टेलीफ़ोन / शमशाद इलाही अंसारी

Gadya Kosh से
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सचिवालय स्थित एक दफ़्तर में भोजनावकाश के बाद एक केबिन में रखा टेलीफ़ोन लगातार बज रहा है,लंच की अवधि समाप्त हुए भी कोई एक घंटा बीत गया पर माथुर साब अभी तक अपनी कुर्सी पर नहीं आए थे। कुछ देर बाद अपने सह-कर्मियों के साथ बतियाते-पान चबाते माथुर साब अपने केबिन में दाखिल हुए। टेलीफ़ोन तब भी रह-रह कर बजता। भला सरकारी फ़ोन को कौन उठाए? झल्लाए माथुर साब ने कुर्सी पर बैठने से पहले एक मोटी सी ग़ाली देते हुए फ़ोन को पहले काटा और फ़िर रिसिवर को टेबिल पर पडी़ फ़ाईलों पर पटकते हुये कहा-"आजकल जनता को भी फ़ोन करने के अलावा कोई काम नहीं है, न खु़द काम करते हैं, न किसी को करने देते हैं"...

फिर रोज़ की तरह पौने पाँच पर माथुर साब घर के लिए रवाना हो गए।

घर की गली के नुक्कड़ वाले खोके से, दफ़्तर से लौटते हुए माथुर साब पान लेते थ।"पाण्डेय, पान लगा दिए"? माथुर साब ने खोके पर पहुँते ही सरकारी लहजे में पूछा। पाण्डेय, माथुर साब को देखते ही फ़फ़कते हुये रो पडा़। क्या हुआ, सब ठीक तो है? ठनके माथुर साब ने पूछा। "आप जल्दी से घर जाइए साब, सोनू की स्कूल से लौटते हुए कार से टक्कर हो गई, पूरे मौहल्ले वाले आपको फ़ोन कर कर के थक गए, पर आपसे बात ही न हो सकी... सोनू नहीं रहा साब..." पाण्डेय एक साँस में सारी बात कह गया।


मूल धारणा : १९९८ / रचनाकाल: १८.०९.२००९