ने कागज पर सारा प्रोजेक्ट तैयार करके चंडीदास को दे दिया। चंडीदास ने पेम्फ्लेट्स छपवाए... क्लासेज का नाम रखा... “संगीत चित्रकला अकादमी', और पेम्फ्लेट की एक-एक प्रति अंग्रेजी, बंगाली के दैनिक अखबारों में रखवाकर घर-घर बाँटी। डायना के बंगले के संगीत कक्ष में चंडीदास और डायना की जो बैठकें होती थी उनमें एक विषय और आ जुड़ा... दोनों प्रतीक्षारत थे... क्या उनकी मेहनत रंग लाएगी? क्या छात्र जुटेंगे? डायना बड़े दिलचस्प और रोमांचक दौर से गुजर रही थी। बंगले का माहौल ही बदल गया था। तनहा, उबाऊ, मुश्किल से कटने वाले दिन डायना को छोटे लग रहे थे। दिन जल्दी से गुजर जाते हैं... जल्दी से शाम हो जाती है। यूँ चंडीदास आता है, यूँ चला जाता है और वक्त हो जाता है टॉम के घर लौटने का।
घर लौटते ही टॉम तैयार होकर क्लब चला जाता है। उसकी जिद्द रहती है डायना भी साथ जाए। पर डायना कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देती है। क्लब में जो मनोरंजन के साधन अपनाए जाते हैं डायना को उनमें जरा भी दिलचस्पी नहीं... ताश, टेबिल, टेनिस, ब्रिज, रमी, बिलियडर्स, कैरम... इनके साथ सिगरेट का धुआँ, शराब की बदबू और हिंदुस्तानियों के लिए अपमानजनक कहकहे, तीखे कटाक्ष से उसे सख्त नफरत है। हाँ, खेलों में उसे बैडमिंटन पसंद है जो वह अपने ही बगीचे में अपनी मुसलमान सहेली नादिरा के साथ खेलती है। नादिरा नई-नई उसके पड़ोस में आई है। उसके पति अंग्रेजों के वफादार पुलिस कमिश्नर हैं। नादिरा आकर्षक चेहरे की, औसत कदकाठी की मृदुभाषी महिला है और डायना को ताज्जुब है कि छुट्टी के दिन जो टॉम अक्सर घुड़सवारी करता जंगलों की ओर निकल जाता था अब घर में टिकने लगा है और घर आई नादिरा से खुलकर बतियाता है। पर इस बार उसे लगभग बीस दिन के टूर पर दार्जिलिंग जाना है और यह सूचना नादिरा को देते हुए उसने कहा कि वह उसे दार्जिलिंग में मिस करेगा और डायना ने साफ देखा कि इस बात से वह शरमा गई थी।
अकादमी का उद्घाटन मार्च की पंद्रह तारीख तय हुआ क्योंकि कक्षाएँ शुरू करने का वक्त आ चुका था और सात विद्यार्थियों ने प्रवेश ले लिया था।
“अच्छी संख्या है यह... शुभ संख्या... “ चंडीदास ने डायना को बताया-
“सुबह नौ बजे वास्तु पूजा का मुहूर्त निकला है।”
“लेकिन मिस्टर ऑल्टर की जिद्द है कि मैं और टॉम इस महीने शिमला घूमने आयें।” डायना ने कहा।
“हाँ तो हो आओ न... आज तो सत्ताइस तारीख है। लौट आना तब तक।”
“नहीं जा सकते न। टॉम दार्जिलिंग जा रहा है कल ही और यह बात जब मैंने मिस्टर ऑल्टर को बताई तो कहने लगे कि ठीक है... आप सेनगुप्ता के साथ आ जाइए। हमने यहाँ आपके स्वागत के प्लान बना लिए हैं।”
“मुझे क्या एतराज हो सकता है। स्कूल से छुट्टी लेनी पड़ेगी। ट्यूशन के गैप तो मैं आकर पूरे कर लूँगा। वैसे भी संगीत के मेरे टयूशंस ही हैं। सब परीक्षा की तैयारी में जुटे हैं।” चंडीदास ने कंधे से लटकाने वाले शांतिनिकेतनी बैग में अकादमी से संबंधित कागज-पत्तर रखे जिनके प्लान डायना ने बनाए थे।
डायना ने सीधे चंडीदास की आँखों में झाँका-”तुम कहीं प्यार करना भूल तो नहीं गए? कितने व्यस्त हो गए हो तुम?”
चंडीदास ने डायना की पसीजती हथेलियाँ अपने हाथों में लीं। जैसे गुलाबी आभा वाले कमल की पंखुड़ी पर से अभी-अभी बूँदें फिसली हों... उन हथेलियों को अपने रूमाल से पोंछते हुए चंडीदास ने कहा-”यह सब प्यार ही तो है। मेरी व्यस्तता तुम्हें समर्पित है... वरना मेरे जीवन में था ही क्या? एक बँधा-बँधाया रूटीन... ऊब, घुटन से भरे बोझिल दिन। राधे तुमने मुझे प्यार करना सिखाया, व्यस्त रहना सिखाया। तुमने मेरी जिंदगी में रोमांच भरा, चुनौती भरी... अब जो मैं हूँ वो तुमसे सृजित हूँ... तुमसे गढ़ा गया। तुम मेरी शिल्पकार हो।”
“और तुम मेरे शिल्पकार... मेरा भी तुम जैसा हाल था। अब मेरे पास वक्त की कमी पड़ रही है, जीवन छोटा पड़ रहा है। इतना कुछ सीखना है... इतना कुछ समझना है कि... “
एक सौंधी-सी महक दोनों की साँसों में समा गईं। जैसे तपती जमीन पर बादल की बूँदों के छींटे। बाहर माली टयूब से क्यारियाँ सींच रहा था। पानी की फुहारें जब मँझोले कद के पेड़ों के पत्ते, शाखें नहलातीं तो गोरैया चिड़ियों का झुंड चहचहाता हुआ उड़कर दूसरे पेड़ पर बैठ जाता। चंडीदास ने उठते हुए डायना की हथेली चूमी। डायना ने उसके सिर के नजदीक... बिलकुल कान के पास फुसफुसाकर कहा-”हम शिमला चलेंगे। परसों ही।” और उसके माथे पर उड़ते बालों को पीछे की ओर सँवार दिया।
गुनगुन पर तो इस बात का कुछ असर नहीं हो रहा था पर मुनमुन कुढ़ी जा रही थी-”दादा, आप शिमला जा रहे हैं... वो भी अंग्रेजी रुतबे में... दादा... यू आर सो लकी।'
“जलन हो रही है न?” चंडीदास ने उसे छेड़ा।
“मुझे क्यों जलन होने लगी... बल्कि तुम ही फूले नहीं समा रहे हो? देखो... देखो... कैसे खिले पड़ रहे हो।” कहती मुनमुन खिलखिला कर हँस पड़ी।
माँ ने एक अटैची में शॉल, स्वेटर, कनटोपा, दस्ताने सब रख दिए-”अब कोट का क्या करूँ... उधर तो इस वक्त खूब ठंड पड़ती है।”
“तुम चिंता मत करो माँ... कोट का प्रबंध नंदलाल कर रहा है। उसके जीजाजी का कोट मुझे फिट भी आएगा क्योंकि हम दोनों की कद काठी एक जैसी है।”
चंडीदास ने माँ की चिंता दूर करते हुए अपने मन में सोचे कामों पर सही का निशान लगाना शुरू किया। टयूशन में तो बताने की जरूरत नहीं है। वैसे भी अब वे लोग अप्रैल में ही टयूशन लेंगे। स्कूल में एप्लीकेशन दे दी है। इस साल की पूरी सिक लीव बाकी है। अतिरिक्त छुट्टियाँ नहीं लेनी पड़ेंगी। पंद्रह दिन की ही तो बात है। फिर चंडीदास ने तारीखों का हिसाब लगाया तो बस दस दिन ही मिलते हैं शिमला के लिए क्योंकि हर हालत में बारह मार्च तक लौट आना है।
डायना ने जीप भेज दी थी चंडीदास को लिवाने। ड्राइवर सामान रख रहा था। सामान क्या, एक अटैची और डलिया।
“इस डलिया में क्या रख दिया माँ।” चंडीदास ज्यादा सामान ले जाना पसंद नहीं करता और माँ हैं कि... तभी बाबा की आवाज आई... “मुनमुन... मिठाई रख दी?”
चंडीदास ने बाबा के पैर छुए।
“सब रख दिया है बाबा... ठंड के हिसाब से अदरक की बर्फी और मिठाई भी।”
“मिठाई-विठाई मैं नहीं ले जाता।”
बाबा ने आँखें तरेरी-”रख लो... तुम महाशिवरात्रि पर यहाँ नहीं हो इसीलिए... दो दिन बाद ही है शिवरात्रि... उपवास तो क्या रखोगे यात्रा पर, रखना भी मत।”
देर हो रही थी। चंडीदास सबसे विदा ले जीप में आ बैठा। चंडीदास ने स्टार्ट होती जीप के शोर के बीच बाबा के पीछे खड़ी गुनगुन को देखा... उसकी आँखों में सूरज-सी कौंध थी... सब कुछ जला कर रख देने की लपट... ऐसा क्यों लगा चंडीदास को... वह रास्ते भर सोचता रहा।
गुनगुन की आँखों का सूरज सात घोड़ों पर सवार भाग रहा था बगटुट... न वह उदय होना जानता था न अस्त होना। आजाद हिन्द फौज की सिपाही गुनगुन और सुकांत घोषाल अपने दिन पर दिन बड़े होते समूह के साथ भविष्य की योजनाओं में व्यस्त थे। कुछ योजनाएँ अंजाम पर भी पहुंच चुकी थी। और गुनगुन को खुशी थी कि उन योजनाओं को अंजाम देने में उसका बड़ा हाथ था। कॉलेज की कैंटीन में बैठे सुकांत और गुनगुन अपनी कामयाबी का जश्न एक प्लेट भजिया और चाय के साथ मना रहे थे कि तभी उनके पास अंग्रेज युवक डेव फ्रेंकलिन आया-”हलो एवरीबडी... “
“हाय... बैठो।” कहते हुए सुकांत ने भजिया की प्लेट उसके सामने सरकाई।
“नो थैक्स... मेरा नाम डेव है, डेव फ्रेंकलिन।”
“हम जानते हैं।” सुकांत और गुनगुन ने एक साथ कहा।
“अच्छा... और डेव हँस पड़ा-तब तो आप दोनों ये भी जानते होंगे कि मैं पूरे एक महीने बीमार रहा और कल से कॉलेज आना शुरू किया है और अगले महीने से एग्जाम हैं।”
“हाँ... तो।” सुकांत ने चाय की घूँट भरी-”बताईए डेव साहब हम आपकी क्या मदद करें?”
गुनगुन जानती थी कि सुकांत अंग्रेजों से चिढ़ता है। बात उसी ने सँभाली ताकि सुकांत के कथन की तल्खी डेव महसूस न करें।
“डेव... नोट्स चाहिए होंगे न तुम्हें?” गुनगुन ने सीधे डेव की आँखों में झाँका-”मिल जाएँगे, पर एक शर्त पर”
“शर्त?” डेव चौंका।
“हाँ... शर्त... अँदर एक हफ्ते के वो नोट्स तुम हमें लौटा देना।” और जोरों से हँस पड़ी गुनगुन... “कल नोट्स मिल जायेंगे न।”
“हाँ... लेकिन कॉलेज के बाद।”
“ओ के... तो अब मैं चलता हूँ... आप लोग नहीं चल रहे? आज कॉलेज ग्राउंड पर फुटबॉल मैच है।” डेव ने उठते हुए कहा।
“नहीं... हम नहीं चल रहे। हमें फुटबॉल में कोई इंटरेस्ट नहीं।” सुकांत ने डेव को घूरा तो टेबिल के नीचे से गुनगुन ने सुकांत के पैर को अपने पैर से छुआ और इशारे से उसे मना भी किया। उसके जाते ही सुकांत ने उसकी नकल की... “आप लोग नहीं चल रहे? ईडियट... “
“सुकांत... क्यों इतना चिढ़ते हो, नफरत करते हो इन लोगों से। हो सकता है ये भी हमारी तरह बेकसूर हों। हम भी तो बेकसूर हैं फिर भी इनके द्वारा शोषित किए जा रहे हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी यहाँ शासन करती है तो क्यों... भारत के शासकों की कमजोरी, आपसी दगाबाजी और उनके अपने स्वार्थ के बल पर ही न। क्यों यहाँ व्यापार करने के लिए पैर जमाने दिए अग्रेजों को और क्यों यहाँ के बादशाहों, नवाबों की आपसी गृहकलह का फायदा उठाने दिया अंग्रेजों को। पहले अपनी गलती देखो सुकांत। जिन्हें पॉवर मिली है वे तो शक्ति का प्रदर्शन करेंगे ही।”
जब तक गुनगुन बोलती रही सुकांत चुपचाप प्लेट में बची एक भजिया को चुटकी-चुटकी तोड़कर टूँगता रहा और जब वह चुप हुई तो उसने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए।
“गुनगुन... तुम सचमुच महान हो... तुम्हारी सोच महान है... आज मैं कुछ निवेदन करुँ तो उसे परिस्थितिवश हुआ न समझना, गुनगुन, मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूँ और तुम्हें अपना जीवन साथी बनाना चाहता हूँ। बोलो, बनोगी मेरी संगिनी।” गुनगुन को लगा उसकी आँखों के आगे चकाचौंध करने वाली बहुत सारी बत्तियाँ जल उठी हैं। रोशनी के हँडे लिए सजे-धजे आदमी सड़क पर भागे जा रहे हैं। एक काली घोड़ी हिनहिना कर उस पर सवारी करते सुकांत को जो सेहरा बाँधे है, पटक देने की कोशिश कर रही है... और बजते-बजते अचानक शहनाईयों की धुन मातम में बदल गई है। घबराकर गुनगुन ने अपना हाथ छुड़ाया “सुकांत... हमारे रास्ते कुरबानी चाहते हैं और कुरबानी देने वाले घर नहीं बसाया करते।”
सहसा सुकांत की आवाज भीग गई-”मैं कहाँ घर बसाने को कह रहा हूँ। साथ-साथ कुरबान होने की बात कह रहा हूँ। और जब देश के लिए कुरबान होऊँ तो मेरी नजरों के सामने तुम रहो... मैं तुम्हें देखते हुए ये दुनिया छोड़ना चाहता हूँ।” और रो पड़ी गुनगुन। टेबिल पर सुकांत के दोनों हाथ एक के ऊपर एक थे... हाथों पर गुनगुन का माथा। उबलते आँसुओं ने उस शाम एक-दूसरे का वरण कर लिया। दूर... बहुत दूर से आरती के घंटे दोनों को सुनाई देने लगे।
बाहर घर जाने वाली सड़क पर सुकांत की साईकिल पर पीछे बैठी गुनगुन नाजुक लता-सी उससे लिपटी थी। घर के मोड़ तक पहुँचते-पहुँचते अंधेरा हो गया। अंधेरे में दोनों ने एक-दूसरे के होठों को चूमकर विदा ली। जब गुनगुन घर के अंदर घुसी तो मुनमुन बेचैनी से उसका इंतजार कर रही थी-”कॉमरेड आया था... कल... 54 बाग बाजार में इकट्ठा होना है तुम सबको।”
पूरा शिमला बर्फ की चादर में गुड़ी-मुड़ी हुए पड़ा था। कल रात से ही बर्फ गिर रही थी और पारा इस मौसम के सबसे कम अंक तक गिर चुका था। लंदनवासी डायना के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। वह आदी थी ऐसे मौसम की पर चंडीदास अपनी जिंदगी में पहली बार ऐसी बर्फ देख रहा था। उसे ठंड इतनी परेशान नहीं कर रही थी जितना आनंद बर्फ देख कर हो रहा था। प्रो. ऑल्टर खुद आए थे उन्हें लेने। डायना और चंडीदास उन्हें देखते ही जीप से उतरे... “हैलो प्रोफेसर... “
“वेलकम मिस्टर सेनगुप्ता, मिसेज ब्लेयर... आपके स्वागत में कल रातभर बर्फ गिरी। सुबह से धुँध छँट रही है। रास्तों पर की बर्फ भी हटाई जा रही है।”
चंडीदास ने देखा घोड़ों पर सवार अंग्रेज भारतीय मजदूरों को हुकुम दे देकर रास्ते साफ करा रहे थे। मजदूरों के हाथ में फावड़ा, कमर झुकी हुई, ठंड के लायक पर्याप्त कपड़े भी नहीं बदन पर... उसका मन कसैला हो गया। जीप प्रो. ऑल्टर की मोटर के पीछे-पीछे चलने लगी।
शानदार कॉटेज में मौसम के विपरीत काफी गरमाहट थी। प्रोफेसर ऑल्टर आराम से सोफे पर बैठ गए और डायना चेंज के लिए अंदर के कमरे में चली गई। लौटी तो काफी तरोताजा दिख रही थी।
“आप भी फ्रेश हो लें सेनगुप्ता जी फिर एक-एक पेग आपके आगमन की खुशी में। क्या लेंगे?”
“जी मैं ड्रिंक नहीं करता।”
ऑल्टर ठठाकर हँस पड़े। इतनी खुली और तेज हँसी कि जैसे लकड़ी से बना कॉटेज खड़खड़ा गया हो-”ड्रिंक नहीं कराएँगे आपको... शरीर में थोड़ी गरमी लाने के लिए रम जरूरी है।” चंडीदास हँसता हुआ फ्रेश होने चला गया।
डायना ने सरसरी नजर कॉटेज पर डाली। यह तो पता था कि ऑल्टर की पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है। एक बच्ची को जन्म देते समय उसकी अकाल मृत्यु हो गई। साथ में बच्ची की भी। ऑल्टर अब अकेले हैं अपनी जिंदगी में। इतने साल हो गए पर वे अपनी पत्नी के गम को भुला नहीं पा रहे हैं और यही वजह है कि उन्होंने दूसरी शादी नहीं की।
“ यहाँ कोई अपना नहीं, किसी से जान-पहचान नहीं... इसीलिए परदेश में आपको अचानक देखकर लंदन की यादें ताजा हो गईं। जब से आपसे कलकत्ते में मिला हूँ मेरा शिमला में मन नहीं लगता।” ऑल्टर के स्वर में उदासी की परतें थीं। एक हटती तो दूसरी उघड़ आती।
“मन तो मेरा भी नहीं लगता था प्रोफेसर, पर मैंने संगीत को अपना साथी बना लिया... अब मैं दुनिया को भूल चुकी हूँ।” डायना ने फायर प्लेस की ओर अपना मुँह कर लिया। लपटों की परछाईयाँ उसके कपोलों पर नाच रही थीं। नत्थू डायना के लिए कॉफी बना लाया था और चंडीदास उसके पीछे-पीछे मिठाई का डिब्बा लिए... फ्रेश होकर वह बहुत प्यारा लग रहा था-”ड्रिंक डिनर के वक्त ली जाए तो कैसा रहे? इस वक्त नत्थूजी हमें भी कॉफी पिला दीजिए और आप भी मिठाई खाइए हमारे बंगाल की।”
चंडीदास की इस सहजता पर सब हँस पड़े-”आज किसका मुँह देखकर उठे थे नत्थूजी।” ऑल्टर ने पूछा।
नत्थू ने झट से एक मिठाई का टुकड़ा उठा लिया और शरमाते हुए बोला-”आपका हुजूर।” और किचन की ओर भाग गया।
“आपका नौकर बहुत अच्छा है।”
“इसी के बल पर तो हूँ मैं यहाँ... इतनी सेवा करता है यह मेरी... कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि जब मैं लंदन वापिस लौटूंगा तो कैसे रहूँगा इसके बिना।”
“इसे भी साथ ले जाना।” डायना ने सलाह देते हुए मिठाई का टुकड़ा उठाया-”खाइए प्रोफेसर... “
बर्फबारी के कारण अंधेरा जल्दी घिर आया था। मौसम विभाग की सूचना थी कि अब मौसम साफ हो जाएगा और घाटियों में वसंत के फूल खिलेंगे। नत्थू लैंप जलाकर रख गया था। किचन से मसाले वाली मटर गोभी की सब्जी पकने की खुशबू आ रही थी। ऑल्टर ने चंडीदास के सामने नत्थू से हारमोनियम मंगवा कर रखा और गाने की फरमाइश की। गायक को क्या चाहिए माहौल और प्रसन्नता... ना-नुकुर की गुंजाइश ही नहीं थी। हारमोनियम पर सरगम साध कर चंडीदास गाने लगा... “हो पहरे चाँदी के गहनवा मेरी प्यारी धनिया... प्यारी धनिया हो देखो बाँकी धनिया... “
गीत के नशीले बोलों ने समां बाँध दिया। नत्थू काम-धाम छोड़ कर दीवार के सहारे हाथ बाँधे खड़ा हो गया। डायना नशे में डूब ही जाती अगर अपने को न सँभालती। उसके होठ भी चंडीदास का साथ देने को मचल उठे।
“आप भी गाइए न... “ चंडीदास ने हारमोनियम डायना के सामने कर दिया। वह गाने लगी-”पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो।” “वाह... आई थिंक मीरा का पद है ये।” ऑल्टर ने आनंदमग्न होते हुए कहा। गीत समाप्त हो चुका था, नत्थू गदगद हआ खड़ा था और डायना ऑल्टर के ज्ञान पर चकित थी। मीरा, कबीर सब पढ़े बैठे हैं प्रोफेसर।
ऑल्टर के बहुत आग्रह पर चंडीदास ने और डायना ने एक-एक पैग रम का लिया... लेकिन ऑल्टर पीते रहे। शायद अपना रोज का कोटा तय कर लिया था उन्होंने... चार पाँच पैग पीकर उन्होंने थोड़ा-सा खाना खाया और नशे में धुत अपने कमरे में जाकर सो गए। नत्थू ने दोनों छोटे कमरों में चंडीदास और डायना के बिस्तर लगा दिए।
“अंदर से किवाड़ बंद कर परदे खींच लीजिए मेमसाहब, दरारों से ठंडी हवा घुस जाती है।”
डायना रजाई में घुस गई। कमरा गर्म था और बिस्तर भी आरामदायक था। चंडीदास और उसके कमरे के बीच एक दरवाजा था जिसे बंद कर नत्थू ने परदा खींच दिया था और इस तरह अपनी प्रबंध पटुता दिखाकर लैंप बुझा कर चला गया था। खिड़की के सतरंगी काँच में बाहर की बर्फ पर गिरती चाँद की चाँदनी चमक रही थी। डायना ने उठकर दरवाजे की चिटकनी खोल दी और चंडीदास के कमरे में झाँकते हुए पूछा-”सो गए चंडी?”
सवाल के उत्तर में चंडीदास रजाई परे फेंक डायना की तरफ तेजी से आया और उसे बाहों में भरकर फुसफुसाया-”तुम सोई क्या?”
तभी हिलते परदे ने हवा के तीखेपन का अहसास कराया। दोनों यंत्रचालित से डायना के बिस्तर पर आ गए। रजाई ओढ़ते ही कँटीली हवा जाने कहाँ दुबक गई। कमरे में नीले काँच का नन्हा-सा नाइट लैंप जल रहा था... वह नन्हा-सा प्रकाश पूर माहौल को अरेबियन नाइट का रहस्य भरा लुक प्रदान कर रहा था। रजाई में ही चंडीदास ने डायना को अपने में समेट लिया। उसके हृदय की धड़कने तेज थीं, होंठ काँप रहे थे।
“डरती हो राधे...
किसलिए?”
चंडीदास को महसूस हुआ जैसे बावजूद बर्फीली हवाओं के आसपास ही कहीं लपटों का जंगल है और वह उस जंगल की ओर खिंचा चला जा रहा है। नहीं, वह जा कहाँ रहा है लपटें तो उसके आसपास ही हैं। उसने डायना के गुदाज बदन को आलिंगनबद्ध करते हुए अपने होंठ उसके होठों पर टिका दिए। नीले उजास के स्वप्निल दायरे में न जाने कितने चुंबन कमरे में तैरने लगे। डायना ने नाइटी का रिबन खोल कर अपने को बंधन मुक्त कर लिया। धीरे-धीरे उसने रजाई भी हटा दी और पलंग से उतरकर खड़ी हो गई।
“लो... चंडी... मेरे किसना... आज मैं तन से भी तुम्हारी हुई। देख लो, भरपूर देख लो अपनी राधे को ताकि मेरा अंग-अंग पहचान सको।” चंडीदास का अंग-अंग गुनगुना उठा। प्यार का ऐसा समर्पण? संगमरमर की आवरण रहित तराशी हुई मूर्ति उसके सम्मुख है... सच, विधाता कितना बड़ा कलाकार है। वह भी उठकर खड़ा हो गया और डायना के एक-एक अंग का स्पर्श कर स्वर्गिक आनंद में डूबता गया। प्रेम का प्रथम स्पर्श, प्रथम उमड़न, प्रथम एहसास... जिंदगी का महान सच। औरत के बिना अधूरा है पुरुष, अधूरी है उसकी आत्मा, लेकिन चंडी, वह तो डायना के बिना संपूर्ण रूप से अस्तित्वहीन है। डायना है तो वह है। उसने उसे गोद में उठाकर बिस्तर पर लेटा दिया और उसकी नर्म, गुदाज गोलाईयों में अपना मुँह छुपा लिया। डायना ने उसके माथे को चूमा और बुदबुदाई-”चंडी... मैं मर जाऊँगी।”
चंडीदास के कान सुन्न थे और हाथ जाग गए थे। वह डायना के शरीर की लपटों में स्वयं को झोंकता चला गया। उसे लगा जैसे वह बेहद स्थूल हो गया है और कमरा उसके शरीर के फैलाव के सामने बेहद छोटा हो गया है। दोनों के शरीर गुँथ-से गए हैं। डायना लपटों-सी काँपने लगी है, पिघलने लगी है... उसने प्रेम के अंतिम ज्वार के समाप्त होते ही तृप्ति की आहें भरते हुए कुछ बुदबुदाया और चंडीदास के सीने में समा गई। चंडीदास को लगा, लपटें बुझ गई हैं और वक्त ठहर-सा गया है। हवाओं का शोर बंद खिड़कियों पर दस्तक देते-देते सहमकर वहीं ठिठक गया। प्रेम के स्पर्श का पहला एहसास चंडीदास के हृदय में अंकित हो गया। वह डायना को बाहों में लिए-लिए सो गया।
नत्थू की किचन में जारी खटर-पटर से दोनों की आँख खुली तो दोनों ही शरमाकर एक-दूसरे से लिपट गए।
“कैसी हो राधे... नींद अच्छी आई?” चंडीदास ने उसके बिखरे बालों को सँवारते हुए कहा।
“और तुम्हें चंडी... सच कहना, मुझसे खुशी मिली?”
“अपार, अद्भुत, तुम्हारा स्पर्श मेरी जिंदगी को संतुष्टि से भर गया है राधे... अब और कोई लालसा रही नहीं। अभी तक मैं अधूरा था, आज संपूर्ण हुआ। आज मैंने पूरी सृष्टि के दर्शन पा लिए।”
“देखो, मौसम भी हमारे मिलन से खुश है, धूप खिल आई है।”
डायना के इशारे पर चंडीदास ने खिड़की के बाहर धूप को चीड़ और देवदार के पेड़ों पर जमी बर्फ को बूँद-बूँद टपकाते देखा। रोशनदान के सतरंगी काँच पर पड़ती धूप ने मानो सतरंगी जामा पहन लिया था... आज चंडीदास और डायना के जीवन में सारे रंग जो बिखर गए थे।
शिमला से सोलह किलोमीटर दूर कुफ्री की राह पर हैं डायना और चंडी। प्रोफेसर ऑल्टर साथ नहीं हैं, उन्हें कुछ जरूरी काम निपटाने थे। नत्थू ने थरमस में कॉफी और बैग में नाश्ते के पैकेट्स रख दिए थे। साथ में हिदायत भी-”कहीं जीप रुकवाकर खा लेना मेमसाहब... कुफ्री पहुँचते दोपहर हो जाएगी।”
सुनकर अच्छा लगा डायना को। कितने संवेदनशील होते हैं भारतीय और कितने प्रेम भरे। सहसा रात का नशीलापन आँखों में तिर आया... उसने पहलू में बैठे चंडीदास के हाथों में अपना हाथ देते हुए आँखें मूँद ली। ड्राइवर ने जीप स्टार्ट की तो हवा के तेज झौंके ने चंडीदास के बालों को माथे पर बिखरा दिया।
शिमला से कहीं ज्यादा ठिठुरन थी कुफ्री में। सारी घाटियाँ, स्कीइंग की ढलाने, चीड़, देवदार सब कुछ धुँध में डूबा था... बस हलका-सा आभास भर था उनका। डाक बंगले में प्रवेश करते ही दोनों के स्वागत में हल्का-हल्का संगीत बज उठा... वे सोफे पर बैठे ही थे कि दो पहाड़ी लड़कियाँ... पहाड़ी वेशभूषा में चाय के प्याले लिए हाजिर हो गईं। लड़कियों ने गले, कान, नाक और कलाईयों में चाँदी के आभूषण पहन रखे थे। दोनों ने झुककर सलाम किया और टेबिल पर चाय की ट्रे रखकर उनके आगे कालीन पर घुटनों के बल बैठ गई। चंडीदास ने एक प्याली डायना को थमाई और दूसरी खुद लेकर चाय का घूंट भरा। इतनी ठंड में चाय भी ठंडी लगी। एक ही घूँट में चाय खतम कर उसने दोनों का नाम पूछा।
“इसका नाम दमयंती है।” उनमें से एक ने कहा।
“और तुम्हारा?”
“लाजवंती। ये मेरे से छोटी है। हम दोनों इस डाक बंगले के खानसामा पंडित की बेटी हैं... अम्मा हमारी गुजर गईं... भाई फौज में चला गया। मेमसाहब... मालिश कर दूँ?”
डायना और चंडीदास खिलखिलाकर हँस पड़े। लड़की है या खबरों का पिटारा। डायना घूमने के मूड में थी पर चंडीदास धुँध देखकर पस्त था। दोनों को उठते देख लाजवंती फिर चहकी-”साहब... घूम आइए... पर उधर ढलान की तरफ मत जाना... बहुत गहरी घाटी है। धुँध में पता थोड़ी चलता है। मैं चलूँ साथ में? मुझे सब रास्ते पता हैं।”
“हाँ चलो।” डायना ने ओव्हरकोट पहनते हुए कानों में ऊनी मफलर बाँधकर हैट पहन लिया। चंडीदास भी कोट आदि गरम कपड़ों से लैस था।
“एक मिनट रुको मेमसाहब... मैं बापू से कहकर आती हूँ।” कहती हुई वह किचन की ओर भागी और पलक झपकते ही लौट भी आई। पर अकेली ही।
“अरे वह... कहाँ रह गई?”
“कौन दमयंती? वो बापू के संग काम जो कराएगी... बहुत महीन मसाला पीसती है सिल पर... आप सब्जी खाएँगे, तब देखना।” डायना को लाजवंती की चंचलता भा गई। धुँध में प्रवेश करते ही तीनों एक काले आकार में बदल गए जैसे... ठंड के काँटे जूतों के भीतर चुभ नहीं पा रहे थे। कुछ भी कहने के लिए उन्हें मुँह पर से स्कार्फ हटाना पड़ता। सुनने के लिए कान पास लाना पड़ता। उनके इस करतब पर लाजवंती ठठा कर हँस पड़ती। कभी वे ढलान से फिसलने लगते जैसे स्कीइंग कर रहे हों, कभी देवदार और चीड़ के दरख्तों की पींड़ पकड़-पकड़ कर चलते... लाजवंती उनकी अजनबीयत पर हँस-हँस कर दोहरी हुई जा रही थी। अचानक देवदार की आड़ में चंडीदास पीछे से आकर डायना से लिपट गया। बर्फीले शिखर पर जैसे सूरज की किरण ने दस्तक दी हो। डायना ने महसूस किया चंडीदास का बदन काँप रहा है। होठ नीले से पड़ने लगे थे-”चंडी, तुम्हें ठंड लग रही है, चलो लौट चलें।”
और उसकी कमर में बाहें डाले डायना डाक बंगले की ओर चल पड़ी। लाजवंती गिलहरी-सी फुदकती आगे-आगे।
कमरे में पंडित ने आतिशदान गरम कर रखा था। कमरा खूब गर्म था। चंडीदास की कँपकँपी अभी भी कम नहीं हो रही थी। डायना ने उसे लिहाफ ओढ़ाकर पलंग पर लेटा दिया और पंडित को रम लाने कहा।
“लगता है साहब को ठंड लग गई है। मैं बूटी घिसकर लाता हूँ।” पंडित ने चंडीदास के तलवे रगड़ते हुए कहा।
“बूटी?”
“हाँ मेमसाहब... बहुत गरम होती है। ठंड में वही काम देती है पहाड़ों पर।”
और तलवे घिसने का का काम लाजवंती को सौंप वह किचन की तरफ भागा। डायना सोफे पर सिकुड़ी-सी बैठी थी लेकिन चंडीदास की हालत से फिक्रमंद भी थी। थोड़ी ही देर में पंडित प्याले में दवा ले आया और चंडीदास को पिलाकर शांत लेटे रहने की सलाह दी। लाजवंती और पंडित के कमरे से बाहर जाते ही डायना ने दरवाजा बंद कर दिया और चंडीदास के सिरहाने बैठकर उसके बाल सहलाने लगी। चंडीदास ठंडी शिला-सा निश्चल लेटा था इतनी अधिक ठंड की उसे आदत नहीं थी। ठंड शरीर के हर पोर में समा गई थी। डायना ने अपने शरीर की आँच में उसे समेट लिया। उसके पहलू में लेटते हुए उसने धीरे-धीरे उसके हर अंग को सहलाना शुरू किया। कुछ बूटी का असर और कुछ डायना के स्पर्श का ताप... चंडीदास ने आँखें खोल दीं।
“कैसे हो चंडी?”
“अब अच्छा लग रहा है... ऐसा लग रहा था... नहीं जाने दो।”
“कहो न... .रूक क्यों गए?”
“ऐसा लग रहा था राधे जैसे अब चेतना नहीं लौटेगी... जीवन का अंत बड़ी गहराई से महसूस किया मैंने।”
डायना ने घबराकर उसके होठों पर अपने होठ रख दिए... “ऐसा न कहो चंडी... मैं मर जाऊँगी। तुम्हारे बिना जीवन कैसा?” चंडीदास ने हुलसकर डायना को बाँहों में भर लिया। बाहर कोहरा अब धीरे-धीरे छँट रहा था। लेकिन सूरज नहीं निकला। वह संध्या रानी की पदचाप सुन बड़ी खामोशी से अस्त हो गया। अब अंधेरे की बारी थी... जिसने तमाम घाटी और पहाड़ों को अपने खौफ में लपेटना शुरू कर दिया था। बहुत देर बाद शाम को सात बजे के लगभग कमरे के बाहर चहलकदमी सुन डायना और चंडीदास अलग हुए। डायना ने अपने उघड़े बदन को गरम कपड़ों से लैस किया। चंडीदास ने मुस्कुराते हुए डायना का पुनः चुंबन लिया और अभी जो उसके शरीर की महक चंडी को आनंद के चरम में ले गई थी उस महक को लंबी साँस भर भीतर तक समोते हुए लिहाफ से बाहर कदम निकाले। यह आनंद... यही तो जीवन का मूल है... यही तो आत्मा को, शरीर को ऊर्जावान बनाए रखता है। न जाने क्यों इन्सान इस आनंद को छोड़ युद्ध, आतंक और भ्रष्टाचार में डूबा रहता है। न वह प्रेम कर पाता है, न आनंद की अनुभूति ही... दूसरों को नष्ट कर डालने में, साम्राज्य मिटा डालने में, अपनी सत्ता कायम कर डालने में कैसा आनंद ? अभी चंद घन्टे पहले वह अपनी महबूबा के साथ धुन्ध के समंदर में डूब गया था। धरती, आकाश कुछ भी पता नहीं चल रहे थे... बस धुंध थी और वे दोनों थे... लाजवंती के गुनगुनाने और तीखी हवाओं के झोंकों ने दोनों को बेबस कर डाला था... उसी बेबसी में डायना ने समर्पण किया और उसी बेबसी में चंडीदास के अंदर ठंड से गार हुई चिंगारियाँ भड़क उठी थीं। “और... डायना... तुम सृष्टि हो, तुम सृजन हो... तुम मंजिल हो मेरी... प्रेम के नशे में, लड़खड़ाते हुए चंडीदास डायना का हाथ थाम बरामदे में निकल आया। अंधकार को अपनी शीतल चाँदनी से अलविदा कहने चाँद पहाड़ों के शिखर पर निकल आया था। शिखर को छूता-सा गोलाई में हलका-सा कटाव लिए... पूर्णिमा के बाद तिथि घटा जो रही थी चाँद को।
पंडित कुमायूँ का था... टेबल पर डिनर सर्व करते हुए बोला-”साहब... अब रात को कहीं न निकलिएगा। धुँध कम हैं, ठंड भी थोड़ी-सी नरम हुई है पर... “
और बंद खिड़की की ओर इशारा कर बोला... “वो घाटी देखते हैं?” फिर खुद ही झेंप गया... “अंधेरे में कहाँ दिखाई देगी आपको... सुबह देखिएगा।”
“तुम कुछ बता रहे थे घाटी के बारे में?” चंडीदास ने सूप का घूँट भरा।
“बापू का मतलब है उधर भूत आते हैं।” लाजवंती के कहने पर दमयंती जोर से अम्मा कहती हुई पंडित से चिपट गई।
“अरे... क्या हुआ?” डायना चौंक पड़ी थी।
“कुछ नहीं... आप खाना खाएँ। मैं गरम फुलके लेकर आता हूँ।” कहते हुए पंडित रोती हुई दमयंती को लेकर किचन में चला गया। लाजवंती खामोश खड़ी थी। बिटर-बिटर दीवार को ताकती हुई। डायना और चंडीदास के लिए यह घटना अप्रत्याशित थी। वे अम्मा और भूत का आपस में जितना मिलान करते उतना ही उलझते जाते।
खाने के बाद दोनों आतिशदान के आगे आरामकुर्सियों पर बैठकर कॉफी पीने लगे। लेकिन फिर भी माहौल गमगीन ही रहा, सहजता आ ही नहीं पा रही थी। पंडित के परिवार को लेकर उठे सवाल उन्हें सब कुछ जानने के लिए विवश कर रहे थे। परसों चंडीदास का जन्मदिन है। बाबा ने कितने एहतियात से मिठाई रखवाई थी उनके साथ... प्रोफेसर ऑल्टर के साथ जन्म दिन नालदेरा में मनाने की पूरी योजना गुपचुप बना ली थी डायना ने... पर ये सवाल?
“पंडित, यहाँ आओ।”
“जी मेमसाहब?” पंडित हड़बड़ाता हुआ आया।
“तुम भूत की बात कर रहे थे। कैसा भूत? किसका भूत? तुम मानते हो भूत प्रेत?”
“जी... मेमसाहब... भूत तो होता है। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जिसकी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं उसकी आत्मा मरने के बाद भटकती है।” पंडित ने तर्क देते हुए कहा।
“इच्छाएँ तो किसी की पूरी नहीं होतीं तो क्या सब भूत बन जाते हैं मरने के बाद? तुम भी पंडित... “चंडीदास ने हँसते हुए कहा।
आतिशदान की लपटें अंगारों में बदल गई थीं। पंडित और दोनों लड़कियों को डायना ने कालीन पर बैठने को कहा।
लड़कियाँ अपनी उसी मुद्रा में घुटने टेक कर बैठ गई। पंडित खड़ा रहा।
“नहीं साहब... भूत प्रेत होते हैं। दमयंती को तो उसकी अम्मा दिखती है... “
“क्या... ..क्या ऊटपटांग बक रहे हो... नामुमकिन।” चंडीदास के कहने पर डायना ने उसे आँख के इशारे से शांत रहने को कहा। फिर दमयंती से पूछा-”बताओ दमयंती, क्या सचमुच तुम्हें अम्मा दिखती हैं।”
“जी... मेमसाहब... कभी... कभी... जब मैं घाटी की तरफ जाती हूँ।” और वह फिर रोने लगी।
इस बार डायना ने ममता भरे स्पर्श से दमयंती को अपनी और खींचा-”देखो, रोते नहीं... अम्मा तुम्हें याद करती होगी न ईश्वर के घर इसलिए तुम्हें कल्पना में दिखाई देती है। वह तो ईश्वर में समा गई... अब वह यहाँ कहाँ?”
“नहीं मेमसाहब... अम्मा ईश्वर में नहीं समाई है, वह उस घाटी में समाई है। वहीं से कूदकर उसने जान दे दी थी... उसे गोरों ने इतना... ..”
लेकिन दमयंती के बोल अधबीच में ही टूट गए। पंडित की मोटी, खुरदुरी हथेली ने उसके पँखुड़ी से कोमल होठों को दबोच लिया-”चोप्प... “
और उसे बाँह से पकड़कर धमकाता हुआ ले गया। लाजवंती काठ बनी निश्चल-सी खड़ी थी। डायना और चंडीदास के आगे स्थिति की गंभीरता पर से परदा उठने लगा। लाजवंती ने बताया-
“उस दिन इस डाकबंगले में चार गोरे आकर रुके थे। चारों ने खूब शराब पी और जब बापू उनका खाना लेकर कमरे में गया तो उससे आलू के फिंगर चिप्स तलकर लाने को कहा। इस बीच उन्हें सोडा चाहिए था। उन्होंने सामने वाले पेड़ से सूखी लकड़ियाँ तोड़ती अम्मा को बुलाया... सीधा कमरे में ही... थोड़ी देर बाद दरवाजा बंद हो गया और अम्मा की चीखें दरवाजे के शीशों पर हथौड़े-सी पड़ने लगी। बापू बाहर से दरवाजा पीट रहा था और हम दोनों बहने रो-रो कर हलकान हुई जा रही थीं। धीरे-धीरे अम्मा की चीखें शांत हो गई। बापू दरवाजे के बाहर ठगा-सा खड़ा रहा। काफी देर के बाद दरवाजा खुला और अम्मा फटे कपड़ों में रोती कलपती बदहवास घाटी की तरफ भागीं और घाटी में छलांग लगा दी। बापू ने डंडा उठा कर उन गोरों को मारा पर होना क्या था... वो चार, बापू अकेला... खूब लात-घूँसे खाए उसने... .”
डायना ने लंबी साँस खींची। साँस के साथ सूखी सिसकी ने उस जानलेवा माहौल को चौंका दिया था। चंडीदास ने इतनी जोर से मुट्ठी भींची कि नाखून हथेली में गड़ गए। डायना ने लाजवंती को गले से लगाया। वह खामोशी से सुबकने लगी। डायना को लाजवंती समझदार और जिंदगी का दृढ़ता से मुकाबला करने वाली लगी...
“लाजवंती... तुम लोगों को यह डाकबंगला छोड़ देना चाहिए। तुम लोग शिमला में जाकर क्यों नहीं रहते?”
“बापू ने कसम जो खाई है... अम्मा के संग हुए हादसे का बदला लेगा। चार गोरों को मार कर हटेगा यहाँ से।” लाजवंती ने भोलेपन से कहा।
“अरे... सब एक जैसे थोड़े ही होते हैं।” चंडीदास ने ऐसा शायद इसलिए कहा ताकि डायना को बुरा न लगे। पर डायना अपनी कौम के अत्याचार और मनमानी की पक्षधर नहीं थी बल्कि उसे इस बात को बेहद अफसोस था कि उसकी कौम भारतीयों के संग ऐसा शर्मनाक व्यवहार करती है। उसका सिर तो चंडीदास के आगे शर्म से झुका जा रहा था।
रात जब वह बिस्तर पर चंडीदास के आगोश में थी, उसने बड़े आहत स्वर में कहा-”चंडी, हम कल सुबह ही नालदेरा के लिए निकल चलेंगे, अब मैं यहाँ रुकना नहीं चाहती।” चंडीदास ने उसका सिर अपने सीने पर दबा लिया।
“तुम बहुत भावुक हो राधे... इतनी खूबसूरत जगह ढंग से देखे बिना ही चली जाओगी। अब जाकर तो धुँध कम हुई है... कल देखना धूप भी खिलेगी।”
डायना ने खामोशी से पलकें बंद कर ली। यही वह कमरा है जहाँ उन चार अंग्रेजों ने एक औरत को बेबस कर उसकी इज्जत लूटी... इज्जत के साथ-साथ उसके सपनों की दुनिया... उसकी नन्हीं बेटियों से चहकता घर और सीधे सादे पति का संसार भी लूट लिया। क्या वे चारों जान पाएँगे कि उनकी उस घिनौनी हरकत ने कैसे तीन जीवित जिंदगियाँ शमशान में बदल दी हैं?
दूसरे दिन दोपहर ढलने के पहले वे नालदेरा पहुँच चुके थे। लाल टीन की ढलवाँ छत वाला सुंदर-सा कॉटेज था। कॉटेज चीड़ और ओक दरख्तों के बीच था। प्रोफेसर ऑल्टर को ढूँढती डायना की निगाहें कॉटेज का निरीक्षण करने लगीं। सारी सुविधाओं से लैस शानदार कॉटेज के ड्राइंग रूम में बेंत के सोफे पर बैठती हुई उसने पानी से भरे गिलासों की ट्रे थामे नाटे कद के पहाडी नौकर से पूछा."प्रोफेसर कहाँ है?"वह आधा झुका... ट्रे तिपाई पर रखी, सलाम ठोंका और बोला-”साहब सुबह ही शिमला चले गए। कल शाम को आ जाएँगे, कल साहब का जन्मदिन है न!” और उसने चंडीदास की ओर देखा। ओह, तो प्रोफेसर ऑल्टर ने इसे सब कुछ समझा दिया है... चंडीदास का जन्मदिन मनाने का कुछ अलग तरह का इंतजाम किया है-शायद!
“सुनो... “डायना ने नौकर को सम्बोधित किया।
“जी... .भोटू... हमको भोटू पुकारिए।” और वह शरमा गया।
चंडीदास और डायना भी हँस पड़े। कुफ्री के उदास हो गए माहौल के बाद डायना के चेहरे पर हँसी देख चंडीदास पुलक से भर गया-”भोटू साहब... बढ़िया-सी चाय बना लाइए हमारे लिए।”
चंडीदास से ऐसी सहजता पाकर भोटू का संकोच और अंग्रेजों के प्रति डर दोनों जाते रहे। वह चहका-”साहब... बढ़िया पहाड़ी चाय पिलाता हूँ आपको।”
डायना के लिए जो कमरा सोने के लिए तैयार किया गया था... उसी में एक बड़े से टेबिल पर हारमोनियम रखा था। इतने दिनों बाद हारमोनियम देख डायना खिल गई। कपड़े बदलकर वह हारमोनियम के पास आ बैठी और उसके सुरों पर उँगलियाँ फेरी तो एक मद्धम-सी झनकार कमरे में फैल गई। चंडीदास भी तरोताजा हो पास आ बैठा। हारमोनियम ने जैसे दोनों के दिलों में सम्मोहन-सा पैदा कर दिया था। चंडीदास ने हारमोनियम अपनी ओर खींचकर सुर साधा और डायना की ओर सवालिया निगाहें उठाई... ... सुनोगी?”
“कब से तरस रही हूँ। इतने दिनों से संगीत के बिना एक अधूरापन-सा लग रहा था।”
चंडीदास गाने लगा-
जारा हाथे दिए माला, दिते पारो नाइ
केनो मनो राखा तारे
भूले मनो राखा तारे
भूले जाओ एके बारे... ..
“गाओ राधे... .मेरे साथ सुर मिलाओ... जारा हाथे दिए माला... जिसके हाथ में माला देकर तुमने वापिस ले ली, उसे क्यों याद रखे हुए हो? भूल जाओ उसे... भूल जाओ।”
डायना ने पीछे से आकर चंडीदास के गले में अपनी बाहों की माला पहना दी... ..”लो, मैं भूल गई और इन बाहों की माला तुम्हें पहना दी... और तुम्हारी परिणीता बन तुम्हारे प्यार की डोर के सहारे चली जा रही हूँ सागर तट पर... ... अकेली... सागर जल की रेखा जहाँ क्षितिज को छू रही है... अभी-अभी सूरज ने डुबकी लगाई है और अभी-अभी उसकी डुबकी से चकित चाँद नभ से झाँका है।”
जारो कोथाय, शेई एकेला
ओ तुई अलस बैशाखे?
इस अलस भरे बैशाख मास में मैं अकेले कहाँ हूँ... तुम जो हो साथ में... मेरे किसना... ये तुम्हारा बरगद जैसा छतनारा व्यक्तित्व... इसकी छाँव भी तो मेरे संग है। मैं अकेली कहाँ हूँ... सागर की लहरों पर सवार हो मैं दूर चली जाऊँगी, तुम पीछे-पीछे आना... मेरे प्रियतम... ।
चंडीदास सौ-सौ जान से कुर्बान हो दुगने जोश से गाने लगा।
तोमारे वंदना करि, स्वप्न सहचरी,
ओ आमार अनागत प्रिया
आमाय पावार बुके ना-पावार तृषा जागानिया।
तोमारे बंदना करि, हे आमार मानस रंगिनी
अतप्त यौवनाबाला, चिंरतन, वासना संगिनी
तोमारे वंदना करि, नाम नहिं जाना...
इस बार डायना खामोश रही। गीत वह समझ गई थी पर शब्द नहीं सूझ रहे थे। चंडीदास ने हारमोनियम सरकाकर अपने पीछे लिपटी डायना को आगे खींच लिया... “ओ मेरी स्वप्न सहचरी, ओ मेरी अनागत प्रिया, मैं तुम्हारी वंदना करता हूँ। तृप्ति पाने के इच्छुक मेरे हृदय में अतृप्त तृषा जगाने वाली ओ मेरी मानस रंगिनी, मैं तुम्हारी वंदना करता हूँ। ओ तापहीन यौवन बाले, चिंरतन वासना की संगिनी... ..नाम न जानते हुए भी मैं तुम्हारी वंदना करता हूँ।”
डायना फुसफुसाई... तुम्ही ने तो नाम दिया है किसना... तुम्हीं मेरे आराध्य हो... तुम प्रेम के विशाल स्वरूप, ईश्वरमय..मेरे मंदिर, मेरे चर्च... .।
चंडीदास डायना को बाहों में लिए हुए बिस्तर पर आ गया। बाहर घोड़े की टापों का शोर था। घोड़ों पर बैठे अंग्रेज एक-दूसरे से जोर-जोर से बातचीत कर रहे थे। किचन में भोटू द्वारा सब्जी छौंकने की आवाज यहाँ तक आ रही थी। चंडीदास ने कमरे का दरवाजा बंद करते हुए तिपाई पर रखे लैंप की बत्ती उकसा दी। पीले, मरियल-से उजाले में कमरे में रखी वस्तुओं की परछाइयाँ दीवार पर पड़ रही थीं। उन परछाइयों में चंडीदास और डायना की समर्पण के लिए आतुर परछाइयाँ लैंप की लौ की तरह काँप रही थीं। अब उनके कानों में कोई शोर प्रवेश नहीं कर पा रहा था। अब अगर वे सुन रहे थे तो केवल एक- दूसरे के दिलों का धड़कना और साँसों की लयबद्ध आवाज... डायना के रोम रोम में चंडीदास बस चुका था और चंडीदास स्वयं को भूल चुका था।
काफी देर बाद टिहु-टिहु आवाज से दोनों सचेत हुए। कॉटेज के बाहर खुबानी के पेड़ पर टिटहरी ने पँख फड़फड़ाए। अपने को समेटती डायना के कान के पास मुँह लाकर चंडीदास फुसफुसाया-”तुम खुश तो हो न राधे... ... “
“और तुम? मेरे चंडी... “
चंडीदास ने डायना को स्वेटर पहनाते हुए कहा-”मुझे तो अपने नसीब से ईर्ष्या होने लगी है।”
घबराकर डायना ने उसके मुँह पर हथेली रख दी।
बाहर डाइनिंग रूम में भोटू ने कैंडिल नाइट डिनर लगा दिया था। सब्जी का डोंगा खोलते हुए चंडीदास ने खुशबू ली-”अरे... ये तो बिरयानी है... गुच्छियों की बिरयानी... “
“और गाँठगोभी का शोरबा... “ भोटू ने प्लेटें लगाते हुए कहा।
“वाह... भई, मुझे तो बहुत भूख लगी है।” और फुर्ती से चंडीदास ने बिरयानी से भरी चम्मच मुँह में रखी और तुरंत ही मुँह खोलकर सी... सी... करने लगा। डायना खिलखिलाई-”मुँह जल गया न।”
सुबह से हलकी-हलकी बूँदाबाँदी ही रही थी। कॉटेज की टीन की छत समवेत स्वरों में एक बड़ा प्यारा-सा शोर पैदा कर रही थी। डायना ने आईने में अपना चेहरा देखा। चंडीदास के भरपूर प्यार ने उसके चेहरे की खूबसूरती में एक आकर्षक लुनाई-सी ला दी थी जो टॉम कभी नहीं ला पाया था। ओह, इस मोहक माहौल में वह भी किसे याद कर रही है। वह तो चेहरा सँवारने आईने के सामने आई थी। आज उसके चंडी का जन्मदिन है। सुबह सबसे पहले शुभकामना उसी की होगी जब चंडी जागेगा। उसने भोटू से बाहर बगीचे में खिला सुर्ख गुलाब तोड़ लाने को कहा था। भोटू उसके हर आदेश पर फौजियों की तरह सैल्यूट मारता था। बूँदाबाँदी के संग तेज हवाओं के झोंकों में देवदार के पेड़ बड़ी गंभीरता से हिल रहे थे और उनकी टूटी पत्तियों पर जो लॉन की घास पर तमाम फैली थीं भोटू के जूते पहने पाँव चर्र-मर्र बज रहे थे।
“बाहर बहुत सरदी है, दरवाजे बंद रखने पड़ेंगे... मैं कमरा भी गर्म किए देता हूँ।” डायना के हाथ में लाल गुलाब देते हुए भोटू ने कहा और दरवाजे बंद करने लगा। खिड़कियों के पल्ले हवाओं में खड़खड़ा रहे थे। एक अजीब-सा शोर... लेकिन भला-भला सा... ।
चंडीदास अँगड़ाई लेते हुए उठा तो डायना ने फूल उसके आगे कर दिया-”जन्मदिन मुबारक हो।”
चंडीदास हतप्रभ था... जन्मदिन की शुरुआत इस तरह? ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ... उसने फूल लेकर चूम लिया। डायना ने झुककर उसके माथे को चूमा-”ईश्वर तुम्हारी हर आकांक्षा पूरी करे।”
“मेरी आकांक्षा तुम हो राधे।” और डायना के दोनों हाथों की अंजलि में अपना चेहरा दबा दिया उसने।
कलकत्ते में होता तो माँ नया पायजामा कुरता जिद करके पहनाती और काली माई के मंदिर में दर्शन करने को ले जातीं... रिश्तों के साथ ही जैसे सब कुछ बदल जाता है। अब यहाँ वह डायना के संग है जिसे वह अपनी जीवनसंगिनी, अपनी परिणीता मान चुका है। सामाजिक मान्यता तो नहीं मिली है पर दिल के बंधन से बड़ा और कोई बंधन नहीं है। यह केवल बरसाती नदी का उफान नहीं है, यह गंभीरता से बहता वह सागर है जिसकी हर लहर को काटता, हर लहर को तराशता एक समर्पित मुकाम है जहाँ आकर फिर कहीं और जाने को रास्ते शेष नहीं बचते... इसी मुकाम से जिंदगी अपने अर्थ खींच लाती है।
आज किचन में भोटू के साथ डायना भी थी और उसके निर्देशन में विशेष प्रकार का ब्रेकफास्ट तैयार हो रहा था। मदद के लिए भोटू की माँ भी आ गई थी जिसकी एक भी बात डायना को समझ में नहीं आ रही थी।
ब्रेकफास्ट करते हुए चंडीदास ने घूमने जाने के लिए डायना को तैयार करना चाहा पर डायना खराब मौसम से बुझ-सी गई थी। चार बजे तक प्रोफेसर ऑल्टर भी आ जायेंगे। आज वह चर्च भी जाना चाहती थी चंडीदास के लिए प्रेयर करने, पर न जाने कहाँ, कितनी दूर होगा चर्च? मौसम ने भी क्या रंग दिखाए... शिमला में जब वे दोनों थे तो बर्फ गिर रही थी, कुफ्री में गाढ़ी धुँध का समंदर था। और यहाँ बरसात के संग तेज हवाएँ भी... क्या पता प्रोफेसर ऑल्टर आ भी पाएँगे। आज सुबह से ही सामने वाली सड़क सूनी पड़ी है। आवाजाही नहीं के बराबर है।
आशा के विपरीत प्रोफेसर ऑल्टर ठीक चार बजे आ गए... “अरे, हम लोग तो सोच रहे थे कि... कि शायद मैं नहीं आ पाऊँगा। पर अध्यापक हूँ न... समय का पाबंद... हम यही सीख तो अपने विद्यार्थियों को देते हैं।” और हाथ में पकड़ा बड़ा-सा फूलों का गुच्छा ग्रीटिंग कार्ड सहित चंडीदास की ओर बढ़ाया-”हैप्पी बर्थ डे टू यू हैंडसम।”
“हैंडसम!!” चंडीदास ठहाका मारकर हँसा। सभी कमरे में सोफों पर आ बैठे।
“तो... कैसा लगा कुफ्री, नालदेरा... “
“हम तो मौसम के मारे हैं... वो भी बदलते मौसम के।”
इस बार प्रोफेसर जोर से हँसे। उनकी हँसी में जो आत्मीयता थी उसने कमरे के सूनेपन को खुशनुमा बना डाला था।
“चलिए... अब मौसम परेशान नहीं करेगा। बाहर मोटर खड़ी है... थोड़ा घूम आते हैं।”
“हाँ... क्यों नहीं। चंडीदास भी घूमने के मूड में है।”
बाहर निकलते ही भीगी हवाओं ने दबोच लिया। लेकिन अब चंडीदास को ठंड उतना परेशान नहीं कर रही थी। यह इतने दिनों से यहाँ रहने की वजह थी या डायना का ईश्वरीय प्रेम... चंडीदास सोचता रह गया। मोटर चल पड़ी। लगा जैसे हवाओं की रफ्तार कम हुई है। आसमान में तेजी से उड़ते बादल अब जगह-जगह नीले आकाश को छोड़-ठिठके से खड़े हैं... मानो सुस्ता रहे हों। गोल्फ के मैदान में कुछ अंग्रेज गोल्फ खेल रहे थे। उनकी पत्नियाँ कुत्तों को जंजीर से बाँधें आस-पास टहल रही थीं। खुबानी और सेब के पेड़ों की आड़ में एक अंग्रेज दम्पति आलिंगनबद्ध एक-दूसरे को चूम रहे थे। शायद दम्पति नहीं हों वे... दोनों कमसिन, चुलबुले से थे। वे एक-दूसरे को चूमते, फिर खिलखिलाते हुए दौड़ते और फिर आलिंगनबद्ध हो जाते। डायना और चंडीदास ने एक-दूसरे की ओर देखते हुए नजरें झुका लीं।
“मि. सेनगुप्ता... आप तो कलकत्ता लौटते ही अपनी क्लासेज में जुट जाएँगे? सच है कलाकार के पास वक्त ही नहीं रहता। जिंदगी छोटी पड़ती है। वह तो हम जैसों के लिए लंबी है, काटे नहीं कटती।” प्रोफेसर ऑल्टर ने आर्द्रता से कहा।
“हम चाहें तो भी भाग्य का लिखा बदल नहीं सकते। आप भाग्य पर यकीन करते हैं प्रोफेसर?”
“करने लगा हूँ... जब से मेरी बीवी मुझसे बिछुड़ी है।” कहते हुए प्रोफेसर ने भागते हुए चीड़ के दरख्तों को नजरों से साधना चाहा... एक कड़वी स्मृति, एक उद्भ्रांत-सी कचोट... प्रोफेसर की आँखों में जैसे सारे दृश्य ताजा थे... वह काट डालने वाला सच... वह पिता बनने की खुशी का चूर-चूर होना। वह प्रसव पीड़ा में तड़पती अपनी जीवनसंगिनी का अचानक शांत हो जाना... ।
भीगी घास पर तीनों टहलने लगे... पैरों तले चीड़ की पत्तियाँ दब-दब जातीं। हवा में झुकी हुई खुबानी की शाख पर पत्तियाँ काँप रही थीं। धीरे-धीरे शाम का सुनहरापन फिजाओं में तैरने लगा... फिर अंधेरा, लैंपपोस्ट जल उठे।
“वो देख रहे हैं मि. सेनगुप्ता... उस लैंपपोस्ट को... लगता है जैसे ठंडी रोशनी बिखेर रहा है पर हकीकत में वह अंदर से जल रहा है। वैसे भी चीजें जैसी दिखाई देती हैं वैसी होती नहीं।” प्रोफेसर ऑल्टर के स्वरों में पीड़ा ही पीड़ा थी... जलते रहने की पीड़ा।
“आपको सब कुछ भूलना होगा प्रोफेसर... जिंदगी को बोझ मत बनाइए... ईश्वर की मर्जी के आगे किसी का जोर नहीं।” चंडीदास ने उनकी पीठ सहलाई।
“चलिए... कॉलेज चलकर आपको बढ़िया-सी गजल सुनाती हूँ।” डायना ने विषय बदलते हुए कहा।
मोटर वापसी की राह पर थी। मौसम खुशनुमा हो चला था और सड़क पर तफरीह के लिए निकले लोगों की भीड़ उमड़ आई थी। एक भटकता हुआ पंछी सामने कुंड में भरे पानी में सिर डुबोकर पंख फड़फड़ाता घोंसले की ओर उड़ चला... जहाँ पहले से अन्य पंछियों का शोर था।
कॉटेज का ड्राइंग रूम... डायना और चंडीदास दंग थे। उन्हें वापिस लौटने में लगभग ढाई-तीन घंटे लगे होंगे और इधर भोटू ने कमरे का कायाकल्प कर दिया था। चारों कोनों में फूलों का अंबार दीवार पर “हैप्पी बर्थ डे टु डियर चंडीदास सेनगुप्ता' क्रेप कागज की पतली-पतली पट्टियाँ काटकर लिखा गया था। मेज पर छोटी-सी केक और आसपास मोमबत्तियाँ...
“ओह माई गॉड... “ कहते हुए डायना ने प्रोफेसर की तरफ देखा।
“आप तो बड़े-छुपे रूस्तम निकले।”
“मैं तो कलकत्ते में ही समझ गया था कि आप दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं... “
अब की बार चौंकने की बारी चंडीदास की थी... तो क्या इसीलिए इधर बुलाने की दावत दे डाली थी प्रोफेसर ने।
“प्रेम ईश्वर का दिया वरदान है। मैं अब तक तरस रहा हूँ। मेरा घर ईश्वर ने उजाड़ दिया। मेरा देश भी... हाँ देश भी। हालात ने पराया कर दिया। कभी-कभी होमसिक हो जाता हूँ फिर अपने ही ऊपर ताज्जुब होता है कि जब होम ही नहीं है तो सिकनेक कैसी?” प्रोफेसर के चेहरे पर पीड़ा की घनीभूत परतें थीं जो किसी भी हालत में टस से मस होने का नाम नहीं ले रही थीं।
“आपने इतना अच्छा इंतजाम किया है प्रोफेसर... आज मैं आपके साथ ड्रिंक जरूर लूँगा।”
प्रोफेसर मुस्कुराए-”रियली? थैंक्स... .लेकिन पहले केक काटिए।”
डायना ने दियासलाई की तीली सुलगाई... मोमबत्तियों की बत्ती पीली लौ फेंकने लगी... लौ की फीकी रोशनी के इर्द-गिर्द कमरे का अंधेरा सिमटने लगा। एक घनी नीरवता चारों ओर घिरने लगी।... चंडीदास ने केक काटकर एक टुकड़ा डायना को खिलाया फिर प्रोफेसर को। प्रोफेसर जन्मदिन का गीत अपनी मोटी आवाज में गाने लगे। नीरवता में जैसे एक जीवंत हलचल जाग उठी।
गिलासों में बीयर खुद प्रोफेसर ने निकाली और डायना और चंडीदास को देते हुए डायना से कहा-”आपने गजल सुनाने का वादा किया था।”
भोटू हारमोनियम ले आया। कुछ ही पलों में सुर सध गए और डायना की मीठी आवाज फिजा में तैरने लगी। भोटू भी दरवाजे से लगा खड़ा रहा मंत्रमुग्ध-सा। प्रोफेसर ने आँखें मूँद लीं और चंडीदास लाड़ से डायना को निहारने लगा। लगा जैसे पल ठहर गए हैं... और चकित हैं गीत की गति को देखकर कि हमसे भी अधिक तेजी से समूचे ब्रह्मांड को यह कौन जीते ले रहा है। इस नीरव खामोशी को तोड़ता जो पहाड़ी इलाके में शाम होते ही बरपा हो जाती है।
भोटू ने डिनर बहुत स्वादिष्ट बनाया था, वैसे भी चंडीदास को नशा हो गया था। एक तो वह पीता नहीं था दूसरे माहौल भी नशीला था। बीच-बीच में प्रोफेसर के चुटकुले... लगता नहीं था कि दुख के पारावार में आनंद की उर्मियाँ भी उठ सकती हैं।
रात पूरे शबाब पर थी। यह चंडीदास और डायना की इस पहाड़ी इलाके की आखिरी रात थी। कल उन्हें कलकत्ता लौट जाना है। पूरा कॉटेज खामोशी में दुबका था। प्रोफेसर दूसरे कमरे में कब के सो चुके थे। भोटू भी... क्योंकि किचन से आती खटर-पटर की आवाज भी थम चुकी थी। खिड़की के शीशे पर चाँद की दस्तक थी जो यह जता रहा था कि उनके यहाँ आगमन से वह जितना खुश था उनके जाने से उतना ही हर दिन तिथि... तिथि घटा है और अब आधा रह गया है। अष्टमी का चाँद... यानी पूरे आठ दिन... ... प्रेम से भरे आठ दिन... .आज भी नशे की गिरफ्त में जब चंडीदास ने डायना को आगोश में भरा तो कमरे की खामोशी में एक सिसकारी-सी तिर गई... लग रहा था जैसे वे अलग-लअग दो व्यक्तित्व नहीं है... एक हैं... एक दूसरे में समाए... अब अगर एक खुश है तो दूसरा भी, एक पीड़ित है तो दूसरा भी, अनिर्वचनीय सुख में डूबे... समर्पण का सुख जो पीड़ा भी लिए है। पर यह पीड़ा कचोटती नहीं। अपने में अथाह सुख डुबोती है... ज्वार उमड़ रहा है। चंडीदास के प्रेम का ज्वार जो अपने चाँद को छू लेने को आतुर है। यह आतुरता, जिसमें दर्द है पर वह दर्द आनंद से उपजा है इसलिए दर्द रह कहाँ जाता है...
आधी रात के किसी ठहर गए पल में चंडीदास डायना से अलग हुआ... डायना कुनमुनाई लेकिन अगले ही पल गहरी नींद में खो गई। उसके उघड़े बदन को अच्छी तरह कंबल से ढँक कर चंडीदास ने भरपूर अंगड़ाई ली। पूरा पहाड़ खामोशी में डूबा था पर उस खामोशी में भी हवा डालियों को झुलाती, झुमाती अपने होने का एहसास करा रही थी। वैसे भी जंगल चुप नहीं रहते। जंगल की नीरवता में भी प्रकृति की आवाजें नीरवता के हलके झीने आवरण पर सलवटें बिछा जाती हैं मानो कोई दबे पाँव यह जता रहा हो कि तुम अकेले कहाँ हो, मैं हूँ न तुम्हारे साथ।
समय बग्टुट भागा जा रहा था। आठ दिनों के बेशकीमती अनुभवों को लिए चंडीदास और डायना कलकत्ता लौट रहे थे। उन अनुभवों में प्रेम के कोमल स्पंदन थे तो प्रोफेसर ऑल्टर के जीवन की वेदना... कुफ्री में पंडित के परिवार के साथ घटी भयंकर त्रासदी की पीड़ा भी थी। दमयंती और लाजवंती का मासूम चेहरा अक्सर आँखों के आगे मुस्कुराता रहता, जैसे कह रहा हो-”मेमसाहब... क्या हमारे साथ इंसाफ होगा... आपकी कौम के लिए क्या हम गुलाम मात्र खिलौना हैं?” और डायना बेचैन हो उठती। जानती है सिवा कसमसा कर रह जाने के वह और कुछ कर नहीं पाएगी।
प्रोफेसर ऑल्टर उसे चर्च ले गए हैं। उसका सिर प्रार्थना में झुक गया हैं-”हे प्रभु, उन बच्चियों को एक सुखी जिंदगी मिले... उनके हृदय का संताप हर लो प्रभु और मेरे चंडी को हर कदम पर सफलता मिले... यही कामना है मेरी।”
“आमीन... “ फादर ने बाइबिल बंद कर दी। ईसामसीह की मूर्ति के नीचे ढेर सारी मोमबत्तियाँ जल रही थीं जिसके प्रकाश में मूर्ति तेजोमय हो उठी थी। डायना ने दुबारा आँखें मूँदी और पास खड़े चंडीदास के हाथ में अपना हाथ दे दिया।
प्रोफेसर ऑल्टर की मोटर ढलान उतरने लगी। जंगली गुलाबों के नाटे कद के पौधों पर गुलाबी, लाल और सफेद फूल बेशुमार खिले थे। स्ट्रॉबेरी की लतरें दूर-दूर तक फैली थीं। ढलान के छोर पर जहाँ देवदार के पेड़ जिनकी डालियाँ शमादान लगती थीं... खामोश खड़े थे। मोटर से उतरकर दोनों जीप में जा बैठे। जीप के स्टार्ट होते ही प्रोफेसर ने गर्मजोशी से हाथ मिलाकर दोनों को विदाई दी... “अच्छा मिसेज ब्लेयर, मिस्टर सेनगुप्ता... ईश्वर ने चाहा तो दुबारा मुलाकात होगी।”
“जरूर... और बहुत जल्दी ही मैं आपको कलकत्ता बुलाऊँगा।”
जाती हुई जीप देर तक प्रोफेसर की नजरों में समाई रही। जब वे लौटे तो सूना कॉटेज मुँह बाए उन्हें समा लेने को आतुर था... अब न जाने कितना समय लगेगा उन्हें वापस अपने रूटीन में आने में... ..।
डायना को उसके बंगले पर उतारकर जीप चंडीदास के घर के सामने जाकर रुकी। घर बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। जीप की आवाज के साथ ही दरवाजा खुला और मुनमुन चिल्लाई-”दादा आ गए।”
वह जीप से कूदा... खुशी का अतिरेक आँखों से छलका पड़ रहा था। शिमला में बिताए वे दस दिन उसके लिए दस जन्म जैसे थे। जैसे वह हर दिन जन्मा हो और हर दिन डायना के प्यार में सराबोर एक पतंगे की तरह रात होते-होते अलविदा कहता रहा हो। बाबा माँ के पैर छूकर वह कुर्सी पर बैठ गया। उसके चेहरे की चमक स्पष्ट बता रही थी कि वह ऊर्जावान होकर लौटा है।
“कैसी रही ट्रिप?” बाबा ने उसके चेहरे को गौर से देखते हुए पूछा।
“बेहद खूबसूरत जगह है... जैसे स्वर्ग। वहाँ समय का बीतना पता ही नहीं चलता।”
“हाँ... लेकिन मौसम बदलता रहा।”
“आपने अखबार में पढ़ा होगा... पर बाबा... यह तो पहाड़ की खासियत है। कभी बर्फ, कभी धुँध, कभी बारिश, कभी तूफान... “
मुनमुन चाय बना लाई थी।
“गुनगुन कहाँ है? दिखाई नहीं दे रही।”
“वह दिखाई ही कब देती है।” बाबा ने रूखेपन से कहा।
माँ ने तेज आवाज करते हुए चाय सुड़की-”तुम फिर शुरू हो गए। जवान लड़की के साथ ज्यादा टोकाटाकी नहीं करना चाहिए।”
“वह जवान है... इसीलिए तो चिंता है।”
नहा-धोकर नंदलाल के पास जाने से पहले चंडीदास बाबा से कहता गया था कि आज ही पंडित से वास्तु पूजा का मुहूर्त निकलवा लें। गांगुली महाशय को पहले ही बतला दिया था कि उद्घाटन उन्हें ही करना है। अब बस समय बताना है।
नंदलाल सड़क के मोड़ पर ही मिल गया-”मैं तो तुम्हारे ही पास आ रहा था।” फिर चंडीदास का हाथ शरारत से दबाकर बोला-”लगता है बाबू मोशाय पर पहाड़ का जादू छा गया। चेहरा देखो... हैंडसम लग रहे हो यार... “
जवाब में चंडीदास ने भी नंदलाल की पीठ पर पर धौल जमाई-”हुई न जलन?”
“क्यों नहीं... यहाँ तनहा रहते-रहते आजिज आ गए... लगता है यूँ ही बिसूरते चले जायेंगे दुनिया से।”
सहसा चंडीदास गंभीर हो गया-”नंदू... तुम सब जान गए हो क्या? सच-सच बताना।”
दोनों ने अपनी साईकिलें डायना के बंगले की ओर मोड़ दी थीं। सड़क पर वाहनों की आवाजाही थी। पैदल रिक्शा, घोड़े, फिटन, जीप... अंग्रेज कर्मचारियों की लाल काली वर्दियों पर धूप अटक गई थी। बंगलों की शुरुआत में गुलमोहर के पेड़ों की छायाएँ चित्रकारी-सी कर रही थीं। डालियों पर पंछियों का शोर माहौल में संगीत भर रहा था। नंदलाल ने जवाब दिया-”हाँ चंडी... मैं जान गया हूँ तुम्हारे और डायना के बीच के रिश्ते को... और तभी से चैन खो चुका हूँ। अब न जाने क्या हो... टॉम बहुत खतरनाक है वह हिंदुस्तानियों से घृणा करता है।”
तब तक डायना के बंगले का फाटक आ चुका था। चंडीदास ने नंदलाल के कंधे पर हाथ रखा-”तुम तो मेरे साथ हो न?”
“हमेशा... निश्चिंत रहो।” नंदलाल ने जैसे धीरज की पोटली थमा दी हो दीनहीन चंडीदास के हाथों में।
बोनोमाली ने दरवाजा खोला... “अरे आप?” और अदब से उन्हें रास्ता दिखाते हुए अंदर ले आया। सोफे पर डायना पहले से बैठी थी... हाथों में किताब। उन्हें देख किताब बंद कर मुस्कुराई-”वेलकम... मैं अभी याद ही कर रही थी।”
प्यालियों में चाय और साथ में गरमागरम पकौड़े आ गए। एक बार फिर संगीत अकादमी के प्रोजेक्ट पर चर्चा हुई। दस दिनों से बंद प्रोजेक्ट के पन्ने खोले गए। तीनों के बीच तर्क-वितर्क होते रहे कि शाम हो गई। सड़कों पर अंधेरा सिमटने लगा। लैंपपोस्ट जल उठे।
“शुक्रवार को सुबह नौ बजे उद्घाटन के बाद वास्तु पूजा रखी है। समय तब्दील भी हो सकता है क्योंकि बाबा ने पंडित से अभी बात नहीं की है लेकिन कर ली होगी अब तक।” चंडीदास ने उठते हुए कहा। नंदलाल प्रोजेक्ट की फाइल लिए बाहर चला गया। शायद चंडीदास और डायना को तनहाई देना चाह रहा हो। नंदलाल के जाते ही डायना चंडीदास की ओर बरसाती नदी-सी उमड़ी-”तुम्हारा सपना अब सच हो जाएगा किसना।”
“तुम्हारा नहीं हमारा... और उस सपने में सातों रंग होंगे राधे... प्यार अनुराग के सातों रंग।” चंडीदास ने डायना को चूमा ही था कि शरारती नंदलाल ने साईकिल की घंटी बजाई। चंडीदास हँसते हुए बाहर निकल आया।
मुनमुन के गुरु मुकुट गाँगुली को मुनमुन अपने साथ रिक्शे में लिवा लाएगी, ऐसा तय हुआ। बाबा ने मुहूर्त का समय सुबह साढ़े नौ का बताया। इसका मतलब है कि उद्घाटन नौ बजे हो जाए फिर वास्तु पूजा आरंभ हो। चंडीदास के दस पंद्रह दोस्त, मुनमुन के साथ संगीत सीख रहे ग्रुप की छह लड़कियाँ और गुनगुन के कुछ कॉमरेड दोस्त... कुल मिलाकर तीस लोगों के चाय-नाश्ते का प्रबंध डायना की ओर से... साथ में मुकुट गाँगुली के लिए फूलों की माला, शॉल और नारियल भी। डायना ने उस दिन सफेद पीले प्रिंट की बहुत खूबसूरत पोशाक पहनी थी। पारो ने उसके माथे पर लाल बिंदी लगा दी थी। जिसके कारण उसका संगमरमरी चेहरा गुलाबी उजास से दमक उठा था। ब्लॉसम पूँछ खड़ी किए उसके साथ-साथ गेट तक आई... उसने ब्लॉसम को गोद में उठा लिया।
“इसे भी ले चलेंगी क्या?”
“हाँ मोटर में बैठी रहेगी। एक डेढ़ घंटे में तो सब निपट ही जाएगा।”
“पूजा में देर लगेगी... यह उतनी देर नहीं बैठ पाएगी मोटर में।” पारो पुरखिन की तरह बोली।
बोनोमाली ने ब्लॉसम को डायना की गोद से ले लिया-”हम बाद में आयेंगे मेमसाहब... ..साईकिल से आ जायेंगे। इसे दूध-नाश्ता कराकर।”
“ठीक है।” डायना पोशाक का घेर हाथ में उठाए मोटर में बैठ गई। मोटर कैमेक स्ट्रीट की ओर तेजी से दौड़ने लगी। घड़ी में पौने नौ बज चुके थे। डायना इस वक्त तक वहाँ पहुँच जाना चाहती थी पर उसे लगा वह समय को नहीं पकड़ पा रही है। समय पल-पल... छिन-छिन... भाग रहा है... हर तरफ से... दरख्तों के साए से... आसपास फैली सुबह की हलचल से... तह-दर-तह... धूप की किरणों में गुम होता जा रहा है समय... वह बेताब है बाबा से मिलने को, गुनगुन मुनमुन, और माँ से मिलने को अगर वक्त से पहले नहीं पहुँची तो ये सब व्यस्त हो जाएँगे... वह कैसे रोके घड़ी की सुईयाँ... चाह प्रगाढ़ थी... ठीक नौ बजे वे चंडीदास की अकादमी में पहुँच चुके थे और उसी वक्त मुकुट गाँगुली को लिए मुनमुन का रिक्शा आकर रूका। नंदलाल उन्हें अंदर लिवा लाया। दरवाजे पर लाल रिबन बँधा था।
“माँ... बाबा... ये डायना हैं।” चंडीदास ने डायना की ओर देखते हुए इशारा किया... डायना समझ गई। आज वह टॉम की पत्नी के रूप में नहीं बल्कि चंडीदास की परिणीता के रूप में माँ-बाबा से मिलेगी। खुली सघन केश राशि को लाल पाड़ की बादामी साड़ी के पल्ले से ढके माँ ने अपने पैरों की ओर झुकती डायना को बीच में ही थाम लिया और गले से लगा लिया। बाबा गद्गद थे। उन्हें सूझा ही नहीं कि डायना को पैर छूने से रोक लें... और बिल्कुल आशा के विपरीत मुनमुन ने डायना के पैर छूकर जैसे आशीर्वाद माँगा हो... “मैं जानती हूँ आप मेरे दादा की प्रेरणा हैं... उन की स्वप्न सहचरी” ... लेकिन माँगने की हिम्मत नहीं जुटा पाई मुनमुन। डायना देख रही थी चंडीदास के स्नेहिल परिवार को... इंसानियत से लबरेज... एक कलाकार परिवार... अब डायना के मन की दुविधा खत्म हो चुकी थी। उसने मुकुट गांगुली के भी पैर छुए...
“डायना ब्लेयर! बता रहा था चंडी कि तुम बहुत मधुर गाती हो।”
“जी थोड़ा बहुत... आपसे बहुत कुछ सीखना चाहती हूँ।”
“सीख तो रही हो चंडी से... ये तो बहुत विद्वान है... ये सिखाए तो फिर किसी और की जरूरत नहीं।”
मुकुट गांगुली की तारीफ से डायना गर्व से भर उठी।
रिबन काटकर मुकुट गांगुली ने अंदर प्रवेश किया। उनका स्वागत फूलों की माला पहनाकर और शॉल ओढ़ाकर चंडीदास ने किया तभी गुनगुन सुकांत के साथ तेजी से दाखिल हुई। उसके चेहरे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा रही थीं-”हो गया उद्घाटन?”
“तुम थीं कहाँ गुनगुन?” पर गुनगुन को सुनने की फुरसत कहाँ थी। उसने मुकुट गांगुली के पैर छुए और जाकर डायना से लगभग लिपट-सी गई-”बाप रे, कब से मिलने की इच्छा थी आपसे... सुकांत, यही हैं डायना ब्लेयर।”
सुकांत ने अभिवादन किया। डायना के तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि छोटी गुनगुन है या मुनमुन। मुनमुन शांत, लजीली, गुनगुन हड़बहाडट से भरी... पुरखिन-सी सारी जिम्मेवारियों को ढोती... एक अलग व्यक्तित्व... आँखों में ज्वलंत मिशन... जैसे मंजिल पाकर ही दम लेना है। डायना से मिलकर सुकांत ओर गुनगुन चाय-नाश्ते का प्रबंध देखने सामने वाली मेज की ओर चले गए। कमरे में बिछी दरियों पर लोग आकर बैठने लगे। पंडित जी ने वास्तु पूजा आरंभ कर दी थी। पूजा में माँ-बाबा बैठे थे। चंडीदास ओर नंदलाल द्वार पर खड़े मानो अपने स्वप्न महल की पहली सीढ़ी चढ़ रहे थे... डायना भी वहीं... उन्हीं के आसपास छाया-सी खड़ी थी... एक संतुष्टि का भाव दोनों के चेहरे पर जबकि यह तय है कि एक समझदार व्यक्ति इस जीवन में सुखी और संतुष्ट नहीं हो सकता... डायना ने चंडीदास की ओर देखा... चंडीदास ने डायना की ओर “यह देखो यह मेरा संगीत महल है... यहाँ मेरी पोर-पोर से निकला संगीत बसता है।” फिजा में खुशनुमा सुबह की मुस्कान थी लेकिन अब जब चंडीदास अपने लक्ष्य पर पहुँच चुका है, आँखें भर आई हैं डायना की।
वास्तुपूजा के बाद संगीत वाद्य बज उठे। सभी ने बारी-बारी से गाया। चंडीदास, नंदलाल, मुनमुन और अंत में डायना को सुनने के लिए मुकुट गांगुली अधीर हो उठे। डायना यह बात अच्छी तरह सीख चुकी थी कि भारत में गुरु के प्रति विशेष आदर भाव है। अगर बातों-बातों में गुरु की चर्चा भी चल पड़ी हो तो कानों को हाथ लगाकर श्रद्धा जताई जाती है। फिर उसके गुरु, उसके प्राण तो उसके सामने थे। हारमोनियम अपनी तरफ घुमाने से पहले उसने चंडीदास के पैर छुए। एक तरलता चंडीदास की आँखों में तैर गई... तमाम दुआओं, शुभकामनाओं के फूल उसने मन ही मन डायना के ऊपर उड़ेल दिए। वह गाने लगी-”वन उपवन में, चंचल मोरे मन में, कुंज कुंज फिरे श्याम... “
मुकुट गाँगुली वाह-वाह कर उठे। गुनगुन और सुकांत नाश्ते की प्लेटें लगाना छोड़कर दौड़ते आए। मुनमुन अवाक थी... “ये इतना सुंदर गा लेती हैं?'
गीत खत्म हो चुका था लेकिन माहौल अब भी जीवंत था। थोडी देर सभी खामोश रहे फिर तालियों की गूँज ने अनिर्वचनीय आनंद और प्रशंसा की झड़ी लगा दी।
चाय नाश्ते के बाद सब लौट गए। चंडीदास के परिवार को डायना की मोटर घर तक छोड़ने आई। चंडीदास और डायना अकादमी में ही रुक गए थे।
“आज तो तुमने कमाल कर दिया राधे, सबका मन जीत लिया।”
“तुम खुश हो, मेरी जीत उसी में हैं चंडी। क्लासेज कब से शुरू कर रहे हो?”
“कल से ही... अब किस बात की देर। परीक्षा के बाद मुनमुन भी सिखाएगी।”
“हाँ... वह इस योग्य है... तुम्हारी छोटी बहन गुनगुन एक खास कैरेक्टर है चंडी... इतनी-सी छोटी उम्र में पुरखिन की तरह सोचती है।”
चंडीदास मुस्कुराया-”अभी तो कुछ ही घंटों का परिचय है तुम्हारा... आगे देखोगी कि कैसी जिम्मेवारियों से भरी है वह। शायरों की तरह महसूस करती है और बच्चों की तरह हँसती और दुखी होती है, मानो सृष्टि का सारा बोझ उसी के कंधों पर हो।”
चंडीदास ने प्लेट में से संदेश का टुकड़ा उठाकर डायना को खिलाया, “मैंने तुम्हारा मुँह मीठा तो कराया ही नहीं।”
डायना आधा टुकड़ा मुँह में दबाए आधा चंडीदास के मुँह की ओर ले गई। दोनों के मुँह में एक साथ टुकड़े गए और दोनों ने एक साथ एक-दूसरे के होठों को चूमा। अचानक गला खँखारता नंदलाल बोला-”परमीशन है अंदर आने की।” और तीनों की हँसी देर तक कमरे में गूँजती रही।