टेम्स की सरगम / भाग 8 / संतोष श्रीवास्तव
दो दशकों का गुजर जाना, बीत चुके लम्हों के मलबे पर एक नए वक्त की शुरुआत शायद यही कहलाती हो। बीस वर्षों के लंबे समय में रागिनी ने बिजनेस की जिन ऊँचाइयों को छुआ वह विस्मय में डाल देती है। वह एक सफल व्यापारी की श्रेणी में अपनी धाक जमा चुकी थी। बीच के दिनों में जूली एक हंगेरियन से शादी कर ऑस्ट्रेलिया जा बसी थी। गोर्डन को लकवा मार गया था और उसे एक बेहतरीन अस्पताल में भरती कराके रागिनी ने उसके लिए एक नर्स मुकर्रर कर दी थी। जूली की जगह अब ट्वायला थी और गोर्डन की जगह ट्वायला का पति रिचर्ड लेकिन ट्वायला में वो बात नहीं थी जो जूली में थी। जूली निःस्वार्थ भाव से रागिनी की सेवा करती थी जबकि ट्वायला हर तरह की सेवा का मूल्य चाहती थी। अलबत्ता रिचर्ड गोर्डन से अधिक मेहनती और रागिनी का शुभचिंतक था। उसी की सलाह पर रागिनी ने एक अनाथ लड़की गोद ले ली थी। चालीस वर्षीय रागिनी के लिए यह बड़ा उत्तेजक अनुभव था जब वह चार वर्षीय शिशु की माँ बनी थी। एक भव्य आयोजन कर उसने शिशु का नाम रखा रति... रति रागिनी ब्लेयर। यूँ बेटी के नाम के साथ पिता के नाम की जगह अपना नाम जोड़कर रागिनी नए कर्त्तव्यबोध से भर उठी।
“डायना विला के मेन गेट पर मुनमुन के कहे अनुसार फूलों और पत्तों की तोरन बाँधी गई। बरामदे के संगमरमरी फर्श पर ट्वायला ने रंग-बिरंगी चॉक से बहुत खूबसूरत हिंदुस्तानी तरीके की अल्पना काढ़ी। अल्पना के चारों ओर दीपक जलाकर रखे और इस तरह रति का नए जीवन में पर्दापण कराया गया... देर रात तक ऑरकेस्ट्रा बजा... उस रात रागिनी ने आमंत्रित मेहमानों के सामने यह घोषणा की कि वह अपनी ममा डायना ब्लेयर के नाम डायना वेलफेयर ट्रस्ट की स्थापना करने जा रही है जिसका उद्देश्य होगा-शिक्षा और प्रकाशन के क्षेत्र में जरूरतमंदों की मदद करना तथा योग्य विद्यार्थियों को स्कॉलरशिप देना। इसके अलावा वाइल्ड लाइफ फंड और कलकत्ते के मदर टेरेसा आश्रम में नियमित दान देना भी उद्देश्यों में शामिल होगा।
अब रागिनी नियमित चर्च जाती है और अपनी बेटी के लिए प्रार्थना करती है। वह मानती है कि ईश्वर बड़ा दयालु है। ममा पापा के बाद उसने दीना और जॉर्ज जैसे अभिभावक दिए... फिर जूली और गोर्डन और अब ट्वायला और रिचर्ड... ..जिंदगी का अकेलापन दूर करने के लिए रति जैसी बिटिया और जीने को सार्थक करने के लिए कृष्ण पर रिसर्च की प्रेरणा... क्या वह प्रभु के इन उपकारों को भुला पाएगी? उसका रिसर्च वर्क भले ही कछुए की चाल से पूरा हुआ हो पर इस दौरान उसे जो आनंद और तृप्ति मिली है वह बखान से बाहर है। पर अब उससे इन्तजार नहीं होता। अब उसे भारत जाना है और कृष्ण की जन्मभूमि देखना है।
मुंबई के सहारा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर मिस रागिनी रोज को रिसीव करने हिंदुस्तान में उसकी कंपनी के डायरेक्टर मिस्टर स्मिथ अपनी पूरी टीम के साथ आए थे, फूलों का शानदार बुके लिए। रागिनी के रुकने का इंतजाम ताजमहल होटल में किया गया था। दिसम्बर के खुशगवार मौसम में ममा पापा के परवान चढ़े प्रेम की नगरी रागिनी को इस कदर भायी कि वह कम से कम हफ्ता भर तो यहाँ गुजार ही सकती थी लेकिन मुनमुन का आग्रह था कि वह शीघ्र कलकत्ता आए। वे लोग बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे हैं।
रात की फ्लाइट से रागिनी कलकत्ता आ गई। मुनमुन और सत्यजित को देख वह अपने को रोक नहीं पाई और मुनमुन की वात्सल्यमयी बाहों में समा गईं। चेहरे पर अनवरत बहते आँसुओं की धार दिल की हालत बयाँ कर रही थी। मुनमुन ने भी अपनी छलक आई आँखों को रागिनी के कंधों पर बह जाने दिया। सत्यजित व्याकुल हो उठा -
“अरे... इतना क्यों रो रही हैं आप दोनों?”
“यह पिता के घर आने के आँसू हैं सत्य, जिसे सिर्फ लड़कियाँ ही समझ सकती हैं।”
“हाँ बुआ... मैं उस आनंदलोक में हूँ जिसका अनुभव सिर्फ मैं ही कर पा रही हूँ।”
कार में बैठते-बैठते जैसे रागिनी ने अपने आनंदलोक की आँखों-आँखों में ही सैर कर ली। जब सूरज अपने जादुई रंगों से पूर्व दिशा को पहले सिलेटी फिर सिंदूरी करने लगा तब सत्यजित और मुनमुन के बहुत ही कलात्मक बंगले में रागिनी ने प्रवेश किया। दरवाजे पर अखरोट की लकड़ी की नक्काशीदार नेम प्लेट पर लिखा था... मुनमुन और सत्यतिज का घर... पिछले पचास वर्षों से दोनों बिना किसी सामाजिक रिश्ते के एक साथ रहते हैं लेकिन जिनके नजदीक आकर तमाम सामाजिक रिश्ते खोखले सिद्ध हुए हैं... मुनमुन और सत्यजित उम्र के चौरासी वसंत देख चुके हैं लेकिन अब भी दोनों में जिंदादिली भरपूर है। तड़के सुबह उठकर सत्यजित चाय बनाता है और सोई हुई मुनमुन को आहिस्ता से जगाता है-”उठिए, सुर साम्राज्ञी, चाय लिए बंदा हाजिर है।”
मुनमुन अंगड़ाई लेते हुए कहती है-”बंदे से कहिए, सुर सम्राज्ञी उसी के हाथों से चाय पिएँगी।”
“तो फिर पिलानी भी पड़ेगी।”
“हमें मंजूर है।”
चाय पीकर दोनों सुबह की सैर के लिए निकल जाते। आठ बजते-बजते काम वाली आ जाती। यही वक्त होता है दोनों के सैर से लौटने का। गरमागरम चाय-नाश्ते के साथ अखबार के समाचारों को लेकर दोनों में उतनी ही गरम बहस छिड़ जाती। कब बारह बज जाते पता ही नहीं चलता। कामवाली हाँक लगाती-”अब नहा लो, नहीं तो कपड़े कब धुलेंगे?”
मुनमुन ने सलवार कुरता पहनना शुरू कर दिया है। ओढ़नी हमेशा सिर पर रहती है उसके खुले बालों को ढके। पूरे शरीर पर एक भी जेवर नहीं... बस माथे पर बड़ी-सी बिंदी और दाहिनी कलाई पर घड़ी। हाँ, मुनमुन घड़ी दाहिने हाथ में ही बांधती है।
“जानती हो रागिनी... मुनमुन को हीरे, माणिक, पन्ना, मोती का बहुत शौक है। जूनून इस हद तक है कि ज्वेलर्स की दुकान के आगे गाड़ी रुकवा कर शोकेस में से निकलवा निकलवा कर हीरे-मोती देखती है, पर न खरीदती है न पहनती।”
“सत्य, वो सब मेरे लिए नहीं बने हैं तो कैसे पहनूँ? देखने में तो कोई बुराई नहीं।” कहते हुए मुनमुन की आँखें हीरे-सी चमकने लगीं। कोई यकीन करेगा कि मुनमुन अभी भी गाती है। आवाज में कंपन जरूर आ गया है पर सुर ताल में कोई गड़बडी नहीं।
“बुआ आपकी उम्र तक आते-आते हमारी तो आवाज ही गायब हो जाएगी।”
“लो सुनो सत्य... चौवन की उम्र में जो पैंतीस-चालीस की दिखती है वह हमारी बिटिया देखो हमें कितना बना रही है।”
“नहीं... सच बुआ। जवान दिखने के लिए प्यार करने वाला साथी चाहिए जो मुझे मिला ही नहीं। आधी सेंचुरी तो पार कर ली।” रागिनी का स्वर मुनमुन को भिगो गया। इस लड़की का जीवन ईश्वर ने इतना एकाकी क्यों बनाया? वरना औरतें माँ, बाप, भाई, बहन और फिर सास, ससुर, पति, बच्चे, नाती, पोतों में ही खुद को भूलकर कब बूढ़ी हो जाती हैं पता ही नहीं चलता। रागिनी को वह सब नहीं मिला... मुनमुन को भी नहीं मिला पर सत्यजित ने उसके जीवन की सारी कमियाँ पूरी कर दीं। रागिनी को तो उतना भी नहीं मिला। ईश्वर की ओर से इस अन्याय की वजह?
सत्यतिज का मुनमुन के प्रति समर्पित जीवन देख अभिभूत थी रागिनी... उसके पापा ने भी ऐसा ही प्रेम किया था ममा से... वह पापा-ममा की स्मृतियों को उनकी प्रेम नगरी कलकत्ता में साकार करना चाहती है-”बुआ में पापा की संगीत अकादमी को फिर से शुरू करना चाहती हूँ।”
“लो सत्य, बताओ इसे (रागिनी इस बात से भी गहरे अभिभूत है कि मुनमुन की हर बात सत्यजित से शुरू होती है) हम तो पूरी प्लानिंग करे बैठे हैं, बस तुम्हारा ही इंतजार था रागिनी।” और मुनमुन ने कामवाली को टेबल पर रखी नीली फाइल उठा लाने को कहा। फाइल में अकादमी की इमारत का नमूना तक तैयार था।
“यह दो मंजिली इमारत एक मारवाड़ी सेठ की है। वह इसे बेचना चाहता है। बेहद शानदार इमारत है। भव्य कमरे, हॉल... चारों तरफ चहारदीवारी... बगीचा... बड़ा-सा फाटक।” शाम को तीनों इमारत देखने गए। सौदा पक्का हो गया, कागजातों पर हस्ताक्षर हो गए। रागिनी ने चैक काटकर दे दिया... रजिस्ट्रेशन वगैरह वकील के जिम्मे सौंप रागिनी ने भर नजर इमारत को देखा और संतुष्टि की साँस ली। उस रात फाइव स्टार होटल में तीनों ने मुनमुन की ओर से डिनर लिया। वह रात अविस्मृत रात थी जब एक साथ रागिनी और मुनमुन का स्वप्न साकार हुआ था।
“बुआ... पापा ने तो संगीत चित्रकला अकादमी नाम रखा था?”
“हाँ... लेकिन यह शुद्ध संगीत की अकादमी होगी। चित्रकला शब्द हटाना पड़ेगा।
“मैंने सोचा है कि इसका नाम हो “चंडीदास संगीत केंद्र”
“वाह, अद्भुत... यह नाम तुम्हें सूझा कैसे?” मुनमुन गद्गद् थी, सत्यजित अभिभूत।
मुहूर्त पंडित से अगले महीने की किसी तारीख का निकलवाना है। तब तक कितनी खरीदारी करनी थी अकादमी के लिए। डायना और चंडीदास की तस्वीरों की पेंटिंग बनवानी थी जो हॉल की दीवार पर टंगेंगी। प्रवेश द्वार पर सरस्वती की संगमरमर की मूर्ति का मंदिर... चार फुट लंबा पीतल का दीपदान... हर कमरे के लिए गलीचे, तबले, तानपूरा, हारमोनियम... खिड़कियों पर परदे... बड़ा-सा रिसेप्शन टेबल, फोन, अलमारियाँ, किताबें, साइनबोर्ड... अखबारों में विज्ञापन छपेगा, क्लासेस शुरू होने के परचे अखबारों में रखकर बंटवाए जाएँगे। उफ, कैसे होगा सारा काम? कौन करेगा? रागिनी के पास इतना समय कहाँ? उसे इलाहाबाद का महाकुंभ मेला देखना है, कुछ दिन बिताने हैं वहाँ इसीलिए तो उसने इन दिनों भारत यात्रा का अपना टूर निकाला है। कृष्ण से जुड़े तमाम शहर, गांव मथुरा, वृंदावन, द्वारका, जयदेव का गाँव, शांतिनिकेतन लिस्ट लंबी है। समय कम... थीसिस पर छपी किताब को भी भारत के प्रमुख पुस्तकालयों में भिजवाना है।
“तुम्हारी इलाहाबाद की कल की टिकिट है। वहाँ तुम्हारी सारी व्यवस्था चौमाल जी को सौंप दी है। कलकत्ते के बड़े व्यापारी है। चौमाल जी और इनकी टीम ने कुंभ मेले में विदेशी सैलानियों के रहने-खाने की व्यवस्था का जिम्मा लिया है।”
“और इधर अकादमी का जिम्मा?”
“उसकी चिंता मत करो। हैं न कुछ संगीत के मतवाले मेरे विद्यार्थी... वो सारी खरीदारी, सजावट सब कर देंगे। तुम मुहूर्त की तारीख याद रखना बस... ।”
अब रागिनी के पास कहने को रह ही क्या गया था। बुआ ने तो जादू की तरह आनन-फानन सब इन्तजाम कर लिया था।
“आप नहीं चलेंगी इलाहाबाद?”
“मेरे जाने से यहाँ सब चौपट हो जाएगा... देखरेख तो मुझे ही करनी है।”
रात बिस्तर पर जाने से पहले रागिनी को याद आया वह कितनी महत्वपूर्ण चीज तो भूल ही गई थी बुआ को दिखाना... उसने अटैची में से काली जिल्द पर सुनहले अक्षरों में छपी अपनी थीसिस मुनमुन के सामने ला रखी। मुनमुन ने थीसिस उठाकर जो जिल्द पर छपे अक्षरों पर नजर डाली तो पन्ने पलटती चली गई। रागिनी ने यह किताब समर्पित तो डायना और चंडीदास को की थी पर आभार सबका माना था। दीना, जार्ज, मुनमुन, सत्यजित, जूली, गोर्डन का भी। गद्गद् हो मुनमुन चिल्लाई-”अरे, आओ तो सत्य, देखो तो... ओ माँ... कमाल हो गया ये तो। तुमने ये काम भी कर लिया?”
और अपने कोमल हाथों में भारी भरकम थीसिस लिए वह कॉर्निस तक आई जहाँ चंडीदास और डायना की तस्वीरें रखी थीं। थीसिस उनके सामने रखकर उसने अगरबत्ती जलाई। तब तक सज्यजित और रागिनी भी वहाँ आ पहुँचे थे। सबने हाथ जोड़े। मुनमुन बुदबुदाई-”दीदी... तुम्हारी इच्छा पूरी हुई। इसे आशीर्वाद दो कि अब कोई दुख इसे छू तक न पाए।” रागिनी, मुनमुन और सत्यजित तीनों आपस में लिपटे देर तक खड़े रहे। रात फिर कोई नहीं सोया।
कड़कड़ाती ठंड और चारों तरफ छाई धुंध में इलाहाबाद के मीलों फैले संगम तट पर संन्यासी अखाड़े के शाही जुलूस में भारी संख्या में नागाओं को देखकर अचंभित और चमत्कृत थी रागिनी। लगता था मानो धरती के विलक्षण प्राणी हैं वे। ऐसा उसने पहले कभी नहीं देखा था। इतने देश घूमी है वह पर ऐसा अद्भुत लोक पहले कहीं देखा ही नहीं। उसके साथ चौमाल जी की पत्नी पद्माजी, पद्माजी के भाई कुसुमाकर जी और उनकी दो बेटियाँ सौदामिनी और सुलेखा भी थीं। असल में चौमाल जी ने इन चारो को रागिनी की देखरेख के लिए ही भेजा था। पर वे कहते थे कि वे चारों कुंभ स्नान के लिए आए हैं। थोड़े ही अंतराल में सब घुलमिल गए थे रागिनी से।
“बाबाजी... ये कौन हैं?” रागिनी ने महंत जैसे दिखते एक त्रिपुंडधारी बाबा के पास जाकर पूछा।
महंत ने पल भर रागिनी के कंधों को ढँके सुनहले रेशमी बालों को बड़ी-बड़ी काली आँखों को और तीखे नाक-नक्श वाले रूप को देखा। वह जीन्स पर ढीली-ढाली जर्सी पहने थी और कानों पर ऊनी टोपा... गले में दूरबीन लटक रही थी और हाथों में कैमरा। देशी-विदेशी संस्कृति के मिले जुले रूप को देख बाबा मुस्कुराए-”ये नागा हैं।”
“नागा।” रागिनी ने उसी तर्ज पर दोहराया।
“हाँ, ये विदेह हैं। अपनी देह की अनुभूतियों से परे जा चुके हैं। अपनी समस्त सांसारिक इच्छाओं से मुक्ति पा ली है इन्होंने।”
महंत ने हाथ में पकड़ी रूद्राक्ष की माला के दानों को आँखों से छुआया और गले में पहन लिया। रागिनी की निगाहें रूद्राक्ष के दानों पर टिक गईं। महंत ने माला के दानों को छुआ-”ये रूद्राक्ष पंचमुखी हैं। पाँचों इन्द्रियों के दमन का प्रतीक, शांति पाने का सहज मार्ग... आप भारतीय आध्यात्म को जानती हैं?”
“मैंने पढ़ा है... महाभारत, रामायण, गीता, भागवत महापुराण... । मैंने हिंदी और संस्कृत सीखने, लिखने और पढ़ने के लिए वर्षों मेहनत की है।” रागिनी ने फख्र से कहा। उसके होठों से हिंदी के वाक्य पहाड़ी झरने की तरह बहते देखकर भी महंत को आश्चर्य नहीं हुआ बल्कि गर्व हुआ -
“तब तो आप महर्षि विश्वामित्र को भी जानती होंगी? उनकी तपस्या को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने खण्डित करके उनके अंदर कामेच्छा जगा दी थी। न वे बच पाए इस इच्छा से, न इन्द्रदेव लेकिन ये नागा साधु... इन्होंने अपनी कामेच्छा पर विजय पा ली है।”
रागिनी के मुँह से निकला-”ओह” और उसका मुँह खुला का खुला रह गया। मानो वह उन पुराणों के ऋषियों को साकार देख रही थी बल्कि उससे भी अधिक सत्य... विलक्षण... अद्भुत, आह! इतने वर्षों से अपने प्रेम के जिन स्याह पृष्ठों को उसने अपने मन के तलघर में डाल दिया था, वह सहसा फड़फड़ाने लगे। सैम ने उसे वासनापूर्ति का साधन समझ जिस नारकीय पंक में गले-गले डुबोया था, उसमें एक भी प्रेम कमल न था। उसका दिल पँखुड़ी-पँखुड़ी टूटा था।
कड़ाके की सर्दी में पूरे इलाहाबाद सहित कुंभनगर जकड़ा हुआ था।
“डुबकी नहीं लगाएँगी मैडम?” कुसुमाकरजी ने चुटकी ली।
“भाई-सा... आप भी हद करते हो। इनके लिए ये ठंड कोई ठंड है? ये तो लंदन की रहने वाली हैं।” पद्माजी ने शॉल अच्छी तरह ओढ़कर हवा के रूख में पीठ कर ली। सर्दीली हवा ने रागिनी के गाल नाक ठंडे कर दिए थे। ऊनी टोपे से कुछ जिद्दी लटें कान के पास उड़ रही थीं। सामने गंगा का ठंडा बर्फीला पानी ओर-छोर फैला था जिसमें संन्यासी अखाड़े के नंग-धड़ंग नागा साधु ईश्वर के नाम को बुदबुदाते हुए डुबकियाँ ले रहे थे। रागिनी सिहर उठी। कुंभनगर की पवित्र फिजा में महात्माओं के श्लोक गूँज रहे थे। एक भव्य दृश्य... अखाड़ों का ऐसा जुलूस जैसा एक जमाने में राजा-महाराजाओं का निकलता था। इस जुलूस की भव्य शोभा यात्रा में शामिल नागाओं और महात्माओं की एक झलक पाने को लोग घंटों से प्रतीक्षारत थे। करोड़ों की भीड़, देश-विदेश के इतने यात्री... मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम, हॉलैड आदि देशों में फैले हजारों लाखों अप्रवासी भारतीय के लिए यह महाकुंभ मानो उन्हें अतीत में विचरण करा रहा था। इसी भारत से उनके पूर्वज सौ डेढ़ सौ साल पहले इन देशों में मजदूरी के लिए ले जाए गए थे। ब्रिटिश सरकार के गिरमिटिया या मजदूर इन अनजान वीरान द्वीपों पर लंबी समुद्र यात्रा और शारीरिक यंत्रणा के बाद लाए गए थे जिसे अपने श्रम से सींचकर उन्होंने हरा-भरा बनाया था। फिर उन्हें वहीं बस जाना पड़ा था। उनकी संतानों में भी भारत की धार्मिक आस्था कूट-कूट कर भरी है। लेकिन आज उन्हें कहीं और के नागरिक हो जाना पड़ा था। वहाँ रहकर भी धर्म, संस्कृति ओर आध्यात्म की गंगा बहाए हुए हैं लेकिन रागिनी जिस संस्कृति से आई है वहाँ इन आस्थाओं का कोई मूल्य नहीं। वहाँ किसी भी नदी का ऐसा कोई संगम नहीं जहाँ नियत समय, तिथि पर मौसम के तेवर को नजरअंदाज कर डुबकी लगाई जाती हो। वहाँ कोई नागा साधु नहीं जिसने कामेच्छा पर विजय पा ली हो। बल्कि उनके लिए एक-दूसरे में लिप्त होने का सबसे शर्तिया साधन कामवासना ही है। उपभोक्तावादी, बहुउद्देशीय, शक्तिशाली देश इंग्लैंड, लेकिन इस इच्छा से अछूता नहीं... ।
हालाँकि रागिनी के लिए बेहद आलीशान तंबू की व्यवस्था की थी चौमालजी ने कुछ दूरी पर हटकर पद्माजी और उनकी दोनों बेटियों का तंबू था और उसी तंबू से सटा कुसुमाकरजी का आकार में छोटा तंबू। अगली पंक्ति अन्य विदेशी सैलानियो के तम्बुओं की थी। इन तम्बुओं में मॉरीशस से आई सुचेता थी, हॉलैंड से आई दीपा थी, सूरीनाम से आयी विशाखा थी। सुचेता के पूर्वज बिहार के रहने वाले थे जिन्हें ब्रिटिश सरकार गिरमिटिया बनाकर मॉरीशस ले गई थी। तब से सुचेता का परिवार भाई, भाभी और अविवाहित सुचेता वहीं के बाशिंदे हो गए थे। सुचेता, दीपा और विशाखा के साथ रागिनी अपनी रईसी शान बान भूल बिल्कुल आम नागरिकों की तरह घुल-मिल गई थी।
“अब तो तुम सब अपने-अपने देश की वासी हो... भारत तुम्हारे लिए विदेश है। है न?” रागिनी ने तंबू में बिछी खाट पर बैठते हुए कहा। यह तंबू सुचेता का था।
“क्यों? भारत विदेश क्यों? इससे क्या कि हम मॉरीशस में रहते हैं? हम हैं तो भारत के ही। कभी मॉरीशस आओ रागिनी। तुम्हें लगेगा जैसे तुम भारत में ही हो। वहाँ गंगा तालाब है जिसे परी तालाब भी कहते हैं। किंवदंती है कि इस तालाब की टेकरी पर रात को परियाँ आकर बैठती हैं। वैसे गंगा तालाब ज्वालामुखी के फटने से प्रगट हुआ है। हमारे पूर्वजों द्वारा लाया इसी इलाहाबाद की गंगा का जल उस पर छिड़ककर उस तालाब का नाम गंगा माँ की स्मृति में गंगा तालाब रखा गया। शिवरात्रि के दिन गंगा तालाब से काँवरों में जल भर कर मॉरीशस के शिव मंदिरों में अभिषेक के लिए ले जाया जाता है। तालाब के किनारे तेरहवें ज्योतिर्लिंग का विशाल शिव मंदिर है लेकिन द्वार के नंदी पर अगूंठे और उँगली से गोल घेरा बनाओ तो उस नन्हें से गोल से भी विशाल शिवलिंग के दर्शन होते हैं।”
“चमत्कार... और उससे भी बढ़कर अद्भुत यह कि हजारों मील दूर रहते हुए और डेढ़ सौ वर्षों से छूटे अपने देश के प्रति तुम्हारी ऐसी आस्था सुचेता।”
सर्द हवाओं संग कहीं दूर बजते ट्रांजिस्टर के गीत बिल्कुल नजदीक लग रहे थे... “गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ईबूँ... सैंया से कर दे मिलनवा... ।”
दीपा उत्तेजित हो रही थी अपने हॉलैंड की बातें बताने को-”रागिनी, तुम हॉलैंड गई हो कभी?”
रागिनी को एम्स्टरडम याद आया। समुद्र के स्तर से नीचे बसा देश जहाँ टयूलिप के फूलों और पवनचक्कियों की भरमार है और जहाँ की सड़कों पर उसने और दीना ने साईकिल चलाई थी।
“हॉलैंड में हर एक हिंदू घर में हनुमानजी की मूर्ति अवश्य मिलेगी। वहाँ काफी संख्या में भारतीय हैं, साठ से अधिक तो मंदिर हैं वहाँ। मैं अपने पति सुरेंद्र के साथ पहली बार भारत आई हूँ जबकि हमारे पूर्वज कश्मीर के निवासी थे।”
आसमान तारों से खचाखच भरा था और दीपा और सुचेता का दिल धार्मिक आस्था से... । विशाखा चुप थी उसके दिल में गंगा उमड़ रही थी। रागिनी अपने दिल को टटोलने लगी... । अकेलापन जिसे उसने सारी उम्र झेला है और जिसमें कभी-कभी प्यार से मिले धोखे की टीस जागती है आज कुंभ नगर में भी वह उस संताप से मुक्त क्यों नहीं हो पा रही है जबकि दूर-दूर तक फैले संगम तट पर तिल रखने को भी जगह नहीं है? रात गहरा रही थी लेकिन संगम तट का नजारा ऐसा था कि मानों रात ने आने से इंकार कर दिया हो। भक्ति, संगीत और साधना का संगम सँजोए बहुरंगी रोशनी से नहाए तंबू... खुले रेतीले तट... जलते अलाव एक दूसरी ही दुनिया की सैर करा रहे थे। तभी दीपा के पति सुरेंद्र माचिस की डिब्बी पर सिगरेट ठोकते हुए आए... कुरते, पायजामे में बेहद खूबसूरत... कश्मीरी टच देते सुरेंद्र ने आते ही बताया-”दीपा, कल यहाँ एक संगोष्ठी होने वाली है। “भारतीय मूल के अप्रवासी भारतवंशी' नाम है उस संगोष्ठी का। उसमें सभी विदेशों में बसे भारतीय भाग लेंगे।”
“तुम चलोगी रागिनी?” दीपा ने चंचलता से पूछा।
“रागिनी लंदन से आई है, अंग्रेज हैं। बाइ द वे आपका नाम शुद्ध भारतीय नाम है, कैसे?” सुरेंद्र ने मन में उठे संशय का समाधान करना चाहा।
गंगा माँ के सामने जब जीवन खुली किताब है तो इन सबसे क्या छुपाना?
“मैं भारतीय ही हूँ। मेरे पिता बंगाली हिंदू थे और माँ अंग्रेज।” रागिनी ने निर्द्वन्दता से कहा और फिर ठंडी साँस ली।
“आज हमारे साथ डिनर लोगी?” विशाखा भावविभोर थी। डिनर का इंतजाम उसी के तंबू में किया गया था। सब गोल घेरा बनाकर बैठ गए। पत्तलों के ढेर से सबने अपने-अपने लिए दोने और पत्तलें चुन लीं। रागिनी के सामने जब विशाखा ने पत्तल बिछाई तो वह आश्चर्य से उसे उलट-पलट कर देखने लगी। सुचेता ने पत्तल पर पानी छिड़ककर रूमाल से पोछा-”ये पत्तलें पलाश के पत्तों को जोड़कर बनाई गई हैं। पलाश होली के त्यौहार के समय फूलता है। चटख लाल रंग के काली डंडीवाले पलाश के फूल जब खिलते हैं तब इसके पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं रहता। हर शाख फूलों से लदी जैसे जंगल में आग लग गई हो।”
पत्तलों पर गरम-गरम सुनहरी सिंकी पूड़ियाँ, आलू-मटर की भुनी हुई सब्जी, आम का अचार और दोने में खीर परोसी गई। रागिनी को ऐसा खाना खाए जमाना गुजर गया। जब दीना थी तो अक्सर ब्रेकफास्ट में यह सब बनवाती थी। उसे दीना की शिद्दत से याद आई जिसने सिर्फ उसकी खातिर इस भारत की धरती पर दुबारा कदम नहीं रखा।
रागिनी कुछ विदेशी छायाकारों के साथ संगम के शाही स्नान का नजारा अपने कैमरे में कैद कर रही थी। गंगा की लहरों पर सिर ही सिर दिखाई देते थे या फिर उथले पानी में कमर-कमर तक डूबे नागा साधु जो जुलूस की शक्ल में हाथी, घोड़ों, रथों, पालकियों सहित पधारे थे। कैसे-कैसे तो नाम हैं इन साधु संन्यासियों, बैरागियों और इनके मतों के। महानिर्वाणी, निरंजनी, जूना निर्वाणी, दिगंबर, निर्मोही, नया पंचायती, बड़ा पंचायती... ओह, बहुत उलझा हुआ... विस्तृत है सब कुछ। अपार और रोमांचक। रागिनी अभिभूत-सी तट के पश्चिमी घाट पर खड़ी थी। उसने देखा एक नागा साधू अपना त्रिशूल लेकर उस जापानी छायाकार के ऊपर झपटा जो सुबह से उसके साथ ही है। वह बचाने को दौड़ी। तभी और भी कई लोगों ने उनका त्रिशूल पकड़ लिया-”बाबा, क्षमा करें।” नागा लाल-लाल आँखों से घूरने लगा-”हमने मना किया न, कि हमारी फोटो मत लो... धर्म-कर्म में रूकावट डालते हो?”
जापानी थर-थर काँप रहा था। लोगों की क्षमा प्रार्थना से वह नागा लौट तो गया गंगा की ओर लेकिन क्रोध से उसके नथुने फड़कने लगे थे। रागिनी जापानी युवक के साथ कुंभनगर में टहल रही थी जो कुछ ही घंटों में अपने मोहक स्वभाव के कारण उसका दोस्त बन गया था। रागिनी की तरह वह भी आश्चर्यचकित था कुंभनगर के अलौकिक परिवेश से। करोड़ों की भीड़ ने दोनों को ही आश्चर्य में डाल दिया था। रागिनी जहाँ का भी रुख करती कुसुमाकरजी वहीं प्रगट हो जाते... इतनी निष्ठा से वे रागिनी के अंगरक्षक की भूमिका निभा रहे थे कि रागिनी इस बात से भी चकित थी। यहाँ तो सारी घटनाएँ ही चकित कर डालने वाली थीं। कड़ाके की सर्दीं को अंगूठा दिखाते श्रद्धालुओं के लिए गंगा का पवित्र जल मानो गरम पानी का कुंड बन गया था। आखिर क्यों ये सब मौनी अमावस्या के ही दिन डुबकी लगाने को बेताब हैं। क्या कोई वैज्ञानिक तर्क है इसका? कुसुमाकरजी ने बताया -
“मैडम, ऐसी मान्यता है कि मौनी अमावस्या के दिन का यह महास्नान उनके लिए स्वर्ग के दरवाजे खोल देता है, वे मोक्ष प्राप्त कर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।”
“क्या आप भी पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं?”
“करना न करना हमारे वश में कहाँ, धर्म तो यही कहता है न।”
“पर आपका अपना कोई तर्क नहीं?”
“मैडम, मर कर ही पता पड़ेगा यह रहस्य? इस पर तर्क करना बेकार है... अगर हम धार्मिक हैं तो हमें आँख मूँदकर विश्वास कर लेना चाहिए।”
कुसुमाकरजी ठीक कहते हैं। धर्म पर आस्था है तभी तो करोड़ों लोगों को चुंबक की तरह खींच लाई है यहाँ... । वह भी तो आई है इसी विश्वास के बल पर सब कुछ अपनी आँखों से साक्षात देखने... । समुद्रों, पर्वतों को लाँघकर आया विदेशी सैलानियों का हुजूम भी हूबहू भारतीयों जैसा ही माथे पर तिलक भभूत लगाए, रूद्राक्ष की माला पहने इस भीड़ में शामिल है तो क्या मात्र दिखावे के लिए? नामुमकिन। यह दिखावा नहीं है... यह सदियों से पल रही आस्था है। सरस्वती इतने वर्ष पहले गायब हो गई कि भूगर्भ वैज्ञानिकों को उसके मार्ग की खोज करने के लिए जीवाश्म और सेटेलाइट इमेजरी का अध्ययन करना पड़ा। न ही उसका विलोप होना इतना निकट है कि उसके अस्तित्व को तलाशा जा सके। लेकिन वैदिक ऋचाओं में देवलोक की इन तीनों नदियों के स्वर्गिक संगम का महिमागान मौजूद है। गंगा अपनी सुनहरी लहरों के रूप में, यमुना काली लहरों के रूप में और सरस्वती धवल क्षीर धार सहित जब एक-दूसरे के आलिंगन में समाती हैं तो मानों स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। यह विश्वास ईसा से तीन हजार साल पहले से मौजूद है। विद्यार्थी जीवन में रागिनी ने हर तर्क को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखा और उत्तर पाया है लेकिन इस महान आस्था का कोई उत्तर नहीं है उसके पास। माइकेल जैक्सन और मेडोना के शो में लाइट और साउंड के आधुनिकतम उपकरण सजाकर भी कभी इतनी भीड़ नहीं बटोर पाए प्रायोजक।... गाँव, देहात से सिर पर गठरी रखे लोग उमड़े पड़ रहे हैं... । हर वर्ग का आदमी बस एक बार गंगा में डुबकी लगाने की इच्छा के लिए चला आ रहा है। दो-दो, तीन-तीन महीने के शिशुओं तक को सर्द पानी में डुबकियाँ लगवा रहे हैं ये लोग। ओह! रागिनी के रोंगटे खड़े हो गए। जापानी खटाखट हर क्रियाकलाप की तस्वीर खींच रहा था।
“देखिए मैडम, कितना शानदार दृश्य है... साथ ही इस मघई पान के बीड़े का भी आनंद उठाइए।” कुसुमाकरजी ने अपनी चाँदी की डिब्बी में से दो बीड़े निकालकर दोनों की ओर बढ़ाए।
पान चबाते हुए रागिनी ने संगम के पूर्वी घाट पर मौजूद साधु, संन्यासियों और नागा बाबाओं के अखाड़े देखे। चमक-दमक, साज-सज्जा और दिखावे में एक-दूसरे से होड़ लेते इन अखाड़ों के गेट किले या महल के गेट जैसे शानदार थे। नामी गिरामी अखाड़ों के आगे तो कारों, जीपों की लाइन लगी थी। कार में भगवा केसरिया परदे लगे थे और यह सारी व्यवस्था उन निरासक्त, बैरागी, नंग-धड़ंग साधुओं के लिए उनके चेले-चपाड़ों द्वारा की गई थी जिन्होंने अपनी कामेच्छा पर विजय पा ली थी। रागिनी और जापानी युवक अखाड़े का नजारा देखकर ठिठक से गए। कुछ नागा साधु अधलेटे चिलम फूँक रहे थे। उन्होंने दोनों को इशारे से बुलाया-”कहाँ से आए हो?”
“मैडम लंदन से आई हैं, रागिनी नाम है इनका।” कुसुमाकरजी ने बताया तो साधु ने आँखों ही आँखों में उन्हें इस अंदाज में झड़पा कि हम आपसे पूछ रहे हैं क्या? कुसुमाकरजी झेंपते हुए एक ओर चले गए। जापानी आगे बढ़ा-”बाबा, मैं जापान से आया हूँ।”
दोनों के पैर छूकर वहीं पास में बैठ गए। साधु ने रागिनी से कहा-”चिलम पियोगी? लो, एक सुट्टा मारो और हमारे पैर दबाओ।”
रागिनी ने साधु की ही चिलम से सुट्टा मारा। पैर छूने और पैर दबाने की यह परंपरा जब से वह कुंभनगर आई है देख रही है। उसे अटपटा नहीं लगा और वह साधु के पैर दबाने लगी। काले आबनूस से चमकते पैर... शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं... । रागिनी के कोमल हाथों के जिस स्पर्श से सैम बेकाबू हो उठता था और उसे दबोच लेता था वही स्पर्श साधु में कोई उत्तेजना न जगा सका। सचमुच ये विदेह हैं... इन्हें देह का ज्ञान नहीं।
साधु उठकर बैठ गया। पीठ पर बिखरी अपनी जटाओं को समेट कर सिर पर बांधते हुए बोला-”लो, पीठ भी मल दो।”
मौका देखकर जापानी ने हिम्मत की-”बाबा, मैडम के साथ आपका एक फोटो खींच लेने दीजिए न।”
साधु ने अलमस्त हो आसमान की ओर निगाहें उठाईं-”खींच लो, खींच लो।” यह शरीर तो मिट्टी में मिलना ही है। तुम्हारा कैमरा हमारी आत्मा की फोटो तो खींच नहीं सकता और आत्मा का उद्धार होता है इच्छाओं के त्याग से -
गंगा के नहाए से कौन नर तर गए,
मीनहु न तरी जाको, जल ही में वास है।
रागिनी भावविहवल हो साधु के चरणों पर गिर पड़ी। मन ही मन कहने लगी-”मुझे शांति चाहिए बाबा।”
नागा साधु ने उसके सिर पर हाथ फेरा-”उठो, अपनी इच्छाओं का त्याग करो पहले।”
रागिनी देर तक उनके पास बैठी रही। क्या बाबा मन की बात ताड़ गए? क्या ये संभव है? लेकिन कैसे? कैसे ये निरासक्त साधु मेरे मन की गहराइयों में उतर गया? रागिनी नतमस्तक थी।
तड़के ही रागिनी की आँख खुल गई। तंबू के गेट से बाहर झाँकते ही वह विस्मित रह गई। त्रिवेणी की लहरों पर हजारों की तादाद में पक्षी अपने पंख फड़फड़ाकर विचरण कर रहे थे। कोहरे की चादर जमीन-आसमान एक किए थी लेकिन कुंभनगर की रोशनियों ने कोहरे की धुँधलाहट कम कर दी थी। रागिनी त्रिवेणी की ओर अपना कैमरा लेकर तेजी से चल दी। मेलार्ड और सुर्खाब पक्षियों के झुंड उसके कैमरे में कैद होते चले गए। सामने ही सुचेता थी-”गुडमॉर्निंग रागिनी, तुम भी जल्दी उठ जाती हो?”
“नहीं, ये तो कुंभनगर में हूँ, इसलिए, यहाँ कोई देर तक सो सकता है?”
“कितनी ठंडी हवा है? तुम्हें ठंड नहीं लग रही?”
रागिनी मुस्कुराई और पुलोवर, शॉल, कानटोपा से गरमाए अपने बदन को अंदर ही अंदर महसूस करते हुए उसने पूर्व दिशा की ओर देखा। सूर्य की किरणें कोहरे को चीरने की कोशिश कर रही थीं। वह हिमपात और बारिश की आदी थी। लंदन में हफ्तों सूर्य के दर्शन नहीं होते हैं। लेकिन यहाँ भोर का मतलब की सूर्य दर्शन है। तभी उसकी निगाह त्रिवेणी जल में कमर-कमर तक डूबी औरतों, मर्दों पर गई। वे हाथों की अंजली बना सूर्य को अर्घ्य चढ़ा रहे थे। रागिनी मंत्रमुग्ध-सी देखती रही। इस विहंगम दृश्य ने उसकी नस-नस को झंकृत कर नशा-सा बहा दिया उनमें। कोहरीली हवा ने उसकी सांस के साथ दिल में प्रवेश कर एक संगीत-सा उत्पन्न कर दिया। वह एकदम सन्न रह गई। यह किस रस में डूबा जा रहा है उसका दिल? यही है क्या आध्यात्म का रस? यही है उस कुंभ से छलका अमृत जो समुद्र-मंथन से निकला था? सहसा हवा की लहरियों में बांसुरी की लय ने मिश्री घोल दी। गंगा के तट के रेत पर अलाव जलाए तीन चार ग्रामवासी बाँसुरी की धुन पर कोई भजन गा रहे थे। वह खिंची हुई-सी उनके नजदीक जाकर बैठ गई। सुचेता भी आ बैठी। वे धोती, कुरता, स्वेटर, कंबल, मफलर से लैस आँखें बंद किए अपूर्व सुख में बैठे थे। रागिनी ने जयदेव के गीत-गोविंद को पढ़ा था और उसके बाद उसकी आँखों की नींद उड़ गई थी। उसका अंतःकरण प्रेम के वशीभूत हो अपने सैम के प्रति उलचा पड़ रहा था। वह कॉलेज का जमाना था जब वह सैम के प्रेम में डूबी हुई थी। जयदेव ने इस प्रेम को परवान पर चढ़ाया था। शब्दों की कैसी अपार महिमा थी... राधा के विरह में, कृष्ण उसकी सखी से कहते हैं... “जाओ, राधेरानी से कहो कि मैं कब तक उनके विरह की पीड़ा सहूँ?”
मंत्रमुग्ध हो सखी राधा के नजदीक जाकर रो पड़ी थी-”राधेरानी, कृष्ण तुम्हारे लिए व्याकुल हैं। चंदन की सुगंध लिपटी हवाएँ उन्हें विवश किए डाल रही हैं। जब कलियाँ हँसती हैं तो वनमाली का हृदय तड़प उठता है। जब चाँद की किरणें धरती को रजत बनाती हैं तब वे प्रेमबाणों से घायल हो मछली-सा तड़पते हैं। भौरों की गुनगुन सुन वे घबराकर कानों को मूंद लेते हैं। वे राधे-राधे का जाप करते जंगल में तपस्वी के समान आसन जमाए बैठे हैं... जाओ राधेरानी, हरि के विरही मन पर कोमल करों से प्रेम का मलहम लगाओ।”
हफ्तों जयदेव की कलम का नशा चढ़ा रहा था रागिनी पर। उसे लगता जैसे वह बस कृष्ण को ही देख रही है और कुछ दिखाई नहीं देता। ममा ने भी पापा को जयदेव के गीत गाकर सुनाए होंगे... । दोनों ने मिलकर बाँसुरी बजाई होगी। ऐसी ही बांसुरी... मंत्रमुग्ध करती-सी... । भजन खत्म हो चुका था। ग्रामीण उसे अपने पास बैठा पा दंग थे। वह हँसने लगी। उसने उनके हाथ से बांसुरी ले उलट पुलट कर देखा-”मैं बजाऊँ?”
ग्रामीणों ने स्वीकृति में सिर हिलाया। उसने बहुत कोशिश की लेकिन बाँसुरी नहीं बजी। फूँक-फूँक कर वह थक गई। ग्रामीण उसे मुँह फाड़े देखते रह गए। तभी कुसुमाकर जी उसे ढूँढ़ते हुए आए-”अरे मैडम आप इधर बैठी हैं? चलिए गंगा की सैर के लिए नौका तैयार है।”
रागिनी ने सुचेता की ओर देखा। सुचेता समझ गई-”नहीं तुम सैर कर आओ रागिनी... मैं तो अभी तैयार भी नहीं हूँ। तंबू में भी सब सो रहे होंगे।”
नौका पर पहले से ही पद्माजी, सुलेखा और सौदामिनी बैठी थीं। बाँस की दो टोकरियों में गरमागरम जलेबियाँ और कचौड़ी पत्तलों से ढँकी रखी थीं। थरमस में कॉफी। रागिनी देख रही थी कि कुसुमाकरजी शिकायत का मौका ही नहीं देते।
जब रागिनी की नौका तट से आ लगी तब दूर आम-जामुनों के पीछे सूरज अस्त हो रहा था। पद्माजी लंबी उबासी लेते हुए डगमगाती नौका से तट पर उतरीं-”मैं तो आराम करूँगी अब।”
“हाँ थक गई हो तुम पद्मा... आराम ही करो जाकर। सुलेखा... मम्मी को दवाइयाँ खिलाकर चाय पिला देना।” कुसुमाकरजी ने हिदायत दी और अपनी हर बात की सफाई देते हुए रागिनी से बोले “आराम में पली बढ़ी हैं इसीलिए हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज के तोते पाल रखे हैं... इतना घूम लीं तो समझो बहुत हुआ... अब कल तो ये हिलेंगी ही नहीं बिस्तर से।”
रागिनी भी अपने तंबू की ओर फ्रेश होने के लिए लौट गई।
विशाखा, दीपा, सुरेंद्र, सुचेता और कुसुमाकरजी का दल शाम ढलते ही रागिनी को लेकर “चलो रे मन गंगा यमुना तीरे' बैनर तले होने वाले संगीत के भव्य कार्यक्रम को देखने के लिए चल पड़ा। लाखों की भीड़ में रास्ता बनाती सुचेता रागिनी का हाथ पकड़े थी जो बर्फ-सा ठंडा था। सुचेता के हाथों की गर्मी ने रागिनी की हथेलियों की बर्फ पिघला दी। पिघला हुआ बर्फ प्रेम और नजदीकी के एहसास को लिए धार बन बह चला और उस धार में संगीत की धारा ऐसी तिरोहित हो बह चली मानो आकाश से एक और गंगा उतर आई हो। शहनाई की धुन पर खड़ा हुआ जनसमूह आँखें मूँदे झूम रहा था। “ये उस्ताद फतह अली खाँ हैं... मशहूर शहनाई वादक।” कुसुमाकरजी ने रागिनी के नजदीक आकर कहा।
रागिनी को इंतजार था अनूप जलोटा की गजलों का... पर उसने भजन सुनाए जो रागिनी के दिल में उतर गए। वह भी दाएँ-बाएँ झूम झूम कर भजन के सुर में सुर मिलाने लगी। एक से बढ़कर एक कलाकार हुसैन बंधु, हरिप्रसाद चौरसिया, तिज्जन बाई द्वारा प्रस्तुत कला की बानगियों ने कुंभनगर को संगीत सरिता में आकंठ डुबो दिया। फिर आए लोककलाकार जिनके लोकनृत्यों से रागिनी को भारत की लोककला की जानकारी मिली। वैसे इन सब कलाओं का ज्ञान उसे दीना और मुनमुन बुआ से पहले ही मिल चुका था। वह भारत की हर कला से इतनी परिचित हो चुकी थी कि किसी से पूछने के लिए कुछ बचा ही नहीं था इसीलिए तो जब वह संगीत की धार में बही जा रही थी तब इकतारा बजाते अपने पापा चंडीदास को वह साक्षात देख रही थी, हारमोनियम बजाती अपनी ममा को साक्षात देख रही थी। उसे लग रहा था जैसे दोनों उसके आसपास ही हों। यह खड़ा हुआ जनसमूह क्या जाने कि इस संगीत से रागिनी का क्या नाता है... कि वह ममा के गीतों की राग है तभी तो पापा ने उसके जन्म के पहले ही उनका नाम रख दिया था “रागिनी'।
संगीत-संध्या की समाप्ति के बाद रागिनी ने अपने दल सहित डिनर लिया और तंबू में आकर बिना कपड़े बदले ही बिस्तर पर ढेर हो गई। सुबह की जागी रागिनी की बोझिल पलकों को जब गहरी नींद ने चूमा, तंबू घने कोहरे में गुम हो गया था।
सुबह कुल्हड़ में चाय पीते हुए रागिनी ने सुचेता और दीपा से कहा-”मुझे कुंभ की जानकारी के लिए कुछ पुस्तकें खरीदनी हैं... चलोगी मेरे साथ?”
“आज तो पूर्णिमा है, विशेष स्नान है आज तो हम लोग बस निकल ही रहे हैं संगम के लिए तुम चली जाओ स्टॉल तक। वहाँ सब तरह की किताबें मिलेंगी तुम्हें।”
“मैडम चिंता क्यों करती हैं... आप आराम कीजिए, किताबें हम ला देते हैं।” कुसुमाकरजी अपने अंगरक्षक की भूमिका में मौजूद थे। उन्हें जैसे रागिनी के हर पल का हिसाब देना हो चौमालजी को।
“नहीं कुसुमाकरजी, मैं यहाँ आराम करने नहीं आई हूँ। आप चाहें तो बुक स्टॉल तक मेरे साथ चलें।”
कुसुमाकरजी ने रागिनी को पान के बीड़े पेश किए।
“सुबह, सुबह?”
“खाइए न... ये तो मगही पान है, मुंह में जाते ही घुल जाता है।”
स्टॉल पर अधिकतर विदेशी पर्यटकों की भीड़ थी। जो रागिनी की तरह ही भारत दर्शन की इच्छा से यहाँ आए थे। ऐसे ही डेनिश से आए पर्यटक एन्टर्स से रागिनी की मुलाकात पुस्तकें खरीदने के दौरान हुई। एन्टर्स साइकिल से विश्व भ्रमण करने निकला था और मकर संक्रांति का शाही स्नान देखने प्रयाग आया था। शाही स्नान से भी बढ़कर आकर्षण था एक सौ चवालीस वर्ष के बाद हो रहे इस महाकुंभ का जो पूरे चवालीस दिन में सम्पन्न होने वाला था और जिसके विशेष शाही स्नान के दिन थे पौष पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा का कल्पवास जिसमें व्रत और ध्यान किया जाता है, मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या, वसंत पंचमी और शिवरात्रि। आज पूर्णिमा का विशेष स्नान था जिसमें सुचेता, सुरेंद्र, दीपा, विशाखा विशेष रूप से हिस्सा ले रहे थे। गंगा में डुबकी लगाने से पहले वे चाय तक नहीं पिएँगे। सोचते हुए रागिनी का हाथ जिस किताब की ओर बढ़ा उसी ओर एन्टर्स का हाथ भी बढ़ा। दोनों ने एक साथ ही किताब पकड़ी और चौंक कर एक-दूसरे को देखा और फिर हँस पड़े।
“मैं लंदन से... रागिनी रोज ब्लेयर।”
एन्टर्स ने जिंदादिली से हाथ मिलाया।
“आप भी भारतीय आध्यात्म में इंटरेस्ट रखती हैं?”
“ऑफकोर्स... भारतीय आध्यात्म जितना रोचक है उतना किसी भी देश का आध्यात्म नहीं...। इसी को जानने परखने मैं भारत आया हूँ। मैं पैंतीस हजार किलोमीटर की यात्रा साईकिल से कर चुका हूँ। वृंदावन, मथुरा, सोमनाथ, द्वारिका, सारनाथ, बनारस के दर्शन कर अभिभूत हूँ। चमत्कार है यहाँ, यहाँ की हवाओं में मिट्टी के कण-कण में। आप जानती हैं जो गाय हमारा भोजन है वह गाय यहाँ पूजी जाती है।”
“हाँ, मैं जानती हूँ। मैंने गहन अध्ययन किया अपने रिसर्च वर्क के लिए... । कृष्ण पर रिसर्च की है मैंने जो आसान काम नहीं है। मैं कृष्ण से जुड़े स्थानों को भी देखना चाहती हूँ... खासकर वृंदावन... जो गाय और गोपालों की नगरी है। वहाँ राधाकृष्ण अभी भी महसूस किए जा सकते हैं। जयदेव, सूर ओर मीरा के कृष्ण।”
एन्टर्स ने थकान और सर्द हवा से निपटने के लिए कॉफी मंगवाई। रागिनी की निगाहें कुसुमाकरजी को तलाशने लगीं पर वे अदृश्य थे। कॉफी का कुल्हड़ रागिनी की ओर बढ़ाते हुए एन्टर्स बोला-”मैं पूरे भारत की साइकल से सैर करूँगा। मुझे भारत की इस विलक्षण, आध्यात्मिक एकता और सहिष्णुता का संदेश अपने देश भी ले जाना है।”
कॉफी खत्म कर उन्होंने कुल्हड़ टोकरी में डाला और स्टॉल से निकलकर रेतीले तट पर चहलकदमी करने लगे।
“आप बौद्ध धर्म से तो परिचित होंगी?”
“प्रभावित भी हूँ। मुझे मालूम है कल दलाई लामा आ रहे हैं। मैं उनसे मिलना चाहती हूँ।”
“तब तो आप दार्जिलिंग, सिक्किम, मेघालय की सैर भी कर आइए। बौद्ध धर्म वहाँ के मठों में अच्छे से समझने को मिलेगा।”
“यहाँ के दलित अपने को बौद्ध धर्मावलंबी कहते हैं।” कुसुमाकरजी अचानक दोनों के पीछे से बोले।
“अरे, आप तो चौंका देते हैं। पल में दृश्य, पल में अदृश्य।”
“यही तो हमारी खूबी है मैडम।”
तीनों साथ-साथ सारा दिन घूमते खाते-पीते... एक यादगार दिन को स्मृति में संजोए जब अपने अपने तंबू में लौटे तो शाम का झुटपुटा शुरू हो चुका था। रागिनी के तंबू के सामने विशाखा तेजी से टहल रही थी-”कहाँ थी रागिनी तुम... आज की रात तुम्हारे खाने, सोने की व्यवस्था सुचेता के तंबू में की गई है। पद्माजी को बता दिया है हमने। चलो, फ्रेश हो लो फटाफट।”
“अरे... हमें तो इस प्रोग्राम की जानकारी ही नहीं थी।”
“हाँ तो क्या हुआ, यह तो सरप्राइज प्रोग्राम है।”
रागिनी को विशाखा ने साड़ी पहनाई, माथे पर बड़ी-सी बिंदी लगाई-”कोई कहेगा तुम अंग्रेज हो? बिल्कुल बंगालिन दिख रही हो।”
मैं बंगालिन ही तो हूँ कहना चाहा रागिनी ने, पर कुछ बातें अनकही ही रहती हैं।
तंबू में सुचेता और दीपा माथे पर तिलक लगाए तपस्विनी-सी दिख रही थी। उनके चेहरे पर गंगास्नान का तेज छिटका पड़ा था। उन्होंने सामान सहेज लिया था और रागिनी को देखते ही चहकी थीं-”ओ माई गॉड, कितनी सुंदर लग रही हो रागिनी।”
क्यों इतनी आत्मीय हो तुम सब? क्या तुम जरा भी नहीं सोचतीं कि अंग्रेजों ने भारत को कितना तबाह किया है। तुम तीनों से तुम्हारा देश छुड़ा कर उन अनजान टापुओं में गिरमिटिया बनाकर भेजने वाले भी अंग्रेज ही थे। फिर भी तुम्हारे दिलों में उनके लिए दुश्मनी नहीं? आखिर किस मिट्टी की बनी हो तुम सब?
“बैठो न रागिनी, खड़ी क्यों हो?” सुचेता के कथन ने रागिनी को चौंका दिया... मन ही मन जिस सच्चाई को वह जी रही थी गनीमत है वह जुबां नहीं बनी वरना... ।
वह साड़ी में असुविधा-सी महसूस करते हुए खाट पर बैठ गई।
“रागिनी... कल हम सब अपने-अपने ठिकानों की ओर लौट जाएँगे... पता नहीं दुबाहरा मिलेंगे या नहीं... इसलिए आज की रात तुम्हारे साथ भरपूर जी लेना चाहते हैं।” सुचेता ने उसके नजदीक बैठते हुए कहा।
“हाँ... तुमने बताया था कि कल तुम जा रही हो।”
“ये दुनिया एक रंगमंच है और हम सब उस मंच पर अभिनय करने वाले चरित्र। नाटक खतम, चरित्र खतम।” सब हो-हो करके हँस पड़े दीपा के इस संवाद पर... ।
“यह संवाद यहाँ मौजू नहीं बैठता दीपा... जिंदगी एक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना... ।” विशाखा ने गीत की पंक्ति गाकर सुनाई।
“मैंने कल क्या होगा इसकी परवाह नहीं की पर किसी भी चीज के बिछुड़ जाने से डरती हूँ।”
“ए रागिनी... प्लीज, इतनी इमोशनल मत हो। हमें भी तो तुमसे लगाव हो गया है... पर इतने भर से जिंदगी कहाँ गुजरती है डार्लिंग। तुम मॉरीशस जरूर आना। भारत जैसा ही है मॉरीशस भी।”
“क्यों नहीं उसे भारतीयों ने ही तो बसाया है।” कहते हुए दीपा गर्व से भर उठी।
आसमान पूर्णमासी के चाँद से निखर उठा था। गंगा के रेतीले तट का कण-कण चाँदनी में हीरे की कनी-सा चमक रहा था। तंबू का परदा हटाकर रागिनी बाहर निकल आई। बाकी की औरतें खाने-पीने की व्यवस्था में जुट गई। सर्द हवा ने रागिनी के शरीर में झुरझुरी-सी पैदा कर दी। तंबू के बाहर कंबल बिछाकर सुरेंद्र बैठा था। वह रागिनी की पहले ही कई तस्वीरें ले चुका था लेकिन अब उसका मन था कि रोल की बची खुची तस्वीरों में भी वह रागिनी को ही कैद कर ले... । अंदर से आवाज आई कि “आओ रागिनी, सुरेंद्र खाना तैयार है।”
भुने हुए आलुओं पर काली मिर्च और नमक छिड़ककर सुरेंद्र ने रम निकाली... “आप लोग पिएँगी?”
“हम धर्म-कर्म करने आए हैं। संगम तट पर इसका निषेध है।”
“यह तो ठंड से बचने की दवा है... देखो, साधू लोग कैसे भाँग, चिलम में डूबे रहते हैं।” कहते हुए सुरेंद्र ने सबको एक-एक पैग रम का दिया और चीयर्स करते हुए बोला “भविष्य में हम फिर रागिनी, दीपा और विशाखा से मिलें इसी कामना के साथ।”
सबके ग्लास उस सर्द रात में जब आपस में टकराए तो आत्मीयता और प्रगाढ़ हो गई।
सुबह चाय नाश्ते से निपटकर तीनों ने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया... । वहीं से वे मॉरीशस और हॉलैंड के लिए फ्लाइट लेंगी। विशाखा बंबई से सूरीनाम... उसकी गाड़ी शाम को किसी वक्त है। तब तक वह इलाहाबाद घूमेगी। जाने से पहले सब एक-दूसरे के गले लगकर रो पड़ीं। ये आँसू इतने दिन साथ-साथ गुजारने से बढ़कर उस लगाव और आत्मीयता के थे जो केवल भारत की पावन धरती पर ही संभव है। वरना आज की चकाचौंध भरी दुनिया में कौन किसे पूछता है? कहाँ लंदन जैसा समृद्ध देश जो धनलिप्सा, साम्राज्य विस्तार, व्यापार, कल-कारखाने, मशीनें, उद्योग और तमाम भौतिक चीजों की चमक-दमक में खोया जिंदगी के सुखों को तलाशने की मृगमरीचिका में रेस का घोड़ा बना है और कहाँ गले-गले तक प्रेम सुख में डूबा भारत... ।
वे चली गईं और संगम की रेत पर अकेली खड़ी रह गई रागिनी।
तड़के सुबह रागिनी की आँख खुल गई। उसे अपने पर ताज्जुब हुआ कि इतनी सुबह उसकी आँख कैसे खुल जाती है यहाँ। यह क्या उन दिव्य मंत्रों का का प्रताप है जो कुंभनगर की हवाओं में रचे-बसे हैं और जिन्हें सुनकर आत्मा के अंदर हलचल मच जाती है वरना लंदन में तो ट्वायला की लाई बेड टी के बिना उसकी आँख ही नहीं खुलती है। लेकिन इसके लिए भी उसके पास तर्क थे। वह रात डेढ़ बजे तक अपनी रिसर्च पर ही काम करती रहती थी। कभी-कभी बरसती बूँदों की समरस लय में वह अपनी रिसर्च के महानायक कृष्ण की नगरी वृंदावन पहुँच जाती थी जहाँ के सघन वनों में एक लय से लगातार बरसता पानी फूल, पत्तों, वन-वीथिकाओ, पगडंडियों सहित इन्सान के लिबास के साथ-साथ मन को भी भिगो देता है। और तब उसे कृष्ण की बाँसुरी की मोहक आवाज सुनाई देती थी। बेबस, निरुपाय वह आहिस्ता से टेबल-लैंप बुझाकर नरम गुदगुदे बिस्तर में दुबक जाती थी। कृष्ण की बाँसुरी के क्या कहने, हृदय तक बिंधकर बेबस कर डालती है और ऐसा कई-कई बार महसूस किया है उसने। रागिनी तंबू से बाहर निकलकर नजारा दो-चार करने लगी। सँवलाई सुबह में चिड़ियों की चहचहाहट ने उसके अंदर ऊर्जा भर दी। आज तो दलाई लामा आने वाले हैं। वह झटपट तैयार हो त्रिवेणी संगम पर टहलने लगी। लोगों के हुजूम गंगा की लहरों में डुबकी लेने उमड़े पड़ रहे थे। दलाई लामा बौद्ध गुरुओं के साथ काँची कामकोटि के शंकराचार्य से मिलने आए हैं। पवित्र स्नान के बाद वे अन्य कई जगहों पर घूमते रहे। कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। रागिनी उनके पीछे-पीछे रही लेकिन लोगों की भीड़ के बीच वह एक झलक ही देख पाई उन्हें। संध्या होते ही त्रिवेणी की भव्य आरती के दौरान दलाई लामा को ऐन अपनी आँखों के सन्मुख पाकर वह मानो पलक झपकाना भूल गई।
भव्य व्यक्तित्व... चमत्कारिक दृष्टि... विश्व के कोने-कोने में बौद्ध धर्म से विश्व शांति स्थापित करने के अभियान में निकले दलाई लामा को उसने हाथ जोड़कर नमन किया। कितना विशाल है ये विश्व और उसमें बूंद-सी वह... । यह बूंद का एहसास ही चरम ज्ञान की प्राप्ति है। जिसने बूंद का महत्व समझ लिया उसे फिर सागर की गहराइयों को समझने की क्या जरूरत... बूंद-बूंद सहेजकर ही तो सागर की जलराशि अथाह हुई है।
“हो गए दर्शन?” कुसुमाकरजी मुँह में पान दबाए मुस्कुराते खड़े थे-”कलकत्ते से मुनमुन मैडम का फोन था कि वे आपको कई बार ट्राई कर चुकी हैं पर आपके फोन का स्विच ऑफ ही रहता है।”
हाँ... वह फोन का स्विच ऑफ ही रखती है क्योंकि वह नहीं चाहती कि महाकुंभ के दौरान वह जिन अनुभवों को बटोर रही है उसमें किसी भी प्रकार की रुकावट आए। उसे तो बार-बार कुसुमाकरजी का उसके पास बने रहना भी अच्छा नहीं लगता। इस वक्त भी वह एन्टर्स का इंतजार कर रही है जो अपनी साईकल के ब्रेक आदि चैक करवाने बड़ी देर से गया हुआ था।
“मैं कर लूँगी बुआ को फोन... अभी तो मैं हनुमान मंदिर जाना चाहती हूँ।”
“पद्मा भी चलेंगी... वे स्टॉल के पास हमारे इंतजार में खड़ी हैं। चलिए।”
“एन्टर्स को आ जाने दीजिए।”
अभी भीड़ में जगह बनाता एन्टर्स जब रागिनी के करीब आया तो उसके हाथों में आलू, प्याज की भजिया का बड़ा-सा दोना था। रागिनी हँसने लगी-”आप तो गोपाल दिख रहे हैं।”
“तुम वृंदावन जाने वाली हो न रागिनी इसीलिए तुम्हें सब ओर गोपाल दिख रहे हैं। अब तुम्हें चले ही जाना चाहिए वहाँ। वृंदावन की कुंज गलियों में, कुसुम सरोवर में, सूरदास की पारसौली, दानघाटी और गोवरधन पर्वत में यमुना किनारे कदम्ब वृक्षों पर बस कृष्ण ही कृष्ण बसे हैं... प्रेम ही प्रेम बसा है... अद्भुत... कल्पना से परे।”
रागिनी की आँखें दूर क्षितिज पर टिक गईं... काश! उसे भी इतना अधिक प्रेम मिल पाता, सच्चा और समर्पित... । लेकिन वह जिंदगी के मेले में ठगी गई, प्रेम करके भी प्रेम न पा सकी। उसका भोला, मासूम और दूसरों पर सहज विश्वास कर लेने वाला कोमल हृदय लहूलुहान है। स्वार्थ और लालच की भट्टी में धँसे सैम को वह अपना प्रेमी समझ लेने की भूल कर बैठी थी। वह हत्यारा निकला, प्रेम का हत्यारा।
“आपको तो हम मार्गदर्शिका देंगे मैडम। अकेले वृंदावन ही नहीं ब्रज संस्कृति में गुंथे कई गाँव है... आप वहाँ भी जाइएगा। दिल्ली हाइवे से मथुरा रोड पर कोसी गाँव है जहाँ से कृष्ण के गाँव नंदगाँव और राधाजी के गाँव बरसाने के लिए जाया जा सकता है। एक गाँव है बनचारी, जो कृष्णजी के बड़े भाई बनचारी यानी बलराम का गाँव है। यह ब्रजमण्डल के विश्वप्रसिद्ध हरियाणवी लोक गायकों का गाँव है।”
“वाह, कुसुमाकरजी... आप तो अच्छी खासी जानकारी रखते हैं।”
कुसुमाकरजी मुस्कुराए। साँझ की अंगड़ाई पश्चिम दिशा को नशीला किए दे रही थी। पद्माजी बेचैनी से इंतजार कर रही थीं।
“भाई-सा... कितनी देर कर दी?”
“सॉरी पद्माजी, आपको इंतजार करना पड़ा।” रागिनी ने पद्माजी के दोनों हाथ पकड़कर कहा-”और वो दोनों कहाँ है?”
“दोनों लड़कियाँ दोपहर से ही गायब हैं।”
पद्माजी के कहने पर सब हँस पड़े। जाड़ों की सर्द रात चुपके-चुपके पाँव बढ़ा रही थी। संगम तट से किले तक की दूरी तय करते हुए वे मंदिर के द्वार तक पहुँचे। भीड़ थी पर रागिनी के लिए खास इंतजाम था। मंदिर में प्रवेश करते ही हनुमानजी की शयनावस्था में मूर्ति देख रागिनी चकित रह गई। साथ ही उसके मन में यह सवाल उठा कि इस तरह की मूर्ति क्यों बनाई गई? लेकिन इतनी भीड़ में उसकी शंका का समाधान करे कौन? एन्टर्स और रागिनी दो विदेशियों से दक्षिणा ऐंठने के चक्कर में एक पंडित-सा दिखता व्यक्ति उनके पीछे लग गया... “आप तो विदेशी लगते हैं?”
“क्या आप बता सकते हैं हनुमानजी को लेटाया क्यों गया है?”
“हाँ... हाँ... हम अभी कथा सुनाए देते हैं... बहुत पुरानी बात है बाबर... अकबर के जमाने की। जहाँ अभी ये मंदिर है न, वहाँ बाघंबरी बाबा रहते थे। उनके साथ एक जिंदा चलता... फिरता... जंगल का भयानक बाघ एकदम पालतू कुत्ते की तरह रहता था। बाबा हमेशा बाघ की खाल ओढ़ते और बाघ की खाल को ही बिछाते थे। एक दिन वे समाधि में बैठे थे। तभी उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि यहाँ जमीन के अंदर हनुमानजी हैं। दूसरे दिन उस जगह की खुदाई शुरू हो गई। लेकिन जैसे-जैसे मजदूर खोदते जाते थे हनुमानजी की मूर्ति नीचे धँसती जाती थी। उन्होंने मूर्ति को खड़ा करने की बहुत कोशिश की पर सब बेकार। विश्राम जो करना था उन्हें... बाबा ने खुदाई बंद कराके उनकी लेटी हुई अवस्था में ही प्राण प्रतिष्ठा कराके पूजा-अर्चना शुरू कर दी।”
“प्राणप्रतिष्ठा? मतलब?”
“मूर्ति में श्लोकों से प्राण डाले जाते हैं। जाग्रत किया जाता है उसे... । जाग्रत हनुमानजी हैं ये। माँग लो जो माँगना हो, सब इच्छा पूरी हो जाती है।”
एन्टर्स और रागिनी हक्का-बक्का थे... मूर्ति में प्राण... । भगवान की मूर्ति में भी प्राण डालने की कला आती है भारतीयों को... अविश्वसनीय... विश्वास नहीं होता। रागिनी धीरे-धीरे मूर्ति की ओर गई... झुकी... मूर्ति को छुआ उसने... एक सर्द भीगी हवा की लहर ने उसके कानों के पीछे दबी बालों की लट को हटाकर गालों पर लहरा दिया... लहर गई रागिनी... पुजारी ने उसके सिर पर हाथ रखा-”आयुष्मती भव! उठो बेटी... हमारी दक्षिणा जो श्रद्धा हो उतनी दे दो। हनुमानजी सब विध्न बाधाओं को हर लेंगे।”
रागिनी की आँखें मुँद गईं। विध्न बाधा कैसी? वह तो समस्त विघ्न बाधाओं को कब का पार कर चुकी है। अब तो बस उसे खोजना है... प्रेम तलाशना है। सृष्टि के जर्रे-जर्रे से और उसका पहला सोपान है भारत। यहाँ की मिट्टी प्रेम से ही निर्मित है। प्रेम और करिश्में। जैसे मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा, जैसे अगस्त के आसपास जंगलों से भयानक नागों को पकड़ कर पिटारी में बंद कर घर-घर घूमते और बीन बजाकर नागों के फनों की पूजा कराते, दूध पिलाते संपेरे... । जैसे इंसान पर आती देवी या भूत प्रेत... । सब कुछ कितना अद्भुत... कितना कौतूहलपूर्ण। मुनमुन बुआ कहती हैं कि बंगाल का काला जादू प्रसिद्ध है। बंगालिनों के लंबे केश और कमल पँखुड़ी-सी लंबी-लंबी पलकों में कुछ ऐसा जादू है कि आदमी बँधकर रह जाता है।
मंदिर से बाहर निकलते ही पद्माजी ने रागिनी का मिंक कोट उसकी ओर बढ़ाया-”पहन लीजिए मैडम, ठंड बढ़ गई है।”
रागिनी इस बात से भी अभिभूत है... बिना किसी रिश्ते नाते के एक अजनबी की इतनी देखभाल?
त्रिवेणी के तट पर भगदड़ मची थी। पुलिस किसी विदेशी लड़की को घेर कर ले जा रही थी। रागिनी एन्टर्स के साथ संगम तट पर चहलकदमी कर रही थी। पद्माजी और कुसुमाकरजी कल रागिनी के कलकत्ता लौट जाने की टिकट कन्फर्म करने और इलाहाबाद से खरीदारी करके लाने वाली चीजों की मुनमुन द्वारा दी गई लिस्ट लेकर बाजार गए थे। कल रात ही मुनमुन ने याद दिलाया था कि अकादमी के उद्घाटन की तारीख निकट है और वह दो दिन बाद कलकत्ता पहुँच जाए।
“याद है मुझे बुआ... आप चिंता न करें... मैं उद्घाटन के समय से पहले ही पहुँच जाऊँगी।”
“इतने दिन से कुंभ मेले में हो। बोर हो गई होगी तुम तो?”
“बोर? यहाँ तो बुआ एक-एक दिन स्मरणीय दिन होता जा रहा है।”
“स्मरणीय नहीं अविस्मरणीय... यानी न भुलाया जा सकने वाला। मैंने तो सोचा था तुम दो दिन में ही ऊब कर लौट आओगी।”
“आकर बताऊँगी बुआ सब कुछ... । तुम भी ताज्जुब करोगी।” मुनमुन हँसने लगी थी।
एन्टर्स का आज आखिरी दिन है कुंभनगर में। सुबह तड़के वह अपनी साईकल से बंगलोर चला जाएगा। तभी एक देहाती जोर से चिल्लाता हुआ भागा-”अरे, वो पूरी नंगी है।”
भीड़ में सरगरमी फैल चुकी थी। भगदड़, उत्तेजना और नंगी लड़की के दर्शन के लिए लोग टूटे पड़ रहे थे। वह विदेशी थी। सुंदर शरीर की मालिक, छरहरे गोरे बदन पर एक भी वस्त्र न था। उसने रेत मिट्टी से बालों को सानकर नागा साधुओं की तरह जटाएँ बना ली थीं। गले में शंख और कौड़ियों की ढेर सारी मालाएँ थीं। उसे नग्न देख भीड़ इकट्ठी हो गई थी और वह आश्चर्यचकित थी कि उसने ऐसा क्या कर दिया जो इतने लोग जमा हो गए। जब नागा साधु नग्न रह सकते हैं तो वह क्यों नहीं? लेकिन भीड़ को अपनी ओर आकर्षित पा वह जल्दी-जल्दी संगम तट की रेत उठा-उठाकर अपने उघड़े बदन को ढकने की कोशिश करने लगी। तभी पुलिस आ गई और उसे घेरकर ले गई। रागिनी ने लंबी साँस भर कर एन्टर्स की ओर देखा, वह सिगरेट सुलगा रहा था-”यह कल्चर का अंतर है। विदेशी और भारतीय कल्चर में बेचारी लड़की अपमानित हो गई।”
“लेकिन इसमें उसका क्या दोष? जब ये नागा साधु... ।”
रागिनी की बात अधूरी रह गई। एन्टर्स बीच में ही बोल पड़ा-”नागा साधु ही न... आम इंसान तो नंगा नहीं घूम रहा है। साधु होने के लिए कठोर जीवन जीते हैं ये, विषय वासना का त्याग करते हैं ये... ।”
“लेकिन इससे हासिल क्या होता है?”
चाँद आकाश में बिल्कुल निश्चल था। गंगा की लहरों पर उसका अक्स डूब उतरा रहा था।
“हम विषय वासना में लिप्त रहकर क्या हासिल करते हैं? जिंदगी में एक वक्त ऐसा आता है जब सब कुछ हाथ से निकल जाता है। हम छूँछ के छूँछ रह जाते हैं।”
एन्टर्स कहीं गहरे डूब गया। शायद कुछ याद करने की केशिश में बहुत कुछ कुरेदता चला जा रहा है अपने आप।
“तुम्हें जिंदगी मासूम और सीधी-सादी नहीं लगती? अगर तरीके से जी जाए।”
“तुम्हें तरीका आता है रागिनी? क्या तुम बता सकती हो तुमने कौन से तरीके से जिंदगी जी? क्या सब कुछ आसान ही रहा तुम्हारी जिंदगी में?”
चलते-चलते वे चाय के स्टॉल तक आ गए। खूब मीठी गाढ़ी चाय के कुल्हड़ से चाय की घूँट भरते हुए रागिनी ने उदासी से कहा-”मेरी जिंदगी बहुत एब्नॉर्मल रही, क्योंकि मेरे साथ वाकए ऐसे घटे।”
“सभी के साथ घटते हैं पर हमें अपने दुख-दर्द ही बड़े लगते हैं। हम इतने स्वार्थीं हैं कि दूसरों के दुख-दर्द सोचते ही नहीं।”
हो बोलो राम राम राम राम राम राम हरे हरे... हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे... .हो जपो राम... राम... । कीर्तन मंडली नाम उच्चारण करती पास से गुजरी।
“चलें अब? तुम्हारे कुसुमाकरजी नहीं लौटे अभी तक। बेहद रोचक इंसान हैं वे।” कहते हुए एन्टर्स ने होठों के बीच दबी सिगरेट को होठों में दबाए हुए ही कहा-”गुडबाय रागिनी... फिर मिलेंगे गर खुदा लाया।”
“आई विश... दुनिया इतनी बड़ी भी नहीं।” रागिनी ने धीमे से कहा।
“बड़ी तो है।” गहरी साँस भरते हुए एन्टर्स ने रागिनी को भर नजर देखा और अंतिम कश लेते हुए सिगरेट जूते से रेत पर रगड़ दी। बुझती तम्बाखू से कुछ चिंगारियाँ निकलीं और शून्य में विलीन हो गईं।