टॉयलेट : प्रयोगशाला, वाचनालय और प्रेमालय भी है / जयप्रकाश चौकसे

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टॉयलेट : प्रयोगशाला, वाचनालय और प्रेमालय भी है
प्रकाशन तिथि :22 जून 2017


अक्षय कुमार अभिनीत 'टॉयलेट एक प्रेम-कथा' का प्रदर्शन होने जा रहा है। विगत वर्षों में अक्षय कुमार ने अपने फिल्म चयन में बड़ी सूझबूझ दिखाई है। उनके समकालीन सितारे एक वर्ष में अधिकतम दो फिल्मों में अभिनय करते हैं परंतु अक्षय कुमार कम से कम चार फिल्में करते हैं। इस तरह उनका मेहनताना शिखर सितारों के बराबर हो जाता है। वे एकमात्र सितारे हैं, जो रात दस बजे सो जाते हैं और प्रात: चार बजे उठकर व्यायाम व वॉक पर जाते हैं। सुबह दस बजे की शिफ्ट में नौ बजे ही मेकअप सहित तैयार हो जाते हैं। वे किसी भी निर्माता को पैंतीस दिन से अधिक का समय नहीं देते। अतिरिक्त दिनों के लिए अतिरिक्त मेहनताना देना पड़ता है गोयाकि फैक्ट्री नियम या मजदूर कानून की तर्ज पर काम करते हैं। ज्ञातव्य है कि कथा फिल्मों के प्रारंभिक दशक में तमाम स्टूडियो को फैक्ट्री ही कहा जाता था। चंदूलाल शाह ने स्टूडियो कहने का चलन प्रारंभ किया। संभवत: इसी कारण राम गोपाल वर्मा भी अपने दफ्तर को फैक्ट्री कहते रहे और उनकी फिल्मों में कथ्य व प्रस्तुतीकरण की समानता के कारण वे फैक्ट्री उत्पाद की तरह ही लगती हैं।

फिल्म बनाना कला है और स्टूडियो फैक्ट्री या कपड़ा मिल से अलग किस्म का कारोबार है। इसमें भावना का प्रस्तुतीकरण किया जाता है। अत: यह अस्पताल, कपड़ा मिल और फैक्ट्री से अलग किस्म का काम है। अगर जूता बनाने की मशीन 9 नंबर का जूता बनाने के लिए रची गई है तो वह मशीन आठ या दस नंबर का जूता नहीं बनाएगी। फिल्म निर्माण जूता निर्माण से अलग किस्म का काम है। घोर व्यावसायिक फॉर्मूला फिल्म में भी मानवीय करुणा का स्पर्श अवश्य ही होता है। शम्मी कपूर अभिनीत 'बंडलबाज' उबाऊ और असफल फिल्म थी परंतु उसके एक दृश्य में बोतल से निकले जिन्न को एक आम आदमी की तरह पहाड़ पर चढ़ना है और जिन्न ताकतें निरस्त कर दी गई हैं। अत: कुछ कदम चलकर वह कहता है, 'आज मालूम पड़ा कि आम आदमी का जीवन कितना कठिन है?' इस संवाद में कितना गहरा संदेश है। जिन्न की तरह सोचने वाली सरकारें क्या जानें, 'इंसा की मुसीबत क्या है?' बहरहाल, अक्षय कुमार की 'टॉयलेट' से याद आता है कि देव आनंद का बाथरूम अत्यंत बड़ा था, क्योंकि वे वहां स्नान के पूर्व योगाभ्यास करते थे। उनकी मान्यता थी कि एक सितारे को पूरी तरह सजधज करके ही अवाम के सामने आना चाहिए। उनका आदेश था कि नौकर सुबह की चाय का ट्रे उनके शयन-कक्ष के बाहर रखकर चला जाए। वे अपने नौकरों के सामने भी रात के अल्प कपड़ों में नज़र नहीं आना चाहते थे।

उन्होंने अपने मित्रों राज कपूर और दिलीप कुमार की दावतों में शिरकत की थी। अत: एक बार स्वयं दावत दी और उस भव्य दावत में सितारे व फिल्मकार शामिल हुए। दिलीप व राज ऐसे आयोजनों में एक-दूसरे से पश्तों में बात करते थे। दोनों का जन्म पेशावर में हुआ था। थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछा कि मेहमाननवाज़ देव आनंद नज़र नहीं आ रहे हैं। उन्हें बताया गया कि वे तो दस बजे ही सोने चले गए और मेहनमानवाजी की जिम्मेदारी अपने भाई और सेवकों को सौंप गए हैं। दोनों पठान सितारे भी ज़िद पर अड़ गए कि सुबह तक पिएंगे और देव आनंद के साथ सुबह नाश्ता करके ही घर लौटेंगे।

उस दौर के सितारे जमकर काम करते थे और दावतों में भी जोश-खरोश से शामिल होते थे। आज के सितारों का जोश केवल अपने बैंक बैलेंस में इजाफा करने तक ही रह गया है। इस दौर में देव आनंद की तरह अक्षय कुमार जल्दी सोते हैं और जमकर काम करते हैं। उन्हें कोई कालजयी फिल्म बनाने की इच्छा नहीं है। वे अावारा, गंगा-जमना या गाइड की तरह महान रचना करने के तलबगार नहीं हैं। अशोक कुमार भी अपने भव्य बाथरूम में बहुत समय बिताते थे। वहां वे पेंटिंग्स बनाते और होम्योपैथी की किताबें पढ़ते थे।

अनेक आम आदमी बाथरूम में अखबार पढ़ते हैं। पढ़ने की उत्सुकता से अधिक समय बचाने के लिए ऐसा करते हैं। यह आदत इतनी घातक हो जाती है कि अखबार विलम्ब से आने पर वे शौचालय भी विलम्ब से जाते हैं। इस तरह टॉयलेट वाचनालय भी हो जाता है, पेंटिंग करने का स्टूडियो भी हो जाता है।