टैगोर-नलिनी प्रेमकथा पर फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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टैगोर-नलिनी प्रेमकथा पर फिल्म
प्रकाशन तिथि : 05 जून 2018


प्रियंका चोपड़ा और फिल्मकार उज्ज्वल चटर्जी की फिल्म 'नलिनी' की शूटिंग शुरू होने जा रही है। फिल्म के प्रारंभ में एक पर्यटक शांति निकेतन में एक पेंटिंग देखता है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की बनाई पेंटिंग है। जब टैगोर 17 वर्ष के थे तब उन्हें बीस वर्षीय कन्या पढ़ाती थी। वह इंग्लैंड से शिक्षा लेकर आई थी और दोनों अंग्रेजी भाषा में बात करते थे। 17 वर्ष की वय में प्रेम के लिए मन उतावला हो जाता है। कन्या का नाम अन्नपूर्णा था और रवींद्रनाथ के आग्रह पर उसने अपना नाम 'नलिनी' कर लिया था।

रवींद्रनाथ ने नलिनी पर एक कविता लिखी थी और उसका चित्र भी बनाया था। जानकारी प्राप्त होते ही परिवार ने रवींद्रनाथ को वापस बुला लिया और यह कोमल प्रेम कहानी समाप्त हो गई। कुछ समय बाद नलिनी ने एक स्कॉटलैंड निवासी से विवाह किया। अपने पति के देश जाकर बस गई परंतु क्या वह अपने प्रथम प्रेम को भूल पाई? हर मनुष्य अपना लंबा समय स्मृति की जुगाली में व्यतीत करता है। इसीलिए प्रथम प्रेम को बहुत आभामंडित किया गया है। हमने तो अपने इतिहास को भी रोमेन्टेसाइज किया है।

रवींद्रनाथ के इस प्रेम प्रकरण से याद आता है कि राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर' में भी सोलह वर्षीय छात्र अपनी चौबीस वर्षीय शिक्षिका से प्रेम करने लगता है। यह वय उस लतिका की तरह है, जो निकटतम वृक्ष से लिपट जाती है। शिक्षिका का विवाह अपने प्रेमी से होने वाला है, जो सोलह वर्ष के छात्र का मन पढ़ लेता है और शिक्षिका उससे निवेदन करती है कि उस कमसिन वय के छात्र को वह समझाए कि ये उम्र नहीं है प्यार की। प्रेमी कहता है कि छात्र को कुछ नहीं कहा जाए, वह स्वयं ही समझ जाएगा। वह कहता है कि सोलह वर्ष की आयु पहाड़ी नदी की तरह होती है। यह वय रुकने वाली नहीं है, जो थम जाए, वह सोलहवां साल नहीं। आनंद बक्षी ने कमल हासन और रति अग्निहोत्री अभिनीत फिल्म 'एक दूजे के लिए' के लिए इसी भावना पर कमाल का गीत लिखा है- 'सोलह बरस की बाली उमर को सलाम।' दरअसल, यह उम्र अलसभोर की तरह है, जिसमें 'चम्पई अंधेरा और सुरमई उजाला' गलबहियां करता-सा नज़र आता है। यह स्वयं राज कपूर ने स्वीकार किया है कि उस नाजुक वय में उन्हें अपनी शिक्षिका से प्रेम हो गया था। उम्र का यह दौर इस कदर उनके मन में समाया था कि अपनी फिल्म 'बॉबी' के लिए उन्होंने लिखा था 'वे कहते हैं कि अभी उम्र नहीं है प्यार की, वे नादां हैं क्या जाने कली खिल चुकी प्यार की।' यह गीत फिल्म में शामिल नहीं किया गया। अनेक फिल्मकारों के अनेक गीत किसी न किसी कारण फिल्म में नहीं रखे गए हैं और हमारे उद्योग ने उन्हें सहेजकर भी नहीं रखा। इसी में शामिल है फिल्म 'संगम' का गीत 'कभी न कभी, कहीं न कहीं कोई आएगा, सोते भाग जगाएगा।' इसे रद्‌द करने का कारण यह था कि देव आनंद अभिनीत 'शराबी' में इससे मिलता-जुलता गीत आ चुका था।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कविताएं, कहानियां और 'गोरा' नामक उपन्यास लिखने के साथ सैकड़ों चित्र भी बनाए हैं। उन्होंने अपने गीतों का संगीत भी रचा है। रवींद्र संगीत हमारे संगीत का एक खजाना है। भारत में अमीर खुसरो, कबीर और टैगोर विलक्षण लोग हुए हैं। टैगोर के 'गोरा' में एक अंग्रेज बालक का पालन-पोषण एक हिंदुस्तानी परिवार में हुआ है और वह स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ जंग में शामिल होता है। ख्वाजा अहमद अब्बास के उपन्यास 'इन्कलाब' का भी 'गोरा' से कुछ साम्य है। कुछ वर्ष पूर्व पंकज कपूर अभिनीत फिल्म 'धरम' बनी थी, जिसमें दंगे के हालात में एक मुस्लिम बालक पंडित परिवार में पलता है। कालांतर में उसके माता-पिता उसे अपने घर ले जाते हैं। फिल्म के क्लाइमेक्स में पुन: दंगे भड़कते हैं और पंडित उस बालक की रक्षा करते हैं। चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास 'धरमपुत्र' पर बलदेवराज चोपड़ा ने इसी नाम से फिल्म भी बनाई थी। आज के दौर में राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए दंगे प्रायोजित भी किए जाते हैं। महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के चांसलर ने प्रायोजित दंगों का राज अपनी एक किताब में खोला है। इसे एक विज्ञान में बदल दिया गया है। पालन-पोषण से व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस विषय पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म राजकपूर की 'आवारा' है, जिसे अब नए सिरे से चीन में बनाया जाएगा। निर्माण चीन की सरकार कर रही है।

बहरहाल, प्रियंका चोपड़ा ने अपनी यह पटकथा विश्वभारती को बहुत पहले भेज दी थी और अब उन्हें वहां से इजाजत मिल गई है। रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं के सारे अधिकार विश्वभारती के पास हैं और उनकी इजाजत के बिना फिल्म नहीं बनाई जा सकती। ज्ञातव्य है कि 'नलिनी एक फूल का नाम है और फूलों में भी नर या मादा होते हैं। अभी तक कलाकारों का चयन नहीं हुआ है परंतु प्रक्रिया जोरों से चल रही है। कमसिन वय में टैगोर और नलिनी कैसे दिखते थे- इसका किसी को अनुमान नहीं है। फिल्म तो यकीन दिलाने की कला है।